माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल’ — मीराबाई : हिंदी की पहली स्त्रीवादी : दूसरी क़िस्त

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

हिंदी आलोचना प्रायः राणा को मीरा के देवर विक्रमजीत सिंह के रूप में चिन्हित करती रही है और मीरा के सुखी दाम्पत्य जीवन की परिकल्पना कर ससुराल द्वारा वैधव्य के उपरांत मीरा के उत्पीड़न-दमन के तथ्य को रेखांकित करती रही है. संभवतया इसका कारण मीरा के जीवन से सम्बद्ध कुछ इतिहाससम्मत तथ्यों-तिथियों एवं घटनाओं की खोज कर ऐतिहासिक वातावरण की निर्मिति का विचार रहा हो लेकिन यह भी सत्य है कि मीरा को लेकर निर्विवाद रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता. अतः बाह्य-साक्ष्य को मीरा के काव्य पर आरोपित करने की अपेक्षा क्यों न अंतःसाक्ष्य के आधार पर मीरा के स्वर को सुना एवं गुना जाए ? मीरा अपने एक पद में हार-सिंगार, रेशम की साड़ी और हाथ की चूड़ियां त्यागने की बात करती है. उल्लेखनीय है कि विधवा मीरा देवर राणा से उन सभी सुहाग-चिन्हों को अभिमानपूर्वक त्यागने की बात नहीं कर सकती थी जो समाज व्यवस्था ने पति राणा की मृत्यु के उपरांत उससे जबरन छीन लिए हैं.  ठीक इसी प्रकार अपने एक पद में मीरा आत्मपरिचय देते हुए ”जैमल के घरि जनम लियो है, राणा नैं परणाई’ कहती जरूर हैं, लेकिन साथ ही बदली परिस्थितियों और विद्रोही मानसिकता में इस सम्बन्ध की आंतरिकता और नैतिकता का निषेध भी कर देती हैं कि ”जनम जनम की मैं दासी राम की, थारी नाहीं लुगाई.” मीरा का काव्य एक सामान्य स्त्री के हृदय का हाहाकार हैं. वह मनस्ताप का मुखर आर्त्तनाद है जहां किसी भी शिक्षित-अशिक्षित आधुनिका स्त्री की तरह वह सास-ननद और पति को बार-बार जी भर कर गालियां दे रही है.मन को टूक-टूक कर देने वाली कटु स्मृतियों की कसक एक लम्बे अंतराल के बाद भी क्षीण नहीं हुई.
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‘बरजी मैं काही की नाहिं रहूं’ — मीराबाई : हिंदी की पहली स्त्रीवादी 

 राजसत्ता के प्रतीक रूप में ‘राणा’ सम्बोधन किसी को भी निवेदित हो सकता है, किंतु पारिवारिक सम्बन्ध में यदि मीरा देवर को दोष देना चाहती है तो वह पदवी विशेष की आड़ क्यों लेती है जबकि लोकजीवन में स्त्री ‘राणा’, ‘स्वामी’ आदि सम्बोधनों का प्रयोग पति के लिए करती है. यानी इस स्थिति से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि राणा/पति को क्लीन चिट देने के पीछे हिंदी आलोचना का पुरुष श्रेष्ठता का दंभ सक्रिय रहा होगा. चूंकि पति परिवार में परमेश्वर का समरूप है, अतः उसकी सत्ता और वर्चस्व को निष्कलंक और स्वयंसिद्ध बनाए रखने के लिए उसकी छवि को निर्मल और उदात्त बनाना अनिवार्य है। वह पोषक है, कर्त्तव्यपरायण निःसंग पुरुष और न्यायशील प्रशासक. गृह-क्लेश और दमन-उत्पीड़न जैसी क्षुद्रताओं में संलग्नता उसकी इस उदात्त ‘अलौकिक’ छवि को क्षरित करती है. अतः पति के रूप में वह सदा काम्य और वरेण्य है, क्रूर और अमानुषिक नहीं, हालांकि आज भी दहेज-उत्पीड़न, वधू-दहन एवं घरेलू हिंसा से सम्बद्ध आंकड़े सास-ननद के साथ पति की सक्रिय भागीदारी की बात रेखांकित करते है.

