मानवी से भोग्य वस्तु में तब्दील स्त्री अस्मिता का भौतिक सत्य – भारतीय और वैश्विक संदर्भों में

मुद्रा राक्षस 
 
सुधा अरोड़ा की कहानी ‘‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’’ के परिप्रेक्ष्य में 


अश्वेत लेखिका टोनी मारिसन ने अपने विख्यात उपन्यास ’बिलवेड‘ के सिलसिले में एक वास्तविक घटना का जिक्र किया है. एक अश्वेत महिला मार्गरेट गार्नर दासी के रूप में काम करती थी. एक दिन छुटकारे की आकांक्षा से वह चुपचाप भाग खड़ी हुई. उसने सबसे पहले अपनी बेटी की हत्या कर दी ताकि बेटी को दासता न झेलनी पड़े. बाद में गार्नर पर मुकदमा चला – टोनी की हत्या के लिए नहीं, सम्पत्ति (यानी दासी) चुराने के लिए. टोनी मारिसन ने इस घटना का इस्तेमाल और ज़्यादा बड़े समाज-शास्त्र के लिए किया. उसके उपन्यास ’बिलवेड‘ में भी नायिका सेशे अपने बच्चे की हत्या कर देती है.अश्वेत लेखिका एलिस वाकर ने एक अन्य अश्वेत लेखक ज्याॅ टूमर के हवाले से लिखा था – जब कवि ज्याॅ टूमर तीस के दशक के शुरू मे दक्षिण जा रहा था उसका ध्यान एक विचित्र चीज़ पर गया और वह थी एक अश्वेत स्त्री. अश्वेत स्त्रियां जिनकी आध्यात्मिकता इतनी गहरी , इतनी गहन और स्वाभाविक थी कि खुद उन्हें भी इसका बोध नहीं था. अपनी ज़िन्दगी वे अटपटे ढंग से जी रही थी. उनके शरीर घायल प्राणियों की तरह तकलीफ से छटपटाते हुए जैसे उम्मीद का कोई सूत्र उनके आसपास न हो.

एक अरसा पहले मैंने सुधा अरोड़ा की कहानी वागर्थ में पढ़ी थी – ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी.‘ कहानी पढ़ने के बाद टोनी मारिसन की अनुभूत घटना और एलिस वाकर का उक्त उद्धरण , दोनों शिद्दत  से याद आए थे. कुछ कहानियां ऐसी होती हैं जो कहानी से बहुत ज्यादा कुछ होती हैं – शायद एक लंबा और बाढ़ के पानी की तरह उमड़ आया गंदला इतिहास या किसी ममी में तब्दील कर दिया गया समाजशास्त्र. सुधा अरोड़ा की ‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ एक बहुत छोटी सी कहानी है फिर भी यह एक महागाथा है.  मुझे याद नहीं आता कि इतनी विराट कथा इतने छोटे आकार में और कहां देखी जा सकती है. यह उन रचनाओं मे से है जिसका बयान बहुत मुश्किल, लगभग असंभव होता है. आप लियोनार्डो द विंची की मोनालिसा का ब्यौरा दे सकते हैं , गोगाॅ की तस्वीर ’क्या तुम्हें ईर्ष्या हो रही है‘ का बयान कर सकते हैं, पर क्या चित्रकार फर्नाण्ड की कृति ’ए वुमन इन ब्लू‘ का ब्यौरा दे सकते हैं? नहीं . कुछ रचनाएं सरापा बयान होती हैं और बयान का बयान नहीं किया जा सकता. उनके लिए अनिवर्चनीय शब्द बहुत भोंडा होता है.मातृत्व को गौरवान्वित करते हुए हजारों बयान हिन्दू धर्म ग्रंथों में ही नहीं साहित्यिक कृतियों में भी मिल जायेंगे. स्त्री यह सच जानती है पर उसकी स्वतंत्र चिंतन की ताकत पथरा चुकी होती है. इसीलिए वह स्त्री को मां बन कर अपने वजूद को सफल करने की सलाह देती है पर बेटी के जन्म से घबरा जाती है.

