शिनाख्त के दायरे

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

आधुनिक गद्य साहित्य की शुरुआत के साथ ही हिंदी उपन्यास लेखन में स्त्री रचनाकारों का प्रवृत्त होना एक सामान्य घटना नहीं है. स्त्रियों के लिए उपन्यास पुरुष रचनाकारों की तरह युगीन परिदृश्य को आलोचनात्मक दृष्टि से चित्रित करने की विधा मात्र नहीं है, वरन् पुरुष, परिवार और समाज के संदर्भ में अपने को देखने और अभिव्यक्त करने की विकलता है. अपनी नैसर्गिक वृत्ति और सोशल कंडीशनिंग के कारण स्त्रियां अधिक भावुक, संवेदनशील और परिवार से बंधी होती हैं. संवेगों की तीव्रता और प्रजनन की क्षमता के कारण उनकी मूल प्रकृति संबंध और मनुष्य को बचाने की प्रक्रिया में तल्लीनता, जिजीविषा और संघर्ष को उनकी रचनात्मकता का केंद्रीय बिंदु बना देती है. इसी कारण उनके उपन्यास गहरी मार्मिकता के साथ प्रगाढ़ आत्मीय संबंधों को बुनते हुए जहां पाठक की अनुभूतियों को अपने साथ बहा ले जाते हैं, वहीं पुरुष रचनाकारों के उपन्यासों में अपने से छिटक कर समय के साथ रू-ब-रू होने का वस्तुगत प्रभाव पाठक की बौद्धिकता को आंदोलित करता है. स्त्रियों के लिए उपन्यास अपने रुद्ध मनोवेगों और दमित भावोच्छ्वासों को अभिव्यक्त कर देने का माध्यम अवश्य है, लेकिन अपवनी मूल प्रकृति में यह घर केे आंगन में एकत्रित स्त्री-समूह के पीड़ा और आकांक्षा के सामूहिक गान के रूप में अधिक उभरता है. परंपरा से स्त्रियों के हिस्से बहुत थोड़ी सी जमीन और आसमान आए हैं, इसलिए उनकी उड़ान भी छोटी सी है. खुले व्योम में तैर कर दूर निकल जाना और फिर गुम हो गई वापसी की राहों को तलाशने की बजाय नई राहों को अपनी मंजिल बना लेना – स्त्रियों की प्रकृति में नहीं. इसलिए उनकी रचनाओं में सीमाओं के अतिक्रमण का हौसला नहीं है, भीतर तक बींध देने वाली जड़ताओं और बेड़ियों की खुर्दबीनी जांच का आग्रह है. वे एक ऐसे लोक का दिग्दर्शन कराने वाली कृतियां बन जाती हैं जहां एक ही देशकाल में साथ-साथ रहते दो इंसान निरंतर गहराते अपरिचय और दूरी के कारण न आपसी समझबूझ और तालमेल विकसित कर पाते हैं, न समय और समाज के सृजन में अपनी रचनात्मक भूमिका निभा पाते हैं. स्त्री-उपन्यास के केंद्र में बेशक स्त्री है, लेकिन ये कृतियां अनिवार्यतः पुरुष को संबोधित हैं ताकि वर्तमान समाज व्यास्था द्वारा स्त्री-पुरुष-संबंध को जड़ और रूढ़ बनाए जाने के कारणों को विश्लेषित कर वह साझी लड़ाई में उसका साथ दे. स्त्री-उपन्यास-लेखन सतही तौर पर स्त्री द्वारा अपनी मांगों और अधिकारों का घोषणा-पत्र दिखाई पड़ता है, लेकिन दरअसल वह स्त्री को पुरुष का पूरक पक्ष (यानी पुरुष सापेक्ष इयत्ता) न मान कर एक स्वायत्त मानव-इकाई समझने की संवेदनशीलता के प्रसार का आग्रह है.

कृष्णा सोबती

स्त्रियों का उपन्यास-लेखन तमाम तरह के महिमामंडन और तिरस्कार से परे एक ऐसी स्त्री को प्रत्यक्ष करता है जो अब तब रचित पुरुष-साहित्य में प्रायः अनुपलब्ध है. इस प्रकार यह न केवल साहित्य में पुरुष-वर्चस्व को तोड़ कर इसे अधिक लोकतांत्रिक और बहुआयामी बनाता है, बल्कि यशपाल, महादेवी वर्मा, वर्जीनिया वुल्फ और सिमोन द बउवा की इस मान्यता को पुष्ट करता है कि अनुमान के सहारे ’दूसरे’ के चरित्र चित्रण का अहं दरअसल अपने ही भय और हीनता को छुपाने की बेचारगी है. डाॅ0 गोपाल राय की पुस्तक ’हिंदी उपन्यास का इतिहास’ में 1890 से प्रेमचंद युग तक प्रकाशित स्त्री उपन्यासकारों के उपन्यासों का उल्लेख है, किंतु उनके ठोस रचनात्मक अवदान को लेकर वे स्वयं आश्वस्त नहीं हैं. उनके शब्दों में ’’ये उपन्यास लेखिकाएं हिंदू समाज में स्त्री की विषम और दयनीय स्थिति का प्रामाणिक चित्रण करने में सफल हैं, पर उनका दृष्टिकोण रूढ़ ही है. वे परंपरागत नारी संहिता के विरोध में जाने का साहस नहीं कर सकी हैं, यद्यपि स्त्री शिक्षा का वे खुल कर समर्थन करती हैं. इन लेखिकाओं का नारी संबंधी दृष्टिकोण पुरुष लेखकों से भिन्न नहीं है.’’ उल्लेखनीय है कि इसके बाद भी 1960 तक स्त्री-उपन्यास-लेखन में कोई उल्लेखनीय हस्ताक्षर अथवा प्रवृत्ति दृष्टिगत नहीं होती. 1961 में उषा प्रियवंदा के उपन्यास ’पचपन खंभे लाल दीवारें’ के प्रकाशन के साथ हठात् स्त्री-उपन्यास-लेखन का पाट चैड़ा और गहरा होने लगता है. फलतः 1961 से अब तक के पचपन वर्ष के उपन्यास का विश्लेषण तीन वर्गों में किया जाना समीचीन है जहां एक स्त्री-उपन्यासकार युगप्रवर्तक की भूमिका निभाते हुए न केवल स्त्री-पुरुष संबंधों की पड़ताल के जरिए स्त्री और पुरुष को निर्धारित छवियों/भूमिकाओं में बांधने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कठघरे में खींच लाती है, वरन् अपने सरोकारों का विस्तार करते हुए उपन्यास की विषयवस्तु को घर की चैहद्दी से निकाल समाज, राजनीति और धार्मिक प्रपंचों तक ले आती है. ये वर्ग हैंः 1961 से 1974 तक रचित उपन्यास, 1975 से 1993 तक रचित उपन्यास, और 1994 से  अब तक के उपन्यास.

