उपभोक्तावादी आधुनिकता की आजादी के बीच स्त्री

सुनीता

 शोधार्थी,  हिन्दी साहित्य, आंबेडकर  विश्वविघालय दिल्ली
संपर्क :sunitas988@gmail.com

90 के दशक में भारत देश ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए भूंमडलीकरण, बाजारवाद और उदारीकरण की नीति को अपनाया. जो एक तरफा ट्रैफिक की तरह यहाँ आ गया, जबकि हमारा देश इसके लिए तैयार नही था. भारत ने विकास के इस मॉडल को मात्र इसलिए अपनाया क्योंकि यह पश्चिम में फल—फूल रहा था. जिसका कारण था, पश्चिमी, सभ्यता और संस्कृति का इसके लिए पूर्णतः तैयार होना. परंतु भारत ने न तो उस विकास मॉडल का यहाँ की परिस्थितियों के साथ कोई पूर्व परीक्षण किया, दूसरा पूर्वी और पश्चिमी संस्कृति के भेद को भी नजरअंदाज किया. भारत में जिस तरह का सामाजिक ढाँचा है उसमें एक समूह का दूसरे समूह पर वर्चस्व देखने को मिलता है. सवर्ण का दलित पर, अमीर का गरीब पर और पुरुष का स्त्री पर. यहाँ आज भी सिर पर मैला ढोने वाले को कोई भी सवर्ण अपने घर में साथ बिठाकर चाय की प्याली नही पिलाता. जबकि पश्चिम में ऐसा होता है. ठीक यही स्थिति स्त्री-पुरुष संबंधो की भी है. हमारे समाज में स्त्री-पुरुष अनुपात में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है. यह स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध का प्रमुख कारण है. भारतीय समाज में स्त्री को पर्दे में रखने की संस्कृति रही है. लेकिन जब बाजारवाद आया तो उसने स्त्री को एक वस्तु बना कर पेश किया. देह की मुक्ति का नारा लगाया. इस आकस्मिक बदलाव को भारतीय पुरुष पचा नही पाया और स्त्री की इस नग्नता पर उसे एक खीज पैदा हुई. अपनी इस चिढ़ को उसने स्त्री पर घिनौने अपराध करके निकाला. क्योंकि पुरुष की मानसिकता बदलने की कोई पूर्व तैयारी हमारे समाज में नही की गयी. न तो उसकी परवरिश के माध्यम से और न ही उसकी शिक्षा-दीक्षा में लेकिन सामाजिक कलेवर बदल गया. आज भी ये दोनो विपरीत परिस्थितियाँ एक-दूसरे के साथ सामंजस्य नही बिठा पाई है.

महादेवी स्त्री और पुरुष को अलग-अलग भूमिकाओं में देखती है। उनका मानना है कि स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक मानसिकता वैपरीत्य द्वारा ही हमारा समाज सामंजस्यपूर्ण और अखण्ड हो सकता है. भारतीय समाज और संस्कृति को महादेवी ने स्त्री के अनुकूल नही पाया है. वह इसमें परिवर्तन की मांग करती है लेकिन स्त्री—विमर्श के उस पहलू की आलोचना करती है जिसमें स्त्री स्वयं पुरुष हो जाना चाहती है. वह इसे स्त्री के मधुर व्यक्तित्व को जलाकर उसकी भस्म से पुरुष की रूक्ष मूर्ति गढ़ लेना’ मानती है. अतः लेखिका का आग्रह है कि स्त्री पुरुष प्रवृति को नही ओढ़े बल्कि स्त्रीत्त्व की सीमाओं  और समस्याओ से संघर्ष करके स्त्री के अधिकारो और अस्तित्व को हासिल करे. वर्तमान में स्त्रियों को शैक्षिक , व्यवसायिक व राजनैतिक क्षेत्रो में प्रवेश ही नही बल्कि कई सम्मानित और प्रतिष्ठित पदों पर आसीन भी किया जा रहा है. लेकिन यह केवल सत्ता की प्रधानता का हस्तंातरण है न कि व्यवस्था-परिवर्तन. उसी पुरुषवादी व्यवस्था में स्त्रियों को स्थान दिया जा रहा है और उनसे प्रयत्क्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पुरुषों द्वारा निर्मित इस व्यवस्था में पुरुषों के ही हित सधवाएँ जा रहे हैं. यह मृग- मरीचिका की तरह है. जिसमें पारंपरिक स्त्रियोचित्त गुणो के प्रति भी विशेष जोर है. स्त्रीमुक्ति का संघर्ष दो अंतर्विरोधों से गुजरता है. पहला स्त्रियाँ, पुरुषों द्वारा निर्मित उनकी इस व्यवस्था का पूर्णतः निषेध करे. वे उसमें शमिल न हो और उन सभी चीजों को जिन पर पुरुष अपना दावा करते है, उस दुनिया से स्वयं को बाहर रखें और उसका पुरजोर विरोध करे. या फिर स्त्रियों को उसी अंधी दौड़ में शमिल हो जाना चाहिए, पुरुष पहले से ही जिसका हिस्सा है. इसका नकारात्मक प्रभाव यह होगा कि पुरुषों के दुर्गणों और कमियों को भी वे अख्तियार कर लेगी.