सुधा अरोड़ा की कहानी लगभग सूत्र जैसे शिल्प मे यह इतनी लंबी गाथा देती है। इसमें मातृत्व से घबराहट के इतिहास-सांस्कृतिक सत्य की छाया है और यह अभिशाप भी मौजूद है जिसमें स्त्री खुद स्त्री के जन्म को अभिशाप मानती है – लेकिन यह सब सिर्फ इतना ही नहीं है. स्त्री-विमर्श का सुधा अरोड़ा का भाष्य  स्त्री के अस्तित्व के असीम और अछोर उलझाव से एक धारदार मुठभेड़ है। पर इस मुठभेड़ की पहचान के लिए हम एक दूसरे क्षेत्र में जाना चाहेंगे. इस कहानी को समझने के लिए हमें कहानी से बाहर उसके आसपास की दुनिया को देखना होगा. पिछले कुछ अरसे से हिन्दी में स्त्री-विमर्श काफी प्रमुखता से सामने आया है. सुधा अरोड़ा की कहानी ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए समाज में स्त्री प्रश्न की गुत्थियों पर नज़र डालनी होगी. पाकिस्तान की विख्यात लेखिका किश्वर नाहीद ने स्त्री को लेकर आत्मकथा में कुछ गंभीर और विचारणीय टिप्पणियां की है. नाहीद ने लिखा है – ’यहां तो औरतें ही एक दूसरे को नहीं समझतीं बल्कि अपने वजूद (अस्तित्व) की इनफ़रादियत (स्वाधीनता) पे एतमाद नहीं रखती. खुद अपनी ज़ाया को तनहा काबिले इज़्जत समझती ही नहीं. या फिर मर्द के बनाए हुए एखलाकी और जज़्बाती उसूलों पे चल कर ज़िन्दगी को मेराज (चरम सीमा) पे पहुंचा हुआ महसूस करती हैं. दुनिया में क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, इससे उनका सीधा ताल्लुक न बनने दिया जाता है और न वह समझती हैं कि ताल्लुक बाकायदा हो सकता है.‘

परिवार और निजी सम्पत्ति की बुनियाद पर खड़े समाज में औरत एक अपरिवर्तनीय, स्थायी और किसी भी चुनौती से परे जो परिस्थिति की या इकालजी स्त्री के लिए निर्धारित होती रही है उसने इतिहास के लंबे दौर में स्त्री की चेतना के साथ कुछ वैसा सुलूक किया है जैसा पुराने चीन में बच्चियों के पांव छोटे रखने वाले सांचे करते थे. बेहद तकलीफदेह ये सांचे उस जमाने में चीन की औरतों के गौरव हुआ करते थे. पैर सांचे में डाल कर बदशक्ल न बनाए जायें, यह बात खुद औरत को ही नापसंद थी. स्त्री यह समझने की आदी हो जाती है कि उसकी ज़िन्दगी अर्धांगिनी होने में ही है। पति से ही वह पूर्णांगिनी हो सकती है. बिना पति वह अधूरी ही रहेगी. वह समझने लगती है कि उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व संभव ही नहीं है. दुनिया से भी वह अपना संबंध पति की मार्फत ही देखने की अभ्यस्त हो जाती है. पश्चिम के मनोविश्लेषकों ने इस बात पर लंबी बहसें की है कि व्यक्ति के परिवेश और जीवन की स्थितियां उसके मानसिक विकास पर क्या असर डालती हैं. इस प्रश्न को हमें स्त्री के उस परिवेश से जोड़ कर देखना चाहिए जो पूरी दुनिया मेें उसे परिवार व्यवस्था के कारण मिलता है. जब युवावस्था में पहुंच कर स्त्री दुनिया को देखने समझने की दहलीज़ तक आती है उसका संसार सिर्फ उतना रह जाता है जो उसे दुनिया नहीं पति और परिवार से जोड़ सके. उसकी जिज्ञासाओं के सारे दरवाज़े बंद हो जाते हैं. वह खाना बनाती है , घर की व्यवस्था करती है , बच्चे पैदा करती और पालती है. उसकी रचनात्मकता सलाद या तकिए पर चित्रकारी में सीमित हो जाती है. रचनात्मकता अगर बहुत उत्तेजित करे जो हथेली पर मेंहदी लगाने या गमलों में पौधे उगाने में प्रतिफलित होती है. निश्चय ही यह वातावरण स्त्री के अबाध मानसिक विकास में सबसे बड़ी बाधा होता है और इस बाधा में जीने ओर संतुष्ट रहने का स्त्री को हजारों बरस पुराना अभ्यास होता है.