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1961 से 1974 तक का कालखंड मुख्य रूप से चार उपन्यासकारों की कृतियों के इर्द-गिर्द घूमता है. ये हैंः उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और ममता कालिया. पहली बार इन रचनाकारों ने पुरुष की छाया से मुक्त कर अपने को देखने का जतन किया है. पुरुष की पसंद और परंपरा के दबाव के बाहर उनके भीतर भी एक दिल धड़कता है, एक मस्तिष्क है जो बहुत सी वर्जनाओं को अस्वीकार कर स्वयं जीवन का कर्ता बन जाना चाहता है. यह स्थिति अनिवार्यतः दो स्तरीय टकराहट का प्रस्थान बिदु बनती है. पहली टकराहट स्वयं अपने आप से है. स्त्री जानती है उसके अंतस के निर्माता घटक हैं – भीतर बैठी हीनता ग्रंथि, असुरक्षा और भय का भाव, प्रतिकूल परिस्थितियों में निर्णय को मुल्तवी करते चले जाने और किसी अन्य द्वारा निर्णय लेकर उसे उबार लेने का भाव. यह स्त्री विचारशील अवश्य हुई है, लेकिन भावुकता के सीलेपन से उबर कर तार्किक चिंतन की चटकीली धूप को अपने मन-आंगन में फैलने नहीं देती. उषा प्रियंवदा का उपन्यास ’पचपन खंभे लाल दीवारें’ और ’रुकोगी नहीं राधिका’, मन्नू भंडारी का ’आपका बंटी’, कृष्णा सोबती के ’मित्रो मरजानी’ और ’सूरजमुखी अंधेरे के’ उसकी इस मनोवृत्ति के उदाहरण हैं. ’पचपन खंभे लाल दीवारें’ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर एक ऐसी आधुनिका स्त्री की कथा है जिसके बीज ’गोदान’ की मालती में हैं. आर्थिक रूप से अक्षम पिता और परिवार के भरण-पौषण के लिए नौकरी करती यह स्त्री (सुषमा) जीवन को बदरंग कर डालने वाले दो तथ्यों से खूब परिति है. एक, आय का स्रोत बनाए रखने के लिए उसका अपना परिवार उसके विवाह और भविष्य से बेपरवाह हो गया है. दूसरा, अपनी अन्य चिरकंुवारी सहकर्मियों की कुंठा और सनक से परिचित होकर वह स्वयं ईष्र्याविदग्ध चिरकुंवारी के रूप में जीना नहीं चाहती. नील प्रेमी से अधिक मुक्तिदाता के रूप में उस तक आता है, लेकिन ऐन निर्णय के क्षण में परिवार लिजलिजी भावुकता बन उसके पैरों में बेड़ियां डाल देता है. प्रेमविवाह की आकांक्षा और प्रेमविवाह का निर्णय न ले पाने के असमंजस में सुषमा जिस स्त्री छवि को रचती है, वह विलंबित गति से आगे बढ़े पैर को दु्रत गति से पीछे लौटा लेने वाले यथास्थितिवाद को उकेरती है. द्वंद्वग्रस्तता उषा प्रियंवदा की नहीं, उनकी समकालीन सभी स्त्री रचनाकारों की विशेषता है. ’रुकोगी नहीं राधिका’ (1967) में यह रिवर्स कल्चरल शाॅक और इलेक्ट्रा कांप्लेक्स के रूप में अभिव्यक्त होती दीखती है, लेकिन दरअसल यह पति/पिता के रूप में एक सुरक्षादायक खूंटे को आजीवन पकड़े रहने की जिद का परिणाम है. प्रेम करके प्रेम का निर्वाह न कर पाना उषा प्रियंवदा की स्त्री के उन भारतीय संस्कारों की ओर संकेत करता है जहां पति एवं अन्य पारिवारिक रिश्तों के अतिरिक्त प्रेम का कोई भी रूप स्त्री के लिए निषिद्ध है.

मन्नू  भंडारी

द्वंद्व और पराजय की इसी जमीन से विकसित हुई हैं कृष्णा सोबती की बोल्ड नायिकाएं. ये नायिकाएं बोल्ड इसलिए हैं कि परंपरा के विरुद्ध जाकर अपनी दैहिक भूख का स्वीकार करती हैं और सेक्स पार्टनर के रूप में मनवांछित पुरुष को चुनना चाहती हैं. इस प्रक्रिया में वह पुरुष विवाह-संस्था के बाहर खड़ा पर-पुरुष हो तो भी. मित्रो (’मित्रो मरजानी’, 1967) द्वारा पति सरदारीलाल को बगलोल (काठ का उल्लू) कह कर कसबन मां बालो के प्रेमी डिप्टी साहब के संग देह का खेल खेलने की अभिलाषा कृष्णा सोबती की नायिका को सीधे-सीधे ’अनैतिक’ करार देने के लिए पर्याप्त है. लेकिन सत्य यह है कि ’नद नदिया सी खुली’ यह नार जितना कहती-जताती है, उतना करने का साहस (नैतिक?) अपने भीतर नहीं पाती. दरअसल मित्रो के जरिए लेखिका परिवार संस्था के ढांचे को तोड़ना नहीं चाहतीं, नैतिकता के दोहरे मानदंडों पर करारी चोट करना चाहती हैं जो स्त्री की यौन-आकांक्षाओं को दमित कर पुरुष की निरंकुशता को उसकी मर्दानगी का मूल्य बना देते हैं. डिप्टी की मिलनाभिलाषी मित्रो चैबारे की सीढ़ियां चढ़ते हुए दो बिंबों से साक्षात्कार करती है. ससुराल के आंगन में बचपन, जवानी और बुढ़ापे के रूप में जीवन की चहचहाहट; और मां के सूने आंगन में उम्र के हाथों तिल-तिल छीजती बूढ़ी बीमार कराहटें; मानो परिवार संस्था की ’नैतिकता’ की चैखट उलांघते ही अपने खंडहर होते भविष्य का सामना कर लिया हो उसने. मित्रो के अभिज्ञान का यह बिंदु  कृष्णा सोबती की नायिकाओं को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा नहीं करता, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के वर्चस्ववादी स्वरूप से स्त्री-अस्मिता के स्वीकार का अनुरोध भी करता है. 1972 में प्रकाशित उपन्यास ’सूरजमुखी अंधेरे के’ भी सतही तौर पर नैतिकता को चुनौती देती स्त्री की साहस-गाथा के रूप में दिखाई पड़ता है, लेकिन असल में यह बचपन में बलात्कार की शिकार स्त्री की यौन फ्रिजिडिटी से मुक्ति पाने की एक-पक्षीय लड़ाई का आख्यान है. बलात्कार स्त्री की देह पर आघात नहीं, उसकी आत्मा और आस्था को लहूलुहान कर दिए जाने का घिनौना कृत्य है जिसमें अपराधी की धरपकड़ नहीं होती, अपराध की शिकार स्त्री को मृत्युदंड अथवा आत्मनिर्वासन की पीड़ा दी जाती है. कृष्णा सोबती का यह उपन्यास इस मायने में बेजोड़ है कि पुरुष की पाशविकता का शिकार होकर भी उनकी स्त्री पात्र रत्ती पुरुष-द्वेष से ग्रस्त नहीं होती, बल्कि पुरुष की संवेदनशीलता और सहयोग से अपने भीतर की पथरीली जमीन में खोई आस्था और स्त्रीत्व को ढूंढ निकालना चाहती है. पुरुष-प्रताड़ना के बावजूद पुरुष के प्रति द्रोह या द्वेष जैसे किसी भाव को पनपने न देना कृष्णा सोबती की प्रमुख विशेषता है जो उन्हें अंत तक परिवार और संबंध की हार्दिकता से जोड़े रहती है. हिंदी उपन्यास को व्यंजनाधर्मी सृजनात्मकता और काव्यात्मक भाषा देने के लिए कृष्णा सोबती का योगदान विशेष उल्लेखनीय है. ’मित्रो मरजानी’ में बाढ़ के आवेग में उफनती नदी का अनियंत्रित बहाव है तो ’सूरजमुखी अंधेरे के’ में कविता की लय और आंतरिक सौन्दर्य का उन्मेष. देह संबंध का विशद चित्रण आरोपित, अमर्यादित अथवा अश्लील नहीं, कविता के सान्निध्य में अपने भीतर पसरी अभिशाप की शिला को तोड़ कर नीचे दबी कलियों के पूर्ण विकसित होने की प्रक्रिया बन जाता है. रूप, रंग, गंध, स्पर्श और स्वाद – मानो पांचो इंद्रियां एक नई उमगती संवेदना के अभिषेक के लिए तत्पर खड़ी हैं.

