शहंशाह आलम की कवितायें

शहंशाह आलम

 ‘ गर दादी की कोई खबर आये’, ‘इस समय की पटकथा’ सहित पांच कविता संग्रह प्रकाशित . ‘ मैंने साधा बाघ को’ कविता सग्रह शीघ्र प्राकाश्य.  बिहार प्रगतिशील लेखक के द्वारा ‘कवि कन्हैया सम्मान’ से समानित. :shahanshahalam01@gmail.com

घर वापसी
सहसा मेरा घर
कहीं खो गया है
कहीं गुम हो गया है
जो चीन्हा-पहचाना था
आपने देखा
आपने सुना…
मैं किस सूराख़ से झाँककर
अपने चीन्हे-पहचाने घर को
तलाशूँ
ढूंढूँ
जबकि इस बीते-अनबीते में
सबका घर है सदृश्य
बस मेरा ही घर खो-गुम गया है
जैसे गहरे पानी में
जैसे गहरे पाताल में
कब
कैसे
कहाँ होगी
मेरी घर वापसी
उन खोजी कुत्तों ने
शोध करना शुरू कर दिया है
सूँघना शुरू कर दिया है
मुस्तैदी से
अब जो भी तय करेंगे
अब जो भी फ़रमान जारी करेंगे
वे ही करेंगे
अब जो भी घर देंगे
अब जो भी धर्म देंगे
अब जो भी पहचान देंगे
अब जो भी रहन-सहन देंगे
वे ही देंगे
मेरी घर वापसी के एवज़ में

 बढ़ई
एक बढ़ई को पता नहीं होता
कि बढ़ई गिरी करते हुए वह
टूट-फूट चुकीं कितनी-कितनी दुनियाएँ
ठीक-दुरुस्त कर लेता है फलप्रद
जबकि आधी रात को वह अचानक उठता है
तो पाता है कि उसका घर अभाव के कोहरे में
कुछ ज़्यादा घिर गया है पिछली रातों की बनिस्पत
वही बढ़ई कितनों के घर चमकाता है
अपने हुनर से अपने कलाकार दिमाग़ से जबकि
वही बढ़ई नए दृश्य और बिम्ब और नए चित्र
सौंपता है लोककथाओं की राजकुमारियों को

वही बढ़ई अपने समय का सबसे बातूनी आदमी होता है
सबसे अधिक फ़िल्मी गाने सुननेवाला भी गानेवाला भी
यह भी सच है बढ़ई जब काम कर रहा होता है
तो पिता की तरह दिख रहा होता है बिलकुल पिता की तरह
जो बादलों पर बैठ चाँद को घर ले जाने की जुगत में लगे होते हैं
अपनी पत्नी के लिए अपने बच्चों के लिए
सच यह भी है बहुत सारी अधूरी इच्छाएँ
जैसे पिता पूरी नहीं कर पाते जीवन में
वैसे ही कई-कई बढ़ई भी अपनी अधूरी इच्छाएँ लिए
घिसते रहते हैं अपने औज़ार की तरह जीवन भर.

 एक बेघर की कविता

जिनके अपने घर नहीं होते वे नींद में चलते हुए अकसर
पहुँच जाते हैं किसी के भी घर का दरवाज़ा खटखटाने
उन्हें लगता है उनके सपनों से चुराकर बनाया गया है वह घर
जिसकी कुंडी पीट रहे होते हैं वे अपने हाथ से पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से
जैसे कि यह घर उसी का था और चुरा लिया गया था
उस घर के मालिक के द्वारा उसके समय के किसी हिस्से से
यह भी सच है हमारी कठिनाइयों हमारी परेशानियों के बीच
हमारी पसलियों से एक औरत तो बनाई गई ज़रूर
परन्तु हमारे माँस-मज्जे से एक घर नहीं बनाया गया
जोकि हमारे जीवन का पूरा यथार्थ था स्वार्थ से परे
इस पृथ्वी पर रहने-सहने के लिए बिंदास
यह भी सच है कि एक औरत भाग भी जाए
किसी प्रेमी के साथ
किसी दूसरे की घरवाले के साथ
या किसी औरत भगानेवाले के साथ
उनके बहकावे में आकर तो उस औरत को
वापस लाया जा सकता है समझा-बुझाकर
लेकिन कोई घर आपके जीवन से छूट जाए अचानक
अथवा लूट जाए तो उसे वापस लाना बेहद मुश्किल होता है
फिर किसी के पास सुंदर से सुंदर औरत हो
और आपके पास कम सुंदर औरत हो
तो उस अधिक सुंदर औरत का मरद आपको डाँटेगा नहीं
इस बात के लिए कि आपके पास कम सुंदर औरत क्यों है
लेकिन आपके पास आपका अपना घर नहीं है
तो वही औरत आपको डाँट पिलाएगी
या वही मरद आपको धिक्कारेगा इसके लिए
कि आपने उनके घर की तरफ़ देख भी कैसे लिया
जब आपके पास अपना घर नहीं है दिखाने के लिए
इसलिए कि आप दुर्बल हैं अगर आपके पास अपना घर नहीं है
और उनके लिए आप किसी भिखारी जैसे ही हैं
जो उनके घर को मैला करते रहते हैं बराबर आ-आकर.



