यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा :सातवीं क़िस्त

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

न्याधाशीशों ने फिर से अपनी मर्दवादी जुबान खोली. खबर है कि गुजरात के जज महोदय ने गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड, आगजनी और बलात्कार पर अपना न्याय देते हुए कहा कि ‘आगजनी और हत्याकांड के बीच बलात्कार नहीं हो सकता है.’ उन्हीं जज साहब ने अभियुक्तों से यह भी कहा कि हम आपके चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं.’जजसाहबों का मर्दवादी मिजाज न्याय नहीं है, ऐसे अनेक निर्णय हैं, जिनमें वे बलात्कार पर निर्णय देते हुए खासे कवित्वपूर्ण हो जाते रहे हैं. इसके पहले भी भंवरी देवी बलात्कार काण्ड में निर्णय देते हुए जज साहब ने कहा था कि ‘ जो पुरुष  किसी नीची जाति की महिला का जूठा नहीं खा सकता  वह उसका बलात्कार कैसे कर सकता है?’ यह विचित्र देश है. कल ही नायक का तमगा लिए सलमान खान साहब ने भी बलात्कार के दर्द की तुलना अपने काम के थकान से पैदा दर्द से करते पाये गये. यह एक मानसिकता है. न्यायालयों की इसी सोच और भाषा पर स्त्रीवादी ऐडवोकेट अरविंद जैन ने काफी विस्तार से लिखा था कभी, काफी चर्चित लेख. स्त्रीकाल के पाठकों के लिए उसे धारवाहिक प्रकाशित कर रहे हैं हम.

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अदालती ‘आशा और विश्वास’    

मगर दिल्ली उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री जसपाल सिंह ने अपने निर्णय68ए में दुनिया-भर के सन्दर्भ, शोध और निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि लिंगच्छेदन बलात्कार के अपराध की अनिवार्य शर्त है. निर्णय के अन्त में दिशा-निर्देश देते हुए माननीय न्यायाधीश ने गम्भीरतापूर्वक लिखा, ”बाल यौन शोषण अत्यन्त गम्भीर और नुकसानदेह अपराधों में से एक है.  इसलिए सत्र न्यायाधीश को चाहिए कि वह इस केस को संवेदनशीलता से चलाएँ और यह भी सुनिश्चित करें कि मुकदमे की कार्यवाही न्यायसंगत हो. उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी ऐसा सवाल न पूछा जाए जो पेचीदा या उलझानेवाला हो…न्यायमूर्ति का यह निर्णय, सचमुच अनेक कारणों से पढऩे योग्य है. एक जगह तो न्यायमूर्ति आत्मनिरीक्षण करते हुए कहते हैं, ”इट इज आपलिंग टू वाच द डैथ एगनी ऑफ ए होप. मिस्टर जेटली वांटेड मी टू पुश फॉरवर्ड द ? टू द फ्यूचर्स फ्रंटलाइंस.  टू हिम, परहैप्स, आई रिमेन एन ओल्ड गार्ड हैंकरिंग डाउन इन द बंकर्स ऑफ टै्रडिशन. अखबारों में ‘बेटी से बलात्कार’ की खबरें प्राय: प्रकाशित होती ही रहती हैं. कभी प्राइवेट कम्पनी में मैनेजर (सुब्रतो राय) द्वारा अपनी अठारह वर्षीय बेटी से बलात्कार, कभी मध्यमवर्गीय (राजकुमार) द्वारा चौदह वर्षीय पुत्री के साथ बलात् सम्भोग, कभी स्कूटर ड्राइवर (अश्विनी सहगल) द्वारा आठ वर्षीय बेटी की ‘इज्जत बर्बाद  और कभी पिता व भाई दोनों ने मिलकर सोलह वर्षीय बहन-बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाया. लड़कियाँ सम्बन्धों की किसी भी छत के नीचे सुरक्षित नहीं.