परिवार इस दौर की स्त्री की भावनात्मक आवश्यकता के रूप में उभर कर आता है. ’आपका बंटी’ (1971) की तलाकशुदा शकुन इस मान्यता की पुष्टि करती है, लेकिन साथ ही पूर्ववर्ती रचनाकारों से एक कदम आगे जाकर विघटनशील दांपत्य संबंध को परे फेंकने का जोखिम भी उठाती है. इन तीनों लेखिकाओं से भिन्न तेवर लेकर आती हैं ममता कालिया. स्त्री की यौन शुचिता के आग्रह के विरोध में रचे गए उपन्यास ’बेघर’ (1971) के माध्यम से वे अपने समय के दकियानूसी समाज को करारी चोट पहुंचाती हैं. ममता कालिया कृष्णा सोबती की संवेदना और परंपरा की वाहक हैं, और उनसे कहीं अधिक एकाग्र, निर्भीक और गंभीर. विवाहपूर्व प्रेम और शरीर संबंध यदि अनैतिक हैं तो यौन शुचिता गंवाने का अपराध कहर बन कर स्त्री पर क्यों टूटता है? पुरुष क्यों हर अवस्था में न्यायाधीश बना रह कर स्त्री की नियति और आकांक्षाओं को नियंत्रित करे? ममता कालिया सिर्फ सवाल नहीं उठातीं, स्त्री (संजीवनी) को संबंध तोड़ कर बेघर किए जाने वाले पुरुष (परमजीत) को यौन शुचिता के मानदंड पर खरा उतरी फूहड़ पत्नी रमा के हाथों बेघर होता दिखाती हैं. यह मानो उनका ’अपराधी’ पुरुष के प्रति प्रतिशोध है और संबंधों को पुनर्परिभाषित करने का जतन भी जहां तमाम रूढ़ियों और अर्हताओं को तोड़ कर एक-दूसरे के प्रति अपेक्षाहीन अनन्य प्रेम ही संबंध की रीढ़ बनता है. ममता कालिया ऐसी रचनाकार हैं जो लिजलिजी भावुकता को छोड़ कर बौद्धिकता और व्यंग्य को लेखन के औजार बनाती हैं. पूर्ववर्ती लेखिकाओं के द्वंद्व की अंतर्लीन लहरों में डूब-उतरा कर परंपरा में अपना वजूद खो देने वाला शिल्प यहां आकर न केवल खुरदरा आकार लेता है, बल्कि अपनी दिशा भी बदलता दिखाई देता है.

ममता कालिया

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1975 से 1994 तक के कालखंड में अनेक लेखिकाएं दृश्यपटल पर उभरती हैं, लेकिन ममता कालिया के बेलौसपन और सधी दृष्टि को मृदुला गर्ग और एक सीमा तक नासिरा शर्मा के अतिरिक्त और कोई रचनाकार आगे नहीं ले जा सकीं. ’उसके हिस्से की धूप’ (1975) के प्रकाशन के साथ मृदुला गर्ग की उपन्यास यात्रा शुरु होती है जो ’मिलजुल मन’ (2009) तक विकास के अनेक पड़ाव पार करते हुए स्त्री की जातीय अस्मिता और संघर्ष को राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भों के साथ अभिव्यक्त करती है. सतही तौर पर ’उसके हिस्से की धूप’ मन्नू भंडारी की कहानी ’यही सच है’ की याद दिलाता है, लेकिन दरअसल उपन्यास की कहानी स्त्री की वरण की स्वतंत्रता है ही नहीं, प्रेम के नाम पर इस या उस पुरुष के बीच झूलती स्त्री की अकर्मण्यता और व्यक्तित्वहीनता के दंश की ईमानदार अभिव्यक्ति है. ’’प्रेम में इतना घनत्व नहीं होता कि वह जीवन के खोखलेपन को भर दे’’ – मनीषा के संज्ञान का यह बिंदु स्त्री के भीतर रीतिकालीन नायिका देखने की अभ्यस्त पुरुष-मानसिकता पर करारी चोट करता है. साथ ही स्त्री को भी रूढ़ एवं आरोपित छवियों से मुक्त कर अपने को मनुष्य के रूप में देखने का विवेक देता है कि किसी की पत्नी या प्रेमिका मात्र बन कर क्या कोई इंसान जीवन में सार्थक और सकारात्मक करने का संतोष पा सकता है? अपनी इसी भावभूमि का विस्तार करते हुए जब वे ’चितकोबरा’ (1979) जैसा उपन्यास लिखती हैं तो अश्लील लेखन का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा भी चलाया जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि किसी भी कुशल डाॅक्टर की तरह वे पर्दे में दबे-घुटे बदबूदार नासूर को उघाड़ कर एकदम सामने ले आती हैं. वैवाहिक बलात्कार की विभीषिका झेलती स्त्री (मनु) जिस यांत्रिक ढंग से देह संबंध को अपॅरेशन टेबल पर पड़े मुर्दे की चीरफाड़ की प्रक्रिया या वेश्यालय में हो रहे व्यभिचार में तब्दील करती है, वह रागात्मकता और हार्दिकता से छूंछे दांपत्य संबंध को कठघरे में खींच लाता है. दांपत्य संबंध पत्नी के नसीब में आजीवन गुलामी लिखने की पट्टेदारी नहीं है. वह देह से ज्यादा मन के संवाद का संबंध है. जाहिर है इसके लिए पुरुष से अपेक्षा की जाती है कि स्त्री को सबसे पहले इंसान के रूप में समझे जाने की संवेदना विकसित कर सके. ’कठगुलाब’ हालांकि कालानुक्रम की दृष्टि से बाद (1996) की रचना है, लेकिन मृदुला गर्ग की स्त्रीविषयक अवधारणाओं को केंद्रीभूत रूप में इस उपन्यास में देखा जा सकता है. मृदुला गर्ग मानती हैं स्त्री-पुरुष संबंध के साथ-साथ सृष्टि की अनवरतता बनाए रखने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों को एक-दूसरे के प्रति न केवल उदार और संवेदनशील होना होगा, बल्कि आगत की रक्षा के लिए हर तरह के वैचारिक-मानसिक-भावनात्मक बंजर को उर्वर बनाना होगा. मृदुला गर्ग का यह उपन्यास इस मायने मे बेजोड़ है कि यह पहली बार हीनता ग्रंथि और अपराध बोध से मुक्त स्त्री की रचना करता है जो अंतःशक्तियों को संजो कर ही अपने अधिकारों और समाज के निर्माण की लड़ाई लड़ती हैं. उनकी स्त्री कोख को अपनी कमजोरी नहीं, ताकत मानती है और इस प्रकार परिवार संस्था के प्रति अपनी आस्था को निबद्ध करती है. कृष्णा सोबती की भांति मृदुला गर्ग उत्पीड़क पुरुष को क्षमा नहीं कर पातीं, लेकिन इतनी आकांक्षा अवश्य पालती हैं कि स्त्रीहृदय पाकर पुरुष अर्धनारीश्वर की अवधारणा को एक बार फिर साकार कर दे.

