क्योंकि वह स्त्री थी

डा .कौशल पंवार

  युवा रचनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता ,  मोती लाल नेहरू कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय, में संस्कृत  की  असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संपर्क : 9999439709

ऐसा तो नहीं ही था कि उसके दिल पर किसी ने दस्तक ही न दी हो, पर अनु ने तो मानों पारिवारिक जिम्मेदारियों और अपने आप से भी लड़ने के लिए एक अभेद किला गढ लिया था,  जो मनु के धर्मशास्त्रों मे भी कहां व्याखियत हो पाया था! मनु द्वारा बताये उन किलों को तो रियासतों ने सत्ता लाभ पाने के लिए भेदा भी था, पर…………..पर अनु का ये किला तो उसकी भी सोच से परे था, कब ये उसके पूरे स्त्रीतत्व पर छा गया, उसे पता ही नहीं चल पाया. कितनी बार , कितनी आँखों में उसके लिए प्यार दिखा, इजहार हुआ, आज अनु को भी अपनी इन्द्रियों पर जोर ड़ालकर याद आ रहा है. जिस बेंच पर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में वह बैठा करती थी, उस पर दिलजलों ने कितनी बार अपने प्यार की इबारते लिखी थी, और वह कितनी बेदर्दी से उसे मिटा देती थी, आज उसे याद आ रहा था. कैसे अखबार में सुराख करके छुप-छुपकर उसे मनचली निगाहों से ताका जाता था और उसके देखे जाने पर, पकडे जाने पर कैसे वो आंखों नकारने का नाटक कर जाती थी, उसे याद आ रहा था. कितनों ने ही इस फ़िल्मी धुन को कहा ’कभी अंखियां मिलाऊं, कभी अंखियां चुराऊं, क्या तूने किया जादू’  पर..पर… अनु अपने उस किले मे किसी की दस्तक नहीं चाहती थी, बस वो तो आगे बढना चाहती थी, और आगे….. और आगे… इतना की, सदियों की गुलामी से वह बाहर आ जाये वह.

 सूखी हड़डियों से झांकते उसके पिता का चेहरा, जिसने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए ही अनु को इतना मजबूत बना दिया था कि उस अल्हड़पण में भी उन चाहतों की तपिश महसूसा न जा सके, उसके सामने हमेशा पहरेदार होता.  हमउम्र  लड़कियां जहां इस सुख को अपने दिल में बंद करके आंखों से बयाँ कर प्रेम की सीढियां चढ जाती थी और उस दौर से गुजरकर अपनी सखियों के साथ साझा किया करती थी, वहीं अनु कहां उनमें घुलमिल पाती !  धीरे धीरे सब उससे अलग होती गई- सुखी, सम्पन्न, सभ्रांत परिवारों से आयी लड़कियां  जहां हास्टल की जिन्दगी को एक सुनहरे पल के रुप में देखकर जीती थी, वहीं अनु की जिन्दगी उसी हास्टल की चाहरदिवारियों के बाहर फ़ैली झुग्गी में किराये पर ली गयी झुग्गी में बीत रही थी, जब भी वह झुग्गी की दिवार में टूटे हुए रास्ते को फ़ांदकर विश्वविद्यालय की कक्षा में  आती तो लड़के-लड़किया सीटी बजाकर, फ़ब्बतियां कसकर उसे वापिस जाने के लिए मजबूर करते रहते थे. इसके बावजूद अनु अपने पिता के चेहरे को हाथों में लेकर अपनी मंजिल की ओर बढती चली गयी थी.  समाज की जातीय जकड़न उसके हौंसले को कुचल नहीं पाये थे और आज वह इस मुकाम तक पहुंच पायी थी.  प्रकृति की उद्दाम लालसाएं उसके चट्टान जैसे मजबूत इरादों के आगे रास्ते बदलकर निकल गई थीं. उसने समाजिक परिवेश को समझने के लिए खूब अध्ययन किया था .



