यौन हिंसा और न्याय की भाषा: पांचवी क़िस्त

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

न्याधाशीशों ने फिर से अपनी मर्दवादी जुबान खोली. खबर है कि गुजरात के जज महोदय ने गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड, आगजनी और बलात्कार पर अपना न्याय देते हुए कहा कि ‘आगजनी और हत्याकांड के बीच बलात्कार नहीं हो सकता है.’ उन्हीं जज साहब ने अभियुक्तों से यह भी कहा कि हम आपके चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं.’जजसाहबों का मर्दवादी मिजाज न्याय नहीं है, ऐसे अनेक निर्णय हैं, जिनमें वे बलात्कार पर निर्णय देते हुए खासे कवित्वपूर्ण हो जाते रहे हैं. इसके पहले भी भंवरी देवी बलात्कार काण्ड में निर्णय देते हुए जज साहब ने कहा था कि ‘ जो पुरुष  किसी नीची जाति की महिला का जूठा नहीं खा सकता  वह उसका बलात्कार कैसे कर सकता है?’ यह विचित्र देश है. कल ही नायक का तमगा लिए सलमान खान साहब ने भी बलात्कार के दर्द की तुलना अपने काम के थकान से पैदा दर्द से करते पाये गये. यह एक मानसिकता है. न्यायालयों की इसी सोच और भाषा पर स्त्रीवादी ऐडवोकेट अरविंद जैन ने काफी विस्तार से लिखा था कभी, काफी चर्चित लेख. स्त्रीकाल के पाठकों के लिए उसे धारवाहिक प्रकाशित कर रहे हैं हम.


पहली क़िस्त पढने के लिए क्लिक करें : 
यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा : पहली क़िस्त 

दूसरी क़िस्त पढने के लिए क्लिक करें:
तीसरी  क़िस्त पढने के लिए क्लिक करें:
चौथी क़िस्त पढ़ने के लिए क्लिक करें
यौन हिंसा और न्याय की भाषा: चौथी  क़िस्त







बचपन से बलात्कार : हत्या

जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य50 एकमात्र निर्णय है, जिसमें छह वर्षीया लडक़ी (सकीना) के साथ बलात्कार के बाद हत्या के अपराध में फाँसी की सजा हुई. गवर्नर और राष्ट्रपति द्वारा रहम की अपील रद्द होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी पुनर्विचार याचिका या रिट पिटीशन रद्द की गई. इस दुर्भाग्यपूर्ण मुकदमे में 26 जून, 1983 को करीब चार बजे जुम्मन मियाँ ने अपने पड़ोसी यूसुफ खाँ की पत्नी दुल्हे खान बेगम से प्रार्थना की कि वह अपनी बेटी सकीना को उसके साथ बाजार भेज दे, वह उसके लिए आइसक्रीम लाना चाहता है. बेगम ने बिटिया जुम्मन के साथ भेज दी और खुद सो गई. घंटे-भर बाद उठी तो देखा बेटी अभी तक नहीं आई. पहले उसने सोचा शायद बाहर बच्चों के साथ खेल रही होगी. लेकिन समय बीता तो वह घबराई. इधर-उधर देखने के बाद जब सकीना नहीं मिली तो वह खुद जुम्मन के घर पहुँची लेकिन वहाँ ताला लगा मिला. पति आए करीब सात बजे तो अड़ोस-पड़ोस में बच्ची ढूँढ़ते रहे, पर बच्ची होती तो मिलती. मामला सुन-सुनकर भीड़ इकट्ठी हो गई. जब यूसुफ खान दोबारा जुम्मन के घर जा रहे थे तो पड़ोसी ने बताया कि करीब साढ़े चार बजे उसने सकीना को एक हाथ में आइसक्रीम लिये, जुम्मन की उँगली पकड़े घर में घुसते हुए देखा था. दूसरे ने बताया कि वह जुम्मन के घर के आगे से गुजर रहा था तो उसने घर के अन्दर से आती बच्ची के रोने की आवाज सुनी थी. उत्तेजित भीड़ जुम्मन के घर पहुँची और दरवाजे के सुराख से टॉर्च जलाकर देखा तो अन्दर चारपाई पर बुर्के में लिपटी बच्ची की लाश पड़ी थी. दरवाजा तोडक़र भीड़ अन्दर पहुँची तो पाया कि लाश सकीना की ही थी, जिसके शरीर पर काफी चोटों के निशान मौजूद थे.