एक ही उपन्यास के बावजूद हिंदी उपन्यास परंपरा में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाली राजी सेठ ’तत्सम’ (1983) में जाहिरा तौर पर स्त्री मुक्ति की बात नहीं करतीं. परिवार/पुरुष द्वारा उत्पीड़न या हीनता ग्रंथि उनकी स्त्री का परिचय नहीं. उपन्यास की नायिका वसुधा वस्तुतः समाज से मुखातिब है ही नहीं. वैधव्य ने उसके सामाजिक जीवन को आंदोलित नहीं किया है, पुनर्विवाह के विकल्प ने उसे भीतर तक उद्वेलित कर दिया है. क्या कानूनी अधिकार और सुविधा के नाम पर व्यक्ति को प्रतिस्थापित करते चले जाने से संबंध की हार्दिकता को अ-क्षरित भाव से नए संबंध में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है? क्या एक व्यक्ति के चले जाने पर उसकी स्मृतियों की रीती परिक्रमा करके भविष्य की ओर उन्मुख जीवन के साथ न्याय किया जा सकता है? जीवन में व्यक्ति महत्वपूर्ण है या संबंध? यदि संबंधहीनता वयक्ति को सामाजिकता से काट कर अहम्मन्यता की खोखली अनुगूंज बना देती है तो क्यों गलत व्यक्ति के चयन पर संबंध दमघोंटू बन जाते हैं? राजी सेठ सूक्ष्म मनोभावों और दार्शनिक चिंतन की लेखिका हैं. वे जानती हैं वसुधा की तरह अनिर्णय के कुहासे में घिर जाने के बाद हर व्यक्ति अपनी मनोवृत्तियों, प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं के अनुरूप ही चयन का विकल्प अपने पास रखता है. मौन में निबद्ध सघन उच्छ्वास, सांकेतिकता, बिंब, कविता, प्रतीकात्मकता और पल-पल रंग बदलती भीतर की प्रकृति से परिचित होने के क्रम में आंखों की कोरों में घुल आई संकोचशील उत्सुकता – ’तत्सम’ को उपन्यास नहीं, गद्य में निबद्ध एक भावगीत बना देती है. यह स्त्री द्वारा अपने को पहचाने जाने का आह्वान है – रणभेरी बजाने से कहीं ज्यादा कठिन साधना. जाहिर है यह पहला उपन्यास है जो सामाजिक विश्लेषण को नहीं, संश्लेषण की अंतःशक्ति को अपनी ताकत बनाता है.

मैत्रेयी पुष्पा

वर्ष 1975 को अंततराष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में तथा 70 के दशक को महिला दशक के रूप में मनाया जाना इस कालखंड की रचनाशीलता को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण घटक रहा है. यह वह दौर था जब वैश्विक स्तर पर बाहरी चिन्हों तथा प्रतीकों के जरिए स्त्री-मुक्ति की घोषणा की जा रही थी. अमेरिका-फ्रांस आदि में स्त्री के अंतर्वस्त्रों के साथ ऊँची एड़ी की सैंडिल और प्रसाधन सामग्री को भी आग की लपटों के हवाले किया जा रहा था जो स्त्री की कमनीयता और सुकुमारता को पोषित करने वाले घटक चिन्हित किए गए. भारतीय संदर्भ में मंचों और सार्वजनिक स्थलों पर बिंदीविहीन सिगरेट पीती स्त्री लिबरेटेड स्त्री के प्रतीक रूप मेें चिन्हित की जाने लगी. इस स्त्री की कुछ विशेषताएं बताईं गईं जैसे सुशिक्षिता, बुद्धिजीवी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, विवाह संस्था की विरोधी तथा मातृत्व के प्रति उपहासात्मक भाव. यह देखना काफी दिलचस्प है कि आठवें दशक न केवल साहित्य में लेखिकाओं की बाढ़ आई, बल्कि कुछ-कुछ फार्मूलाबद्ध लेखन भी किया जाने लगा. बानगी के ता्रैर इस लेखन की ये विशेषताएं हैं: स्त्री-पुरुष पात्रों का सहज विकास करने की बजाय उन्हें प्रारंभ से ही उत्पीड़िता और उत्पीड़क की कोटियों में विभाजित किया जाना; प्रेम-प्रवंचिता/पति-प्रताड़िता स्त्री द्वारा दांपत्येतर संबंध की स्वीकृति; समाज की प्रतिकूल टिप्पणियों से अधिक अपनी ही अंतरात्मा द्वारा प्रतारणा जो अंततः अपराध-बोध में अभिव्यक्त होकर स्वस्थ पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के आड़े आती है; विवाह संस्था के प्रति अनास्था के बावजूद विवाह संबंध में बंधने की आतुरता; निर्णयदुर्बलता; और अपने विद्रोही तेवरों को आत्मपीड़न के ’सुख’ में घुला देने की कातरता; या फिर स्वतंत्र होने  के नाम पर दैहिक उच्छृंखलता की वकालत करना. रोमान की हदों को छूती भावुकता, बचकाने हठ में विघटित होती तार्किकता और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व की भास्वरता को दरकाती द्वंद्वग्रस्तता – इस कालखंड की अधिकांश औपन्यासिक कृतियों की प्रवृत्तिगत विशिष्टताएं हैं जो अपने युग की स्त्री के ढुलमुलपन को व्यंजित करने के अतिरिक्त अन्य कोई कलात्मक वैशिष्ट्य हिंदी साहित्य को नहीं देतीं. इन लेखिकाओं में शशिप्रभा शास्त्री, कुसुम अंसल, दीप्ति खंडेलवाल, सूर्यबाला, मेहरुन्निसा परवेज, कृष्णा अग्निहोत्री आदि को लिया जा सकता है. नासिरा शर्मा इन लेखिकाओं में अपनी अलग पांत बनाती हैं. उसका कारण यह है कि अपने स्त्री पात्रों में समकालीन नायिकाओं का अक्स पिरोते हुए भी वे एक वस्तुगत दूरी के साथ उनके आचरण की निर्मम जांच करती हैं. पहले ’शाल्मली’ (1987) और फिर ’ठीकरे की मंगनी’ (1989) में उन्होने स्त्री को लेकर स्त्री और पुरुष की सोच में पाए जाने वाले बुनियादी अंतर को स्पष्ट किया है. ’शाल्मली’ पचास के दशक के उत्तरार्ध में पैदा हुई उस पीढ़ी की कथा है जिसने अपने उदारमना पिता के प्रभावस्वरूप पुत्रवत् लालन-पालन और लैंगिक समानता की अवधारणा को संस्कार में पाया है. लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होकर अपनी आंख और बुद्धि के साथ दुनिया को देखने और तरैलने लगती है, पाती है पिता के उदार चेहरे के पीचे कहीं एक सामंत बैठा है जो उसके निर्देशों को अस्वीकार कर अपना रास्ता बनाती बेटी के प्रति संवेदनहीन हो उठता है. लेखिका इस सवाल को लेकर खासी परेशान हैं कि आखिर स्त्री-मुक्ति है क्या? स्त्री की लड़ाई आखिरकार है किससे? दरअसल लेखिका उन्मुक्त स्त्री को गृहभंजक की छवि में रिड्यूस कर दिए जाने के सामाजिक षड्यंत्र से उद्वेलित हैं. इसलिए ’शाल्मली’ में कैरियर और स्वतंत्रता के नाम पर परले दर्जे की स्वार्थी, सुविधाभोगी और सामंती मानसिकता से ग्रस्त आधुनिका स्त्रियों और तथाकथित बुद्धिजीवी स्त्रीचिंतकों पर चोट करने में वे कोई कोर कसर नहीं छोड़तीं. ’ठीकरे की मंगनी’ उपन्यास के जरिए वे ऐसी संघर्षशील स्त्री की छवि को आधुनिका स्त्री का पर्याय बना देना चाहती हैं जो प्रेम और संबंधों में मात खाकर टूटती नहीं, अपनी शिक्षा, स्वाभिमान और संकल्पदृढ़ता के बल पर अपना मुकाम बनाते हुए हाशिए के अन्य तबकों को भी साथ लिए चलती है. ’ठीकरे कह मंगनी’ की नायिका महरूख हिंदी उपन्यास के जीवट वाले पात्रों में एक है. नासिरा शर्मा की विशेषता है कि वे भावनाओं के उफान में अपने स्त्री-पात्रों को विचलित नहीं होने देतीं, बल्कि संघर्ष के घटाटोप में निःसंग चिंतन को थाती के रूप में उन्हें सौंपती हैं. इस कारण उनकी भाषा न केवल विश्लेषणपरक हुई है, बल्कि ऐसे अनेक सूत्रवाक्यों की रचना कर जाती है जिनका संबल लेकर पितृसत्तात्मक समाज व्यस्था की अनेकायामी पड़ताल की जा सकती है. उल्लेखनीय है कि स्त्री-उपन्यास लेखन के स्वरूप को सुस्थिर और उन्नत करने के लिए उत्तरदायी तीनों लेखिकाएं – उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी इस कालखंड में भी रचनारत रही हैं. विशेष रूप से मन्नू भंडारी और कृष्णा सोबती ने अपने सरोकारों का विस्तार करते हुए स्त्री-प्रश्नों से इतर राजनीतिक-सांस्कृतिक सवालों से टकराने की कोशिश भी की है. आश्चर्य नहीं कि परवर्ती रचनाकारों के लिए वे एक नया ट्रेंड भी सेट कर जाती हैं. ’महाभोज’ (1979) उपन्यास लिख कर मन्नू भंडारी भारतीय राजनीति के भ्रष्ट एवं संवेदनहीन चेहरे को बेनकाब करती हैं. इसी परंपरा की अगली कड़ी के रूप में ठीक एक साल बाद मृदुला गर्ग ’अनित्य’ (1980) उपन्यास लेकर आती हैं जो 1930 से 1960 के बीच के राजनीतिक आंदोलनों का अपनी दृष्टि से विश्लेषण करता है. केंद्रीय पात्र अविजित के अंतर्विरोधों और द्वंद्वग्रस्तता के माध्यम से लेखिका ने गांधीवादी राजनीति की असफलता और हिंसात्मक आंदोलनों के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट किया है. राजनीति को विषय बना कर उपन्यास लेखन करने वाली अधिक स्त्री रचनाकार नहीं हुई हैं लेकिन चंद्रकांता ने ’कथा सतीसर’ (2001) में कश्मीर समस्या का सांगोपांग विश्लेषण कर राजनीतिक उपन्यास-लेखन को उत्कर्ष पर पहंुचाया है.

