महिला आरक्षण पर जदयू की बदली राय: कहा पहले 33% पास हो फिर वंचितों तक हो विस्तार

उत्पलकांत अनीस 


महिला आरक्षण विधेयक के 20 साल पूरे होने पर एनएफआईडव्ल्यू ने आयोजित किया सेमिनार, पूछा सवाल कि 70 सालों में 12% तो 33% कब? 



नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इंडियन वीमेन (एनएफआईडव्ल्यू, भारतीय राष्ट्रीय महिला फेडरेशन) ने पिछले 12 सितंबर को कांस्टीट्यूशन क्लब ऑफ़ इंडिया में महिला आरक्षण विधेयक के 20 साल पूरे होने पर एक दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया. 12 सितंबर 1996 को सीपीआई की सांसद और एनएफआईडव्ल्यू की राष्ट्रीय अध्यक्ष गीता मुखर्जी की अगुआई में लोकसभा की समिति ने महिला आरक्षण विधेयक का प्रारूप पेश किया था. सेमिनार में संगठन के 19 राज्यों के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं ने भाग लिया. सेमिनार का बड़ा  प्रत्यक्ष परिणाम यह था कि महिला आरक्षण में ‘कोटा विद इन कोटा’ के सवाल पर जनता दल यूनाइटेद ने अपने भूमिका में आंशिक परिवर्तन की घोषणा की. भागीदारी कर रहे है जदयू नेता और पूर्व सांसद केसी त्यागी ने कहा कि ‘पहले महिला आरक्षण 33% पास हो जाये, फिर इसका दायरा 50% तक बढाते हुए उसमें वंचित समुदायों की भागीदारी भी सुनिश्चित कराई जाये.’ सेमिनार के बाद पार्टी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हवाले से इस आशय की घोषणा का ट्वीट भी किया.

सेमिनार की शुरुआत में उपस्थितों का स्वागत एवं इसके उद्देश्य की चर्चा करते हुए एनएफआईडव्ल्यू की राष्ट्रीय महासचिव एनी राजा ने कहा कि 20 साल से हम संसद के अन्दर बिल पास करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. डॉ. आंबेडकर ने महिलाओं के अधिकार के बारे में उस समय से भी पहले से बातचीत करनी शुरु कर दी थी. आज संसदीय लोकतंत्र का 65 साल पूरा हो गया और महिलाओं की भागीदारी मात्र 12% तक पहुँची है, सवाल है कि 33% या आबादी के बराबर 50% की भागीदारी में कितना और समय लगेगा? हमारे लोकतंत्र के लिए, देश के विकास के लिए महिलाओं को बाहर रखना ठीक नहीं है. सभी राजनीतिक पार्टियाँ सिर्फ दिखावे के लिये महिला आरक्षण का समर्थन करती है लेकिन उनकी इच्छाशक्ति इसे पास करने के लिए नहीं है. हमें सोचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि सभी राजनीतिक दल इसे पास नहीं होने देना चाहती है लेकिन उन्हें सोचना होगा कि ये मुद्दा सिर्फ महिलाओं का नहीं है बल्कि यह एक राजनीति मुद्दा है. यह देश का मुद्दा है इसलिए हम चिन्तित हैं. अभी मैं आपको एक उदाहरण देती हूँ कि कैसे राजनीति में पितृसत्ता हावी है- कुछ दिन पहले कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल कश्मीर गया था जिसमें सिर्फ एक महिला प्रतिनिधि थी जो बहुत चिंतनीय है तो सवाल ये है कि क्या कश्मीर मे महिलाएं नहीं रहती हैं, क्या वे वहां की नागरिक नहीं है? तो उनकी बात कौन करेगा इसलिए संसद में महिला आरक्षण जरूरी है, क्या मुद्दे को हल करने में उनकी कोई भूमिका है? कश्मीर मुद्दे को हल करने में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. तो ये सिर्फ सीट की बात नहीं है बल्कि भागीदारी की बात है अगर आप आधी आबादी को इससे बाहर रखेंगे तो शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, सामाजिक मुद्दे को कैसे आप हल कर सकते हैं. इसके स्थाई हल के लिए महिलाओं की सोच और भागीदारी का होना बहुत जरूरी है इसीलिए हम चाहते हैं कि ये बिल अविलंब राजनीतिक मुद्दे की तरह हल हो इसलिए हमने सभी राजनीतिक दलों  को बुलाया है.