 गठरी

मैं जो एक ठेठ देहाती हूँ इस चतुर समयका
एक गठरी लिए घूम रहा हूँ अनंत-अनंत दिनों से
अरे…अरे, आप तो शोक रखने लगे इस गठरी के लिए
जबकि मैं तो इस गठरी में उस बढ़ रही लड़की की हँसी लिए
मारा-मारा फिर रहा हूँ जो आपकी गली गई तो लौटी नहीं
वापस अपनी हँसी लेने के लिए अनुदिन की तरह
आपके मौन को नज़रअंदाज़ करते हुए हवा के साथ फुदकती हुई
क्या उसे अनागत मान आपकी गली के अँधेरे बलात्कारी ने
कोई अनादर कर दिया सारे अनुताप सारे पछतावे को भुलाकर
मैं किसी आशंका से घबराकर गठरी खोलता हूँ तो
उसमें एकदम सहेजकर रखी हँसी ग़ायब मिली
उस लड़की की जो कोंपल की तरह फुटने ही वाली थी
इसलिए कि यह एक बलात्कारियों से घिरा हुआ समय है
मैं उस लड़की की ताक़त से अँधेरे के बलात्कारी दानव को ढूँढ़ निकालूँगा
जिसे वह गली छिपाती रही है मुद्दतों-मुद्दतों से अपना फ़र्ज़ मानकर.
    
 कपास
जिस तरह घास की भरी-पूरी दुनिया रोज़ बनती है
वैसे ही कपास की झक-सफ़ेद दुनिया बनाई जा रही है
हवाओं को फिर-फिर जी उठाने के लिए
ऊर्जामय कपासी इस नगर में किसी महिन वस्त्र-सा
क्या कपास में भी है जीवन भरा हुआ
जो उड़ रही है रूई बनकर पेड़ से टूट-बिखरकर
धोखों से बने धोखों से ही भरे सपनों को
चुपचाप बादलों का रंग-रस देती हुई
अब तो बिछाया जा चुका है
मेरे लिए रूई का गलीचा नर्म-मुलायम
अब तो सजाया जा चुका है मेरे लिए
बर्फ़ की लपटों से लिपटा कपास का पेड़
आज जब हर वस्तु अशांत दिखाई दे रही है
असत्य सिर्फ़ असत्य को वहाँ-यहाँ भटकता हुआ देखकर
मेरे पास कोई चाक़ू नहीं है न कोई और तेज़ हथियार
बस इस कपास से भरे हुए समय में
मुहम्मद और बुद्ध के कहे-बोले-बुदबुदाए हुए कुछ मंत्र हैं
जिन्हें मैं बाँटना चाहता हूँ आप सबकी शून्यता में
आप सबके नाभि-केंद्र का गीत बनाते हुए।

 गूलर

मेरे ही प्रेम से
बँधा-बँधा दिखाई देता है
गूलर का पेड़ रहस्यमयी
जैसे कोई स्त्री बँधी होती है
किसी पुरुष से जादूगर
अपने वादों और क़समों के साथ
गूलर के पेड़ के जैसा है
मेरा प्रेम दिखता है रहस्यों से भरा
जाड़ा मास के दरवाज़े को
बन्द करता हुआ
जब तक गूलर का पेड़
अपने फूलों से बँधा है
मेरा प्रेम भी मुझ से ही बँधा रहेगा
मार्च के पत्तों के संग
पृथ्वी पर की विडंबनाओं को भगाते हुए
किसी ग़ैर दुनियादार आदमी के घर।