इस कालखंड में दूसरी रचनाधारा भी वर्ष 1979 में ’जिंदगीनामा’ (कृष्णा सोबती) के रूप में प्रकाश में आई. ’जिंदगीनामा’ अविभाजित पंजाब की जातीय परंपरा का उपन्यास है जिसमें कृषि संस्कृति की सोंधी महक, पंजाबी किसान का जीवट और पंजाबी फौजी का हौसला, राग-द्वेष के बावजूद सहयोग औस सद्भाव की वृत्ति, प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियां, रियाआ के प्रति शाहजी के उमड़ते प्रेम और सहानुभूति के भाव सर्वत्र बिखरे पड़े हैं. उपन्यास नास्टेल्जिया का उत्पाद है, इसलिए न मोहक दृश्यावलियंा लेखिका की अंतर्दृष्टि से जुड़ कर कथा का कोई रूप ले पाई हैं, न पात्रों की भीड़ किसी यादगार चरित्र को उकेर पई है. लोकगीतों-किस्से कहानियों और पंजाबी शब्दों के अतिरंजित प्रयोग से लेखिका ने पंजाब की सांस्कृतिक समृद्धि को उकेरने की कोशिश की है, लेकिन किसी सरोकार से न जुड़े होने के कारण वह निष्प्रभ रह जाती है. इसी परंपरा को आगे बढ़ते हुए मृणाल पांडे ’पटरंगपुर पुराण’, जया जादवानी ’मिठो पाणी खारो पाणी’ तथा शीला रोहेकर ’मिस सेमुअल’ में क्रमशः कुमांउं, सिंधी और यहूदी समाज के जातीय संघर्ष को बड़े फलक पर प्रामाणिक अभिव्यक्ति दी है.

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1994 में ’इदन्नमम’ उपन्यास के प्रकाशन के साथ मैत्रेयी पुष्पा हिंदी उपन्यास को एक नया आस्वाद, नया तेवर और नया लोकेल देती हैं. इसलिए नहीं कि राजनीतिक पैंतरेबाजी को मूल्य बना कर वे अपनी स्त्रियों को जंग लड़ने भेजती हैं, बल्कि इसलिए कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में जहां पूरी दुनिया के एक गांव में सिमट कर रह जाने की घोषणाएं हो रही थीं, वहीं अपनी-अपनी जातीय अस्मिता और संघर्ष के साथ मुख्यधारा से कट कर दृश्यपटल से लगभग ओझल हो गए गांवों और जनजातियों को कथा का केंद्रीय विषय बनाती हैं. यह वह दौर है जब उपभोक्ता संस्कृति के प्रसार ने इंसान को मनुष्य बनाने की अपेक्षा उत्पाद बनाने के दायित्व को धर्म बना लिया हे और धर्म मनुष्य मात्र के कलयाण की ऊध्र्वगामी राहों के अन्वेषण का नाम न होकर अकूत मुनाफा देने वाली इंडस्ट्री बन गया है. बिकने के लिए बाजार में सब कुछ दांव पर लगा है – मूल्य से लेकर मनुष्य, राजनीति से लेकर धर्म, संस्कृति से लेकर निजी/जातिगत आस्थाएं. इसलिए हाशियाग्रस्त अस्मिताओं के उभार का जितना शोर है, उतना ही उग्र है उनके विरोध और दमन का भीषण तांडव. गरीबी और बदहाली बढ़ी है तो शिक्षित मध्यवर्ग की तादाद भी जिसके पास सपनों की पोटली है और इरादों की मजबूती भी. लेकिन यह चैंका देने वाला तथ्य है कि इसी शिक्षित मध्यवर्ग में हिंदुत्व का उभार तेजी से हो रहा है जिसे न केवल राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है बल्कि कारपोरेट जगत भी इस हिंदुत्ववादी हुंकार से समाज में सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है. स्त्रियों की स्थिति में शिक्षा एवं आर्थिक स्वावलंबन के कारण सुधार होक रहा है, लेकिन साथ ही बलात्कार, यौन हिंसा, कन्या भ्रूण हत्या और खाप पंचायतों की अनुचित दखलंदाजी से उनकी स्थिति विकटतर होती जा रही है. ऐसे परिदृश्य में उपन्यास-लेखिकाएं परंपरागत दृष्टि से स्त्री-प्रश्नों पर भी विचार कर रही हैं और स्त्री-पुरुष संबंध के दायरे से बाहर पड़ने वाले बृहत्तर मुद्दों को भी उपन्यास का विषय बना रही हैं.