जाति का सवाल उसके सामने राक्षस की तरह खड़ा रहता था, जिसका सामना वह पल-पल कर रही थी, इसलिए उसने धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन और विमर्श किया. हकीकत क्या थी? वह बाबा साहेब के “जाति का उन्मूलन” का अध्ययन करने में उसे मिल गया था. इसलिए स्वभाविक रूप से उसमें ब्राह्मणों के प्रति एक घृणा पनप गयी थी, उस पर, उसके पिता  व उसके समाज के लोगों पर हुए अत्याचारों की जड़ को अब वह समझ गयी थी. यह घृणा कम होने का नाम नहीं ले रही थी,  क्योंकि दिनोदिन इसी जातिवादी मानसिकता का वह शिकार होती आ रही थी, एक कारण यह भी था कि वह पुरुष समाज से भी कट सी गयी थी, जहां लड़के उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढाते वहीं पर उससे ये पूछा जाना कि “तुम्हारा पूरा नाम क्या है ?” , उसमे घृणा को भर देता था. इसलिए वह कभी इसमे नहीं पड़ती.  हमेशा दूर दूर रही. ऐसा नहीं था कि यौवन की इस दहलीज में उसकी धड़कनों को किसी ने भी न छुआ हो पर इससे पहले कि कोई संबंध पनपता,  कि जाति का राक्षस उसके सामने आ जाता. उसकी जाति कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की चाहरदिवारियों के पीछे बनी झुग्गी में समायी हुई थी, जिसे सब छात्र-छात्रायें भंगी बस्ती के नाम से पुकारते थे.  उस झुग्गी वाली  जिन्दगी में “निर्मल अभियान” और स्वच्छ भारत अभियान कभी नहीं पहुंच पाया था. ऐसे में प्यार नाम किस चिडियां का है ? वह उसे हंस जैसी पत्रिकाओं में पढकर ही पता चल पाती थी.और ……….यह भी की यह केवल किताबों में पाया जाने वाला प्रेम है,

असल जिन्दगी में नहीं. प्रेम की परिभाषा को पढने और समझने में ही उसका वह यौवन बीत गया था और वह ……इसी विषय की थ्योरी को समझने में लगी रही- प्रैक्टटिकल का सामना जातीय जकड़न ने कभी नहीं होने दिया था…….! “कहां रहती है आप………” दिल फेंक अंदाज में पूछा था उसने.” यहीं पास में”…..संक्षिप्त सा जवाब दिया था अनु ने. अच्छा मुझे लगा कि तुम कहोगी……..आपके दिल में रहती हूं. बेबाकी व बेपरवाही से कहा था उसने……….बस यही शब्द थे,  जो शहद की तरह घुल गये थे अनु के रोम –रोम में. उन शब्दों में ऐसी रोमानियत थी कि अनु कभी इससे बाहर नहीं निकल पायी बल्कि यूं कहूं कि इससे निकलने की कभी इच्छा ही नहीं हुई उसकी, वह तो इसी में खोई रही. ऐसा होता भी क्यों न…..? आज तक रखे गये बंद दरवाजे में झरोखे सा आया था वह इन शब्दों को लेकर. कौन है वह? उसे ये तक नहीं पता था………..पर अनु भी कहां पूछ पायी थी किसी से ! मनो खो गयी वह इसमें. सावन में मोरों के नाचने की धूनन सा. आह! क्या सुकून था उन शब्दों को सुनने में. पर उनकी वास्तविकता…………….! उसने ये तक नहीं जानना चाहा. वह तो उसके दिल में नहीं रहती थी, पर वह शख्स उसकी दिल में बस गया था हमेशा हमेशा के लिए………वह अब ऐसे प्रेम में थी,  जिसकी कोई न बुनियाद थी और न हकीकत…….!



वह तो उन शब्दों के आगे यह भूल गयी थी कि एक विवाहित स्त्री के लिए पर पुरुष के बारे में सोचना भी घोर अपराध की श्रेणी में आता है. सारे धर्मशास्त्र, पुराणों के व्याख्यान – यही तो संदेश देते हैं. विवाह नामक संस्था उसी की घेराबंदी के लिए ही तो बनी थी, तभी न सिमोन दी बोउवार  कहती है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है.’ पर अनु का ये प्रेम इस सीमा में कहां बधने वाला था, और उसने इस प्रेम के अंकुर को मर्यादाओं का पालन करते हुए भी अपने मन के एक कोने में ऐसे छुपा कर रख दिया था,  जो किसी को दिखायी ही न दे. यहां तक की उसको भी नहीं , जिसने इसे पैदा किया था. यह ब्रहमा के द्वारा रचित स्त्री के दैवीय  रूप को भी चुनौती थी, उसके भी बस के बाहर की बात थी. थोड़े दिनों बाद पता चला की वह आखिर है कौन. एक दिन अनु के साथ काम करने वाले सहकर्मी ने बताया की गैस्ट के रुप में आज हमारे यहां सर्वेश्वर श्रीवास्तव आयेंगे. कौन है और क्या करता है, पूछा था अनु ने. जवाब में बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के जाने – माने महाविद्यालय में प्रोफ़ेसर है वह, तेजतर्रार, बेबाक टिप्प्णी के लिए जाना जाने वाला व्यक्तित्व. बस- ‘बस इतनी तारीफ़ मत कीजिए,  मुझे जेलसी फ़िल हो रही है,’ कहकर खिलखिकार हंस पड़ी थी अनु. वह आज जिस मुकाम पर थी,  जिस तरह से वह आगे बढी थी इसका उसे गर्व भी था और कहीं न कहीं अभिमान भी. इसलिए मानवीय प्रतिस्पर्धा भी महसूस हुई थी उसे जानकर.अगले दिन सब तैयारी में लगे थे,