महादेवी का मानना है कि स्त्रियों द्वारा पुरुष बनने की कोशिश उन्हे कहीं नही पहुँचाएगी. यह भी एक तरह का पतन ही होगा. दूसरा सभ्यता के विकास के लिए उपार्जित ज्ञान और उत्पादन में स्त्री का भी सहयोग रहा है इसलिए उसे इनके निषेध की नहीं बल्कि अपनी प्रतिभा के बल पर उपयोग की आवश्यकता है. सीमोन द बोउआ लिखती है यदि कोई औरत कराटे सीखती है तो यह भी एक मर्दानी चीज़ है. हमें पुरुषों की दुनिया को नकाराना नही है, बल्कि उस पर लगा पुरुषत्व का ठप्पा मिटाना है क्योंकि कुछ भी हो यह दुनिया हम औरतो की भी तो है.’’ 1आत्मरक्षा में समर्थ स्त्रियाँ इस दुनिया में खुद को ज्यादा सहज और मुक्त महसूस करेंगी. भारतीय सरकार भी स्त्री शक्तिकरण की बात करती है. कुछ संगठन जैसे दुर्गावाहिनी’ और संघर्ष-वाहिनी’ महिलाओ को सशस्त्र प्रशिक्षण देते है, आत्मरक्षा के लिए. इस प्रयास की आलोचना हमें इस रूप में देखने को मिलती है कि समाज जैसा भी है, ठीक है और वह वैसा ही रहेगा. केवल स्त्री को इसके लिए तैयार करना है कि वह कैसे इस बर्बर व्यवस्था में सर्वाइव कर सके. वह भी हिंसा का मार्ग अपनाकरं वहीं नारीवादी, स्त्री के स्वतंत्र होने की मांग करते है न कि उसे वर्तमान व्यवस्था में ही सशक्त करने की. सत्ता पक्ष एक तरफ तो स्त्री सशक्तिकरण  की बात करेगा और दूसरी तरफ गोधरा ’ जैसे कांड करवाएगा, जिसमें स्त्री के भ्रूण को त्रिशूल से बाहर निकालकर उसे मारा गया.महादेवी स्त्री मुक्ति को केवल स्त्री के हित में नहीं बल्कि समाज के सर्वागीण विकास से जोड़कर देखती है. समाज  में स्त्री भी कुटुम्ब, समाज, नगर तथा राष्ट्र की विशिष्ट सदस्य है तथा उसकी प्रत्येक क्रिया का प्रतिफल सबके विकास में बाधा भी डाल सकता है और उनके मार्ग को प्रशस्त भी कर सकता है.’’2