 ‘आणै आणै जी रंगभीना म्हारै महल/प्यालो तो लियां हाजर खड़ी’

मीरा का समूचा काव्य उत्पीड़ित स्त्री के आर्त्तनाद और विरहिणी प्रिया के करुण हाहाकार का प्रामाणिक दस्तावेज है. निजी जीवन की अनुभूतियां और गोपन मन की रहस्यात्मकता जिस सूक्ष्म भाव से मीरा-काव्य में व्यंजित हुई है, वह उसे अन्य भक्त कवियों से अलगाता है. मीरा के पद अपनी मूल संरचना में उत्कट भावोच्छ्वास में लिखी गई डायरी की प्रविष्टियां है. मन का निजी कोना जहां न अपने को बेहतर रूप में प्रस्तुत करने की सामाजिकता है, न विकारों को छुपाने की व्यावहारिकता. है तो अपनी भौतिक सच्चाई को अकुंठ निर्भीक भाव से स्वीकारने की ईमानदारी  अपने को अतीत, वर्तमान और भविष्य की एक सीधी रेखा में रख का जांचने की निःसंगता. मीरा के सरोकार किसी स्त्रीविमर्शकार की तरह सजग-सचेतन रूप से न स्त्री जाति के कल्याण से जुड़े हैं, न पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुनरीक्षण की मांग से. अपने से बाहर ‘मनुष्य’ की सत्ता को जानने का बोध मध्ययुगीन व्यवस्था में विकसित हुआ ही नहीं था. निर्गुण संत कवियों की बानी में गूंजने वाला सकारात्मक विद्रोही स्वर दरअसल वैयक्तिक स्तर पर अपनी पीड़ा और दमित आकांक्षाओं की मुखर एवं सामूहिक अभिव्यक्ति रही है. मीरा-काव्य में स्त्री मुक्ति के स्वर भी अपनी वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति की उत्कट इच्छा का परिणाम है.
कृत्रिमता एव छद्म छल-छंद से सर्वथा मुक्त मीरा स्त्री-मानस को उसकी उद्दाम कामनाओं के साथ चित्रित करती हैं. इस प्रक्रिया  में लौकिक मर्यादाएं और वर्जनाएं बार-बार टूटने की कगार पर आती हैं, टूट भी जाती है.

अनेक बार मीरा अपने भीतर की प्रचंडता से आतंकित हो पुनः अपनी सुरक्षित चारदीवारी में बंध जाना चाहती है किंतु चारदीवारी के भीतर पलती नृशंसताओं एवं असुरक्षा को वह पहले ही प्राणों के मोल पर झेल चुकी है, अतः प्रत्यावर्तन का विकल्प भी नहीं. तब उसके सामने एक ही विकल्प है – युगीन प्रवाह में बह कर लौकिक पर आध्यात्मिक का आरोपण. यह विकल्प एक ओर यदि मीरा के भीतर की स्त्री की द्वंद्वग्रस्तता, निरीहता एवं विवशता का संकेतक है तो दूसरी ओर अपनी दैहिक कामनाओं को पूरी ऐन्द्रिकता के साथ प्रकट करती एक नई स्त्री-छवि को सम्पुष्ट भी करता है. ”अपणा गिरधर कै कारणै मीरा वैरागण हो गई रे” – मीरा की यह आरोपित भक्त-छवि विकल प्रेयसी के रूप में मीरा के अध्यात्म की प्रक्रिया को बाधित करती है किंतु जोगी के लिए ‘सरप डसी’ मीरा की टेरती टीस क्या अनसुनी की जा सकती है ?   इस जोगी की ‘माधुरी मूरत सुंदरी सूरत’ ‘नैनन’ में बसने वाले नंदलाल से भिन्न है. इस जोगी के अधरों पर न मुरली है, न ‘उर’ पर वैजयंती माल; न कटितट पर क्षुद्र घंटिका सुशोभित हैं, न नूपुर शब्द का मधुर रस, बल्कि यह ‘जोगी’ राजस्थानी वेशभूषा में घर-घर अलख लगाता संन्यासी भर है –
”कुसुमल पाग केसरियां जामा, ऊपर फूल हजारी / मुकुट ऊपरे छत्र बिराजे, कुंडल की छबि न्यारी.”
अथवा
”पाग कसूमल केसरया जामूं, सोहै कुंडल कांन.”