कार्यक्रम को सफ़ल बनाने के लिए. वह भी अपने छात्र-छात्रों के साथ मिलजुलकर तैयारी की देखरेख कर रही थी. उसके सीनियर ने बताया कि गेस्ट आ गये है और आप उन्हे प्रिंसिपल रूम में ले जायें,
चाय नास्ता करवायें. झिझकते हुए उसने कहा कि सर मैने उन्हे देखा नहीं है इसलिए आप लोग ही चले जाये .पर उन्होंने अधिकार सहित डांटकर कहा कि –’जाओ तुम’ मिलोगी नहीं तो जानोगी कैसे? और अनु चुपचाप बरामदे से गुजरते हुए उस ओर बढ गयी.’ जैसे ही वह आगे बढी…..कि……. उसकी दिल की धडकन थोड़ी देर के लिए रुक सी गयी. सामने वही शख्स था,  जिसे वह अपने दिल के एक कोने में सम्भाल कर रखे हुए थी, जब भी अकेली होती थी,  उसे कोने से बाहर लाती और अपने दिल के पास रखकर उसे बातें करती, उसके साथ अपने गिले- शिकवे करती, उसे उल्हाना देती कि देखो, मैं मीरा बन तुम्हारी पूजा कर रही हुं और तुम हो कि मूर्त रुप मे कभी नहीं आते …….ढेरों उल्हाने उसे देती, और जब किसी के आने की आहट पाती तो उसे फिर उसके लिए तय कोने में उसे सबसे नजरें चुराकर छुपा देती. ऐसा नहीं था कि वह अपने पति से प्रेम नहीं करती थी, अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी वह अपने लिए अपने होने के उस अहसास को जी लेती थी. यह उसका रुहानियत भरा प्रेम था जिसे वह जानती तक नहीं थी. उन्हें एकदम अपने सामने पाकर वह दंग रह गयी. उसकी अंखों की पुतलियां फ़ड़फ़ड़ा रही थी. उसे देखकर न तो वह आगे बढ पायी और न ही पीछे ही हट पायी.

कुमारसम्भव के ब्रहमाचारी और पार्वती के आख्यान इसमे हकीकत का रुप धरके सामने आ खड़े हुए थे. वह तो ऐसे लोक में विचरण करने लगी थी,  जो हकीकत से कोसों दूर था. अचानक उसे महसूस हुआ कि वह तो प्रसिंपल के आफ़िस में है. वह उल्टे पांव वापिस आ गयी और अपने सहकर्मी को ये जिम्मेदारी देकर अपने मन बहलाने और इस रुमानियत से बाहर आने के लिए अपने छात्रों के साथ काम में उलझने का प्रयास करने लगी.
कार्यक्रम सफ़ल रहा और अनु ने भी आज उसका पूरा परिचय जान लिया. साथ ही साथ ये भी कि जिसे वह अभी तक पूजती आयी है,  वह ऐसे वर्ग से आता है जिसका सामना वह सदियों से करती आ रही है. पर प्रेम तो प्रेम है न…! कहां मानता है वह जाति, धर्म, सम्प्रदाय, समाज, स्त्री-पुरुष, इतर वैवाहिक संबंधों की आलोचनाओं को. श्रीवास्तव के द्वारा कहे गये उन शब्दों की वास्तविकता को वह जानना चाहती थी,  पर जैसे ही ये प्रश्न उसके दिमाग में आया तो दिल ने उसे एक झटके से उसे दूर कर दिया. मानने के लिए तैयार ही नहीं हुआ कि छात्र जीवन में घटी घटनायें दोबारा से इस रुप में आकर खडी होंगी. वह इस विचार को छोड़कर आगे बढना चाहती थी, और अपने दिल के कोने में छुपे उस अंकुर को भी आज पनपने देना चाह रही थी. जानती थी कि जो वह सोच रही है , वह ऐसा नहीं है, पर फ़िर भी अपने मन के कोने में दुबके पडे इस अहसास को एक बार वह भी जीना चाहने लगी थी, बिना इसकी परवाह किए कि सामने वाला मेरे बारे में क्या सोचता है. और वह इसे इसी रूप में जो कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के सेमिनार के बाहर दरवाजे पर खड़े हुए श्रीवास्त्व ने जो शब्द कहे, उसे अपने मन में समेटकर जीने लगी थी



