प्रेम के स्टीरियोटाइप से मुक्ति ही प्रेम है

नीलिमा चौहान


पेशे से प्राध्यापक नीलिमा ‘आँख की किरकिरी ब्लॉग का संचालन करती हैं. संपादित पुस्तक ‘बेदाद ए इश्क’ प्रकाशित संपर्क : neelimasayshi@gmail.com.

जब आप भावनात्मक तौर पर  प्रीऑक्यूपाइड होंं , सीने पर चंद ज़िंदा घाव होते हों और ऐसे में आप प्यार पर प्यारी और आदर्शात्मक मशवरात की  महफिल में प्यार पर ही चंद लफ्ज कहने को बुला लिए जाते हों – जनाब इससे ज्यादा इम्तिहान की घड़ी और क्या ही होगी मुझ जैसे जज्बातों का जखीरा लादे चलने वालों के लिए । वो क्या है न कि नफरत के वर्तमान परिवेश में लोग प्यार करें न करें  पर प्यार पर वही सुनना चाहते हैं जो वे सुनते आए हैं ।नफरत से निकृष्टता के बारे में अधिक लोड न लेने वाले समाज में प्रेम और उत्कृष्टता के बारे में ख़ासी उत्कटता देखना भी एक तरह से आश्‍वस्‍त करता है ।

बहरहाल , मसला यह  अलौकिकता , रहस्यमयता , उर्जा , आभा जैसे गुणों से उदात्तता के उच्चतर सोपानों पर रखे गए प्रेम के भाव की सर्वमान्यता के बावजूद भी कुछ ऐसे सवाल भी इस दैवीय भाव पर उठाए जाने चाहिए जो दरअसल आदर्शोन्मुखी परिचर्चाओं में या तो उठाए नहीं जाते या बस सरलीकृत कर दिए जाते हैंं ।

जनाब प्रेम है जरूर एक उच्चतर रेज़रबारीक धवल भाव पर इसको शातिराना लिबास ओढ़ाने में हमारी संरचनाओं ने कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है । ख़ासतौर पर तब जब स्त्रीत्व और मातृत्व के संदर्भों में इस भाव को शोषण के एक मासूम औज़ार के रूप में छदम तरीके से इस्तेमाल किया जाता रहा है । स्त्रीयोचित भूमिकाओं की जड़ में मजबूत सीमेंट की माफिक । इंतजामे खानादारी को स्त्री की पसंदीदा भूमिका और विद्वत्ता या धनोपार्जन के लिए जद्दोजहद को पुरुषोचित गुण ही नहीं माना जाता रहा है बल्कि इन भूमिकाओं में एकदूसरे को सहयोग देने को प्यार नाम के लफ्ज से ढापा गया है  । जबकि स्त्री पुरुष के आपसी प्यार की परकाष्ठा या उत्कृष्टता एकदूसरे की जेंडरीकृत भूमिकाओं के प्रति कम जड़ होने में मानी जानी चाहिए थी । खासतौर् पर स्त्री की रसोईआदि संबंधी भूमिकाओं में प्रेम के इज़हार का आरोपण करना और उसमें और अधिक पारंगत होते जाने की जिद या सुविधा प्रद्त्तता को उत्कृष्टता से मिसआइडेंटिफाई करना उतनी मासूमियत है नहीं जितनी इसमें देखी जाती है । रसोई की भूमिकाओं में पारंगतता और ज्ञान और दूसरे क्षेत्रों में पारंगतता में अंतर तो रहेगा ही । घर से कंफाइंड भूमिकाओं मेंं उत्कृष्टटता के मकाम की  कोशिश में एक सीमा के बाद एक सेल्फ एब्ज़ाज़ार्प्शन का निरर्थक बिंदु तो आता ही है ।

मेरी राय में गार्हस्थिक प्रेम में स्त्री को गृह से इतर की दुनिया में संघर्ष और पहचान बनाने के लिए उत्प्रेरित करने में प्रेम की उत्कृष्टता का जैसा परिचय है वैसा घर की परिधि में तलाशना असंभाव्य माना जाना चाहिए ।

इतिहास में एक ही पुरुष द्वारा सैंकड़ों  औरतों से प्यार करने के के उदाहरण कलमबद्ध मिलेंगे लेकिन अनेक पुरुषों से प्यार करने वाली औरतों के उदाहरण या तो प्राप्य नहीं होंगे या दस्तावेजीकृत नहीं पाए जाएंगे ।गोपियों द्वारा अपने गार्हस्थिक प्रेम से इतर कृष्ण  के प्रति प्रेमाभिव्यक्ति के पौराणिक उदाहरणों की अलौकिक रहस्यमयता के मायाजाल और अमृता प्रीतम के दो पुरुषों के प्रति निर्विकार निर्दंद्व प्रेम भावना के कतिपय उदाहरण हैं किंतु वे इतने अल्पमात्रा में उपस्थित हैं कि अपवाद मात्र कहे जा सकते हैं । परंतु पुरुष सत्ता और प्रेम की त्रिज्या वाले अनेक स्वाभाविक उदाहरण सहज प्राप्य होंगे। स्त्रियों की भावनात्मक क्षमता और प्रजनन की प्रक्रिया के प्राकृतिक यथार्थ के सामने असहायता से जनित हालात उसे एकांतिक प्रेम के लिए प्रतिबद्ध रखने का काम करते हैं । स्त्री इसी समर्पित प्रेम की परिधि में स्व के होम के ज़रिये सार्थकता की तलाश में रहती है । प्रेम उसे एक सीमा से परे उत्कृष्टता के सोपानों तक ले जाने में इसलिए नाकामयाब होता है क्योंकि प्रेम की अभिव्यक्ति की अनेक वांछित  छवियाँ गार्हस्थिक प्रेम से विदा हो रहती हैं । जबकि पुरुष प्रेम के एक या कई प्रकरणों के बाद भी घर की परिधि से असंबद्ध महसूस करते हुए अपने उत्तरोत्तर विकास के अवसर हासिल करता रह सकता है ।