इस जोगी के संग वैवाहिक जीवन से अतृप्त स्त्री का मन जुड़ जाए तो अन्यथा क्या. पति से उसकी सामान्य अपेक्षाएं ही तो रहीं. वह कृपा-दृष्टि नहीं, प्रेम-दृष्टि चाहती है. पति की ‘रिसाई’ दृष्टि में कोप है जहां अपने को दग्ध होने से बचाने की सतर्कता है लेकिन जोगी की दृष्टि ‘मानो प्रेम की कटारी है’ जहां बिंध-बिंध कर अपने को सम्पूर्णता में चिन्ह  लेने की खुमारी है.  पति के ‘कूड़ा बचन’ उसके स्त्रीत्व की लानत-मलामत करते हैं, तो जोगी की मीठी बातें दिल और देह की तार-तार झंकृत कर उसके भीतर यौवन की दहकती कामनाएं उत्पन्न कर देती हैं. दाम्पत्य एवं देह मिलन के संदर्भ नए अर्थों में उसके समक्ष खुलते हैं तो वह अपने पत्नीत्व की सार्थक परिणति में आह्लाद से भर कर सेज सजाने की सभी तैयारियां पूर्ण कर लेना चाहती है –
”अतर सुगंध मिलायके जी, घी भर दिवला बार /जाई जूही केतकी जी, चंपाकली सुधार
पलकां सूं करां पांवड़ा जी, अंचलां सूं मग झार /गिरधर म्हारो परम सनेही, मीरां उनकी नार।”
‘आद अंत तन मन धन मेरे, आनंद करां कलोले’ – रोम-रोम में संचारित कामनाओं का उत्ताप उसे विह्वल बना देता है –
”करके सिंगार पलंग पर बैठी, रोम रोम रस भीना /चोली के मेरे बंद तरक गए, श्याम भए परबीना.”
प्रेम-दीवानी मीरा अपनी मनोभावनाओं को किसी से छुपाना भी नहीं चाहती –
”ज्यूं अमली से अमल अघारा, यूं रमैया प्राण हमारा /कोई निंदै बंदै दुख पावै, मोकूं तो रमैयां भावै.”
तथा
”अब कोऊ कछु कहो, दिल लागा रै / हंसा की प्रकृत हंसा जाणे, का जाणैं नर कागा रैं
तन भी लागा, मन भी लागा, ज्यों बामण गल धागा रैं.”
कामनाएं मानस में रस का उद्रेक भले ही कर दें, बौराई देह को तृप्त नहीं करतीं, विक्षिप्त अवश्य कर देती हैं।

काल्पनिक सुख मीरा – स्त्री – को दांपत्य जीवन की कटुता से पल भर को मुक्त करा सकता है, शारीरिक उत्ताप को शीतल नहीं कर सकता. ‘कबहुं मिलैगो मोहिं आई रे तू जोगिया . . मिलि का तपत बुझाई” – अपनी सेक्सुएलिटी का अकुंठ स्वीकार करती है मीरा और अतृप्ति की पीड़ा का भी – ”नींद नहिं आवै जी सारी रात. करवट लेकर सेज टटोलूं रूं पिया नहीं मेरे साथ” तथा ”सूनी सेज जहर ज्यूं लागे, सिसक-सिसक जिय जावे निद्रा नहिं आवे.” लौकिक जीवन का यथार्थ मीरा को पुनः एकाकी और पराजित कर देता है. ”मैं तो जाणूं जोगी संग चलेगा” – बारह वर्ष के सान्निध्य को धता बता कर अन्यत्र चले जाने वाला जोगी क्या विश्वासघाती नहीं ? मीरा ‘जोगी’ के इस पुरुष-चरित्र को खूब पहचानती है जिसका ‘मर्म’ पाना स्त्री के लिए संभव नहीं. लेकिन प्रेमजन्य विश्वास और संवाद के कारण हार्दिकता के तंतुओं को इतनी जल्दी झटकना नहीं चाहती. स्त्री बहुत जल्द विश्वास नहीं करती. कर ले तो उसकी सूक्ष्म व्यूह-रचना से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाती. मीरा का द्वंद्व और हताशा, भटकन और विरह स्त्री की इसी मानसिकता की स्वाभाविक परिणति है. आत्मछलना से दूर तक अपने को बींध कर क्षरित करती चलती है स्त्री. विकल्पों और संभावनाओं के महल खड़े कर अपने छिलते वजूद को आधार देना चाहती है. शायद भगवा भेष धारण कर के जोगी मिल जाए उसे –
”जोगिया ने कहियो रे आदेस /
आऊँगी मैं, नांहि रहूंगी कर जोगन को भेस। चीर को फाड़ूं कंथा पहरूं, लेऊँगी उपदेस.
गिणत गिणत घिस गई रे मेरी उंगलियां की रेख। मुद्रा माला भेष लूं रे, खप्पड़ लेऊँ हाथ.
जोगिन होय जग ढूंढसूं रे, रावलिया के साथ.”
या प्रेम पगे उलाहने में अपने ‘त्याग’ की कातरता पिरोने से पिघल जाए वह –
”इतनूं काई छैं मिजाज, म्हारै मिंदर आता, थांने इतनूं काई छैं मिजाज..
तन मन धन सब अरपन कीनूं, छाड़ी छै कुल की लाज
दो कुल त्याग भई बैरागण, आप मिलण की लाग.”
या शायद पूर्ण समर्पण से उसका अहं तुष्ट हो जाए –
”जोगी आ जा आ जा, जोगी पाई परूं मैं हौं चेरी तेरी.”