भारतीय समाज में भी अमानवीयकरण इस कदर बढ़ गया है कि ऐसी खौफनाक दुर्घटनाओं की लगातार पुनरावृत्ति रुकने की सम्भावनाएँ समाप्त या लगभग शून्य हो गई हैं. अधिकांश मामलों में इसका एक मुख्य कारण पति-पत्नी के बीच तनाव, लड़ाई-झगड़ा या अलगाव है, दूसरा कारण है, बेटा न होने का दुख. बेटियाँ अपने ही घर में, अपने ही पिता, भाई या सम्बन्धियों के बीच भयभीत, आतंकित और असुरक्षित हो जाएँ तो उसे न सम्मान से जीने का कोई रास्ता नजर आता है और न गुमनाम मरने का.  बलात्कार की संस्कृति के सहारे पितृसत्ता अजर, अमर नजर आती है. नारायण इराना पोतकंडी बनाम महाराष्ट्र68बी में सात वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में माननीय न्यायमूर्ति श्री एम.एस. वैद्य ने सजा के सवाल पर कहा है कि जब कानून में न्यूनतम सजा दस साल निर्धारित की गई है तो किसी भी आधार पर सजा कम करना न्यायोचित नहीं. मुकदमे के निर्णय में उल्लेख किया है, ”अन्त में, दोनों पक्षों के वकीलों ने कहा कि बालिका-बलात्कार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, विशेषकर इस क्षेत्र में. यह बताया गया कि जिला अदालतों द्वारा इस प्रकार के मामलों में बच्चों की गवाही और अन्य साक्ष्यों सम्बन्धी कानूनी प्रावधान या आदेशों का सही ढंग से अनुपालन नहीं किया जाता है कि भविष्य में अदालतें इस प्रकार के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय और गुजरात उच्च न्यायालय के फैसलों के अनुसार ही कानून और प्रक्रिया का प्रयोग करेंगे. हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि ‘आशा और विश्वास’ भरे ऐसे दिशा-निर्देश सर्वोच्च न्यायालय के सत्र न्यायालय वाया उच्च न्यायालय शीघ्र समय से पहुँच जाएँगे.

इतनी सख्त सजा न्यायोचित नहीं

उल्लेखनीय है कि कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार करनेवाले युवक की उम्र अगर पच्चीस साल से अधिक नहीं है तो अधिकांश मामलों में, इसी आधार पर न्यायमूर्तियों ने सजा कम की है. कुछ मामलों में तो इतनी कम कि पढ़-सुनकर आश्चर्य होता है. उदाहरण के लिए अभियुक्त की उम्र बाईस साल है और वह कोई पेशेवर अपराधी नहीं है. इसलिए चार साल कैद की सजा घटाकर दो साल की जाती है.69 अपराध के समय अभियुक्त की उम्र सोलह साल थी. इसलिए सजा घटाकर पच्चीस दिन कैद की जाती है, जो वह पहले ही भुगत चुका है.70 अभियुक्त इक्कीस वर्षीय नौजवान है, जिसे पाँच साल कैद की सजा दी गई है. सात साल मुकदमा चलता रहा और अभियुक्त आठ महीने कैद काट चुका है. ऐसी हालत में उसकी सजा आठ महीने की काफी है. हाँ, कम सजा के बदले में एक हजार रुपया जुर्माना देना पड़ेगा.71 अभियुक्त की उम्र सिर्फ सत्रह-अठारह साल है. बलात्कार के अपराध में तीन साल कैद और एक हजार रुपए जुर्माने की सजा घटाकर सात महीने कैद करना उचित है, जो वह पहले ही काट चुका है. जुर्माना देने की कोई जरूरत नहीं.72



अभियुक्त की उम्र सोलह से अठारह वर्ष के बीच है. सजा में उदारता का अधिकारी है. पाँच साल कैद की सजा घटाकर ढाई साल करना न्यायोचित है. ढाई साल कैद में वह पहले ही रह चुका है.73 अभियुक्त की उम्र सोलह साल और बारह साल की बच्ची से बलात्कार की सजा कैद. अपराधियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण को देखते हुए. एक साल कारावास और एक हजार रुपए जुर्माना74. उम्र बाईस साल और नौ वर्षीया बालिका से बलात्कार की सजा सात साल कैद. बहुत हिंसा की है मगर गुप्तागों पर कोई चोट नहीं. सजा कम करके पाँच साल जेल. ‘न्याय का उद्देश्य’ पूरा हो जाएगा.75 दस साल की लडक़ी के साथ बलात्कार के अपराध में सत्रह वर्षीय युवक की सजा पाँच साल से कम करके चार साल कैद करने से भी ‘न्याय का लक्ष्य’ पूर्ण हो जाएगा76. अभियुक्त की उम्र मुश्किल से तेरह साल है. दो वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार की सजा चार साल कैद से घटाकर, एक साल कैद और दो हजार रुपए जुर्माना किया जाता है. लम्बी कैद की सजा अभियुक्त को कठोर अपराधी बना देगी. जुर्माना वसूल हो जाए तो रकम हर्जाने के रूप में लडक़ी की माँ को दे दी जाए. बाल अपराधियों के मामलों में समसामयिक अपराधशास्त्र के अनुसार मानवीय दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य.77
किशोरों को जेल या सुधार-गृह