आत्मकथा में किश्वर नाहीद ने फ्लोरेंस नाइटिंगेल का एक उद्धरण दिया है – ’ख्वाहिशें , ख्वाब , सरगर्मियां और ऐब सब बारी-बारी पहले मर जाते हैं, सबसे आखिर में जो चीज़ मरती है वह है ज़हानत.‘ ज़हानत या विवेक का बीज हर इंसान की तरह स्त्री में भी मौजूद होता है. किसी जमाने में कुछ समाजों में पति कुछ अरसे के लिए बाहर जाता था तो औरत को लोहे की जांघिया ताले लगाकर पहना जाता था. लगभग सारी दुनिया में, हर समाज में स्त्री के विवेक का बीज लोहे में लपेट कर रखा जाता है और धीरे-धीरे वह पथरा जाता है.  किश्वर नाहीद ने बहुत बेचैनी से लिखा – ’समाज और मर्द ने अपने आप फैसले करके फितरत और कुदरत के नाम लगा दिए. पहला फैसला यह कि औरत के वजूद का बुनियादी मकसद बच्चा पैदा करना है कि इसके अंदर बच्चेदानी इसी मकसद के लिए है. सही है कि इसके अंदर बच्चादानी है मगर इसके अंदर एक दिमाग़ भी तो है.‘ बच्चेदानी को भरपूर उपजाऊ बनाए रखने और दिमाग को सुखाने का जो करतब मर्द की दुनिया दिखाती है उसी का एक नतीजा है टोनी मारीसन द्वारा उल्लिखित वह घटना जिसे हमने लेख के शुरू में दिया था। इस जगह पहुंच कर हम सुधा की कहानी ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ को उठाना चाहेंगे. ’ तुम चारो मुझे घेर कर खड़े हो गए…भला पहला बच्चा भी कोई गिराता है. पहला बच्चा गिराने से फिर गर्भ ठहरता ही नहीं. मां बनने में ही नारी की पूर्णता है. मां बनने के बाद सब ठीक हो जाता है , जीने का अर्थ मिल जाता है. मां तुम अपनी तरह मुझे भी पूर्ण होते हुए देखना चाहती थी.  मैंने तुम्हारी बात मान ली और तुम सबके सपनों को पेट में संजो कर वापस लौट गई. ‘

मां के जीने का अर्थ मां बनना था , उसकी मां का भी.  उसकी बेटी अन्नपूर्णा मंडल के जीने का अर्थ भी मां बनना है और बेटी की बेटी का भी. विचित्र बात है , सदियां बीतती है स्त्री को यह सवाल पूछते कि जीने का अर्थ क्या है और सदियो से एक ही उत्तर वह सुनती है – मां बनना. आखिर मातृत्व महिमामंडन के इस अतिरेक का रहस्य क्या है ? महाभारत सहित सभी धर्म पुस्तकों , धर्म-शास्त्रों में स्त्री को लेकर घोर निंदनीय बातें कही गई है और अक्सर खासी अश्लील भाषा में भी. ऐसी स्थिति में मातृत्व के महिमामंडन के अतिरेक का कारण क्या हो सकता है ? इसका कारण देख पाना ज्यादा कठिन नहीं है. पुरुष निरंतर यह कोशिश करता रहा कि स्त्री-पुरुष निर्भरता को अपना संस्कार बना ले , वह एक वेश्या की ज़रूरत भी पूरी करे और निःशुल्क दासता भी करे , गाय , बकरी या कुतिया की तरह घर से बंधी रहे और मर्द की ज़रूरत के अनुसार पुत्र पैदा करने वाली एक मशीन बनी रहे. इस दयनीय स्थिति मे स्त्री संतुष्ट और खुश भी रहे. मां अपनी बेटी को, बेटी अपनी बेटी को इसी जीवन पद्धति का उपदेश भी देती रहे.