इस स्त्री का एकमात्र जीवन-सत्य है – ‘रमइया बिन रह्यो ही नजाई.’ तन-मन को बांध जाती ठीक वही कामातुरता जो मित्रो (मित्रो मरजानी, कृष्णा सोबती) को डिप्टी के साहचर्य के लिए उन्मत्त बनाती है और अपनी कामनाओं की ‘वाचाल’ अभिव्यक्ति कर भीतर ही भीतर वर्जना-भंग के ‘सुख’ से आनंद पाती है. उल्लेखनीय है कि हिंदी कथा साहित्य में स्त्री की दैहिकता को पहली बार खुली-स्पष्ट शब्दाभिव्यक्ति देने वाली कृष्णा सोबती स्त्री को मिलन के सुख से वंचित करती हैं (मित्रो मरजानी) या सुखानुभूति के जरिए सार्थकता की परितृप्ति करने के बाद मिलन एवं साहचर्य को किसी क्षीण सी नैतिक रेखा के अधीन स्थगित कर देती हैं (सूरजमुखी अंधेरे के)। यह परम्परा का स्वीकार है ? अंततः नैतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण न कर पाने की कातरता ? अथवा स्त्री सम्बन्धी पुरुष-निर्मित मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों को धता बता कर स्त्री मानस का सही परिचय देने की व्याकुलता ताकि स्त्री-पुरुष सम्बन्ध एवं सामाजिक व्यवस्था की पुनर्संरचना नई आधारभूमि पर संभव हो सके ? मीरा के पदों को यदि आध्यात्मिकता के कुहासे से मुक्त किया जाए तो वे जीवन के राग, उल्लास, उत्सव और ठाठ-बाट के साथ ऐन्द्रिकता के उद्दाम का भी संस्पर्श करते हैं. घनघोर लौकितता के बीच घोर शृंगारिक बाना.मनोवृत्तियों का प्रकाशन भी ठीक नैसर्गिक रूप में है – व्यंग्य, आवेश, आक्रोश, पीड़ा, हठ, अहंकार. मीरा अपनी इच्छाओं के उच्छ्ल आवेग को जानती है, उन्हें पूरा करने की विधि नहीं जानती. यह उसका ‘दरद’ है क्योंकि लौकिक प्रिय के लौकिक स्वरूप को समाज स्वीकृति नहीं दे सकता. प्रेमदीवानी स्त्री की समाज में तभी स्वीकृति है जब उसका प्रेम पति को निवेदित हो गृहस्थ धर्म का पर्याय बन जाए या ईश्वर को निवेदित होकर अध्यात्म का उदात्त भाव जो अपनी लौकिक व्यंजना में पति में ईश्वरत्व का आरोपण कर उसकी सत्ता को स्वयंसिद्ध एवं अ-चुनौतीपूर्ण बनाए रखने का उपक्रम मात्र है.