अनु का सामना श्रीवास्तव से कई बार हुआ. कई बार उसी के महाविद्यालय मे, और कई बार कांफ़्रेस में, पर, अनु जहां इस संबंध के प्रति भावुक थी, वही वह मजबूत इरादे वाली महिला भी थी. उसने उसके सामने कभी दर्ज नहीं करवाया कि उसके द्वारा कहे गये “वे शब्द” अपने मन मन्दिर में उसने इस कदर बिठाये है कि कोई उसे भांप तक नहीं सकता. पुरुषवादी और सामंतवादी मानसिकता के सामाजिक विश्लेषण से उसे इन्कार नहीं था.  एक तरफ़ उसका अध्ययन का दायरा धर्मशास्त्रों में था, तो दूसरी तरह इतिहास सामाज-शास्त्रों का भी वह लगातार अध्ययन कर रही थी, सामाजिक आन्दोलनों में भी उसकी भागीदारी बढ गयी थी, स्त्रीवादी मानसिकता का विकास उसमे घर कर गया था, वह अब आम महिला भी नहीं रह गयी थी, वाम आन्दोलन में भागिदारी करते हुए वह इतनी परिपक्कव हो चुकी थी कि हर स्थिति का सामना वह तर्क की कसौटी पर कर सकती थी.
समय अपने पंख लगाकर उड़ रहा था, आज वह अपनी उम्र के अड़त्तीसवे दौर से गुजर रही थी. इस दौर के उतार-चढावों को पार करते हुए सुखपूर्वक वैवाहिक जीवन को भरपूर जिन्दगी के साथ जी रही थी. प्रेम के उस कोने को अनु ने दबाकर रख दिया था,  जैसे मां अपने नन्हे नन्हे बच्चों के कपड़ों की तह लगाकर अपने साथ लाये पुराने संदूक में छुपा कर रख देती है. जब वह अपने बड़े हुए बच्चों के बचपन को देखना चाहती है, तो उन कपड़ों की तह खोलकर भरीपूरी निगाह ड़ालकर, देखकर, वापिस संदूक में रख देती है. ठीक उसी तरह अनु ने श्रीवास्तव के प्रेम को बंद करके रख लिया था.

इस अनुभूति को वह समाज की जातीय सोच पर कुर्बान नहीं करना चाहती थी, चाहे वह खुद श्रीवास्तव ही क्यों न हो, आखिर वह भी तो इसी धरा का प्राणी था, इस सच्चाई को वह अपने आपसे भी छुपाकर रखे रही थी.
आखिर कभी तो अनु की भावनाओं का समुद्र अपनी सीमा को लांघकर बाहर आना था.  एक दिन उसे मेल प्राप्त हुआ की विश्व हिन्दी सम्मेलन बैंकाक में होने जा रहा है, और आपकी भागीदारी प्रार्थनीय है. पढकर गौरवान्वित हुई थी वह, उसने इसकी सूचना अपने पति को दी, वह भी बहुत खुश हुए थे सुनकर. तय समय में वह पहुंच गयी थी. अभी कांफ़्रेस शुरु होने में टाइम था. अनु की निगाह उसकी तरफ़ पीठ करके खड़े एक आदमी की ओर गयी. उसे लगा कि ये श्रीवास्तव ही हैं. कब उसके पांव उसे उसकी ओर ले गये, उसे पता ही नहीं चला. कहते हैं सावन के मारों को हरा ही हरा दिखता है, कुछ ऐसा ही हुआ अनु के साथ.सामने वाला आदमी श्रीवास्तव नहीं कोई ओर था. मन मार कर रह गयी अनु और वापिस मुड़ने को हुई कि उस व्यक्ति ने अनु को ’हलो’ कहा. उसने सुना ही नही और औपचारिकता भी पूरी नहीं कर पायी. उसने फ़िर टोका और कहा कि आप कुछ कह रही थी, अनु ने ’ना’ मे सिर हिलाया और वापिस अपनी जगह आ गयी, अजीब सी हालत थी उसकी. एक- एक करके सब लोग अन्दर आ गये थे,  जहां पर कार्यक्रम का उदघाटन सत्र होना था. वहां पर कुर्सियां तरतीब से रखी गयी थी,