हिन्दू धर्म ने तो स्त्री की इस भूमिका का आश्चर्यजनक व्याख्यान किया है. यहां हम पांच भाइयों के साथ सोने को मजबूर और बर्तन-भांडे की तरह जुए में दांव पर लगा दी जाने वाली स्त्री द्रौपदी पर केन्द्रित महाभारत के एक महत्वपूर्ण प्रसंग का जिक्र करना चाहेंगे. यह कथा उद्योगपर्व में आई है. कथा यों है। ऋषि विश्वामित्र ने अपने शिष्य गालव से आठ सौ सफेद लेकिन काले कान वाले घोड़े मांगे. गालव ऐसे घोड़े प्राप्त करने के लिए अयोध्या के राजा के पास गया. अयोध्या के राजा ने उसे अपनी बेहद सुंदर कन्या देकर कहा – इसे जिस राजा को दे दोगे वह तुम्हें इतने घोड़े दे देगा. गालव घोड़ों के बदले कन्या लेकर राजा हर्यश्व के पास पहुंचा. हर्यश्व ने कन्या से एक पुत्र पैदा करके कन्या के शुल्क के रूप मे दो सौ घोड़े देकर कन्या वापस कर दी. इसके बाद गालव दिवोदास और उशीनर के पास गया. उन दोनों ने भी कन्या को एक-एक साल अपने पास रख कर एक-एक बेटा पैदा किया. उन दोनों से भी दो-दो सौ घोड़े मिले. तब छह सौ घोड़े और बाकी दो सौ घोड़ों के बदले वह कन्या गालव ने विश्वामित्र को दे दी. विश्वामित्र ने भी लड़की को एक साल अपने हरम में रखकर एक पुत्र पैदा किया. यह है उस पुरुष समुदाय का सच जो मातृत्व की अतिरंजित गरिमा का बयान करता है. मातृत्व का गौरव वह स्त्री को इसी तरह देता है , एक वेश्या में तब्दील करने के बाद.

क्यूबिस्ट चित्रकार विचारक आन्द्रे लेवेल ने कहा था कि रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली वस्तुओं का विश्लेषण जब अलग-अलग कोणों से उनकी सम्पूर्णता या आंशिकता (टुकड़ों) में किया जाता है तो उनकी सामान्य पहचान गायब हो जाती है और उनके छीछड़े दिखाई देने लगते हैं.‘ इसी क्यूबिज्म का अगला विकास था सर्रियलिज्म जिसके प्रतिनिधि चित्रकार के रूप में साल्वेडार डाली ने अपार ख्याति पाई थी. इसके व्याख्याकार चित्रकार आन्द्रे ब्रेतां ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी – ’चेतना का एक वह स्तर भी होता है जहां जीवन और मृत्यु , वास्तविक और काल्पनिक , अतीत और भविष्य के अन्तर्विरोध समाप्त हो जाते हैं.‘ सुधा अरोड़ा की कहानी उक्त दोनों संदर्भों में देखी जानी चाहिए. कहानी ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ में अन्नपूर्णा मंडल आत्महत्या का चुनाव करती है दो बच्चियों को जन्म देने के बाद. जैसा चित्रकार आलोचक आन्द्रे ब्रेतां ने कहा था जब अन्नपूर्णा मंडल स्त्री के रूप में सचेत होती है उसे लगता है कि जीवन और मृत्यु के बीच का फासला गायब हो चुका है. वस्तु सत्य या जीवन और विश्व की वास्तविकताएं जिस कोण से भी देखो अपना अर्थ और स्वरूप खो चुकी हैं. वस्तु सत्य अगर कुछ होेता है तो वह चीथड़ों के ढेर में तब्दील हो चुका है.

निश्चय ही चेतना एक भौतिक तत्व की मानसिक स्थिति होती है. नव प्रभाववादी चित्रकार मातिसे को कहना था कि वह चित्र बनाते समय एक नन्हें शिशु की मानसिक स्थिति में पहुंच जाता है. ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ स्त्री-विमर्श की दुनिया में कदम रखते ही मातिसे हो जाती है. वह समूचा विश्व एक शिशु-बोध में परिवर्तित कर देती है. नव प्रभाववादी कला का जिक्र करते हुए कला समीक्षकों ने स्पेन की आल्टामीरा पर्वतीय गुफाओं की आदिम चित्रकारी का जिक्र विस्तार से किया है. गुफा में आदिम मानव ने एक विराट और खूंखार भैसे का चित्र बनाया है. इस चित्र में आदि मानव ने भैसे के प्रमुख लक्षणों का सावधानी से चित्रण किया है जबकि दूसरी अनेक बारीकियों की उपेक्षा की है। इसका जिक्र करते हुए कला समीक्षकों ने स्वीकार किया है कि कला के इतिहास के इतने अधिक विकसित हो जाने के बाद हम उस आदिम चेतना तक वापस नहीं जा सकते. पर सुधा अरोड़ा के साथ यह हुआ है. शायद इसलिए कि स्त्री अगर इतिहास के प्रति सचेत होती है तो अपने को सृष्टि के आदि में ही देखती है जब रीढ़हीन केंचुओं का पृथ्वी पर आर्विभाव हुआ होगा.कहानी दो नन्हें भाई-बहनों के खेल से शुरू होती है. बारिश होती है तो दोनों बच्चे पूकुर के पास रेंगते केंचुओं पर नमक डाल-डाल कर उन्हें मारते हैं. ‘‘ बाबा तुम डाकघर से लौटते तो पूछते – तुम दोनों हत्यारों ने आज कितनों की हत्याएं कीं ? फिर मुझे पास बिठाकर प्यार से समझाते – बाबला की नकल क्यों करती है रे ! तू तो मां अन्नपूर्णा है , देवी स्वरूपा , तुझे क्या जीव-जन्तुओं की हत्या करना शोभा देता है. ‘