पहले सत्र, जो इस विषय पर एक तरह से अकादमिक सत्र था, के अध्यक्ष के रूप में संचालन करती हुई एनएफआईडव्ल्यू की राष्ट्रीय अध्यक्ष गार्गी चक्रवर्ती ने कहा कि आज का दिन हमारे लिए ऐतिहासिक है. महिला आरक्षण बिल के 20 साल पूरे हुए है. हम आज आजादी के 65 साल बाद भी संसद में बहुत कम महिला सदस्यों को देख पा रहे हैं, जो काफी चिंतनीय स्थिति है. जबकि आज विश्व के कई देशों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या अच्छी-खासी है. तो अब सवाल है कि महिलाओं को क्या जरूरत है- संसद में जाने का? निर्णय-प्रक्रिया में हिस्सा लेने का.  आरक्षण का मुद्दा सिर्फ महिलाओं का नहीं है,  यह एक सामाजिक मुद्दा है. आमतौर पर जो पढ़े-लिखे लोग हैं वे  आरक्षण को गलत समझते हैं उनका कहना है कि पढी -लिखी महिलायें अपनेआप संसद और विधान सभाओं में जायेंगी. यह एक सोच है. आरक्षण के प्रति समाज की सोच, जब टुवर्ड्स इक्वलिटी  रिपोर्ट बनाई जा रही  थी  उस समय तमाम महिला संगठनों ने आरक्षण के लिए मना किया. संसद में महिलाओं का जाना जरूरी इसलिये जरूरी है कि समाज को आगे बढ़ने में महिलाओं का अहम रोल है. लेकिन इनकी भूमिका दिखाई नहीं देती है. बिना महिलाओं के सहभागिता के विकास सिर्फ एक नारा बनकर रह जायेगा. निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की सहभागिता बहुत जरूरी है. यहां तक की वाम दल भी महिला उमीदवार को खड़ा नहीं करते. महिलाओं को सिर्फ सिपाही के तरह उपयोग करते है. धरना प्रदर्शन और आन्दोलन में सिर्फ भीड़ जुटाने के लिए करते हैं,  इसलिए जबतक संसदीय चुनाओं में आरक्षण नहीं मिलेगा तब तक सभी राजनितिक दल महिलाओं को दरकिनार ही रखेंगे.

आयटक की राष्ट्रीय सचिव अमरजीत कौर ने अपने विस्तृत भाषण में कहा कि महिला आरक्षण बिल अचानक से नहीं आया था उसकी एक पृष्ठभूमि रही है,  यह महिलाओं के संघर्षों  का एक परिणाम था. अंतररार्ष्ट्रीय स्तर पर क्लारा जेटकिन ने जो संघर्ष महिलाओं को सबल बनाने के लिए किया, वह भारत में एनएफआईडबलू ने किया. एक लीडरशीप दिया, जिसने महिला आरक्षण बिल के लिए  लम्बा संघर्ष किया. महिला आरक्षण का प्रश्न न सिर्फ महिलाओं का है, बल्कि पूरे समाज का है. किसी भी समाज की प्रगति उस समाज में महिलाओं की क्या स्थिति है, उससे तय होती है. देश की प्रगति, महिला और बच्चों की क्या स्थिति है उससे तय होती है. शुरुआती दौर में इस बहस को लाना आसन काम नहीं था. हमारे देश की एक सच्चाई है कि सभी आन्दोलनों में महिलाओं की भूमिका रही है,  लेकिन देश में महिला आन्दोलन की शुरूआत एनएफआईडबलू ने ही किया. महिलाओं का बहुत बड़ा रोल था किसान आन्दोलन में और मजदूर आन्दोलन में. इसलिए ये सारी पृष्ठभूमि हमें आहिस्ता-आहिस्ता आजाद हिन्द के अन्दर एनएफआईडबलू के गठन तक पहुंचाती हैं. दरअसल एनएफआईडबलू सिर्फ एक शब्द नहीं है बल्कि एक आन्दोलन है. ये जो सारे रास्ते हमने तय किये, ये सारे आन्दोलन में शामिल महिलाओं के द्वारा बनाये गये. देश आजाद होने के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठाये गये कि आजाद हिन्द में महिलाओं की सहभागिता क्या होगी,  तो इस प्रश्न को हल करने के लिए जिन महिलाओं ने सबसे पहले आवाज उठाई थी, उनमें में एनएफआईडबलू की कल्पना दत्त एक थी. उनकी भूमिका थी तो एनएफआईडबलू को बनाने में.

