‘बरजी मैं काही की नाहिं रहूं’ — मीराबाई : हिंदी की पहली स्त्रीवादी : पहली क़िस्त

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

साहित्य समाज का दर्पण है. जब वह युगीन यथार्थ को प्रतिबिंबित करता है तो उसका लक्ष्य दोहरा होता है. एक, युगीन विकृतियों, विसंगतियों और रुग्णताओं को विश्लेषण का विषय बना कर उनके निवारण हेतु समुचित समाधान खोजना. दूसरा, अपने अनुभव-सत्य से गुजर कर बेहतर भविष्य के निर्माण  हेतु भावी पीढ़ी का दिशा-निर्देश करना. मीरा का काव्य स्त्री-मानस की पीड़ा को शब्द देता है. मीरा के युग में स्त्री आत्माभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र नहीं थी. वह पुरुष के उपयोग-उपभोग के लिए थी और पुरुष की दृष्टि से देखी जाती थी. स्त्री के सुख-दुख, सपने-आकांक्षाएं, वर्तमान-भविष्य उसके अपने भीतर निहित नहीं थे, पुरुष-समाज द्वारा प्रत्यारोपित किए जाते थे. इसलिए स्त्री की नजर से स्त्री-मानस को पढ़ने का संस्कार और आवश्यकता मध्ययुग में कहीं दिखाई नहीं देती. 1498 से 1546 तक की जिस कालावधि में मीरा के होने का अनुमान इतिहासकार लगाते हैं, वह काल हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है. भक्तिकाल सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक उत्पीड़न के विरोध में उठा एक सांस्कृतिक आंदोलन है जो व्यक्ति की ऐहिक-ऐन्द्रिक सत्ता को झुठला कर परलोक की सम्मोहक अवधारणा समक्ष रखता है. चाहे इसे नैराश्य से उबरने का जिजीविषापूर्ण प्रयास कहा जाए या अपनी क्षीण होती अस्मिता को बचाने की अकुलाहट – भक्ति आंदोलन ने पारलौकिकता के गाढ़े आवरण के बीच व्यक्ति की भौतिक सत्ता, समाज-व्यवस्था और सम्बन्धों के महीन अंतर्जाल को गहराई से देखा-परखा है. अलबत्ता लोक और परलोक के बीच अपने को स्थापित करने की द्वंद्वग्रस्तता भक्ति साहित्य में साफ झलकती है.

यह द्वंद्वग्रस्तता आत्मस्वीकृति चाहती है तो तत्काल आत्मनिषेध की गूंजती हुंकार से भयभीत हो पीछे हट जाती है. इसलिए विद्रोह और यथास्थितिवाद भक्तिकाल में साथ-साथ चले हैं. परवर्ती आलोचना इन द्वंद्वों को चिन्हित करने की अपेक्षा साहित्येतिहास के कालविभाजन और नामकरण को सटीक सिद्ध करने की कोशिश में सम्वत् 1350 से सम्वत् 1700 तक के मध्ययुगीन कालखंड को भक्ति-धारा से आप्लावित होने का पूर्वाग्रह लेकर चली है. यही कारण है कि वह मीरा काव्य की भास्वर आत्माभिव्यक्ति को अलक्षित कर उसे कबीर, सूर, तुलसी, रसखान सरीखे भक्त कवियों की कोटि में रखती आई है. परिणामस्वरूप मीरा-काव्य में निहित परिवार, कुलकानि, राजसत्ता के प्रति विद्रोह की तीव्र टंकार को लौकिक जीवन का निषेध कर अलौकिक ईश्वरीय सत्ता से जुड़ने की ललक के रूप में पढ़ा-गुना गया. आलोचना की यह परंपरागत दृष्टि मीरा-काव्य के मूल स्वर के साथ न्याय नहीं कर पाती. मीरा-काव्य के केन्द्र में है मीरा के भीतर की निखालिस स्त्री जो पुरुष-दृष्टि की चौकसी और दबाव से मुक्त हो अपने मनोजगत् में दहकती लालसाओं को निर्भीक भाव से व्यक्त कर रही है. वह अपने विरोध की प्रचंडता को भी जानती है, परकीय प्रेम के प्रति दुर्निवार आकर्षण की ‘अनैतिकता’ को भी और अकेले समाज से टकराने के जोखिम को भी. आज की आलोचना स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री की आत्माभिव्यक्ति को व्यापक सामाजिक संदर्भ में देखने की कोशिश करती है.