मुद्राराक्षस

भारत के हिन्दू समाज में स्त्री को मातृत्व की देवी बनाकर भारी-भरकम शब्दावली में गौरवान्वित किया जाता है. इस महिमामंडन के बाद उसे पांच अदमियों को सौंप दिया जाता है , जुए में दांव पर लगाया जाता है , उसका अपहरण हो जाय तो उसे अग्निपरीक्षा देने के बाद भी अस्वीकार कर दिया जाता है , पति मर जाय तो जीवित जलाया जाता है. सीता का अपहरण हुआ. अग्निपरीक्षा के बाद भी गर्भिणी अवस्था में घर से निकाला गया. बच्चों को जन्म देने के बाद अन्ततः जीवित मिट्टी में दफन होना पड़ा. स्त्री यातना से अभिनंदित होने वाले इस पुरुष को अन्नपूर्णा मंडल भयाक्रांत होकर देखती है -‘‘ जब बांकुड़ा से बम्बई के लिए मैं रवाना हुई तुम सबकी नम आंखों में कैसे दिये टिमटिमा रहे थे जैसे तुम्हारी बेटी न जाने कौन से परीलोक जा रही है जहां दिव्य अप्सराएं उसके स्वागत में फूलों के थाल हाथ में लिए खड़ी होंगी.‘ यह सिर्फ अन्नपूर्णा मंडल जानती है कि उसके साथ क्या होने जा रहा है , कहां वह जीवित दफ़न होने जा रही हैं. भारत में शादी के बाद कन्या अकसर बहुत बुरी तरह रोती है. सिर्फ वही जानती है कि उससे क्या जबर्दस्ती छीना जा रहा है और ये आशंकाएं उसी क्षण से उसे अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं कि निरपराध होने पर भी उसे लगातार अपनी पवित्रता का प्रमाण-पत्र लहराते रहना होगा और फिर भी दांव पर लग जाने से लेकर जीवित दफ़न होने के लिए तैयार रहना होगा. हैरानी यह है कि उसे अन्नपूर्णा ’मैया‘ का दर्जा इसी शर्त पर मिलेगा. इसी शर्त पर उसे महिमामंडित किया जायेगा.