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर गोपाल गुरू  ने डा. आम्बेडकर का महिलाओं के लिए योगदान पर बोलते हुए भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर तल्ख़ टिप्पणी करते हुए अपनी बात कहना शुरू की. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों से हमारी सोच कुछ ऐसी बनाई गई है कि हमारे जितने भी विद्वान पुरुष रहे हैं उनको हिस्सों में बाँट दिया गया है. महिला का हिस्सा अलग, आदिवासियों का हिस्सा अलग, दलितों का आंबेडकर अलग बाँट दिया गया है. कोई समग्रता में बात नहीं करता. डा. आम्बेडकर जैसे चिंतक और नेता, जिन्होंने महिलाओं के लिए काफी काम किया, मात्र दलितों के नेता के रूप में सिमटा दिए गए हैं.  गैरब्राह्मण सोच, जो एक आमूल परिवर्तनवादी सोच है, जैसे पेरियार, फूले दम्पति, ताराबाई शिंदे, आंबेडकर, रमाबाई की सोच,  हमेशा महिलाओं के अधिकारों की सबसे बड़ी पैरोकार रही है. उन्होंने आगे कहा कि अगर हम महिला आरक्षण की बात करते है तो हमें इतिहास से तर्क ढूँढने होंगे. आंबेडकरवाद वह तर्क हमें देता है. जरूरत है कि आज महिला आन्दोलन आंबेडकर से अपनी प्रेरणा ले. डॉ. आंबेडकर ने जितने भी संवैधानिक प्रावधान महिलाओं के हित के लिए किये उतना भारत के इतिहास में किसी व्यक्ति ने नहीं किया. लेकिन अधिकतर उच्च जाति की महिलाओं ने डा. आम्बेडकर के इस योगदान का नोटिस नहीं लिया.

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर मृदुला मुख़र्जी ने महिला आरक्षण बिल के ऐतिहासिक सन्दर्भ और आज के समय में इसकी क्या उपयोगिता क्या है इस पर अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि ‘महिला आरक्षण को सिर्फ महिलाओं के सन्दर्भ में देखने की जरूरत नहीं है, बल्कि एक बड़े परिदृश्य में देखने की जरूरत है, विकास में, सामाजिक संघर्ष में, आर्थिक लड़ाई में. आरक्षण इस लड़ाई का एक हिस्सा हो सकता है वह उसका अंत नहीं हो सकता है. मैं इसके खिलाफ हूँ कि आरक्षण मिल गया तो हमने सबकुछ पा लिया. हमें इसके साथ जो राष्ट्र के अन्य मुद्दे हैं , जैसे साम्प्रदायिकता का, जाति उसे इस अभियान से जोड़ना चाहिए. मेरा सवाल है कि क्या 50% आरक्षण से अगर देश की महिलाएं संसद में पहुँचती हैं, तो क्या ये सब मुद्दे ख़तम हो जायेंगे? आरक्षण हमें आगे ले जा सकता है, एक मौका दे सकता है. हमें जरूरत है आरक्षण पर गंभीरता से विचार करने की, हमें जरूरत है कि आरक्षण को लेकर एक गंभीर अध्ययन हो ताकि उसकी मजबूतियाँ और कमजोरियों का पता चल सके.