महादेवी इस मुक्ति की लड़ाई में औरत से अपेक्षा करती है कि आज आजादी मांगने से मिलती कहाँ है ? आजादी तो हम औरतो को छीनकर लेनी होगी, पंरतु समता के नाम पर पश्चिम से उधार ली हुई समता की बात से मैं सहमत नही हूँ. समता की बात करके औरत मर्द बन जाना चाहती है, जबकि उसे मर्द नही, विवेकशील, विचारवान औरत बनना है और यह नए और पुराने के संतुलित समन्वय से संभव होगा.’’3 महादेवी के यहाँ स्त्री मुक्ति की लड़ाई में स्त्री का संघर्ष पुरुष से नही बल्कि पुरुष निर्मित व्यवस्था और केन्द्रित सत्ता से है। लेखिका एक ऐसे समतामूलक समाज की कल्पना करती है जहाँ स्त्री और पुरुष समान होते हुए भी भिन्न हो सकेंगे. इस पृथ्वी पर जीवन के सृजन का दायित्व स्त्री और पुरुष दोनो के मिलन पर ही आधारित है. ऐसे में हम पुरुष विहीन समाज की कल्पना कैसे कर सकते है ? आधुनिकीकरण ने स्त्री मुक्ति के जो विकल्प सामने रखे है,समलैंगिकता, किराए की कोख, गिलास की डिश में गर्भधारण, मातृत्त्व का मशीनीकरण आदि स्त्री और संपूर्ण सृष्टि को कहाँ पहुँचायेंगे. स्त्री -विमर्श में शुरूआती तौर पर ही गर्भ -निरोधक’ और गर्भपात ’ के अधिकार की मांग की जाती रही है और उसे स्त्री की मुक्ति से जोड़कर देखा जाता है. पर क्या ऐसे अधिकार स्त्री को सही अर्थो में मुक्त कर पाए हैं. क्योंकि स्त्री-पुरुष संबंध से अगर कोई सृष्टि होती है, तो उसकी पूरी जिम्मेदारी स्त्री की ही है, और इन अधिकारो के चलते उसे रोकने की जिम्मेदारी भी स्त्री की ही हो जाएगी. जिससे स्त्री तो नही पर पुरुष जरूर अतिरिक्त रूप में मुक्त हुआ है. इस बाजारवादी व्यवस्था में गर्भ-निरोधक’ और गर्भपात’ दोनो ही मुनाफे का बड़ा बाजार बनकर सामने आए है.

 स्त्री-शरीर कास्मेटिक उद्योग को भुनाने के लिए खान बन गया है. लेकिन इससे स्त्री के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिले है. हांलाकि इसमें कोई शक नही है कि गर्भनिरोधक ’ और गर्भपात ’ का कानूनी अधिकार स्त्री मुक्ति के संघर्ष में मददगार साबित हुए है. महादेवी का जोर मातृत्व की प्रतिष्ठा पर है किन्तु उस निर्णय का अधिकार स्त्री को हो.’ आधुनिक युग में महिलाओ को किराय की कोख’ के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा है. इसकी जड़ में वर्ग-विभाजन कार्य करता है. जहाँ इलीट क्लॉस की महिलाएँ अपनी शारीरिक निर्मितियों से भी मुक्त होना चाहती है. और इसका भार वह सर्वहारा वर्ग की महिलाओ पर डाल रही है. अतः इसने स्त्री-विमर्श में तो एक दरार डाली ही है साथ ही सीमोन और सुलमिथ फॉयरस्टोन जैसी उग्र नारीवादी लेखिकाओं के स्त्री-विमर्श की सीमा को भी उजागर किया है. सीमोन लिखती है कि अपनी  शारीरिक सीमाओं  से उबर कर ही औरत एक पूर्ण मनुष्य बन सकती है.’’4 पंरतु यह कैसे सम्भव है कि नारी मात्र अपने शरीर की प्राकृतिक निर्मित (मासिक धर्म, गर्भधारण, प्रसव, स्तनपान) का अतिक्रमण कर सके.उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रो की लड़कियों को राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के उन इलाको में बेच दिया जाता है जहाँ स्त्री अनुपात पुरुष की तुलना में बहुत कम है. शादी का छलावा देकर इन्हे यहाँ लाया जाता है और जब बच्चा पैदा हो जाता है, तब उस बच्चे के थोड़ा बड़ा होने तक उस महिला को रखा जाता है, फिर उसे छोड़ दिया जाता है। यह स्त्री के लिए बहुत बड़ी समस्या है जो उसके अस्तित्व पर खतरे की तरह है। इस प्रक्रिया में संतान को केवल पिता के अंश से उत्पन्न माना जाता है। माता का उस पर कोई अधिकार नही है. वह मात्र कोख है. जबकि महादेवी मातृत्व को स्त्री के स्वाभिमान और स्वत्व से जोड़कर देखती है.


