जिद्दी लतर-सी इरोम: अनीता मिंज की कविता

अनीता मिंज

असिस्टेंट प्रोफेसर, दौलतराम महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, संपर्क :anitaminz74@gmail.com .

वह धरती की बेटी है
धरती की गोदी में रहती है
जमीन और जंगल को अपना फलक समझती
हवा को अपना आकाश और
पानी को प्राण समझती
जमीन की नमी से पलती
और एक फूल की तरह खिलती है
जिसका नाम है ‘लिहाओ’
वह इरोम-सी खिलखिलाती है
और एक जिद्दी लता की तरह छाती चली जाती है
धरती की छाती पर
उसका नाम है शर्मिला
पर वह शर्मीली नहीं
लताएँ कभी शर्मीली नहीं होतीं
पूरब की धरती की बेटी वह
भारत भर में अपनी जड़ें फैलाए
रहती है उत्तर में
वह एक ‘लिहाओ’ की तरह खिली
मानो सारे बियाबान में
हज़ारों-हज़ार ‘लिहाओ’ खिलने लगीं
उसकी खुशबू से

महकने लगीं फिजाएँ
उसकी फैलती हुई जड़ों से
दरकने लगे, चटकने लगे
हिलने लगे सरकारी गलियारे
सरकारी गलियारों में
जब रास न आई खुशबू
सरकारी गलियारों में
जब ख़ास न आई खुशबू
जमीन और जंगल पर लगा दिया ‘अफस्पा’
लगा दिया जर्रे-जर्रे पर पहरा
छीनना चाहा साँस-साँस हवा
और प्राण-प्राण पानी
करना चाहा बेबस
इरोम-सी एक जिद्दी लता को
लता की जिजीविषा ने
जिद को जिलाए रखा
जड़ों को फैलाती गई
भूमि को चीरती
भूमि के भीतर की भूमि से
पहुँच गई मातृभूमि
जिसने कभी दिया था जीवन
फिर दूना जीवन उसे देना है
उसकी निढाल जर्जर काया को
थामे रखना है
उठाए रखना है
जिलाए रखना है
सोलह वर्षों की घोर तपस्या
पल-पल जर्जर होती काया
काया बाहर से तपती
बनती जाती भीतर लोहा
लोहा जो गलता नहीं
लोहा जो तपता है
इरोम को जड़ों से काटा गया
अपनी जमीन से उखाड़ा गया
किसी नवजात को माँ से छीना गया
किसी बछड़े को गाय से मोड़ा गया
प्रकृति को पौधों से
हवा को पानी से
औ धरती को मिट्टी से तोड़ा गया
पेड़ और पौधे का
धरती और मिट्टी का
हवा और पानी का
दर्द और बिछोह का
अपने कंधे पर भार लेकर
आज भी जीती है एक जिद्दी इरोम

रातों की नींद गई
दिन का आराम गया
साँसों पर पहरा लगा
रात
और
दिन
और
साँसों
को साथ लेकर
पूरे मणिपुर में फूँकती है प्राण वह
अलाव बनकर जलती है
और संघर्ष के लोहे को गला-गला
मणिपुर को लोहा बनाती है
पैबस्त हो जाती है
अणु-अणु बिखर जाती है
मणिपुर के लोहे-से लोगों में
वह पूरब की बेटी है
पर चारों दिशाओं में
चिंगारी बिखेरती है
इरोम-सी फौलादी जिद्दी लतर को
राजनीति से जुड़ने दो
जननीति से मिलने दो
उसे बह जाने दो
राजनीति और जननीति की जड़ता पिघलने दो
उसे छाना है
छा जाने दो
राजनीति की छाती पर छाने दो
शासन की धरती पर
धरती का शासन करेगी वह
आज भी वह उसी धरती की मिट्टी को सूँघती है
उसकी साँसों में उसी धरती की हवा है
और प्राणों में उसी का पानी
आज भी वह एक जिद्दी लतर है
आज भी उसे पनपने दो
अपनी ही मिट्टी, पानी और हवा में

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ISSN 2394-093X
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