दूसरा सत्र  70 साल में 12% तो 33% में और कितना साल विषय पर केन्द्रित था, जिसके भागीदार राजनीतिक पार्टियों के नेता और पदाधिकारी थे. संचालन नूर जाहिर ने किया. इस सत्र में पूर्व मंत्री और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने सभी राजनीति दलों की मंशा के बारे में गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले बीस सालों में देश की ऐसी कोई भी राजनीति दल नहीं है जो सता में नहीं रहा हो या सहयोगी नहीं रहा है इसके बावजूद आश्चर्य की बात है ये मसौदा संसद के एक सदन में पास किया गया जो अबतक पड़ा है और कोई उसको आगे नहीं ले जा रहा है. जिस बिल को दो दशक पहले पास होना चाहिये था, वह अभी तक पास नहीं हो पाया है. उन्होंने पंचायत चुनाव का उदहारण देते हुए कहा कि जब वहां आरक्षण के कारण महिलाओं को मौका मिला तो उन महिलाओं ने पुरुष प्रतिनिधियों से बेहतर काम किया, इसलिए देश के बेहतर विकास के लिए संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए महिला आरक्षण बिल बेहद जरूरी है.
महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम ने कहा कि महिला आरक्षण बिल के पास न होने की वजह सिर्फ पुरुष ही नहीं हैं बल्कि कुछ महिलाएं भी इस साज़िश में शामिल हैं. ये सिर्फ जेंडर का मामला नहीं है बल्कि यह कहीं ज्यादा एक अवसर प्राप्त होने का मामला है. हम सभी महिलाओं को राजनीति दल और विचार से ऊपर उठकर एक साथ संघर्ष करने की जरूरत है,  जिससे महिला आरक्षण बिल पास हो सके.

सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि ‘जहां तक इस विधेयक की बात है तो सीपीएम पार्टी की पूरी कोशिश है कि इसको संसद से पास करवाया जाय. सामंतवाद, साम्प्रदायिकता और  बाजारीकरण महिलाओं को और पीछे धकेल रहा है. सही मायने में महिला आरक्षण ही हमें एक आधुनिक समाज अर्थात बराबरी की ओर ले जायेगा. और अगर भारत को आधुनिक बनाना है तो पहला कदम उस दिशा में आरक्षण ही होगा. आज इस बिल को संसद में पारित करवाने के लिए एक राजनीतिक आन्दोलन की सख्त जरूरत है.
योजना आयोग की पूर्व सदस्या सईदा हमीद ने कहा कि बिना महिलाओं की भागीदारी के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है. उन्होंने गीता मुखर्जी को याद करते हुए कहा कि हमारी रणनीति इस समय यह होनी चाहिए कि प्रत्येक राजनीति दलों से बात करके इस बात पर सहमति हो कि कोई भी राजनीतिक दल 33% महिला आरक्षण बिल पर कोई हंगामा न करे और संसद में कोई अमर्यादित व्यवहार न करे.’

जद यू के नेता केसी त्यागी ने कहा कि ‘बिहार में जद यू ने महिलाओं को सबसे पहले 50% आरक्षण दिया. पुलिस में भी 35% आरक्षण दिया. लेकिन सवाल यह है कि क्या आदिवासी, दलित, ओबीसी महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिल पायेगा. अभी जिस तरह से दलितों, अल्पसंख्यकों पर  लगातार हमले हो रहे हैं तो ये सवाल वाजिब है. हम चाहते हैं कि 33 % की जगह 50 % आरक्षण हो और जब ये बिल पास हो जाय तो उसके बाद सभी पार्टी बैठे और उसके बाद जो मार्जिनलाइज्ड महिलाएं हैं, को शामिल किया जाये.’ उन्होंने कहा कि आरक्षण लागू होने के बाद,  50 साल बाद आर्थिक स्वालंबन आया है- दलित और पिछड़ों में एक चेतना आयी है , लेकिन मुस्लिम महिलाओं में अभी भी उस तरह से स्वालंबन नहीं आई है,  तो मेरा आपसे यह  निवेदन ये है कि आप अपना आन्दोलन जमीनी स्तर तक ले जायें.  आप 50% आरक्षण करिए लेकिन हाशिये पर जो महिलाएं हैं उनको आपको प्रतिनिधित्व देना होगा. ‘

ज्वाइंट वीमेंस प्रोग्राम कार्यकर्ता ज्योत्सना चटर्जी  ने गीता मुखर्जी को याद करते हुए अपना अनुभव शेयर किया कि ‘जब हम लोग महिला आरक्षण बिल के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों से मिलने जाते थी तो हमें काफी कुछ झेलना पड़ा है और बहुत कुछ सुनना भी पड़ा है कि आपलोगों को राजनीति में भागीदारी की जरूरत ही क्या है. आप हमारी जगह क्यूं ले रहीं हैं? बहनजी आप क्या चाहती हैं,  अगर आप आ जाती हैं तो कौन पुरुष आपके लिए सीट छोडेगा.’