मातृत्व स्त्री का वह गुण है. जो संपूर्ण सृष्टि की रचना का दायित्व निभाता है. आज पुरुष स्त्री के मातृत्व को भी उससे छीन लेना चाहता है. महादेवी मानती हैं कि आधुनिक स्त्री ने अपने जीवन को इतने परिश्रम और यत्न से जो रूप दिया है. वह बहुत सुंदर भविष्य का परिचायक नही जान पड़ता. पश्चिमी  स्त्री की स्थिति क्या यह प्रमाणित कर सकेगी कि वह आदिम नारी की दुर्बलताओ से रहित है ? सम्भवतः नही.  शृंगार के इतने संख्यातीत उपकरण, रूप को स्थिर रखने के इतने कृत्रिम साधन, आकर्षित करने के उपहास योग्य प्रयास आदि क्या इस विषय में कोई संदेह का स्थान रहने देते है ? नारी का रमणीत्व नष्ट नही हो सका, चाहे उसे गारिमा देनेवाले गुणों का नाश हो गया.’’5 समाज द्वारा स्त्री के दमन का यह भी एक पैतंरा है कि उसे स्वयं को सौदंर्य का पर्याय साबित करना है. इस कारण सौंदर्य उसके लिए एक मनोग्रंथि के रूप में बहुत घातक साबित होता है जो उसकी दिमागी चेतना और रचनात्मकता को समूलतः नष्ट करके दोयम दर्जे का बना देता है. महादेवी ने स्त्री मुक्ति में बौद्धिक सौदंर्य को महत्त्व दिया है. महादेवी ने स्त्रीत्त्व को भी दो भागो में बाँटकर देखा है. एक प्रसाधित  शृंगारित स्त्रीत्त्व’ जो आधुनिक नारी में विधमान है और दूसरा संस्कारित प्राकृतिक स्त्रीत्त्व’ जो मातृत्व की पूर्ति करता हुआ परम्परागत भारतीय स्त्री में विद्यमान है. सभी स्त्रियाँ फिर चाहे वह आधुनिकता से लेस हो या परम्परागत  रूढ़ि से बंधी हो, दोनो ही पराधीनता के बोझ को ढ़ो रही है. भारत देश पोर्न सिनेमा और साहित्य के बाजार में विश्व में तीसरे स्थान पर है.



यह बहुत ही शर्मनाक है कि इस तरह का असामाजिक उत्पादन और अश्लील गतिविधियाँ हमारे समाज में बड़ी तेजी से फैल रही है. इसमें प्रशासन की मिलीभगत देखने को मिलती है और सरकार लाचारी ओढ़े है. आखिर क्यों…? चुटकी बजाते ही हजारो वर्षो से स्त्रियों पर किए जा रहे इन अपराधो पर रोक नही लगेगी. न ही पलक झपकते उसकी सामाजिक हैसियत में कोई बदलाव आ जाएगा, क्योंकि ईमानदारी के साथ इसकी कोशिश कभी की ही नही जाती. जिसका सबसे बड़ा कारण है पुरुष समाज का वर्चस्व में होना जो यह कभी नही चाहेगा कि उसकी दासी उसके बराबर में आसीन हो. स्त्री की  शृंखला की कड़ियाँ आपस में एक-दूसरे से जुड़ी हुई संगुम्फित है. जिन्हे जड़ से शुरू कर परम्परा तक तोड़ते आना होगा. हमारे समाज में लिंग अनुपात में विषमता बढ़ती ही जा रही है. माँ-बाप नही चाहते कि वे बेटी को जन्म दे इसलिए इतनी बड़ी तादाद में कन्या भ्रूण हत्याएं  होती है. मैत्रेयी पुष्पा लिखती है कि समाज के विधायक, पंडित, पुरोहित, चिंतक और लेखक गौर करे कि उन्होंने अब तक स्त्री की स्तुति और निंदा में कहाँ कमी छोड़ दी थी कि वैज्ञानिको और चिकित्सकों ने उसको गायब करने के नायाब तरीके खोज लिए ?’’6  ऐसा नही है कि स्त्री जीवन को नष्ट करने के ऐसे घिनौने अपराध केवल आधुनिकता की देन है. बल्कि भारतीय संस्कृति में तो इसका लम्बा इतिहास रहा है. “Suraji
Jadesa was penalized Rs. 12,000 Case by British government for facilitating
female infanticide on November 6,1833”7 
फर्क सिर्फ  इतना है कि पहले यह कार्य लड़की के जन्म लेने के उपरांत उसके ही परिजनों या दाई द्वारा, उसके मुँह व नाक में गर्म रेत डालकर अथवा गला घोटकर उसे मार दिया जाता था. पर अब यह कार्य डॉक्टर अपनी मोटी फीस लेकर करते है. वह भी जन्म से पूर्व ही माँ के पेट में भ्रूण हत्या. जिसके प्रतिकुल प्रभाव उस गर्भवती स्त्री के मानस तथा शरीर पर भी होते है.