बैंकाक के महामहिम राज्यपाल इस सत्र को सम्बोधित करने वाले थे, इसलिए पूरा प्रशासन भी सतर्कता से अपने काम में लगा था, अतिथियों को तयशुदा जगहों पर स्थान दे दिया गया था, सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे जा चुके थे. फ़िर अनु की आंखे फ़िसली,  आगे वाली सीट पर बैठे आदमी की ओर. उसे लगा की श्रीवास्तव बैठे है, आज वह अपने आपको रोके नहीं रोक पा रही थी, जैसे ही अपनी कुर्सी से वह आगे की ओर झुकने लगी तो उस खुद पर ही हंसी आ गयी, और वह पीछे की ओर ही लौट गयी कि कहीं अब फ़िर किसी को कोई गलतफहमी न हो जाये. मेरा वहम होगा और उसने अपने ध्यान को सत्रमें लगाने की कोशिश की, पर फ़िर से सामने वाली कुर्सी पर बैठे आदमी की ओर देखा तो वह तो वही था,  जिसकी तलाश उसकी आंखे तब से करती आ रही थी, जब से वह इस कार्यक्रम में आयी थी. हां वह वही था,  जिसे पता नही इस बात का अहसास भी था कि नहीं,  कि जो शब्द उसने सहज भाव से किसी को यूं ही कहें थे, वे किसी के दिल में इस तरह से समायें हुंए हैं कि सब बंधनों को तोड़ने पर उतारू हैं. पहचान लिया था शायद अनु को भी उन्होने, आखिर उनके महाविद्यालय में वे कई बार आ चुके थे, इसी औपचारिकतावश अनु ने भी उन्हे ’नमस्ते सर’ कहा. जवाब में उन्होने भी हल्की- फ़ुल्की बातचीत की. सत्र खत्म हुआ था, तो चाय पर सब आमत्रिंत थे, वह आज इस आकर्षण के सामने अपने आपको उसके नजदीक जाने में रोक नहीं पायी, श्रीवास्तव ने भी उससे बात की. थोड़ा सा साथ पाकर अनु उसमे बहे जा रही थी,

इतने सालों का इन्तजार का जवाब आज उसके सामने था. वह आज जवाब पाने का बेसब्री से इन्तजार करने लगी कि आखिर श्रीवस्तव जी उसके बारे में क्या सोचते है? क्या उनको भी मेरी याद आती है/ क्या वे शब्द उन्होंने सहज भाव से कहे थे/क्या ये ऐसे ही सब के साथ बोलते हैं/ उसके मन में घुड़कते सारे सवालों के जवाब आज अनु चाहती थी. आखिर अपने प्रेम से जवाब मांगने का हक तो बनता था न उसका? बस वह श्रीवास्तव से बात करने, उसके नजदीक रहने का बहाना खोजती रही थी, हांलाकि ये सब जो वह उसका जवाब पाने के लिए कर रही थी, उसके व्यक्तित्व से बिल्कुल उल्टा था, बहुत स्वाभिमानी थी वह! पर प्रेम के सामने उसका स्वाभिमान आज उसे छोटा लगा था. अनु ने श्रीवास्तव के सामने अपनी भावनायें रख ही दी. कविता के माध्यम से……….ये प्रेम भी बड़ा विचित्र है, जब यह पुरुष में होता है, तो वह इसे अपनी मर्दानगी समझता है, इसे जाहिर करना अपना अधिकार समझता है.  और वही प्रेम जब किसी स्त्री में होता है,  तो वह अपने आपको ही- समाज का , परिवार का, अपराधी मानकर देखती है, समाज के द्वारा गढ़ी  उसकी छवि को वह धुंधली नहीं होने देना चाहती, अपने दैवीय रुप के अनावरण को वह खत्म नहीं होने देना चाहती पर दूसरी और छुप-छुपकर प्रेम के अंकुर को पेड़ भी बनाने में लगी रहती है. श्रीवास्तव के सामने उसने अपनी भावनाये प्रकट तो कर दी पर…… उसका जवाब, उसे हक से लेने का अधिकार, वह नहीं ले पायी. उसने उससे अकेले में बात करनी की बहुत कोशिश की, पर वह बार-बार उसे टालता रहा. शायद उसकी भी अपनी कोई मर्यादा  थी, या स्त्री के द्वारा जाहिर प्रेम उसे स्वीकार्य न था.

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ISSN 2394-093X
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