आगरा के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने जुम्मन को फाँसी का हुक्म दिया. उच्च न्यायालय ने भी फैसले की पुष्टि करते हुए कहा, ”अपराधी के जघन्य और अमानुषिक कृत्यों को देखते हुए वह किसी प्रकार की नरमी का अधिकारी नहीं है. उसने सोच-समझकर छह साल की बेबस बच्ची के साथ बलात्कार किया है और गला घोंट कर हत्या करने तक गया है. उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध जुम्मन ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च, 1986 को याचिका खारिज करते हुए ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, ”जहाँ अपराध समाज के विरुद्ध हो, वहाँ ऐसे गम्भीर मामलों में मृत्युदंड की सजा न देना विशेषकर हत्या के ऐसे मामलों में जो अत्यन्त नृशंसता के साथ किए गए हों, भारतीय दंड संहिता की धारा 302 जो (फाँसी की सजा का प्रावधान करती है) को शून्य में बदलना होगा।. अदालत का यह कर्तव्य है कि अपराध की गम्भीरता के अनुसार उचित सजा के निर्णय सुनाए. सामाजिक आवश्यकता और सम्भावित अपराधियों को रोकने के लिए भी एकमात्र उचित सजा जो अपराधी जुम्मन को मिलनी चाहिए, वह मृत्युदंड के अलावा और कुछ भी नहीं हो सकती, क्योंकि उसने अपनी कामपिपासा शान्त करने के लिए, एक निर्दोष बच्ची की भयंकर तरीके से कलंकपूर्ण हत्या का अपराध किया है.


जुम्मन ने 12 अप्रैल, 1986 को गवर्नर से रहम की अपील भी की जो 18 फरवरी, 1988 को रद्द हो गई. राष्ट्रपति ने भी रहम की अपील 10 जून, 1988 को ठुकरा दी. 15 जुलाई, 1988 को दूसरी रहम की अपील की गई. इसके बाद 10 नवम्बर, 1988 को फिर सुप्रीम कोर्ट में एक रिट दाखिल की गई, जिसमें मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई और फिलहाल के लिए मृत्युदंड रुकवा दिया गया. इस याचिका को भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों ने 30 नवम्बर, 1990 को मानने से इनकार कर दिया. जुम्मन के विद्वान वकील श्री आर.के . जैन (जो मृत्युदंड के कट्टर विरोधी हैं) की सारी दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्तियों को सजा घटाने का कोई उचित आधार या तर्क नजर नहीं आया। कैसे आता ? लेकिन दुखद तथ्य यह है कि जुम्मन खान के बाद भी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार के बाद हत्या के मामलों को ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ नहीं माना गया. अनेक फैसले इसका प्रमाण हैं.
राजकीय महाविद्यालय, सुनाम के प्रोफेसर गुरपाल सिंह अपनी पत्नी मनजीत कौर और करीब दो वर्षीया बेटी मल्हार के साथ अपनी भानजी की शादी के अवसर पर चुघे कलाँ (पंजाब) गए हुए थे. शादी के अगले दिन 21 मार्च, 1991 को मल्हार, हरचेत सिंह की गोदी में रही थी. हरचेत सिंह (उम्र 29 साल) गुरपाल सिंह के जीजा कश्मीरा सिंह का मित्र था जो घर अक्सर आता रहता था. दूल्ला-दुल्हन के जाने के बाद गुरपाल सिंह और उनकी पत्नी ने जब मल्हार की तलाश की तो आसपास कहीं नहीं मिली. काफी ढूँढऩे के बाद जब वे खेत में पहुँचे तो देखा कि हरचेत सिंह दो वर्षीया मल्हार के साथ बलात्कार कर रहा है. उन्हें देखकर हरचेत सिंह भाग खड़ा हुआ। मल्हार के पास पहुँचे तो वह खून से लथपथ दम तोड़ चुकी थी.