नव प्रभाववादी चित्रकला के संबंध में आल्टामीरा गुफाओं के चित्रांकन का जिक्र किया जाता है. मातिसे से लेकर पालक्ली तक अनेक बड़े चित्रकारों ने अपनी कृतियों में अक्सर संस्कृति के उस प्रारंभिक बिंदु पर लौटने की कोशिश की है. स्त्री खास कर तीसरी दुनिया में हजारों साल से सांस्कृृतिक विकास की यात्रा सें वंचित , आदिम युग में ही खड़ी रखी गई है. इसलिए अपनी रचनादृष्टि में वह ऐसा सब कुछ आसानी से ला सकती है जिसे मातिसे बहुत श्रम से अर्जित करता है और यह सुधा की कहानी में आसानी से घटित होते देखा जा सकता है.
’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ में प्रकृति है , जन-जीवन है , लोग हैं , रीति-रिवाज हैं , रिश्ते हैं , घर हैं पर वे वैसे नहीं हैं जिन्हें मेघदूत , कादंबरी या कामायनी में देखा जा सकता है. कहानी में दो जगह बरसात के मौसम का खास तौर से जिक्र है. एक जगह वहां जहां अन्नपूर्णा मंडल बच्ची है. हमने आल्टामीरा गुफा की आदिम चित्र रचनाओं का जिक्र किया था. इसी संदर्भ में हमें चित्रकार मातिसे का वह वक्तव्य भी ध्यान में रखना होगा जिसमें मातिसे कहता है – मैं कोशिश करता हूं कि मैं एक शिशु की मनःस्थिति में पहुंच जाऊं.‘ सुधा अपनी बात कहने के लिए इसी युक्ति का इस्तेमाल करती हैं  बारिश मेघदूत के ’आषाढ़स्य प्रथम दिवसे‘ से अलग है. बारिश ने रचनाकारों को बहुत आकर्षित किया है. रीतिकाल के कवि ही नहीं बीसवीं सदी के छायावाद पंत और निराला को भी बरसात के मौसम ने बहुत आकृष्ट किया था. यह सारा लेखन वयस्कों का लेखन है. सुधा की कहानी इस वयस्कता से मुक्ति लेती है. जिसे रचनात्मक सौन्दर्यबोध कहा जाता है वह रचनाकार की वयस्कता की उपलब्धि होता है.

सुधा अरोड़ा

 ऋतुसंहार में कालिदास ने बारिश के बारे में बहुत खूबसूरत बात कही है – ’तृणोत्करैः संगत कोमलांकुरैः विचित्र नीलैः हरिणीमुखक्षतैः। वनानि वन्यानि हरन्ति मानसं विभूषितानि उत्पल कल्लवैद्रुमैः. यानी धरती पर कोमल अंखुए फूट आए हैं , वनों में विचित्र वर्णवाले मृगों ने घास के तृणों को चबाया है. घास अधकटी दिखाई दे रही है। वनों के वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं , यब सब देखकर मन पुलकित हो जाता है. कहानी ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ की बारिश भी मन में पुलक पैदा करती है पर उसमें हिरणों की चराई नहीं दिखाई देती -’ मां झीखती रहतीं और हम सारा दिन पोखर के पास और आंगन के बाहर नमक की पोटली लिए बरसाती केंचुओं को ढूंढते रहते थे. ये इधर-उधर बिलबिलाते से हमसे छिपते फिरते थे और हम उन्हें ढूंढ ढूंढकर मारते थे. नमक डालने पर उनका रंग कैसे बदलता था , केंचुए हिलते थे और उनका शरीर सिकुड़ कर रस्सी हो जाता था.‘
इसी बरसात का एक बहुत संक्षिप्त सा जिक्र कहानी में और है -’ तुम्हें पता है न बंबई में बरसात का मौसम शुरू हो गया है. मैं तो मना रही थी कि बरसात जितनी टल सके , टल जाय लेकिन वह समय से पहले ही आ धमकी. और मुझे जिसका डर था वही हुआ. इस बार बरसात में पार्क की गीली मिट्टी सड़क से उठकर उन्हीं लाल केंचुओं की फौज घर के भीतर तक चली आई है. रसोई में जाओ तो मोरी के कोनों से ये केंचुए मुंह उचका कर झांकते हैं , नहाने जाओ तो बाल्टी के नीचे कोने पर वे बेखौफ चिपके रहते हैं.‘

शादी करके पति के घर में आ गई अन्नपूर्णा को सिर्फ दो स्थान ज्यादा याद आते हैं एक रसोई और दूसरा स्नानघर. शादी के बाद किसी हिन्दू स्त्री का सबसे गहरा रिश्ता घर की तीन जगहों से ही होता है – रसोई , स्नानघर और शयनकक्ष. ड्राइंगरूम , लिविंगरूम , छत , दरवाजे , खिड़की और बरामदे उसके लिए नहीं होेते. अन्नपूर्णा मंडल का अपनी नियति से समूचा साक्षात्कार इन्हीं दो जगहों पर होता है – रसोई और स्नानघर. यहां हम एक और सामाजिक मुद्दों  की तरफ संकेत करना चाहेंगे. एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि स्त्री की अपनी सामाजिक हैसियत क्या होती है ? हिन्दू धर्म ग्रंथों में स्त्री की हैसियत पति द्वारा निर्धारित होती है. कमोबेश यही स्थिति लगभग सभी समाजों में रही है. चूंकि स्त्री हर समाज में पराधीन रही है इसलिए स्वतंत्र रूप से उसकी हैसियत लगभग शून्य रही है. हैसियत का एक आधार हो सकता है समाज में मिलने वाला सम्मान पर स्त्री की नियति रही है कि उसके सम्मान की गारंटी सिर्फ उसका पति हो सकता है. इब्सन का नाटक ’दि डाल्स हाउस‘ इसी कड़ी सच्चाई का ही खुलासा करता है. स्त्री का अपना सामाजिक सम्मान इसलिए एक दुर्लभ स्थिति होता है कि स्त्री समाजतंत्र में स्वतंत्र रूप से (बहुत बिरले उदाहरण छोड़कर) न तो सत्ताशक्ति की स्वामिनी होती है न सम्पत्ति की और न ही अपनी जीवनचर्या की. इनसे वंचित रखकर ही स्त्री की पूर्ण पराधीनता और पतिनिर्भरता संभव होती है.