बच्चियों से बलात्कार के मामलों में किशोरों और ‘टीन एजर’ युवकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. पन्द्रह वर्षीय युवक द्वारा सात वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार के अपराध में सत्र न्यायाधीश ने दस साल कैद और पाँच सौ रुपए जुर्माने की सजा सुनाई. लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने 1990 में अपील स्वीकार करते हुए कहा, ”अभियुक्त को जेल भेजने का अर्थ, इसे खूँखार अपराधी बनाना होगा. किशोर न्याय अधिनियम, 1986 और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 361 के अनुसार किशोर अपराधियों को जेल में नहीं, बल्कि सुधार-गृहों में रखा जाना चाहिए. अभियुक्त को तीन साल के लिए आन्ध्र प्रदेश ब्रोस्टल के स्कूल में भेजने के आदेश देते हुए न्यायमूर्ति ने जुर्माना वापस करने के भी आदेश दिए. अभियुक्त के वकील ने सजा कम करवाने का एक तर्क यह भी दिया था कि ”लडक़ा होटल में काम करता है और वयस्क यात्रियों को ‘ब्लू फिल्म’ व अन्य यौन क्रीड़ाएँ करते हुए देख-देखकर स्वयं भी अनुभव करने की इच्छा के फलस्वरूप ऐसा अपराध करने को उत्प्रेरित हुआ होगा. यह उसे छोड़ देने के लिए कोई उचित बहाना नहीं है, पर सजा के सवाल पर विचारणीय अवश्य है. बचाव पक्ष के वकील ने न्यायमूर्ति ओ. चिन्नप्पा रेड्डी द्वारा लिखी एक पुस्तक की भूमिका से दोहराया, ”आपराधिक कानून का उद्देश्य सिर्फ अपराधियों को पकडऩा, मुकदमा चलाना और सजा देना ही नहीं है, बल्कि अपराध के असली कारणों को भी जानना है. कानून का अन्तिम ध्येय अपराधियों को सिर्फ सजा देना ही नहीं है. जब भी, जहाँ सम्भव हो उन्हें सुधारना भी है.78

उपरोक्त निर्णय के विपरीत इसी उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने कुछ साल पूर्व 1984 में कहा था–
”सर्वज्ञात तथ्य है कि इधर कमजोर वर्ग, उदाहरण के लिए स्त्रियों पर अपराधों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है और ऐसे अपराधों को रोकना एक समस्या बन गई है. अब यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है कि औरतों पर बढ़ रहे हिंसक अपराधों को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएँ. अगर अपराधियों को ‘प्रोबेशन ऑफ अफेंडर्स एक्ट’ की लाभदायक धाराओं के अन्तर्गत ऐसे अपराधों में भी छोड़ दिया जाएगा तो यह निश्चित रूप से औरतों के विरुद्ध अपराधों को बढ़ावा देना ही होगा. यही नहीं, निर्दोष बच्चियों के विरुद्ध ऐसे अपराधों को रोकना एकदम असम्भव हो जाएगा. अगर ऐसे अपराधों को रोका नहीं गया तो सामाजिक सन्तुलन व औरतों के स्वतंत्रतापूर्वक आने-जाने के लिए ही धमकी बन जाएगा और समाज की सुरक्षा के लिए भयंकर खतरा.79 नि:सन्देह सामाजिक परिप्रेक्ष्य से परे हटते ही, न्यायमूर्ति की आँखों के सामने भ्रामक मिथ और मानसिक मकडज़ाल छाने लगता है. गवाहों, साक्ष्यों, रिपोर्टों, दस्तावेजों और स्थितियों के बीच तकनीकी विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध अनेक प्रकार से दिशाभ्रमित करते हैं. डॉक्टरी रिपोर्ट, पुलिस जाँच में घपले, सालों बाद गवाही में स्वाभाविक भूल, बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा गढ़े तर्क (कुतर्क), नई-पुरानी हजारों नजीरें और वर्षों फैसला न होने (करने) का दबाव या
अपराधबोध, यानी सब अभियुक्त के पक्ष में ही होता रहता है. जब तक सन्देह से परे तक अपराध सिद्ध न हो, अभियुक्त को निर्दोष माना जाएगा और पूरी व्यवस्था उसे बचाने में लगी रहती है.