 जब-जब स्त्री ने अपने प्रेम की उत्कटता को मजनूं, रांझा या फरहाद का नाम देकर किसी जीवित पुरुष को सामने रख कर राग भरे संयुक्त जीवन का स्वप्न देखा है, समाज ने लैला, हीर और शीरीं के रूप में अंकुराती स्त्री-स्वच्छंदता को जड़ से उखाड़ फेंका है. प्रेमोन्मादिनी स्त्री गृहस्थी के लिए, पुरुष के वर्चस्व के लिए, सम्बन्धों के विषमतामूलक ढांचे की दीर्घायु के लिए, धर्म एवं राजसत्ता के लिए चुनौती है जो अपनी निरीहता में समूची व्यवस्था की मजबूत आधारशिला को हिलाने का सामर्थ्य रखती है. स्त्री के परकीय प्रेम की स्वीकृति का अर्थ है स्त्री की स्वतंत्र सत्ता, योनिकता और महत्वाकांक्षा की स्वीकृति जो अपने लिए क्रमशः आधी जमीन और आधा असमान मांगने के उपरांत षड्यंत्रकारी समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का साहस जुटाएगी. मीरा के पद प्रेमाकुल मीरा के जीवनोल्लास, मोहभंग और समर्पण के तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं के जरिए व्यवस्था के समक्ष स्त्री की असफल संघर्ष-यात्रा का आरेखन करते है. मीरा लौकिक प्रिय (जोगी) से नहीं मिल सकती. अपनी संस्कारग्रस्तता (जिसे स्त्री के शील और संकोच के रूप में महिमामंडित किया जाता है), प्रिय की कायरता (जो पुरुष की भ्रमरवृत्ति के रूप में उसके पौरुष का शृंगार कही जाती है, किंतु स्त्री की दृष्टि में यह उसकी लम्पटता है) अथवा पारिवारिक नियंत्रण के कारण यह प्रेम सिरे नहीं चढ़ता. मीरा शील और संकोच को अंगूठा दिखा कर अपनी कामनाओं को अभिव्यक्त कर चुकी है.  परिवार के अंकुश बेमानी हैं. रमते जोगी से संवाद और ‘दरस’ पाने के लिए साधु-संगति शुरु कर दी है. ”गिरधर गास्यां, सती न होस्यां, मन मोह्यो घण नामी. जेठ बहू को नहिं राणाजी, थे सेवक म्हे स्वामी.’  बस, मात खाई है तो प्रेमी की भ्रमरवृत्ति से जो अभिज्ञान बन कर उसे विकल्पहीन सान्त्वना तो देती है, किंतु सब कुछ खो देने के उपरांत –
”जो मैं ऐसो जानती रै, प्रीत किए दुख होय/ नगर ढिंढोरा फेरती रै, प्रीत करो मत कोय।”

इस प्रेम-प्रवंचिता ने घर खोया है, अंतरंग सम्बन्ध की हार्दिकता के प्रति विश्वास को खोया है, यथार्थ जगत की विभीषिका के साथ-साथ पग-पग पर अपनी (स्त्री जाति की) सीमाबद्धता का साक्षात्कार किया है. घर-बाहर लीक से हट कर कुछ करने को स्वतंत्र नहीं. वर्तुलाकार परिधि में इन्द्रियों को नकार कर जीने वाली जीवन यात्रा – यही है कुल स्त्री जीवन. मीरा की स्त्री फैल-फूट कर अपना वजूद पाना चाहती है, किंतु अंकुराने के लिए बित्ता भर जगह और बूंद भर नमी भी नहीं पाती. सपनों का नष्ट हो जाना मनुष्यता का नष्ट हो जाना है. मीरा के भीतर जीवन ठाठें मार रहा है. वह अपने को बचाना चाहती है. इसलिए प्रेम पर भक्ति का अरोपण कर प्रिय की स्मृतियों के साथ अपने अनुभव संसार – प्रीत – को अमर कर देना चाहती है –
”जोगिया सों प्रीत कियां दुख होय।प्रीत कियां सुख नहिं मोरी सजनी, जोगी मीत न कोई
रात दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियां बिन मोई / ऐसी सूरत या जग माहीं, फेरि न देखी सोई . . .
मिलिया आनंद होई।’
अब जोगी गिरधर है और मीरा गोपिका।  प्रेम पर दार्शनिकता के आवरण का खेल मजे से चल सकता है-
”आज्यो आज्यो गोविंदा म्हारै म्हैल/ निहारां थारी बाटड़ली खड़ी जी
साधु हमारी आतमा जी, हम साधुन की देह /रोम रोम में रम रही जी,ज्यूं बादल में मेह /सुरत हरि नाम से लागी जी.”
तथा
”आवो आवो जी रंगभीना म्हारै म्हैल, प्यालो तो लियां हाजर खड़ी। सतजुग में सूती रही, त्रेता लई जगाय.
द्वापर में समझी नहीं, कलजुग पोंहच्यो आय। सतगुरु शब्द उचारिया जी, बिनती करों सुनाय.
मीरां नैं गिरधर मिल्या जी, निरभै मंगल गाय.