इस नियति का इस भाषा में अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी  में कहीं कोई उल्लेख नहीं है पर इस स्थिति का अनुभव होने पर स्त्री मे कैसी घबराहट जन्म लेती है , इसका परिचय इसमे जरूर मिल जाता है -’ फोन पर इतनी बातें करना संभव कहां है. फोन के तारों पर मेरी आवाज जैसे ही तैरती हुई तुम तक पहुंचती है तुम्हें लगता है सब ठीक है , जैसे मेरा जिन्दा होना ही मेरे ठीक रहने की निशानी है और फोन पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर मैं परेशान हो जाती हूं क्योंकि फोन पर मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि तुम जिस आवाज़ को मेरी आवाज़ समझ रहे हो वह मेरी नहीं है.‘ अन्नपूर्णा बहुत ठंडे तरीके से आत्महत्या का चुनाव करती है पर अन्नपूर्णा मंडल का मृत्यु का चुनाव क्या सचमुच इतनी ठंडी घटना है ? क्या उसके पीछे भी अवांछित हिंसा का एक लंबा सिलसिला नहीं है ? वह कहती है -’ जिस आवाज़ को मेरी आवाज़ समझ रहे हो वह मेरी नहीं है. ‘  रैल्फ एलिसन का कथानायक कहता है -’ कौन जानता है शायद निचली ध्वनितरंगों में मैं तुम्हारी तरफ से ही बोल रहा हूं.‘ संत्रास कैसे अपनी आवाज़ को अपने से ही अजनबी कर देते हैं इसका उदाहरण बेहद छोटी कहानी ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ में मिलता है या फिर विराट आकार के उपन्यास ’द इनविजिबल मैन‘ में.हमने शुरू में टोनी मारिसन द्वारा उद्धृृत एक अश्वेत महिला द्वारा दासता से भाग निकलने के बाद सबसे पहले अपनी बेटी की हत्या का उल्लेख किया था। वह हत्या इसलिए कर देती है कि बेटी को वह दिन न देखना पड़े जो उसकी मां ने देखा.

 अन्नपूर्णा मंडल में भी बहुत अलग ढंग से एक हत्या है , अन्नपूर्णा की आत्महत्या पर यह आत्महत्या से ज्यादा एक  हत्या ही है सद्यः प्रसूता जुड़वां बेटियों की क्योंकि वे दोनों भी अन्नपूर्णा मंडल ही हैं – ’ इन दोनों के रूप में तुम्हारी बेटी तुम्हें सूद सहित वापस लौटा रही हूं. इनमें तुम मुझे देख पाओगे शायद . ‘ इस कहानी को अन्त से शुरू करके पीछे के पृष्ठ पढ़ना कहानी के कुछ और गहरे तत्व उभारता है. सूद समेत बेटी को लौटाने से ठीक पहले एक आतंक का बयान है – ’ जब बाहर सड़क पर मैदान के पास की गीली मिट्टी में केंचुओं को सरकते देखती हूं तो इन दोनों की शक्ल दिखाई देती है. मुझे डर लगता है कहीं मेरे पति घर में घुसते ही इन पर चप्पलों की चटाख-चटाख बौछार न कर दें. या मेरी सास इन पर केतली का खौलता हुआ पानी न डाल दें. मैं जानती हूं  यह मेरा वहम है पर यह लाइलाज है और मैं अब इस वहम का बोझ नहीं उठा सकती. चित्रकार विन्सेन्ट वैन्गाग ने एक बार अपने भाई को लिखा था – ’मैं अपनी आत्मा को बचाना चाहता हूं. मैं जिन्दा गोश्त और खून से चित्र बना रहा हूं.‘ अन्नपूर्णा मंडल अपनी ’आत्मा‘ को बचा लेना चाहती है , शायद वैन्गाग की तरह। अन्नपूर्णा सद्यःजात बच्चियों को अपनी बगल में देखती है.