स्त्री विमर्श अस्मिता आंदोलन है. यह हाशिए पर धकेल दी गई अस्मिताओं को पुनः केन्द्र में लाने और उनकी मानवीय गरिमा को पुनप्रतिष्ठित करने का महाभियान है. स्त्री विमर्श अपनी मूल चेतना में स्त्री को पराधीन बनाने वाली पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का विश्लेषण करता है. यह स्त्री को दोयम दर्जे का प्राणी मानने का विरोध करता है और स्त्री को एक जीवंत मानवीय इकाई समझने का संस्कार देता है. स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पड़ताल करने के उपक्रम में विवाह संस्था, धर्म, न्याय और मीडिया की स्त्रीविरोधी भूमिका को प्रकाश में लाता है. यह ठीक वही भावोच्छ्वास है जो मीरा-काव्य में सर्वत्र बिखरा मिलता है. मीरा के काव्य में सर्वाधिक मुखर है विवाह संस्था के प्रति असंतोष का भाव जो राणाजी के जानलेवा षड्यंत्र और सास-ननद के उत्पीड़न के जरिए उभरता है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को शक्तिहीन करके पुरुष को बलशाली बनाने का महान उपक्रम है. स्त्री को शक्तिहीन और रिक्त करने की यह प्रक्रिया बेहद सूक्ष्म, जटिल, एवं संशिलष्ट है. एक ओर उसकी महत्ता के डंके पीट कर उसे शील, शक्ति और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री कहा जाता है तो दूसरी ओर कर्त्तव्यपरायणता,
एकनिष्ठा, सहिष्णुता, त्याग और क्षमा जैसे उच्चादर्शों में बांध उसकी परिधि को बेहद संकुचित कर दिया जाता है. स्त्री अपने लिए नहीं जीती.उसे दूसरों के लिए जीना सिखाया जाता है.

पुरुष के लिए, पुरुष के परिवार के लिए, पुरुषनिर्मित व्यवस्था के लिए.  इसीलिए परिभाषाओं और वर्जनाओं में मात्र उसी की सत्ता को बांधा जाता है, पुरुष की नही. जन्म से स्त्री और पुरुष दोनों संस्कार रूप में इन परिभाषाओं और वर्जनाओं को मूक भाव से स्वीकार करते हैं और उन्हीं के अनुरूप अपनी जीवन-शैली विकसित करते हैं. सामान्यतया कहीं विवाद या संवाद की कोई गुंजाइश नही. किंतु मीरा के साथ ऐसा नहीं हुआ. निःसंदेह पितृगृह में उन्होंने भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का शासन और अनुशासन देखा होगा और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में असमानता की बात उनके रोजमर्रा के जीवन से होकर गुजरी होगी. किंतु अनुभव के स्तर पर शायद अनुशासन और असमानता को उन्होंने न भोगा हो क्योंकि आम राजपूत कन्याओं से भिन्न उनकी शिक्षा-दीक्षा चचेरे भाई जयमल के साथ हुई. अंतःपुर से बाहर निकल कर भाई के संग शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार ने मीरा में निश्चय ही एक स्वतंत्रचेता व्यक्तित्व का विकास किया जो विवेक, स्वाभिमान और दृढ़ता के सहारे अपनी मानवीय गरिमा अक्षुण्ण रखना जानता है. पुरुषों को ये गुण श्रेष्ठ बनाते हैं, स्त्रियों को जिद्दी, अहंकारी और कुलांगार. इसलिए पत्नी एवं कुलवधू के रूप में जैसे ही मीरा से पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा पोषित रूढ़ छवियों में बंधने की मांग की गई, स्वप्नद्रष्टा मीरा की स्वतंत्रता की भावना को गहरी ठेस लगी.