मीरा के विरह पदों में मूर्त का अमूर्तीकरण व्यवस्था के प्रति मीरा के निरुपाय समर्थन की दमघोंटू व्यथा है. यही कारण है कि मीरा के इन तथाकथित भक्ति पदों की उत्कटता, हार्दिकता एवं भास्वरता क्षीणतर होते-होते भक्ति के लयबद्ध सुमिरन में घुट कर रह गई है. तुलनात्मक अध्ययन हेतु दो पद उद्धृत हैं:
”ए दोई नैण कह्यो नहिं मानैं, नदियां बहै जैसे सावन की /कहा करूं कछु नहिं बस मेरो, पांख नहिं उड़ जावन की
मीरा कहै प्रभु कब रै मिलैगो, चेरी भई हूं तेरे दावन की”
तथा
”पिया म्हारै नैनां आगै रहज्यो जी।नैनां आगे रहजो म्हाने, भूल मत जाज्यो जी.
भोसागर में बही जात हूं, बेग म्हारी सुध लीज्यो जी। मीरां के प्रभु गिरधर नागर, मिल बिछुरन मत कीज्यो जी.”
भक्ति के आरोपण के कारण मीरा अपनी ही कही बात उलटाने को विवश हुई है. जोगी को ढूंढने के लिए मीरा को ‘चारूं देस में’ घर-घर अलख जगाना पड़ा है. संभवतया तीर्थाटन जैसे स्त्री-निषिद्ध कर्म में लीन होने की तत्परता के पीछे संकल्पदृढ़ प्रेम विरहिणी स्त्री की प्रिय (शरीरी पुरुष) अथवा स्वप्न पुरुष (अशरीरी) को पाने की क्षीण आकांक्षा रही हो, किंतु अब जब से प्रिय गिरधर या सांवरिया हो गया है, निर्गुण संत कवियों की तरह वह उसके हृदय में बसने लगा है . ”जिनके पिया परदेस बसत हैं, लिख लिख भेजैं पाती।/मेरे पिया मेरे मांहि बसत हैं, कहूं न आती जाती।” संभवतया यह वही स्टेज है जब मीरा वृंदावन-काशी आदि में घूमने, साधु-संतों की संगति करने के उपरांत स्थायी तौर पर द्वारिका में बसी थीं – द्वारिका जो जीवन-राग से आपूरित रसिया कृष्ण की नहीं, रणछोड़ कृष्ण की नगरी है। तो क्या रणछोड़ की शरण में आना मीरा द्वारा अपने ‘रण’ को छोड़ने का सार्वजनिक ऐलान है? क्या यह समर्पण और विश्रांति की अवस्था है जहां जीवन की निस्सारता और अपने संघर्ष की व्यर्थता देख कर मृत्यु की प्रतीक्षा जीवन का अंतिम विकल्प बनती है?क्या यह सचमुच मीरा के संघर्ष की व्यर्थता है?
मीरा के विद्रोह की निस्सारता





 ‘माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल’