 दुनिया के साहित्य में ’मातृत्व‘ का ऐसा ख़ौफनाक बोध शायद ही किसी रचना में आया हो -’ पांचवे महीने में मेरे पेट में जब उस आकार ने हिलना-डुलना शुरू किया ,मैं भय से कांपने लगी थी. मुझे लगा मेरे पेट में वही बरसाती केंचुए रेंग रहे हैं , सरक रहे हैं. आखिर वह घड़ी भी आई जब उन्हें मेरे शरीर से बाहर आना था. और सच में जब लम्बी बेहोशी के बाद मैंने आंख खोल कर अपने बगल में लेटी सलवटों वाली चमड़ी लिए अपनी जुड़वां बेटियों को देखा, मैं सकते में आ गई. उनकी शक्ल वैसी ही गिजगिजी लाल केंचुओ जैसी झुर्रीदार थी. मैंने तुमसे कहा भी था – देखो तो मां ये दोनों कितनी बदशक्ल हैं…‘यहां दो वीनस मूर्तियों का जिक्र ज़रूरी है। एक नन्हीं मूर्ति नग्न स्त्री की मोराविया के उत्खनन में मिली थी. उसके हाथ नहीं हैं. विशाल कूल्हे , विराट स्तन और और अत्यन्त स्वस्थ शरीर वाली इस आदिम मूर्ति को उत्खननकर्ताओं ने वीनस कहा है. एक वीनस बहुत बाद में तथाकथित सभ्य समाज ने बनाई थी. उसके भी हाथ नहीं है पर वह एक सर्वांग भोग्या वस्तु है. मानवी से भोग्या वस्तु में तब्दील स्त्री की अस्मिता का भौतिक सत्य क्या होता है इसी की कहानी है ’अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिठ्ठी ‘ विश्वविद्यालयी समझदारी से देखने वाला कोई भी विचारक इसमें केंचुए को एक प्रतीक मान लेगा.



पारंपरिक आलोचना का यही कष्ट है. वह फार्मूलों से बाहर निकल नहीं सकती. वह केंचुए को केंचुए की तरह देखेगी और स्त्री को स्त्री की तरह. फिर दोनों चित्रों को जोड़ेगी. यह ग़लत समझ है.सुधा अरोड़ा की वह स्त्री जो स्त्री भी है और केंचुओं का गुच्छा भी. इस वस्तु सत्य को लेखिका विश्वसनीयता देने में भी सफल हुई है. पुरुष समुदाय के लिए मत्स्य कन्या , आधी कन्या आधी मछली खासी विश्वसनीय रही है. पर वह पुरुष की कृति है. सुधा की कृति इस मानसिक संरचना प्रक्रिया के प्रति सीधा विद्रोह है – ’ एक दिन एक केंचुआ मेरी निगाह बचा कर रसोई से बाहर चला गया. सास ने उसे देख लिया. उसकी आंखें गुस्से से लाल हो गईं. सास ने चाय की खौलती हुई केतली उठाई और रसोई मे बिलबिलाते हुए सब केंचुओं पर गालियां बरसाते हुए उबलता पानी डाल दिया. सच मानो बाबा मेरे पूरे शरीर पर जैसे फफोले पड़ गए थे जैसे खौलता हुआ पानी उस पर नहीं मुझ पर डाला गया हो. वे सब फौरन मर गए , एक भी नहीं बचा , लेकिन मैं ज़िंदा रही.‘ निश्चय ही यह स्त्री-विमर्श हिन्दी कथा लेखन का अगला नया अध्याय शुरू करता है. यह इस बात की भी चुनौती है कि हिन्दी कहानी को कविता सुलभ सौन्दर्यबोध की ज़मीन से हटकर समझने की कोशिश करनी होगी

वागर्थ: अक्टूबर 2002 में प्रकाशित ‘‘ एक कहानी का रचना जगत -‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी‘ ’’ से साभार