आयडवा की राष्ट्रीय महासचिव ने कहा कि ‘मैं आक्रोश और दुःख के साथ कहना चाहती हूँ कि आज महिला आरक्षण बिल को आज २० साल होने के बाद भी पास नहीं होने दिया जा रहा. लोकतंत्र को मजबूत और सुदृढ़ बनाने के लिए महिलाओं की भागीदारी राजनीति क्षेत्र के अन्दर बहुत जरूरी है. लेकिन आज भी हम वहीं खडी हैं. ये सिर्फ संसद में 33 % का सवाल नहीं है,  बल्कि इसका जो असर होगा, वह परिवार तक जाएगा. वहां पर जो संरचनाएं हैं, भेदभाव और गैरबराबरी का जो मसला है, उन संरचनाओं में महिलाओं की जो स्थिति है वह बदलेगी. राजनीति सर्वसम्मति के नाम पर इसे जान-बूझकर टाला जा रहा है. महिला संघर्षों को धरातल तक, अर्थात चूल्हे तक,  वहां जो गृहिणी बैठी हैं, युवाओं को साथ जोड़कर आवाज देनी होगी तभी ये बिल आ पायेगा .’

एआईडीएमएएम की अध्यक्ष विमल थोराट ने कहा कि राजनीतिक  भागीदारी को लेकर हम पिछले 20 सालों से संघर्ष कर रहे हैं. समाज से लेकर धर्म तक सत्ता पुरुषों का है. आज भी वर्ण और जाति व्यवस्था हम पर हावी है. बाबा साहेब आंबेडकर जब हिन्दू कोड बिल लाये तो सबसे ज्यादा विरोध सवर्ण पुरुष और महिलाओं ने किया था. बाबा साहेब ने महिला अधिकार को लेकर मंत्री पद से सबसे पहले इस्तीफा दिया था ये भी जानना बहुत जरूरी है. पितृसत्ता सिर्फ सवर्णों में ही नहीं दलित पुरुषों के अन्दर भी है, जब हमने गवई साहेब से 1997 में कहा कि आर.पी.आई पार्टी के अन्दर आप महिलाओं को 33% आरक्षण दीजिये तो उनका जवाब था कि जो पुरुष इतने दिन से काम कर रहे हैं, वे कहाँ जायेंगे. किसी भी पार्टी के अन्दर कोई भी नेता मन से नहीं चाहते कि महिला आरक्षण लागू हो, चाहे तो वे आत्मपरीक्षण कर लें. हमें अपनी रणनीति बदलनी होगी दलित, आदिवासी, मुस्लिम और ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करना होगा. भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी.

अनहद की शबनम हाशमी ने कहा कि ‘ राजनीति में जो महिला आरक्षण की बात है, उसे हम देश के विभिन्न मुद्दों से अलग नहीं देख सकते हैं. बाकी की जो लड़ाईयां है उनसे ये बहुत करीब से जुडी है. मुल्क में अभी जो हालात है, जो सरकार है, उससे हमें अपेक्षा नहीं करनी चाहिये कि ये आरक्षण दे देंगे. अभी फासिज्म देश में है, अगर संविधान बचेगा तभी तो आरक्षण आयेगा और हम अगर संविधान बचाने की लड़ाई में शामिल नहीं है तो वह आएगा कहाँ से.

जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार ने कहा, ‘सबसे पहले मैं वाम दलों से पूछना चाहता हूँ कि आप अपनी पार्टी में सबसे पहले 33% आरक्षण क्यों नहीं लागू कर देते हैं- पोलितब्यूरो सदस्य हैं, राष्ट्रीय मोर्चा है,  वहां महिलाएं क्यूं नहीं हैं?  तो पहले लागू करिए फिर दूसरी जगह दबाव डाला जायेगा. उसके बाद हमें अपने आख्यान बदलने की जरूरत है मांगने की जगह अपनी हिस्सेदारी लेनी होगा. अपना हक़ लेना होगा. जबतक स्त्री आन्दोलन हौजखास गाँव से निकलकर भारत के गाँव तक नहीं पहुंचेगा तब तक आरक्षण मिलना मुश्किल होगा. महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित उनकी राजनीति भागीदारी ही कर सकती है. महिला आन्दोलन को कामकाजी महिलाओं तक ले जाना होगा. इतिहास से लेकर आज तक महिलाओं को उत्पादन से बेदखल कर दिया गया है.’

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ISSN 2394-093X
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