परिणामस्वरूप अधिकांश (96 प्रतिशत) अभियुक्त बाइज्जत रिहा हो जाते हैं या सन्देह का लाभ पाकर मुक्त. जिन्हें बचाव का कोई (चोर) रास्ता नहीं मिल पाता, वे अपराधी भी किसी-न-किसी आधार पर न्यायमूर्ति से रहम की अपील मंजूर करवा ही लेते हैं. सजा कम करने के अनेक ‘उदारवादी’ निर्णय उपलब्ध हैं. सजा बढ़ाने के फैसले अपवादस्वरूप ही मिल सकते हैं. कुछ मामलों में तो न्यायमूर्तियों द्वारा सजा कम करने का एकमात्र कारण है.सालों से अपील की सुनवाई या फैसला न होना. अब इतने साल बाद सजा देने से भी क्या लाभ ? संसद द्वारा बनाए सम्बन्धित कानूनों की भाषा और परिभाषा दोनों ही आमूल-चूल संशोधन माँगती है. मगर विधि आयोग द्वारा संशोधन की सिफारिशों पर राष्ट्रीय बहस बाकी है. कानूनी लूपहोल या गहरे गड्ढों के रहते यौन हिंसा की शिकार स्त्री के साथ न्याय असम्भव है. अक्सर यह कहा जाता है कि कानून तो बहुत बने/बनाए गए हैं लेकिन उनका पालन सही ढंग से नहीं हो रहा है. काफी दार्शनिक अन्दाज में यह भी बार-बार सुनने में आता है कि सिर्फ कानून बनाने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता, नहीं होगा. समाधान के लिए समाज में जागरूकता, स्त्रियों में चेतना और पुरुष मानसिकता में बदलाव अनिवार्य है. बिना शिक्षा के यह सब कैसे होगा ? सभी को शिक्षित करने योग्य संसाधन ही नहीं हैं और ऊपर से देश की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है. ऐसे में विधायिका या न्यायपालिका या कार्यपालिका भी क्या कर सकती है ?



विकल्प की तलाश


दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश श्री एम.एम. अग्रवाल ने 24 अगस्त, 1990 को जगदीश प्रसाद को साढ़े तीन वर्षीया ममता के साथ बलात्कार के अपराध में आजीवन कारावास की सजा सुनाई. 5 सितम्बर, 1990 को यह भी निर्देश दिया कि ”जब तक संसद ऐसे मामलों में अनिवार्य बन्ध्याकरण का कानून नहीं बनाती, मुझे लगता है कि जघन्य अपराध के अपराधियों को स्वैच्छिक रूप से बन्ध्याकरण के लिए प्रोत्साहित करने की कोई शुरुआत की जानी चाहिए, ताकि ऐसे लोगों को जेल में बन्दी रखने के बजाय उनका कुछ लाभ/उपयोग उनके परिवारवाले उठा सकें. इसलिए मैं ऐसा निर्णय ले रहा हूँ कि अपराधी जगदीश स्वेच्छा से बन्ध्याकरण का ऑपरेशन, सरकारी अस्पताल से करवा ले (उच्च न्यायालय दिल्ली की पूर्व-सहमति से) तो उसकी कैद की सजा माफ मानी जाएगी.
कानून और न्याय के ऐतिहासिक प्रथम ‘क्रान्तिकारी’ फैसले की बहुत दिनों तक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा (बहस) होती रही। होनी ही थी. निर्णय के खिलाफ अपील में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी.के. बाहरी ने पाया कि इस मामले में पुलिस के जाँच अधिकारियों ने शैतानीपूर्वक गड़बडिय़ाँ (घपले) की हैं. हालाँकि सत्र न्यायाधीश ने इनकी खूब प्रशंसा की है. बच्ची के योनिद्वार की झिल्ली थोड़ी फटी हुई पाई गई लेकिन यह जरूरी नहीं है कि ऐसा अपीलार्थी द्वारा लिंगच्छेदन के कारण हुआ हो. सर्वज्ञात है कि इतनी छोटी बच्ची के गुप्तागों पर हलका-सा भी दबाव पडऩे से झिल्ली फट सकती है. ऐसा लगता है कि अभियुक्त अपनी हवस के कारण लडक़ी से बलात्कार करना चाहता था. मगर लडक़ी के माँ-बाप के मौके पर पहुँचने के कारण कर नहीं पाया. अभियुक्त बलात्कार करने का अपराधी नहीं, बल्कि बलात्कार का प्रयास करने का अपराधी है.