गोया प्रेम को हमेशा से पुरुष की दृष्टि से देखा गया है और उसमें दंभ , उच्चता  , पौरुष की मात्रा अधिक रही है । उसके लिए प्रेम विजय का घोष है जीवन के क्षंंणांश का हासिल है और आगे बढ़ जाने तक पढ़ाव है । जबकि स्त्री के लिए प्रेम का मायना है आजीवन का निवेश और उस पूंजी का संरक्षण करने की जड़ प्रतिबद्धता  । स्त्री को प्रेम में उत्कृष्टता (?)हासिल करने के लिए आत्म विलयन और समर्पण की जिन संरचनागत अग्निपरीक्षाओं से गुज़रना होता है उतना परित्याग व प्रेम की प्रतिपुष्टि पुरुष से न तो अपेक्षित होती है न ही आवश्यक ।

प्रेम के विवाहेतर रूप और जीवनगत उत्कृष्टता में कोई सीधा सहसंबंध स्थापित करना और उसे जीवन मेंं मूल्य या चलन के तौर पर देखने के अभ्यास से हम संभवत: सदियों दूर है । जड़ संरचनाओं में दोनों ही लिंगों के व्यक्ति के लिए जमात के ठप्पे से महरूम प्रेम को इतने स्पीड ब्रेकरों , चुंगीख़ानों और पगडंडियों से ग़ुज़रना पड़ जाता है कि प्रेम जीवन को, आत्मा को, भावना को उत्कृष्टता के सोपानों की ओर ले जाने में असमर्थ साबित होता है । स्त्री के लिए आत्मिक ,भावनात्मक या बाह्य कामनाओं की प्रतिपूर्ति और उसके ज़रिये उर्ध्‍व विकास के लिए उत्प्रेरित होना एक जटिल परिकल्पना भर है । पुरुष के लिए यह असमर्थित संबंध कम अवरोधपूर्ण हालातोंं का शिकार होते हैं लेकिन वे आत्मा की खाद बन उत्कृटता की ओर उत्प्रेरित कर पाएँ इतना सलोना और अनुकूलित परिवेश बनने के रास्ते में भी कई अवरोध हाज़िर हैं ।प्रेम की अनुभूति से जनित मुक्तावस्था , उधर्वावस्था के मार्ग में व्यावहारिक भौतिक और ढाँचागत अड़चनें हैं । इन अड़चनों का इलाज व्यक्ति के भाव जगत के भीतर तो है ही साथ ही संरचनाओं को लचीली , संवेदनापूर्ण और प्रेमिल होने के लिए प्रशिक्षित करने में भी निहित है | उत्कृष्तता के भ्रामक अवधारणा होने की भी उतनी ही संभावना मानी जानी चाहिए जितनी प्रेम के आधुनिक संरचनागत रूपगत अवधारणा की ।

साफतौर पर देखा जा सकता है जनाब कि प्रेम आज की सभी मूल्यगत अवधारणाओं की तरह प्रदूषित और प्रवंचनापूर्ण अवधारणा है । कैमिकल लोचे से शुरू होने वाली प्रेम भावना एक तरह की परतंत्रता से दूसरी तरह की परतंत्रता के लिए हाज़िर होने की माफिक । स्त्री के लिए एक ऐसा व्यामोह जिसकी उच्चता  और श्रेष्ठता की ख़ातिर औरत के द्वारा अपनी कई अस्तित्वगत विशेषताओं की शहादत हमारी जमात में एक स्वीकार्य , स्वाभाविक और अपेक्षित अभिव्यक्ति दिखाई देती है ।

लुब्बोलुआब यह कि अपनी कक्षाओं में जिस प्रेम भावना पर व्याख्यान देने को कवियों की गर्दन पर बंदूक रखकर गोली चलाने की मानिंद चतुराई भरे काम की तरह सालों से करते आए थे , उस प्रेम पर चंद समय में सदन द्वारा अपेक्षित वक्तव्य से परे हटकर बोलने का जोखिम उठाते नहीं बन पड़ा ।

एक पेंचभरी , चालबाज़ ,विचलनभरी समाज निर्मित अवधारणा जो है यह । किस सिरे से इसपर समझ हासिल हो जनाब ?

तो जी प्रेम पर औचक कुछ भी कह देने की अनुभूति ऐसी आशंका भरी और बेमंज़िल है  मानो भरे समंदर मेंं बस एक लाइफ जैकेट के सहारे गिरे छूट गए हों ।

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ISSN 2394-093X
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