 पुलिस-थाना-कोर्ट-कचहरी-गवाहों के बयान और वकीलों की बहस सुनने के बाद भटिंडा के सत्र न्यायाधीश ने हरचेत सिंह को बलात्कार के जुर्म में उम्रकैद और दो हजार रुपया जुर्माने और हत्या के जुर्म में फाँसी और दो हजार रुपया जुर्माने की सजा सुनाई. लेकिन पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति श्री जय सिंह शेखो और ए.एस. नेहरा ने अपील में फाँसी की सजा रद्द करके सिर्फ आजीवन कैद का फैसला50 सुनाते हुए कहा, ”सजा के सवाल पर बहस सुनने के बाद, हम महसूस करते हैं कि यह केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभÓ की श्रेणी में नहीं आता है. अतएव माननीय न्यायमूर्तियों ने फाँसी की सजा देने से मना कर दिया था. दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने भी राज्य बनाम अतरू रहमान51 में फाँसी की सजा की पुष्टि नहीं की थी. हालाँकि अभियुक्त ने छह साल की बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी. जुम्मन खान के मामले में52 सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यहाँ लागू नहीं होता। (जिसे सेशन जज ने आधार माना है) क्योंकि ”उस केस में जुम्मन ने पहले से सोच-समझ और पूरी तैयारी के साथ बेबस बच्ची के साथ बलात्कार किया था, गला घोंटकर हत्या की थी. प्रस्तुत मुकदमे में मृतक (मल्हार) की मृत्यु बलात्कार के कारण पीड़ा, खून बहने व सदमे से हुई है जो आमतौर पर मृत्यु के लिए काफी है. अपराध कामपिपासा शान्त करने के लिए किया गया था. पहले से दोनों पक्षों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी. ऐसा लगता है कि अपीलार्थी में कामपिपासा इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उसे आदमी के रूप में जानवर बना दिया था.


दो साल की बच्ची के साथ 29 वर्षीय नौजवान आदमी बलात्कार करेगा तो निश्चित ही है कि बच्ची जिन्दा कैसे बचेगी ? कामपिपासा शान्त करने के लिए, दो साल की बच्ची के साथ ऐसा कुकर्म ? इससे अधिक घृणित और जघन्यतम अपराध और क्या होगा ? जब इसे घृणित और ‘जघन्यतम अपराध’ मान लिया जाता है तो यह कहने का क्या अर्थ है कि यह ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं है. आदमी जब जानवर (भेडिय़ा) हो जाए तो उसे आजीवन कैद में रखने का मतलब सजा देना है और ऐसे भेडिय़ों को जेल में सुरक्षित रखना ? दिल्ली प्रशासन बनाम पन्नालाल उर्फ पंडितजी उर्फ बन्ना उर्फ सरदार में दो वर्षीय नीतू के साथ बलात्कार और हत्या के अपराध में सत्र न्यायाधीश श्री एम.एम. अग्रवाल ने फाँसी की सजा सुनाई मगर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों (श्रीमती सुनन्दा भंडारे और अनिलदेव सिंह) ने उम्रकैद में बदल दिया. हालाँकि निर्णय में स्वीकार किया गया है कि ”दो साल की बच्ची को एक विकृत पुरुष की हवस का शिकार होते देखना, बेहद घृणास्पद है. बेबस बच्चों से बलात्कार के कँपा देनेवाले अपराध, सचमुच कानून द्वारा निर्धारित अधिकतम दंड के अधिकारी हैं लेकिन…53 मृत्युदंड को आजीवन कैद और आजीवन कैद को दस साल कारावास में बदलना यह प्रथम और अन्तिम फैसला नहीं है. सत्र-न्यायमूर्तियों ने अधिकांश मामलों में सजा कम की है, जिसका व्यापक स्तर पर असर हुआ है. प्राय: हर मामले में अपील दायर की जाती है. अपील मंजूर होने पर जमानत होने की सम्भावना और फैसला होने तक आजादी से इनकार नहीं किया जा सकता. अपील का फैसला होने में (पाँच से बीस साल तक) तो समय लगेगा. लगता ही है.