अपीलार्थी की सजा भारतीय दंड संहिता की धारा 376 की अपेक्षा, धारा 511 के तहत बदली जाती है. वह साढ़े सात साल कैद की सजा पहले ही काट चुका है। अब उसे रिहा कर दिया जाए.बन्ध्याकरण के विषय में न्यायमूर्तियों का विचार था, ”विद्वान सत्र न्यायाधीश ने स्वेच्छा से बन्ध्याकरण का आदेश देकर ठीक नहीं किया. ऐसा आदेश पूर्णतया गैर-कानूनी है, क्योंकि उच्च न्यायालय के नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. न्याय मौजूदा कानून के आधार पर ही किया जाना चाहिए. कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि अगर बलात्कार का अपराधी स्वेच्छा से बन्ध्याकरण करवा ले तो कानून द्वारा निर्धारित न्यूनतम सजा अदालत द्वारा माफ की जा सकती है. वही सजा दी जानी चाहिए जो कानून निर्माताओं (संसद) ने निर्धारित की है. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को ऐसा प्रस्ताव, जो कानून के अनुसार नहीं है, देने से, अपने आपको रोकना चाहिए था.80

विद्वान सत्र न्यायाधीश द्वारा बन्ध्याकरण (कॉस्टे्रशन) के आदेश का असली उद्देश्य अभियुक्त के परिवार को लाभ पहुँचाना है या अपराधी का ‘पुरुष चिह्न’ (लिंग) नष्ट करके अपमानित करना ? ऐसा करके वे कोई ‘नई शुरुआत’कर रहे हैं या महान् भारतीय संस्कृति की न्याय व्यवस्था के अतीत में लौट रहे हैं ? कॉस्टे्रशन का अर्थ बन्ध्याकरण या बधिया करना है और बधिया सिर्फ बैल या बकरे जैसे जानवारों को ही किया जा सकता है. पुरुषों को बधिया नहीं किया जा सकता। हाँ, नसबन्दी हो सकती है लेकिन उससे सम्भोग क्षमता पर क्या असर पड़ेगा ? खैर…उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों द्वारा ऐसे आदेश को गैर-कानूनी ही ठहराया जाएगा. इसे कानून और न्याय-सम्मत कैसे ठहराया जा सकता है? अब तो न ऐसा कोई नियम है और न कानून। बलात्कार का अपराध भले ही ‘जघन्यतम और क्रूरतम’ माना जाता हो, लेकिन सजा सख्त या कठोर होने की बजाय ‘मानवीय’ और ‘न्यायोचित’ ही होनी चाहिए, होती है. अपराधी पितृसत्तात्मक समाज की गन्दगी या कूड़ा है, लेकिन आखिर है तो उसी का उत्तराधिकारी. स्वयं अपने पुत्रों को ‘नपुंसक’ या ‘पौरुषहीन’ होने की सजा कैसे दे? सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण के लिए ‘बलात्कार का भय’ या ‘आतंक’ भी तो बनाए रखना जरूरी है. वरना ‘पुरुष वर्चस्व’ ही समाप्त हो जाएगा. वैसे भी ‘सभ्य समाज’ में ऐसी सजा देना बर्बर और अमानवीय ही माना जाएगा. नहीं, ऐसे विकल्प समस्या का समाधान नहीं.
क्रमशः…