इस तरह की गैरकानूनी गतिविधि 70 के दशक में अस्तित्व में आयी. जब सर्वेक्षण से यह आंकडे़ सामने आए कि भारत में जनसंख्या वृद्धि का एक बड़ा कारण लोगो की पुत्र लालसा है. अतः डॅाक्टरो ने सरकारी तौर पर इसका एक तोड़ निकाला। सोनोग्राफी द्वारा लिंग की जाँच करके कन्या भ्रूण हत्या करना। यह सब बड़े ही गुप्त ढंग से जनसंख्या नियंत्रण की एक कोशिश के रूप में अपनाया गया. परंतु समाज में बढ़ते हुए लिंग अनुपात को देखते हुए जब इसे गैर कानूनी घोषित किया गया तब तक यह अपना व्यावसायिक रूप ले चुका था. आज भी कई निजी स्वास्थ्य संस्थान इस कार्य को अंजाम दे रहे है और पैसा कमा रहे है. वर्तमान में इस मुनाफे का लालच इतना अधिक बढ़ गया है कि डॉक्टर, परिजनों  को गलत रिर्पोट देकर भी भ्रूण हत्याएँ कर रहे है. आखिर क्यो भारतीय संस्कृति स्त्री-विरोधी है. माता-पिता क्यों बेटी के जन्म से डरते है ? क्योंकि उन्हे बेटी के विवाह में अपने जीवन की सारी जमा पूंजी दहेज में देनी पड़ती है. वर्तमान समय में दहेज की मात्रा भी वर तथा वधू पक्ष की प्रतिष्ठा का सबब बन गयी है. उपभोक्तावादी संस्कृति ने दहेज जैसी कुप्रथा को और अधिक पुष्पित-पल्लवित किया है. दहेज-प्रथा के दो प्रमुख कारण रहे हैं, पहला पुत्री को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देना पड़े. दूसरा, भावी पत्नी का आार्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होना. दोनो ही कारण स्त्री की सामाजिक और परिवारिक स्थिति में गिरावट लाते है. आगे चलकर यह कुप्रथा पत्नी उत्पीड़न का पर्याय और स्त्री के प्रति बढ़ते अपराध का जरिया बन गयी. जिसे हिन्दु समाज परम्परा के रूप मैं आज भी ढो रहा है.अभिभावक लड़की की शिक्षा और रोजगार को उतना महत्त्व नही देते. न ही उसे अपना जीवन सवाँरने के लिए पर्याप्त समय देते है. वह बेटी को घर के बाहर भेजने से डरते है, उसे बाहर महफूज नही पाते. उन्हें डर है कि कही वह घर की मर्यादा तोड़कर प्रेम विवाह न कर ले.