चित्रा मुद्गल

स्त्री, विशेषकर ग्रामीण स्त्री को लेकर मैत्रेयी पुष्पा ने प्रचुर उपन्यास साहित्य रचा है. ’इदन्नमम’ और तत्पश्चात् ’चाक’ (1997) उपन्यासों के माध्यम से वे इस तथ्य को प्रतिपादित करती हैं कि स्त्री मुक्ति एवं स्त्री सशक्तीकरण की कोई भी मुहिम तब तक अपूर्ण है जब तक राजनीति में स्त्री की सक्रिय भागीदारी नहीं हो जाती क्योंकि नीति-निर्धारण की ताकत ही समाज को नई दिशा दे सकती है. हालांकि स्त्री विमर्श को देह विमर्श का पर्याय साबित कर और देह विमर्श के साथ मैत्रेयी पुष्पा का नाम नत्थी कर हिंदी आलोचना स्त्री विमर्श की सकारात्मक व्यंजनाओं और मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में उभरती नई स्त्री चेतना की ओर से आंख मूंदने का बौद्धिक अभियान चला रही है, लेकिन इतना तय है कि ग्रामीण समाज व्यवस्था और राजनीति में स्त्री जिस खामोश मजबूती के साथ अपने पांव धीरे-धीरे जमा रही है, मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास उसे ही एक अतिरंजित मुखरता के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं. मैत्रेयी पुष्पा जिस स्त्री को अपना प्रवक्ता बनाती हैं, वह मध्यवर्गीय शहरी समाज की वर्जनाओं से नितांत अनभिज्ञ है. परंपरा उसे घेरे में बांध लेना चाहती है, लेकिन लोककथाओं और लोगीतों के जरिए दिनरात वह जिस लोक-परंपरा के संपर्क में रहती है, वह उसे निर्भीक और उन्मुक्त कर नैतिकता के दोहरे मानदंडों से टक्क्र लेना सिखाती है. यह खेतिहर स्त्री अपने श्रम के मूल्य को जानती है और अपनी देह में छुपी उस रति-गंध को भी जो पुरुषों को दीवाना कर उन्हें ’भोग’ का माल बना देती है. शहरी समाज की इस विडंबना को वह अपने समाज में नहीं आने देना चाहती, इसलिए अपनी देह के स्वामित्व का दायित्व किसी और को न सौंप कर वह स्वयं उसका ’उपयोग’ करना चाहती है. मैत्रेयी पुष्पा स्त्री की इस शातिर मनोवृत्ति को ’कुट्टनी धर्म’ की संज्ञा देकर बेशक सतीत्व के विलोमस्वरूप ’स्त्री धर्म’ के रूप में महिमामंडित करने का प्रयास करती दीखती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि व्यक्तिगत सुख-लाभ के लिए अपनी या दूसरों की मानवीय गरिमा की बोली लगाना बेहद गर्हित कार्य है. शीलो (झूला नट, 1999) द्वारा देह को हथियार बना कर देवर बालकिशन की आड़ में पति सुमेर को पटकनी देने की कोशिश के मूल में बेशक पुरुष/पति की ज्यादतियों, पारिवारिक सम्पत्ति में स्त्री के हिस्से को हड़पने, और बिछुवा पहना कर स्त्री को गाय-बकरी की तरह हांक ले जाने वाली सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति बगावत है, लेकिन देह सम्बन्ध का मकड़-जाल बुन कर वह पाठक के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न करने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाती. प्रेम और श्रृंगार जैसी अति सूक्ष्म और अलौकिक अनुभूतियां जब रीतिकालीन साहित्य में मांसलता के तलछट में दम तोड़ने लगती हैें, और स्त्राी विलासी वर्चस्वशाली वर्ग के सस्ते मनोरंजन के लिए उपलब्ध ’माल’ बन जाती है, तब संवेदनशील मनुष्य द्वारा इस साहित्य और मनोवृत्ति का तिरस्कार किया जाना जरा भी अनुचित नहीं लगता. मुक्ति की लड़ाई पुरुष-सा बन कर चित-पट के खेल में रम जाने की शातिर बिसात नहीं है, गरिमा के साथ अपनी अस्मिता केा पुनः पाने की लड़ाई है जिसका लक्ष्य है प्राणिमात्र के हृदय में स्त्री के प्रति सम्मान एवं संवेदना का प्रसार. यह ठीक वही मांग है जो ’इदन्नमम’ में मंदा अपने आचरण द्वारा करती रही है. लवलीन का उपन्यास ’स्वप्न ही रास्ता है’ घोषित तौर पर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का लेखाजोखा न होकर भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की रूढ़ आंतरिक संरचना की पड़ताल है. विवाह के विकल्प रूप में उभरी ’लिविंग टुगैदर रिलेशनशिप’ जैसी पश्चिमी अवधारणा उन्मुक्त और लचीले स्वरूप के बावजूद भीतर से उतनी ही अनुदार और सामंती है- इसका विश्वसनीय चित्रण लेखिका ने अपरा-बिजोन सम्बन्ध के जरिए किया है जो एक-दूसरे को मानसिक-भावनात्मक-बौद्धिक स्तर पर समृद्धतर करने के विश्वास के बावजूद दस महीने में ही अलग हो जाते हैं. लवलीन सिर्फ कथाकार या एक्टिविस्ट नहीं, चिंतक भी हैं. घटनाओं के सारे सूत्र अपनी मुट्ठी में भींच कर वक्त पर छितराना उन्हें खूब आता है. इसलिए अपरा-बिजोन सम्बन्ध नई पीढ़ी की प्रयोगधर्मी मानसिकता या नारीवादी उच्छ्रंखलता का प्रतीक बन कर सिमटने की बजाय स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को जड़ कर देने की हमारी यांत्रिक सोच को कुरेदने की सतत प्रक्रिया बन जाता है जिसकी ओर मृदुला गर्ग ’उसके हिस्से की धूप’ तथा ’चितकोबरा में पहले ही ध्यान आकृष्ट कर चुकी हैं. उपन्यास में लवलीन की क्षीण होती सर्जनात्मकता को पुष्ट वैचारिक विश्लेषण ने संभाले रखा है. वे तथ्यों और घटनाओं के संजाल में खबरों को उभारती हैं, खबरों के नीचे हाथ-पैर पटकती जिजीविषा या चैराहे पर किंकत्र्तव्यविमूढ़ खड़ी विभ्रम-मति को जीवंत अभिव्यक्ति नहीं दे पातीं. नैरेटर की तरह वे सुगनी (भंवरीबाई) की व्यथा-कथा को पुरुषवादी अदालत और व्यवस्था के सामंती दंभ के परिप्रेक्ष्य में विस्तारपूर्वक कहती हैं, स्वयं सुगनी बन कर उसे झेलती नहीं और न ही अहसास के बिंदु को विचार और चेतना की मशाल बन कर दहकते देखती हैं. पूर्वाग्रही न होते हुए भी यहाँ अपरा के लिए उसकी मित्र-मंडली में प्रचलित उक्ति ’’अपरा इज़ विक्टिम आॅफ हर ओन बिलीफ’’ कहीं उन पर भी लागू हो जाता है जिसकी झलक ’सुरंग पार की रोशनी’ जैसी चर्चित कहानी में भी मिलती है.