 ‘लोकलाज कुलकाण जगत की, दी बहाय ज्यूं पांणी. अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौरांणी.’ 

किसी भी आत्माभिमानी पुरुष की भांति मीरा अपने जीवन में किसी के अयाचित हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं कर सकती. अपने ढंग से जीना उसकी मजबूरी है. इस जीवन शैली में ‘मुंह उघाड़’ कर साधुओं की संगति का ‘दुस्साहस’ आए, तो भी. लेकिन मीरा का दुर्भाग्य है कि ‘सत्संगति’ की मामूली सी इच्छा को भी कोई स्वीकृति नहीं दे रहा है. सभी ओर से दुत्कार-फटकार-निषेध. मीरा चकित है और किंकर्त्तव्यविमूढ़ – ”राजा बरजै राणी बरजै, बरजै सब परिवारी/कुंवर पाटवी सो भी बरजै और सहेल्यां सारी.” जिस राणा से परिणय कर मेवाड़ आई, वह भी गरिया रहा है – ”राणो जी म्हासूं रूस रह्यौ छै, कूड़ा बचन निकासै हे माय.” यहां तक कि पितृकुल भी उसके संस्कार, शिक्षा-दीक्षा और निर्णय की अवमानना कर उसी को दोषी ठहरा रहा है -”मेड़तिया रा कागद आया, बाई मीरां ने जा खीज्ये जी/ बोहत भांति से लिख्याा ओलंभा, कुल कै दाग मत दीज्यो जी/ साधां को संग परो निवारे . . . पति आज्ञा में रीज्यो जी.” मीरा बताना चाहती है कि हरि भक्ति में लजाने जैसा कुछ भी नहीं. इससे तो उसके पितृकुल और श्वसुर कुल दोनों का ही उद्धार होगा – ‘एक कुल त्यारां राणा आपणो, दूजो बंस राठौड़. तीजो त्यारां जी राणा मेड़तो, चौथौ गढ़ चित्तौड़.” ननद ऊदांबाई ”साधां की संगत दुख भारी” कह कर जिस अभावग्रस्त जिंदगी की ओर संकेत करना चाहती है  , उसे तो मीरा मुक्ति का मार्ग समझती है. ”बास्या ता खास्यां टूकड़ा ये, बाई पीस्यां खाटी छाय।/भैं सोवां भूखां मरां ये, बाई जब रे मिलेगो हरि आय। माया म्है तो यूं तजी.”

मीरा परिवार से संवाद बनाए रखने की हर संभव कोशिश करती है. ननद ऊदां के सामने वह अपने अवश मन का रेशा-रेशा खोल देती है – ”यो मन लाग्यो वैराग से, रमस्या साधां री लार, संतां री लार, भक्ति न छूटै हरि नाम की.”अपने लौकिक अधिकारों एवं भौतिक सुखों का परित्याग करने में जरा भी संकोच नही.
”बाई ऊदां छोड्यो मैं मोत्यां को हार, गहणो तो पहर्यो सील संतोष को
 बाई ऊदां चढ़ चौबारा झांक, साधां की मंडली लागे सुहावणी.”
‘भाभी सब महलां में थारो सीर’ – ऊदां के प्रलोभनों से भी अडिग है मीरा – ”राजपाट भोगो तुम्हीं, हमें न तासूं काम.” अपने निर्णय को राणा तक पहुंचा कर वह निश्चिंत हो जाना चाहती है.
 ”मेरी बात नहीं जग छानी, ऊदांबाई समझो सुघर सयानी /साधू मात पिता कुल मेरे, सजन सनेही ज्ञानी
        संत चरन की सरन रैन दिन, सत्त कहत हूं बानी /राणा नैं समझावो जावो, मैं तो बात न मानी.”
चारित्रिक दृढ़ता एवं ईमानदारी के कारण पारदर्शिता मीरा की पहचान है और उसकी मानवीय रक्षा का प्रमुख घटक भी. मीरा ने छल या विश्वासघात नहीं किया तो लोकापवाद क्यो ? ‘संतन के ढिंग’ बैठने से और हरिभक्ति मे भावविभोर होकर नाचने से कुल की मर्यादा का हनन कैसे ?