हमारे समाज में स्त्री को अभी भी वरण की स्वतंत्रता नही है. ऑनर किलिंग जैसे भयानक अपराध आज भी होते है. दूसरा अगर किसी ने लड़की का अपहरण कर लिया उसके साथ बलात्कार किया तो परिवाार की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी . इसलिए उसे घर की चार दीवारी में कैद करके उस पर पहरे बिठाए जाते है. स्त्रीवदियों का मानना है कि बलात्कार एक पोलिटिकल ऐक्ट होता है. जिसमें सैक्स का आस्पैक्ट कम होता है जबकि जेंडर वर्चस्व अधिक. इस तरह बलात्कार पुरुषवादी प्रभुत्व दिखाने का माध्यम हैं. पूंजीवादी देशो में बलात्कार को शारीरिक एवं मानसिक ट्रोमा के रूप में माना जाता है. वही भारत में सामंतवादी मूल्यों के कारण अभी भी इसे मर्यादा भंग होने, इज्जत लुट जाने के रूप में देखा जाता है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत बलात्कार मृत्यु से बड़ा अभिशाप है और इससे बचने का उपाय यह कि स्त्री, घर परिवार और पितृसत्ता के नियंत्रण में रहे. अतः बलात्कार के लिए स्त्री स्वयं जिम्मेदार होती है क्योंकि उसने गृह और सम्मान की लक्ष्मण रेखा लाघंने की गलती की है. वही स्त्रीवादी इसे लैंगिक हिंसा मानते है और इससे लड़ने का तरीका यह है कि स्त्रियों में आत्मविश्वास पैदा किया जाए. उनके लिए सार्वजनिक स्थानों को और ज्यादा सुरक्षित बनाया जाए तथा बलात्कारियों को सख्त सजा दी जाय. अतः भय नही वरन संघर्ष लैंगिक हिंसा से लड़ने का साधन है.फैशन और पश्चिमी वस्तुओ तथा संस्कृति को सैक्स अतिरेक व महिला अपराधो से जोड़ कर देखा गया. ये कैसी सड़ी-गली मानसिकता और खोखले मूल्य है जिन्हें हमारा समाज आज तक ढ़ो रहा है. स्त्री आज भी इस उपभोक्तावादी आधुनिकता और सामंतशाही परम्परा रूपी चाक के दो पाटो के बीच पिस रही है.

भारतीय संस्कृति संयम प्रधान है. यहाँ ब्रह्मचारी का चित्र में स्त्री-दर्शन भी वर्ज्य है तथा एकान्त में माता की सन्निकटता भी अनुचित मानी गई. ऐसे अस्वभाविक वातावरण में बालक-बालिकाओ को पल कर बड़ा होना पड़ता है. घर और समाज दोनों उन्हे इतनी दूर रखते है कि एक संकीर्ण सीमा में निकट रहते हुए भी पिता, पुत्री, भाई-बहन अपने चारो ओर मिथ्या संकोच की दीवार खड़ी कर लेते है. घर  के वातावरण से निकलकर जब वे एक-दूसरे को कुछ निकट से देखने का अवकाश तथा सुविधा पा लेते है तब एक-दूसरे को जानने के कौतूहल में उस निर्धारित रेखा का उल्लघंन कर जाते है. इसमें किसी व्यक्ति विशेष को दोष देना व्यर्थ है.’’8 महादेवी ने स्त्री चिंतन के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया है कि किस तरह भारतीय समाज संक्रमणकालीन प्रभाव का शिकार हो रहा है. भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और आधुनिक भाव-बोध के बीच जो गहन अंतर्विरोध चल रहा है, उसने स्त्री के प्रति पुरुष की समझ को और अधिक विकृत बनाया है. तथा स्त्री की व्यवहारिक चुनौतियों को बढ़ाया है. व्यक्ति के निर्माण में महादेवी साहित्य और शिक्षा से बहुत अपेक्षाएँ रखती है परन्तु आधुनिक युवाओ पर साहित्य के प्रभाव को वह इन शब्दो में आंकती है कि आधुनिक साहित्यिक वातावरण में भी विकृत प्रेम का विष इस प्रकार घुल गया है कि बेचारे विद्यार्थी को जीवन की शिक्षा के प्रत्येक घूँट के साथ उसे अपने रक्त में मिलाना ही पड़ता है. कहानियों का आधार, कविता का अवलम्ब, उपन्यासो का आश्रय सब कुछ विकृत पार्थिव प्रेम ही है; जीवन-पुस्तक के और सारे अध्याय मानो नष्ट हो गए है, केवल यही परिच्छेद बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक पढ़ा जाने वाला है.’’9