स्त्री-प्रश्नों को लेकर लिखे गए उपन्यासें में अनामिका के उपन्यास ’दस द्वारे का पींजरा’ तथा ’तिनका तिनके पास’ का उल्लेख इस लिए भी जरूरी है कि ’कठगुलाब’ की परंपरा में वे स्त्री के उत्पीड़न के लिए पुरुष की स्त्रीद्वेषी मानसिकता को दोषी ठहराते हुए भी पुरुष के सहचर के रूप में स्त्री-मन के पुरुष की परिकल्पना करती हैं जो स्त्री-पुरुष संबंध को नई दिशा और गति देने में समर्थ है. अल्पना मिश्र का ’अन्हियारे तलछट पर चमका’, कविता का ’ये दीये रात की जरूरत थे’, मनीषा कुलश्रेष्ठ के ’गंधर्व गाथा’ तथा ’पंचकन्या’, निर्मला भुराड़िया का ’गुलाम मंडी’ और रजनी गुप्त के ’कहीं कुछ और’, ’किशोरी का आसमां’, ’एक न एक दिन’, ’कुल जमा बीस’ और ’ये आम रास्ता नहीं है’ इस कालखंड के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं. अन्य उपन्यासकारों में शरद सिंह, जयश्री राय, नीरजा माधव, उषा यादव, लता शर्मा, वंदना शुक्ल और स्वाति तिवारी का नाम लिया जा सकता है.

इस कालखंड के स्त्री लेखन की खासियत है कि यह स्त्री से इतर अन्य सामाजिक सरोकारों पर भी शिद्दत से बात करता है. यहां तक कि कश्मीर समस्या पर ही चंद्रकांता के कालजयी उपन्यास ’कथा सतीसर’ के अतिरिक्त  संजना कौल का ’पाषाण युग’, क्षमा कौल का ’दर्दपुर’, मनीषा कुलश्रेष्ठ का ’शिगाफ’ और मधु कांकरिया का ’सूखते चिनार’ आए हैं. चंद्रकांता का ’कथा सतीसर’ कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीय पहलुओं के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीतिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-भौगोलिक पहलुओं पर भी विचार करने वाली महत्वपूर्ण दस्तावेजी रचना है. कश्मीर विशेषज्ञ के रूप मे जानी जाने वाली लेखिका चंद्रकांता ने ’कथा सतीसर’ में 1931 से 2000 तक की समयावधि में औपन्यासिक कथा को विन्यस्त करते हुए बेशक एक अनुरागभरी दृष्टि से कश्मीर के इतिहास,  भूगोल, पुराण और लोकाख्यानों को कहा है, लेकिन हर आख्यान अपनी अंतिम टेक
में उस कसैली अनुभूति से जुड़ कर यक्ष-प्रश्न बन जाता है कि आधा मुसलमान कहे
जाने वाले कश्मीरी पंडित और आधा हिंदू कहे जाने वाले कश्मीरी मुसलमान के
बीच ऐसा क्या हुआ कि ज्यादा से ज्यादा एक-दूसरे पर कांगड़ी उछाल देने वाला
क्रोध ’कलिशनिकोव और ए ़के ़सैंतालीस से अपने ही हमवतनों के खून से हाथ
रंगने लगा?’’ ’कथा सतीसर’ चंद्रकांता के समूचे कृतित्व का निचोड़ है – उसकी
सारी अनुगूंजों और अंतध्र्वनियों को पुनः निनादित करता हुआ. इसलिए अकारण
नहीं कि ’कथा सतीसर’ के भीमकाय कलेवर से गुजरते हुए हमें बार-बार उन
भाव-गझिन कहानियों की याद आती रहे जिनका होना न केवल कश्मीर की नैरेटर के
रूप में चंद्रकांता की पहचान पुख्ता करता है, बल्कि मानवीय त्रासदी को
संवेदना के धरातल पर यकसां महसूस करने का विलक्षण सामर्थ्य  भी देता है.

अनामिका

हमारा शहर उस बरस’ में गीतांजलि श्री साम्प्रदायिकता जैसी बीहड़ समस्या से टकरा कर धर्म की अंधी जुनून भरी ताकतों द्वारा बुद्धिजीवियों और शिक्षण-संस्थाओं को परिचालित करने की क्षमता के भीतरी कारणों की पड़ताल करने का आह्नान करती हैं. उपन्यास पारम्परिक ढांचे से पूर्णतया अलग चित्रकला की कोलाज शैली में रचा गया है – जीवन को खंड-खंड करते हादसों और त्रासदियों के टुकड़े जिनके बीच कहीं छिपी है मनुष्यता और आशा. जरूरत उन्हें देखने और जोड़ने की है लेकिन इसके लिए ’तीसरी आंख’ और धीरज किसके पास है? चूंकि गीतांजलि श्री इतिहास की छात्रा रही हैं, अतः साम्प्रदायिक द्वेष की निस्सारता को उद्घाटित करने के क्रम में इतिहास में घटी घटनाओं को संगति एवं तारतम्य देना बेहद जरूरी मानती हैं. साथ ही इतिहास-अध्ययन हेतु आवश्यक ’दृष्टि’ अपनाने पर भी विशेष बल देती हैं जो अपने आप में और कुछ नहीं, ’साझी संस्कृति की जीवित मिसाल’ भर है. वे इतिहास को सामान्यीकृत करने की संकीर्ण कोशिशों का विरोध करती हैं कि ’’स्याह और सफेद में नहीं बंटी हैं कौमें, न सच, न समाज.’’ इसलिए यदि इतिहास का पुनर्लेखन करना ही है तो क्यों इस झूठ को बढ़ावा दें कि एक कौम ने मंदिर तोडे और दूसरी सहनशील बनी रही? अलगाव के प्रतीकों को ढूँढने की अपेक्षा क्यों नज़रूल इस्लाम और अमीर खुसरो के कृतित्व को महिमामंडित न किया जाए? क्यों नहीं दोनों ही कौमों के भीतर छिपे साम्प्रदायिकता के बीजों को देखते हुए खुलासा किया जाए कि एक कौम में साम्प्रदायिकता यदि डर और असुरक्षा से पैदा होती है तो दूसरी कौम में ताकत और अहंकार से. हनीफ और शरद सरीखे सेकुलर बुद्धिजीवियों का कट्टर धार्मिक अस्मिताओं में रिड्यूस होना और हाशिए पर पड़े दद्दू और बाबू पेंटर का क्रमशः केंद्र में आते चलना इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि लोकतंत्र के ध्र्मनिरपेक्ष रूप को बचाने के लिए आम आदमी को अपनी ओर से सकारात्मक पहल करनी होगी.