रियासत बनाम उत्तर प्रदेश, छह साल की गुडिय़ा के साथ बलात्कार के बाद नृशंस हत्या की भयावह कहानी है. गुडिय़ा हरिजन बाप बदलू की बेटी का नाम है, जिसकी रियासत ने 31 जनवरी, 1991 को गन्ने के खेत में बलात्कार के बाद उस समय हत्या कर दी. जब सारे देश में हर्षोल्लास के साथ रविदास जयन्ती मनाई जा रही थी। हरिद्वार के जिला व सत्र न्यायाधीश श्री जे.सी. गुप्ता ने रियासत को मृत्युदंड सुनाया लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस.के. मुखर्जी और जे. पी. सेमवाल ने फाँसी की सजा रद्द करके उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा, ”बलात्कार करने के बाद अपीलार्थी ने हत्या की है. हत्या पहले से सोचकर, योजनाबद्ध या संकल्प के साथ नहीं की गई. हत्या मात्र अधीरता या इस भय के बाद की गई कि कहीं मृतक भेद न खोल दे. अपराधी एक नौजवान व्यक्ति है और गुडिय़ा के साथ बलात्कार करने के बाद अपने आपे में नहीं रहा और उसी बीमार मानसिक स्थिति में उसने हत्या कर दी. यह कर्म एक प्रकार की मानसिक विक्षिप्तता की तरफ ले जाता है. हत्या के मामले में आमतौर पर सजा उम्रकैद होती है. विशेष मामलों में निर्णय के कारण लिखकर मृत्युदंड भी दिया जा सकता है. अपीलार्थी उम्रकैद की सजा भुगत सकता है और उसे भविष्य में ऐसा अपराध करने का मौका नहीं मिलेगा.54 विनोद बनाम राज्य में 11-12 साल की रेणु के साथ प्रेमदत्त ने शिव मन्दिर, अलीगढ़ में बलात्कार किया और उसके बाद हत्या. सत्र न्यायाधीश ने हत्या के लिए फाँसी की सजा सुनाई मगर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री गिरधर मालवीय और ए.बी. श्रीवास्तव ने फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलते हुए कहा, ”हमें लगता है कि यह केस फाँसी की अधिकतम सजा की माँग नहीं करता. अपीलार्थी जिसकी उम्र सिर्फ बाईस साल थी, ऐसा लगता है कि मृतका को अपने साथ हत्या करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी हवस पूरी करने के लिए ले गया था. हम महसूस करते हैं कि ‘न्याय का उद्देश्य’ अपराधी को उम्रकैद की सजा से पूरा हो
जाएगा.55

सिद्दिक  सिंह बनाम महाराष्ट्र 55ए में 26 वर्षीय, फौजी जवान द्वारा चार महीने की बच्ची के अपहरण,बलात्कार और हत्या (लाश अन्धे कुएँ में) के मामले में भी सजा उम्रकैद ही रही. हालाँकि न्यायमूर्तियों ने स्वीकारा, ”हमारे लिए इससे अधिक जघन्य बलात्कार की कल्पना तक करना कठिन है. निर्णय में जुम्मन खान का उल्लेख तक नहीं है. बच्चियों से बलात्कार और हत्या के अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें अभियुक्त को सन्देह का लाभ देकर बाइज्जत बरी किया गया है. पाँच वर्षीया सुकुमारी के साथ बलात्कार और हत्या के अपराध के एक मामले में मुजरिम को रिहा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस. रतनावेल पांडियन और के. जयचन्द्रा रेड्डी ने कहा, ”हम सचेत हैं कि एक गम्भीर और संगीन अपराध हुआ है, लेकिन जब अपराध का कोई सन्तोषजनक प्रमाण न हो तो हमारे पास अभियुक्त को सन्देह का लाभ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, इसलिए इस मुकदमे में हम ऐसा करने को विवश हैं55बी. चौदह वर्षीया लडक़ी माड़ी के साथ बलात्कार के बाद हत्या के एक और मामले में मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री जी.टी. नानावती ने लिखा है, ”लेकिन उपलब्ध साक्ष्य उच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदंड के कारणों को उचित नहीं ठहराते. साक्ष्यों से यह नहीं लगता कि अभियुक्त ने माड़ी को अचानक पकड़ लिया था और वह एकदम विवश थी. उसने अपनी सलवार पूरी तरह से उतार रखी थी जो शायद आवश्यक नहीं थी अगर वह केवल निवृत्त होने गई थी. घटनास्थल पर कोई पाखाना नहीं मिला. अगर उस पर इस प्रकार अचानक हमला हुआ था (जैसा कि उच्च न्यायालय ने माना है) तो वह पहले ही चिल्लाती न कि अपीलार्थी द्वारा बलात्कार शुरू करने के बाद….उसने अपनी सलवार ही नहीं उतारी हुई थी, बल्कि कुर्ता भी गर्दन पर चढ़ाया हुआ था….परिस्थितियाँ बताती हैं कि सम्भवत: आरम्भ में वह स्वयं भी अपीलार्थी को कुछ हद तक आजादी ले लेने के प्रति अनिच्छुक नहीं थी.