महादेवी द्वारा साहित्यिक प्रभाव का यह एकतरफा विश्लेषण कहा जा सकता है. परंतु यह इतिहास की उस नब्ज को पकड़ने का प्रयास तो है ही जो युवको की अस्वस्थ मनोवृत्ति का कारण रही है; स्त्री की श्रृगांरिक निर्मिति.’ वर्तमान समय में इस अस्वस्थ्य मानसिकता की हैवानियत इतनी बढ़ गयी है कि 5 साल या उससे कम उम्र की बच्चियों के साथ भी बलात्कार जैसी घटनाएँ होती है. जिसमें एक अभियुक्त का बयान था कि इस घिनौने अपराध को अंजाम देने से पूर्व वह अपने मोबाइल फोन में अश्लील विडियों देख रहा था. यह घटना 19 अप्रैल 2013 की है. ऐसे न जाने कितने ही अपराध स्त्रियों के साथ हर रोज हो रहे है. 16 दिसम्बर 2012 की वारदात को कौन भूल सकता है. जिसने पूरे देश में महिलाओ की सुरक्षा और उनके प्रति समाज के नजरिये को लेकर एक उबाल सा ला दिया था. क्या आज भी हम उस सामंती बर्बर व्यवस्था में रह रहे है जहाँ स्त्री एक स्त्री होने के नाते महफूज नही है. पिछले दो-तीन दशको में भारतीय समाज में महिलाओ की स्थिति में बहुत से बदलाव आए है. परंतु आज भी यह विकट समस्या हमारे सामने मुँह बाए खड़ी है कि स्त्री की स्थिति में सुधार के लिए किस राह को चुना जाए. क्या हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति और मूल्यो की और लौटाना चाहिए ? स्त्री की वेशभूषा पर एक सांस्कृतिक पहरा हो. मंनोरंजन और साहित्य की दुनिया पर नैतिकता का आवरण चढ़ा दे. क्याेंकि इस तरह की आजादी और उन्मुक्तता के लिए हमारा समाज अभी तैयार नही हैं. इसलिए पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभाव को हमें अपने यहाँ आने से रोक देना चाहिए या फिर उसे अपने सांस्कृतिक कलेवर में फिट करके स्वीकार करना चाहिए. भारतीय समाज, संसद और धार्मिक संस्थानों में इस तरह की आवाजे निरंतर सुनाई देने लगी है परिवार  बचाओ’, भारतीय  संस्कृति की रक्षा’, वेदों की ओर लौटो.’

मान लीजिए अगर हम अपनी सामाजिक मुक्ति और स्त्री-सुधार के लिए यही राह चुनते है तो हम कहाँ पहुंचेंगे? समय कभी पीछे की ओर नही लौटता वह निरंतर गतिशील है. आज जिस संक्रमण को पूरा देश झेल रहा है, अब अगर उसकी दिशा मोड़ भी दी जाए तो आगे आने वाली पीढ़ियाँ फिर से इस दबाव को झेलेंगी. एक स्वस्थ और सभ्य समाज उसे कह सकते है जहाँ पुरुष का स्त्री के प्रति व्यवहार इस बात पर निर्भर नही करना चाहिए कि वह नग्न है, अर्धनग्न है या फिर सिर से पांव तक बुर्के में ढकी हैं. यूरोपीय देशो की महिलाएँ अपने पहनावे, जीवन-शैली  और देह की स्वतंत्रता को लेकर मुक्त है वहाँ न यौन शुचिता का प्रश्न है और न ही उच्छ्न्खलता का. वहाँ स्त्री पर ऐसी कोई पाबन्दियाँ नही है न ही वह स्वयं को इतना असुरक्षित महसूस करती है.
मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि पश्चिमी समाज पितृसत्ता की सभी बुराइयों से मुक्त हैं. परंतु भारतीय स्त्री की सापेक्षता वहाँ स्त्रियाँ आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक और यौनिक स्तर पर अधिक महफूज और स्वतंत्र है. पश्चिम की स्त्री ने अपनी मुक्ति की लड़ाई में पुरुष के प्रति स्पर्धा के साथ ही उसे आकर्षित करने की प्रवृत्ति भी अपनाई. आधुनिक भारतीय महिलाओ में भी पश्चिमी स्त्री-विमर्श के इस पक्ष का अनुकरण देखने को मिलता है. जो उन्हें कही नही पहुँचाएगा. अनेक सामाजिक रूढ़ियों और परम्परागत संस्कारों के कारण उसे पश्चिमी स्त्री के समान न सुविधाएँ मिली और न सुयोग, परन्तु उसने उन्ही को अपना मार्ग दर्शक बनाना निश्चित किया. महादेवी इसका विरोध करती है. ऐसा नही है कि महादेवी स्त्री संबंधी पश्चिमी विचारो से आँख फेर लेना चाहती थी बल्कि कई मुद्दों पर उनके विचार पश्चिमी विचारो से साम्य रखते है. मसलन स्त्रियों की शिक्षा, उनका आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना तथा निर्णय लेने की स्वतंत्रता आदि.

