महाराष्ट्र के विशाल नगर नागपुर में हर वर्ष दशहरा के उपलक्ष्य में अपने ऐतिहासिक दिन को याद करने और बौद्ध धर्म अपनाने हेतु लाखों की संख्या लोग में एकत्र होते है. माना जाता है कि इस दिन मौर्यवंशीय सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध की विजय के बाद हुए रक्तपात से खिन्न हो कर शान्ति और विकास के लिए बौद्ध धम्म स्वीकार किया और दस दिन तक राज्य की ओर से भोजन दान एवं दीपोत्सव किया.
14 अक्तूबर 1956 को डा भीमराव आंबेडकर ने पांच लाख अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म को त्याग कर, बौद्ध धम्म में विश्वास करने वाले पूर्वज नागों की जमीन नागपुर में बौद्ध धम्म स्वीकार कियाआधुनिक भारत के इतिहास में दुबारा से बौद्ध धम्म की पताका फहराई गयी. बौद्ध धम्म को मानने वाले देश चीन, जापान, थाईलैंड से प्रति वर्ष हजारों की संख्या में अक्तूबर के महीने में सैलानी नागपुर की दीक्षाभूमि में दर्शन के लिए आते है.
डा. आंबेडकर ने दीक्षा लेते समय २२ प्रतिज्ञाएं ली, जिसका सार था ईश्वरवाद-अवतारवाद, आत्मा स्वर्ग- नरक, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड से मुक्ति और जीवन में सादगीपूर्ण सद्व्यव्यवहार का संचार. हिन्दू धर्म की मान्यताओं से दूर जाति-उपजातियों से उपजे भेदभाव को समाप्त करके उन्होंने एक प्रबुद्ध भारत की ओर एक कदम उठाया था.
नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में तीन दिन बड़ा उत्सव होता है . महाराष्ट्र के दूर- दराज जिलों, गावो कस्बों से नंगे पांव लाखो लोग दीक्षा भूमि के दर्शन करने आते है और 48 घंटे दीक्षाभूमि में तिल रखने की जगह नहीं मिलती. न केवल महाराष्ट्र से बल्कि पूरे भारत के कोने कोने मसलन उत्तेर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब-हरियाणा, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु से हजारो लोग दीक्षाभूमि में धम्म की वंदना करने आते है. इस उत्सव में सबसे खूबसूरत चीज जो देखने को मिलती है, भीड़भाड़ में कोई छेड़छाड़ नहीं होती न ही कोई फसाद .
दलित आन्दोलन की झलक पल -पल पर देखने को मिलती है. महिलाओ के मंडप, छात्रो के मंडप, पुस्तकों के मंडप, अन्धविश्वास निवारण मंडप, बुद्धिस्ट विचारो के कैम्प, कर्मचारियों के कैम्प, पत्रिकाओ के स्टाल, समता सैनिक दल का मार्च, आरपीआई का मार्च, महिलाओ का मार्च , युवाओं के मार्च नारे लगाते लोग दीखते हैं तो नागपुर की सडको पर जहां -जहां से लोग गुजरते हैं,उनके लिए भोजन की व्यवस्था वही के लोग करते हैं , महिलाएं भोजन दान करती हैं. जितना विशाल उत्सव होता है, उतना ही विशाल पुस्तकों , पोस्टर, बिल्लो का बाजार होता है, जो अपनी विशिष्ट छाप छोड़ता है.
यह उत्सव अब पूरे देश में मनाया जाता है. आंबेडकरवादी विचारधारा को मानने वाले संगठन, संस्थाए, पार्टी, समूह दल अपने अपने राज्यों में दशहरा के दिन अशोक विजयदशमी मानते है. बनारस, आगरा, दिल्ली , हरियाणा, आन्ध्र, तमिलनाडु. कानपुर, लखनऊ में धूमधाम से मनाया जाता है. अफसोसजनक बात है कि लाखो कि संख्या में दस्तक लेनेवाले उत्सव के बारे में मिडिया , टीवी चैनल में कोई उत्साह नहीं है, न ही उसके बारे में कोई रिपोर्टिंग ही होती है. मुख्यधारा के अखबार दुर्गा पूजा, रावणदहन से भरे हुए मिलेंगे, लेकिन हमारी मूल सभ्यता और विचारधारा पर कोई लेख टिप्पणी भी देखने को नहीं मिलेंगी. अशोक विजयदशमी की याद में आज हम बौद्ध , दलित आदिवासी, घुमंतू जातीय लोगो और उनकी महिलाओं की अस्मिताओं के प्रति सजग हो कर पितृसत्तात्मक पर्व और मिथकों पर बहस चलानी होगी, बहस हमें इस बात पर भी चलानी चाहिए कि एक लोकतान्त्रिक देश में त्योहारों के नाम पर हम हिंसात्मक अभिव्यक्तियों को क्यों अभ्यास करे?