 मीरा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के जड़ कठोर नियमों को नही  समझ सकती और स्वयं किसी तर्क द्वारा अपनी हार्दिकता और निश्छलता उस तक प्रेषित नहीं कर सकती. व्यवस्था और व्यक्ति के बीच संवाद संभव ही नहीं. इसलिए सम्बन्धों में घुटन और दरकन
”सास बुरी म्हारी ननद हठीली/जलबल होय जाय अंगीठी”
और
”राणा जी थे क्याने राखों मोंसू बैर/राणा जी म्हांने ऐसा लगत है ज्यूं बिरछन में कैर.”
या
”राणा जी का देस में कोई, जल पीबा को दोस.”
उत्पीड़न का संत्रास और संकल्पदृढ़ता का ठसका – मीरा अपने ही द्वंद्वों में अनिश्चित सी घिरी खड़ी है.
हेली म्हांसूं हरि बिन रह्यो न जाय। /सासु लड़ै मोरी ननद खिजावै, राणां रह्यो रिसाय
पहरो भी राख्यो, चोकी भी बिठाइयो, ताला दिया जुड़ाय /पूर्वजनम की प्रीत पुरानी सो क्यों छोड़ी जाय.”

मीरा सम्बन्धों में स्पेस चाहती है, सम्बन्धों से मुक्ति नहीं. उसकी मानसिक संरचना के ताने-बाने में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की रूढ़ छवियों के साथ स्वप्नशील व्यक्ति की सघन संवेदनशीलता है; कर्त्तव्यपालन की एकनिष्ठ दृढ़ता के साथ ‘स्व’ की सुरक्षा और सम्मान की मानवीय आकांक्षा भी. एक औसत स्त्री की तरह मीरा सरलहृदया है, किंतु औसत स्त्री से भिन्न ज्ञानपिपासु. सत्संगति के महत्व की जो सैद्धांतिक बातें वह पोथियों में पढ़ती आई है, क्यों न उन्हें जीवन में उतार जीवन सफल बना ले. साधु संगति मीरा के लिए ज्ञानार्जन और आत्मविस्तार का जरिया है . भौतिक जगत के रहस्यों को जानने, जगत के साथ अपने सम्बन्धों को गुनने और अपनी मानवीय सत्ता को एक सार्थक दिशा देने का. मीरा के अनुभव सीमित हैं – अपने ही वृत्त में बंद स्त्री जीवन की नियति के कारण. वह आरोपित स्त्री नियति से ऊपर उठ कर ‘अपने’ को तलाशना और संवारना चाहती है. उल्लेखनीय है कि इस तलाश में परिवार और सम्बन्धों का निषेध नहीं है, बल्कि उनके अर्थ और अंतरंगता का विस्तार है.
”माई म्हारै साधां रो इक्तयार है/ साधु ही पीहर साधु ही सासरो, सांवरिया भरतार है
जात पांत कुल कुटम कबीलो, साधू ही परवार है/मीरां के प्रभु गिरधर नागर, रमस्यां साधां री लार है.”
‘भाग खुल गए म्हारे साध संगत सूं’ – अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की विकलता मीरा के भीतर कितने ही संभव संकल्प-विकल्प जगाती है.