अपीलार्थी अपनी काम-इच्छा नहीं रोक पाने के कारण लडक़ी की अनिच्छा के बावजूद आगे बढ़ गया. इस पर लडक़ी ने प्रतिवाद किया और शोर मचाना शुरू किया. लडक़ी को शोर मचाने से रोकने के लिए अपीलार्थी ने सलवार उसके गले में बाँध दी जिससे उसकी दम घुटने से मृत्यु हो गई.55सी. माननीय न्यायमूर्ति के अनुसार लडक़ी कुछ हद तक ‘छेड़छाड़’ के लिए तो उत्सुक थी मगर सम्भोग के लिए राजी नहीं थी. अगर यह सच माना जाए तो उसे सलवार उतारने की क्या जरूरत थी ? चौदह वर्षीया लडक़ी की सहमति या असहमति का प्रश्न उठाना व्यर्थ है. बिना सलवार उतारे बलात्कार कैसे होता ? क्या अभियुक्त कुर्ता ऊपर नहीं कर सकता ? लडक़ी को चुप कराने के लिए सलवार से गला घोंटा गया है. बलात्कार और हत्या का उद्देश्य और कारण ‘कामपिपासा या हवस शान्त करना और विक्षिप्त या मानसिक बीमारी मानते हुए सजा कम करते निर्णयों से क्या ‘न्याय का लक्ष्य पूरा हो रहा है ? हो जाएगा ? सजा कम करने के लिए अगर अपीलार्थी की उम्र महत्त्वपूर्ण है, तेा अधिकतम दंड के लिए बलात्कार और हत्या की शिकार बच्ची की उम्र और अपराध की जघन्यता को कैसे भुलाया जा सकता है ? बच्चों से बलात्कार घृणित और जघन्यतम अपराध हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वयस्क महिलाओं से बलात्कार कम घृणित हैं.



न्याय का लक्ष्य

‘न्याय का लक्ष्य’ या ‘उद्देश्य’ पूरा हो या न हो, पुरुषों की हवस या कामपिपासा तो पूरी हो ही रही है. बच्चियों से बलात्कार में बढ़ोतरी का एक मुख्य कारण यह भी है कि युवा लड़कियाँ, बच्चियों की अपेक्षा अधिक विरोध कर सकती हैं, चीख सकती हैं और शिकायत कर सकती हैं. बलात्कारी पुरुष सोचता है–बच्चियाँ बेचारी क्या कर लेंगी ? विशेषकर जब बलात्कार घर में पिता, भाई, चाचा, ताऊ या अन्य रिश्तेदारों द्वारा किया गया है. अक्सर कम उम्र की बच्चियाँ बलात्कार के कारण मर जाती हैं. हत्या और बलात्कार के अधिकांश मामलों में अभियुक्त बरी हो जाता है या सजा कम करवा पाने में सफल क्योंकि लडक़ी गवाही के लिए अदालत के सामने नहीं होती. ऐसे में हो सकता है (होता है) कि अदालत की सहानुभूति मृतक ‘गुडिय़ा’, ‘मल्हार’ या ‘रेणु’ की बजाय बलात्कारी बटोर ले जाए.सजा के सवाल पर न्यायमूर्तियों के मानवीय दृष्टिकोण से न्याय का लक्ष्य, पूरा हो जाएगा–कहना कठिन है. लगभग सत्तर साल पहले लाहौर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने चेतावनी देते हुए कहा था कि ”औरतों पर हिंसा के अपराध के साथ, जो स्वयं अपनी रक्षा करने की स्थिति में नहीं हैं, सख्ती से निपटना पड़ेगा. यह अत्यन्त दुखद स्थिति होगी, अगर अपराधियों को यह सन्देश मिलता है कि औरतों के साथ हिंसा या बलात्कार करना कोई गम्भीर मसला नहीं है. और अगर वे अपेक्षाकृत कम कारावास की सजा भुगतने के लिए तैयार हों, तो वे हमेशा अपनी पाशविक कामनाओं को शान्त कर सकते हैं.56 यानी, कम सजा की सम्भावना, हिंसक अपराधों को शान्त कर सकते हैं.56 यानी, कम सजा की हिंसक अपराधों को बढ़ावा देती है. देती रहेगी. एक और न्यायमूर्ति के शब्दों में सजा कम करने का अर्थ ”असुरक्षित लड़कियों को समाज में भेडिय़ों के सामने छोड़ देना ही होगा.57 क्या ‘मानवाधिकार’ सिर्फ खूँख्वार अपराधियों के लिए ही हैं ? अपने बचाव में बालिग स्त्री को तो हत्या करने का कानूनी अधिकार है, मगर अबोध बच्चियाँ क्या करें ?