महादेवी के यहाँ स्त्री मुक्ति का मॉडल, पश्चिम से एकदम भिन्न है. पश्चिमी स्त्रियों ने संघर्ष का माध्यम ध्वस को बनाया जिसमें स्त्री ने अपने स्त्रीत्व को क्षत-विक्षत कर डाला. पंरतु महादेवी संघर्ष के उस रूप को अपनाती है जो निमार्ण और विकास की ओर बढ़ता है. इसलिए वे स्त्री मुक्ति के साथ-साथ स्त्रीत्व के उन गुणो को बनाए रखना चाहती है जिनसे समाज में मातृत्व और मानवता फलती-फूलती रहे. एक स्वस्थ और सुंदर समाज का निर्माण हो सके. जब तक स्त्री घर के बाहर स्वयं को सुरक्षित नही पाएगी तब तक वह अपनी मुक्ति के संघर्ष को सही मंजिल तक नही ले जा सकती. अतः असुरक्षा के भय से वह फिर सामंतवादी पितृसत्तात्मक ढाँचे में कैद हो जाएगी. राज्य की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वह स्त्रियों को सुरक्षा मुहैया कराए. समाज को उनके लिए महफूज बनाए और अपनी इस जवाबदेही से सरकार भाग नही सकती. हालांकि भारत में दहेज हत्या, बलात्कार, घरेलू हिंसा और वेश्यावृत्ति की घटनाओ में कमी आने की बजाय बढ़ोत्तरी होती जा रही है. इसके अलावा कानून से सजा पाने वाले ऐसे अपराधियों की तादाद भी नगण्य है. स्त्री अधिकारो के प्रति बढ़ती चेतना के इस दौर में पास हुए तमाम कानून सही मायने में उपयोगी होने के बजाय सजावट की वस्तु साबित हुए है. महादेवी बहुत पहले ही इस विषय पर अपनी चिंता प्रकट कर चुकी है. वह लिखती है. कानून हमारे स्वत्वों की रक्षा का कारण न बनकर चीनियों के काठ के के जूते की तरह हमारे ही जीवन के आवश्यक तथा जन्मसिद्ध अधिकारों को संकुचित बनाता जा रहा है.’’10

संदर्भ
1. बोउआ, सीमोन दी, स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नही है (अनु. मनीषा पांडेय), पृ. 137
2. वर्मा, महादेवी,  शृंखला की कड़ियाँ, पृ. 17
3. वही, पृ. 19
4. बोआ, सीमोन दी, स्त्री—उपेक्षित (अनु. प्रभा खेतान), पृ. 223
5.वही, पृ. 39
6.पुष्पा, मैत्रेयी, खुली खिड़कियाँ, पृ. 50
7.Times of India, 11 July 2012
8. वर्मा, महादेवी,  शृंखला की कड़ियाँ, पृ. 107
9. वही, पृ. 108
10. वही, पृ. 68

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ISSN 2394-093X
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