बरजी मैं काहू की नाहिं रहूं.. . . 
साध संगति करि हरि सुख ले, जगसूं मैं दूरी रहूं
तन धन मेरो सब ही जावो, भल मेरो सीस लहूं
मन मेरो लागो सुमिरन सेती, सबको मैं बोल सहूं.”
”सबको मैं बोल सहूं” कहने वाली नतशिर संयमी मीरा ‘म्हांने बोल्यां मत मारो जी राणां, यो लै थारो देस” कह कर राजसत्ता, पितृसत्ता, कुलकानि को ठोकर मारती विद्रोहिणी अनायास नहीं बनी है. तिरस्कार से अधिक दमन और उत्पीड़न ने उसके भीतर की कोमलता और मनुष्यता को आहत किया है. ‘गहरो लाग्यो है घाव’ – अपनी असुरक्षा से अधिक वे व्यक्ति के भीतर की अमानुषिकता को देख थर्रा गई हैं. वे स्तंभित हैं –
”सीसोद्या राणं प्यालो म्हांने क्यूं रे पठायो
       भली बुरी तो मैं नहिं कीन्हीं, क्यूं है रिसायो
. . .  कनक कटोरे ले विष घोल्यो, दयाराम पंडो लायो”
अवाक् भी –
”कोप कियो राणाजी जब ही, सांप गला में डार्यौ”
और अपमानित भी –
”राणूं मन में कोपियो जी, मारो याके सेल/ मार्यां तो पिराछित लागै जी, पीहर दो याकों मेल
रथड़ां बहल जुपाइया जी, ऊँटां कसिया भार/ डावो छोड़ो मेड़तो जी, पेलां पोषर जाय
राणां साड्यां मोकल्या जी, पाछा ल्यावो मोड़/ कुल की मांडण इस्तरी, मुरड़ चली राठोड़.”
घरेलू हिंसा की शिकार औसत स्त्री सरीखी मीरा के पास दो ही विकल्प हैं – रो-रो कर प्राण दे दे या सजग-चौकन्नी होकर अपने प्राण और स्वाभिमान की रक्षा करे.

सर्पदंश को पुष्पहार और विष को अमृत बना लेने का जीवट सामान्यतया स्त्रियों के पास नहीं होता. मीरा के पास है. एक नहीं, कई अहम फैसलों के रूप में. सबसे पहले आत्मसाक्षात्कार कि क्या खरा-खोटा सब डंके की चोट पर कह देने की निर्भीकता उसमें है ? मीरा यहां जरा भी संशयग्रस्त नहीं. ”जो कोउ मोको एक कहोगो, एक की लाख कहोंगी.” फिर विश्लेषण! जो व्यक्ति सम्बन्ध की गरिमा का निर्वाह न कर पाए, क्या उससे सम्बन्ध बनाया और निभाया जाना चाहिए ? बेहद आधुनिक सवाल जिसका जवाब गुनने में दोषारोपण हेतु उठी एक उंगली यदि दूसरों की ओर है तो अपनी ओर उठी हैं तीन अंगुलियां. मीरा क्षणिक आवेश में नहीं, धीरज के साथ गुन-बुन कर दाम्पत्य सम्बन्ध को नकारती हैं.
”राणांजी हूं तो गिरधर कै मन भाई/ जैमल के घरि जनम लियो है, राणा नैं परणाई.
सांचा सनेही म्हारै रामसंतजन, जासूं प्रीति लगाई./ जौ पकड़ोगा हाथ हमारो, खबरदार मन माही
सांचा मनसूं सराप ज द्यूंली, बलि’र भसम होइ जाई/जनम जनम की मैं दासी राम की, थारी नाहिं लुगाई.”
इतना ही महत्वपूर्ण है दूसरा सवाल कि जिससे सम्बन्ध त्याग दिया है, क्या उसके भौतिक-सामाजिक संरक्षण में रहना चाहिए ? आत्माभिमान से दिपदिपाती मीरा किसी भी आधुनिक विद्रोहिणी से कमतर नहीं.’खीर खांड’, ‘दिखणी चीर’ और ‘माणक मोती’ का परित्याग तो मीरा ने कब से कर रखा है, फिर दो मुट्ठी अन्न के लिए राणा की क्या धौंस – ”हो जी सीसोद्या राणा, मनड़ो बैरागी धन रो क्या करूं।” जब राह अलग है (‘मान अपमान दोउ धर पटके, निकली हूं ज्ञान गली) और जीवन शैली भी (पग घुंघरू बांध मीरा नाचत री/ पगा बजावत घूंघरा जी, हाथ बजावत ताल) तो राणा की सत्ता की क्या परवाह – ”तुम जावो राणा घर आपणे, मेरी तेरी नाहिं सरी”।