मीरा के भीतर की नारी वैषम्य एवं दमन पर आश्रित विवाह संस्था की जड़ता के कारण आहत है. प्रेम उसे परिपूर्णता नहीं दे पाता क्योंकि लोकापवाद का भय स्त्री के लिए सारे दरवाजे बंद रखता है. अलबत्ता पुरुष चाहे तो प्रेम के नाम पर कितनी ही स्त्रियों का आखेट करने को स्वतंत्र है. मीरा सहअस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना करना चाहती है, लेकिन चाह कर भी अपने लिए मनमीत नहीं जुटा पाती. उसकी ‘बात’ समझने के लिए उसकी ‘भाषा’ और ‘विचार’ से कोई साझा तक नहीं करना चाहता. वह अकेली है लेकिन पराजित नहीं. स्वप्न-पुरुष की तलाश में बेशक असफल रही है, किंतु स्त्री की दृष्टि से स्वप्न-पुरुष की आधारभूत विशिष्टताओं को गिनाना नहीं भूलती. पुरुष ही सदा सर्वदा आदर्श स्त्री-छवि की सैद्धांतिकी क्यों गढ़े ? वह सबसे पहले स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में परस्पर समानता, सद्भाव और हार्दिकता की मांग करती है जहां किसी एक का व्यक्तित्व दूसरे का विलयन न करे, बल्कि साथ-साथ विकास और परिष्कार की संभावनाओं को फलीभूत करे. ऐसी अवस्था में कोई एक श्रेष्ठ और दूसरा हीन, कोई एक उपास्य और दूसरा उपासक नहीं होगा बल्कि एक-दूसरे से निरपेक्ष अपने आप में पूर्ण होंगे. पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री के पुरुष निरपेक्ष रूप पर विचार करने की स्वतंत्रता ही नहीं देती. मीरा इस व्यवस्था का अतिक्रमण करने के लिए स्वप्न-लोक रचती है जहां की सामाजिकता विवाह-सूत्र में बंधी स्त्री के समक्ष न पातिव्रत्य की कठोर एकांगी साधना का आदर्श प्रस्तुत करती है, न वैधव्य का अभिशाप.
‘अचल सुहाग’ का वरदान देने वाला ‘वर’ मीरा की दृष्टि में ‘जगदीस’ से कम नहीं क्योंकि पुरुष वर्चस्व को कोई अलौकिक सत्ता ही मात कर सकती है, अकेली स्त्री या स्त्रियों का समवेत स्वर नहीं. ‘ऐसे वर को क्या वरूं जो जन्मे और मर जाए’ – मीरा अभिधात्मक अर्थ में अविनाशी पुरुष की कामना नहीं कर रही, वह सम्बन्ध को जन्म और मृत्यु के आदि-अंत से मुक्त कर नित्य और नवीन कर देना चाहती है.

ऐसा पूर्ण पुरुष निश्चय ही पत्नी से बौद्धिक-मानसिक-भावनात्मक ऐक्य की अपेक्षा करेगा, उसकी देह पर अपनी सत्ता की दंभी घोषणा करते सुहाग-चिन्हों की अनिवार्यता की नहीं. ”मांग और पाटी उतार धरूंगी, ना पहिरूं कर चूड़ो/ मीरा हठीली कहे संतन सों, बर पाया छै मैं पूरो”  – मीरा इन सुहाग-चिन्हों में अपने स्त्रीत्व और निजता की पराजय अनुभव कर रही है. मीरा आरोपित विवाह सम्बन्ध को अस्वीकार कर स्त्री द्वारा स्वयं पति रूप में पुरुष का वरण करने की स्वतंत्रता की पक्षधर है. विवाह संस्था स्त्री की देह पर की जाने वाली द्विपक्षीय संधि नहीं, न ही प्रतिशोध और प्रतिकार की अमानुषिकता. विवाह सम्बन्ध देह का कामुक खेल या कुलवृद्धि का शुष्क दायित्व नहीं, जीवन सहचर पाने की अनुराग भरी प्रक्रिया है. फलतः सम्बन्ध न आनन फानन में तय हों, न बाहरी दबाव से. ठगे जाने की प्रतीति ही न रहे, इसलिए ठोक बजा कर साथी ढूंढने का अवसर और अधिकार पाना चाहती है मीरा.  यहां न नारीसुलभ लज्जा की स्वीकृति है (मैं तो देख्यो है घूंघट के पट खोल), न अज्ञानी और अव्यावहारिक स्त्री की स्तुति (मैं तो लियो है बराबर तोल). मीरा की पूर्ण-पुरुष की प्रत्याशा वस्तुतः विवाह संस्था की जड़ताओं का नकार है. यह एक ऐसे समन्वित स्त्रीवाद (प्दजमहतंजमक थ्मउपदपेउ) का स्वप्न है जहां स्त्री ‘मनुष्य’ है. पत्नी, परित्यक्ता, विधवा या वेश्या नहीं और पुरुष भी ‘मनुष्य’ है, पति और रसिया नहीं. यह वही समन्वित स्त्रीवाद है जो मिथकों में अर्धनारीश्वर की परिकल्पना के जरिए और समकालीन हिंदी साहित्य में मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘कठगुलाब’ के विपिन और गुजराती साहित्य में कुंदनिका कापड़िया के उपन्यास ‘दीवारों के पार आकाश’ के आनंदग्राम के पुरुष पात्रों के जरिए उभर कर आता है.