साहित्य को शोध और बीहड़ यथार्थ के साथ सम्बद्ध कर मानवीय त्रासदी के अनेकविध पहलुओं की बारीक जांच समकालीन स्त्री लेखन की विशिष्ट पहचान है जिसे मैत्रेयी पुष्पा के ’अल्मा कबूतरी’ उपन्यास के बाद शरद सिंह में परिलक्षित किया जा सकता है. शरद सिंह प्रथम दृष्ट्या बेड़नियों के अंतरंग जीवन पर केन्द्रित उपन्यास ’पिछले पन्ने की औरतें’ में सामाजिक दायरों का विस्तार करते हुए एक संवेदनशील-बुद्धिजीवी महिला रचनाकार के रूप में नजर आती हैं. लेकिन रचना इधर-उधर फैल-बिखर कर जिस मंथर गति से आगे बढ़ती है, वहां बेड़िया समाज का अपरिचित समाजशास्त्र/मनोविज्ञान नए आयामों के साथ नहीं खुलता बल्कि पुरुष की चिरपरिचित सामंती मानसिकता ही उभरती चलती है और साथ ही स्त्री की करुण विवशता. बेड़नियों की कथा भी एक सी है – वही राई नर्तकी के रूप में प्रशिक्षण … साथ-साथ चैर्य कला में भी महारत …सिर ढकना जैसी प्रथा़ … सरपरस्त पुरुष और उसके परिचितों-वारिसों के दैहिक शोषण को सहने की सतत पीड़ा …अर्थाभाव और देह-व्यापार की मजबूरियां. कहने को अलग-अलग नामों के जरिए इन बेड़नियों को निजी पहचान और व्यक्ति-वैशिष्ट्य देने की कोशिश की गई है, लेकिन श्यामा, नचनारी, फुलवा, रसूबाई आदि आदि को धकिया कर उनके स्थान पर जातिसूचक एक ही पहचान हावी रहती है – बेड़नी. लेखिका ने स्वयं बीहड़ एवं तिरस्कृत क्षेत्रों में भ्रमण करने के जोखिमों का हवाला देकर अपनी शोध को प्रामाणिक एवं गहन बनाने की कोशिश की है, लेकिन शोध-प्रक्रिया के दौरान तथ्यों-आंकड़ों-जानकारियों को विश्लेषित एवं संश्लेषित करने के उपरांत अभिव्यक्त करने की क्रिस्पनैस/कलात्मकता वे अंत तक नहीं जान पाईं. इसलिए न केवल संदर्भ नकार कर बार-बार तथ्यों की आवृत्ति होती रही है, बल्कि उनकी प्रस्तुति के पीछे सर्जनात्मक दृष्टि एवं अनुशासन का अभाव भी नजर आता है. तथ्य को कथा और पात्र को व्यक्ति एवं चरित्र बनाने के लिए जिस घनीभूत संवेदना, कल्पना और कलात्मकता की जरूरत होती है, वह शरद सिंह अपने भीतर संजो नहीं पाईं.

शरद सिंह का विलोम रचती हैं मधु कांकरिया. ’खुले गगन के लाल सितारे’ में नक्सलवादी आंदोलन के चित्रण के जरिए अपनी सुस्पष्ट राजनीतिक समझ का परिचय देने के बाद जब वे वेश्या समस्या पर केन्द्रित ’सलाम आखिरी’ उपन्यास की रचना करती हैं तो अपनी समवेदना और सहानुभूति केा आंसू भरी करुणा में ढाल कर विलीन नहीं होने देतीं, वरन बौद्धिक विश्लेषण की चैहद्दियों में प्रविष्ट होकर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की अंतर्निहित विद्रूपताओं पर जता-जता कर घन की तरह चोट करती हैं – निरंतर और अविराम.
’सलाम आखिरी’ में वे ज़िंदगी की रवानगी की तस्वीरें नहीं देतीं, बल्कि ज़िंदगी को ठहराव और सड़ांध का कोलाज बना कर प्रस्तुत करती हैं – शोध से सिरजा, तथ्यों से पुख्ता, तीखे बुनियादी सवालों से बिंधा कोलाज!संवेदना और व्यंग्य, आक्रोश और खौफ के रंग-कूची से रचा है लेखिका ने वेश्याओं की जिंदगी का एकरस समरूपी इतिहास जहाँ हर गली और मोड़ मंजिल के नाम पर सिर्फ डैड एंड्स तक पहुँचने का जरिया है. मधु कांकरिया उपन्यास के जरिए एक बेहद ज्वलंत विवादास्पद मुद्दे को प्रश्न के रूप में उठाती हैं कि स्त्री संगठनों द्वारा वेश्यावृत्ति को ’उद्योग’ और वेश्या को यौनकर्मी और श्रमिक का दर्जा दिए जाने की मांग क्या न्यायसंगत है? यह ठीक है कि ’श्रमिक’ का दर्जा पाते ही नागरिक के रूप में उनके मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए मानवाधिकार आयोग स्वयमेव प्रतिबद्ध हो जाएगा, खासतौर पर उनके शारीरिक स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को लेकर. लेकिन क्या यह शास्त्रानुमोदित यौन शुचिता और नैतिकता के दोहरे मानदंडों का प्रकारांतर से पोषण नहीं? क्या इस मांग के पीछे विश्वमंडी के अपने तर्क और मुनाफे नहीं जो स्त्री देह के व्यापर के जरिए अरबों डाॅलर कमाते हैं? क्या उद्योग का दर्जा देकर वेश्यावृत्ति उन्मूलन के सारे रास्ते स्वयमेव बंद नहीं हो जाएंगे?
’कलिकथा वाया बाइपास’ की लेखिका के रूप में जानी जाने वाली अलका सरावगी ने इसके बाद चार उपन्यास और लिखे हैं  – शेष कादंबरी, कोई बात नहीं, एक ब्रेक के बाद और जानकीदास तेजपाल मेंशन. उपभोक्ता संस्कृत के प्रसार के विरोध में जन-चेतना के प्रसार का आह्वान करता उपन्यास ’एक ब्रेक के बाद’, एक मायने में, ’कलिकथा’ के अंत में झटपट की गई फैंटेसी को कथा के ताने-बाने में ढालने का प्रयास है. यह उपन्यास इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि उपभोक्ता संस्कृति पूंजी और ग्लैमर को केन्द्र में रख कर मनुष्य को उपभोक्ता (चेतना हीन भूख) ही नहीं बना रही, उसे मूल्यहंता प्रतिद्वंद्वी, निष्क्रिय शेखचिल्ली या शातिर अपराधी/उठाईगीर भी बना रही है. महुआ माजी ’मैं बारिशाइल्ला’ के बाद ’मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ उपन्यास में यूरेनियम के प्रदूषण और रेडिएशन की समस्या को लेकर आती हैं, लेकिन शोध, रिपोर्ताज और अखबार के मिले जुले रूप से अलग इसे उपन्यास का दर्जा नहीं दे पातीं.

स्पष्ट है कि स्त्री रचनाकारों के स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पड़ताल के मिशन के साथ-साथ अपने सरोकारों का दायरा भी विस्तृत कर लिया है.

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ISSN 2394-093X
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