इसके बाद शेष रह जाता है अपनी स्वतंत्र राहों का अन्वेषण – कुल की मर्यादा या राजसत्ता पर आंच आती हो अपने कुल का पर्दा करने की जिम्मेदारी उनकी.  मीरा की निस्संगता और निर्ममता में लक्ष्यसिद्धि के लिए दृढ़संकल्प मनुष्य की एकनिष्ठ टंकार है – ”बाल्हा मैं बैरागिण हूंगी हो/जीं जीं भेस म्हारो साहिब रीझे, सोई-सोई भेस धरूंगी हो/. . .साधां संग रहूंगी हो.” दरअसल जब मीरा यह कहती है कि ‘अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौरानी’ तब दो चीजों को एक साथ परिलक्षित किया जा सकता है. एक, हताशा के गर्भ से फूटता स्त्री का विद्रोह और स्त्री के ‘मनुष्यत्व’ की रक्षा के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था के स्वरूप की पुनर्संरचना.मीरा का विद्रोह उन स्थितियों की पड़ताल करने की नैतिक जवाबदेही है जो ‘अबला’ कही जाने वाली निरीह पराश्रित स्त्री को ‘बौराने’ और ‘आक्रामक’ होने को विवश करती हैं; बार-बार उन पूर्वाग्रहों और जड़ताओं को चिन्ह लेने की आकांक्षा करता है जो स्त्री की आत्मविकास की नैसर्गिक आकांक्षा को ‘लोकलाज’ और ‘कुलकानि’ के उल्लंघन से जोड़ता है – उस कुत्सित मानसिकता को तुरंत निषिद्ध कर देने की मांग करता है जो पुरुष और व्यवस्था की हर अमानुषिकता को अनुशासन और नियम-पालन का पर्याय बना देती है.

ल्लेखनीय है कि संवैधानिक कानूनों और सामाजिक अधिकारों के बावजूद आज भी स्वतंत्रचेता स्त्री उन्मुक्त सांस लेने की हर कोशिश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बंद दरवाजों के बाहर खड़ी है; उसकी मानवीय आकांक्षाएं आज भी मीरा की तरह लगभग पांच सौ वर्ष बाद भी पूर्ति की राह देख रही है.मीरा का काव्य विद्रोहिणी स्त्री पर लगाए गए इन आरोपों का जवाब है कि वह स्वतंत्रता की आड़ में सम्बन्ध-व्यवस्था से मुक्त हो उच्छ्रंखल जीवन जीना चाहती है.बेशक बेहद मुखर हो मीरा स्वीकार करती है कि ‘मोहे या बदनामी लागै मीठी . . .मैं चाल चलूंगी अपूठी” लेकिन विद्रोह के हर बढ़ते कदम के साथ वह मानवीय सम्बन्धों के मानवीय, अंतरंग और सकारात्मक स्वरूप को स्वीकृति देती गई है. बेशक मीरा मनुष्य के रूप में अपनी गरिमा और आत्मसम्मान बनाए रखना चाहती है, लेकिन ‘सतीत्व’ का अस्वीकार भी नहीं करती. विवाह और परिवार संस्था के नकार की बात वह सोचती भी नहीं.  हां, उसके स्वरूप को पुनर्संस्कारित करना चाहती है जहां पति राणा जैसा क्रूर आत्मकेन्द्रित स्वार्थी पुरुष नहीं, कृष्ण जैसा संवेदनशील पुरुष है.
क्रमशः 

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ISSN 2394-093X
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