मीरा का स्वप्न-पुरुष रसिया कृष्ण के रूपक में उपस्थित होकर दाम्पत्येतर प्रेम का पैरोकार भी है. प्रेम को समय व समाज की संकुलता से मुक्त कर वह दिक्काल से जोड़ता है जहां ‘स्व’ से ‘समाज’ और ‘आनंद’ से ‘आत्मोपलब्धि’ की बीहड़ अंतर्यात्राएं हैं. पूर्वजन्म की गोपिका के रूप में रसिया कृष्ण के संग चीरहरण सरीखी लीला का आनंद उठाने की कसमसाहट मीरा के पदों में एकाधिक बार व्यक्त हुई है. दरअसल यह आकांक्षा वर्जनाहीन प्रेम सम्बन्ध को छक कर जीने की मानवीय कामना है जो स्त्री के लिए निषिद्ध है. मीरा निषिद्ध को अपना अधिकार मानना चाहती है किंतु साथ ही जानती है कि उसकी स्त्री मुक्ति की अवधारणा ‘स्वप्न-पुरुष’ की विवेकशील अवधारणा के बिना संभव नहीं. क्या इस ‘स्वप्न-पुरुष’ को वह जीवन में पा सकेगी ? नहीं, ‘अड़सठ तीरथों’ का भ्रमण करके और ‘वृंदावन कासी’ की खाक छान कर भी उसकी उपलब्धि शून्य है – ”वै न मिले जिनकी हम दासी.” मीरा को कहीं विश्वास था कि साधुओं की नगरी वृंदावन-काशी में शायद उसे मनवांछित पुरुष मिल जाए लेकिन वहां या तो सभी ब्राह्यण-बनिए (क्षुद्र लौकिकताओं में लीन आत्मकामी पुरुष) थे या संन्यासी (आध्यात्मिक आनंद की तलाश में भटकते वीतरागी पुरुष). इनमें भी मनुष्यत्व का नाम नहीं. अमूमन सभी ‘बगल में छुरी, मुंह में राम राम’ के बिंब हो साकार करते हुए विश्वासघाती. इसलिए मीरा भौतिक जगत में स्वप्न-पुरुष की तलाश छोड़ कर रसिया कृष्ण की अमूर्त छवि में ही अपनी आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों को केन्द्रित करने लगती है. उसका स्वप्न-पुरुष समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और राग का प्रसार करता एक अमूर्त विचार है जिसकी ठोस लौकिक उपस्थिति हर काल के स्त्री विमर्श का वरेण्य बिंदु है.

मीरा अंत तक आशा का संबल नहीं छोड़ना चाहती – ”म्हारा गिरधर रसिया छैल, मैं तो चालूं थारी गैल” किंतु लगता है कि अब ‘स्वप्न-पुरुष’ को आदर्शीकृत करते-करते वह स्वयं ही थक गई है. या शायद भीतर निहित अवश स्त्री भटकते-टूटते पूरी आक्रामकता के साथ उनके स्वप्नों को छिन्न-भिन्न करने में लगी है. यह स्त्री मूलतः दासी है अपने ही हाथों अपनी स्वतंत्रता का हनन करने को तत्पर! इसलिए नया जोखिम उठाने की अपेक्षा ‘स्वप्न-पुरुष’ में लौकिक पति की विशिष्टताएं रख देती है. अब उसे सहचर नहीं, उद्धारक की तलाश है – ”वेग पधारो सांवरा कठिन बनी है, आप बिन म्हारो कुण धनी है.” विद्रोह और दीनता के दो कूलों में प्रवाहित मीरा के स्त्री विमर्श का यह अंतर्विरोध समकालीन स्त्री विमर्श में भी कमोबेश इसी रूप में उपस्थित है जो स्त्री मुक्ति आंदोलन को ‘मानवीय पहचान’ का आंदोलन न बना कर पुरुष की स्वीकृति और अनुकंपा पाने का उपहासास्पद अनुष्ठान बना देता है.
क्रमशः 

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ISSN 2394-093X
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