इसी सन्दर्भ में इमरतलाल के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति की विवशतापूर्ण टिप्पणी है, ”जब बलात्कार का अपराध सिद्ध हो जाए और वह भी छोटी उम्र की बच्ची के साथ तो ऐसे में अपराध की सजा कठोरता से दी जानी चाहिए. अपराधी को सिर्फ तीन साल कैद की सजा देने का अर्थ उसे ‘पिकनिक पर भेजना है. राज्य सरकार ने सजा को चुनौती नहीं दी है, इसलिए सजा बढ़ाई नहीं जा सकती.58 राज्य सरकार द्वारा ‘सजा को चुनौती’ न देने के कारण, अब तक न जाने कितने अपराधियों को ‘पिकनिक’ पर भेजना पड़ा है. कानूनी नियमों से बँधे न्याय की मजबूरी है.राज्य सरकार द्वारा सजा को चुनौती न दिए जाने के कारण अपराधी की सजा बढ़ाई नहीं जा सकती मगर घटाई जा सकती है. सजा कम करने का कारण, कभी अपराधी की ‘उम्र’ है तो कभी ‘नौकरी छूट जाना’ या ‘सामाजिक अपमान और बदनामी’ कुछ फैसलों की शुरुआत, ‘अधम, घृणित, जघन्य, भयावह, पाशविक वगैरह-वगैरह’ से होती है. फिर पाशविक इच्छाओं, यौनशुचिता, प्रतिष्ठा, गरिमा, सम्मान, नैतिकता और सामाजिक मान-मर्यादा का पाठ पढ़ाती कुछ नजीरों में बेहतरीन भाषा के नमूने. अन्य में ”यद्यपि अभियुक्त का अपराध बेहद घृणित और तिरस्कार योग्य है, लेकिन हम इसे अधिकतम सजा के लिए उपयुक्त नहीं मानते और दस वर्ष कारावास की वैकल्पिक सजा में बदल रहे हैं.59 क्योंकि अधिकतम सजा ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामलों में ही दी जानी चाहिए. स्कूल हेडमास्टर द्वारा दस वर्षीया बालिका से बलात्कार की इस घटना ने ‘गुरु-शिष्य के सम्माननीय सम्बन्धों को कलंकित किया है. लेकिन आजीवन कारावास की अधिकतम सजा ‘उचित’ नहीं हो सकती। न्यूनतम सजा से ही न्याय का लक्ष्य पूरा हो जाएगा.



रामरूपदास बनाम राज्य के उपरोक्त मामले में विद्वान न्यायमूर्ति ए. पासायत और एम. पटनायक के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की ‘भाषा का जादू’ भी देखा जा सकता है और ‘जादुई भाषा’ का कमाल भी. पूरा निर्णय उधार की भाषा में इस प्रकार लिखा गया है कि मुझ जैसे अनेक कानून के विद्यार्थी आश्चर्यचकित रह जाए. आधे से ज्यादा निर्णय में तो सर्वोच्च न्यायालय की नजीरों का उल्लेख तक नहीं किया गया. लगता है, न्यायमूर्तियों की मौलिक और अप्रकाशित रचना है. क्या ऐसे ही ‘न्याय की भाषा’ विकसित और समृद्ध होगी? जाहिर है, कैसे हो सकती है? स्त्री के विरुद्ध हिंसा के प्रति सहानुभूति और संवेदना की भाषा को टुकड़ों में काट-बाँट कर नहीं देखा जा सकता. परिपूर्णता में देखना होगा. यहाँ सर्वोच्च न्यायालय की नजीरों से आतंकित, न्यायिक विवेक सिर्फ विकल्प ढूँढ़ता दिखाई देता है. अपराध, अपराधी, तथ्यों, स्थितियों को, न्याय की तुला पर तौलते हाथ काँपते नजर आते हैं. क्यों?छह वर्षीया बालिका शिवानी के साथ पैंसठ वर्षीय वृद्ध पुरुष द्वारा बलात्कार के अपराध को जघन्यतम करार देते हुए भी, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी.के. बाहरी और एस.डी. पंडित ने सजा के सवाल पर कहा, ”इस घटना के बाद अभियुक्त की पत्नी की मृत्यु हो गई है. वह तब से अब तक जेल में है. बहुत बूढ़ा है. आंंशिक लिंगच्छेदन किया है. सहवास का केवल प्रयास किया है और बालिका के गुप्तांगों को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचा है. इन परिस्थितियों पर विचार करने के बाद हम, उम्रकैद की सजा कम करके दस साल कारावास में बदल रहे हैं.60 अपराध संगीन है लेकिन…

क्रमशः…..

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles