साहस का सौंदर्यशास्त्र गढ़ती नायिकाएं

मेधा

 
आलोचक , सत्यवती महाविद्यालय ,दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती है . संपर्क :medhaonline@gmail.com



पुरानी कहावत है -‘भेस-वेश से भीख मिलती है’। वेश को लेकर एक कहावत और भी है- ‘जैसा देश वैसा वेश।’ दोनों ही कहावतों में वेश की बात तो है ही, वेश से जो साधा जाता है, उसका भी संकेत है। पहली कहावत कहती है कि आपका वेश देखकर लोग आपके बारे में धारणा ही नहीं बनाते उस धारणा के इर्द-गिर्द ही आपके साथ बरताव भी करते हैं। दूसरी कहावत इसी बात को आगे बढ़ाती है। वह कहती है कि वेश को लेकर हर देश में अलग धारणा होती है। सो जिस देश में पहुंचो वेश वैसा बना लो। मतलब साफ है वेश से आपकी सूरत और आपकी सीरत का गहरा नाता है। तो फिर बात इससे शुरू करें कि सुंदर देश और सुंदर वेश कौन सा है? जो कपड़े सबसे ज्यादा बिकते हैं या कह लें अगर पैसे कौड़ी हों तो जिन्हें लोग सबसे पहले खरीदें वह सबसे सुंदर कपड़ा है। इसी तर्क से सबसे महंगे कपड़े सबसे सुंदर कपड़े हैं। सबसे सुंदर और सबसे महंगा का एक देश है। इस देश को अब मॉडलिंग और व्यवसायिक सिनेमा के नाम से जाना जाता है। एश्वर्या राय और उन जैसी अन्य मॉडलों और सिने तारिकाएं इस देश की नायक हैं। इस देश में देह की एक धारणा है जहां स्त्री घुटने से ऊपर और गर्दन के नीचे तक ही होती है। इस देश में स्त्री के सौंदर्य का जो प्रतिमान है उसी के अनुकूल इसके नायकों का वेश बनता है। मॉडलिंग और सिनेमा के देश के इन नायकों ने अपने को अपने देश के वेश में ढाला।


इस दुनिया में कमनीयता और यौवन एक गुण है इसलिए अपनी उम्र को रोकना, देह पर पड़ती लकीरों को यथासंभव छुपाना और कदाचित सदा हरित दिखाना यहां एक धर्म बन जाता है। इस धर्म को निभाती हैं ये तारिकाएं और मध्यवर्गीय कामना का प्रतीक बन जाती हैं। और इस देश का बड़बोला मध्यवर्ग भला कब सोच सकता है कि स्त्री का जीवशास्त्र उसके समाजशास्त्र से अलग होता है। उसमें कोख है तो रोग भी है। मध्यवर्ग अपने मानस में स्त्री को लेकर सामंती है। वह पूछने के बहाने स्त्री में सब खोजता है- ‘कनक छरि सी कामिनी, काहे को कटि छिन’। तारिकाएं या मॉडल बनी औरत मध्यवर्ग की इस धारणा को जितना निभाती है, उतनी ही उसे अपने देश से भीख भी मिलती है। सारी दुनिया सर आंखों पर बिठाती है। यहां यह कहना जरूरी नहीं कि मध्यवर्ग की इस धारणा को कंपनियों ने बनाया है जो तारिकाओं के सहारे उसके मन-मानस में उतारा जाता है।

लेकिन विचित्र यह कि मेधा पाटकर और उन जैसी जनसंघर्ष की अन्य नायिकाओं को भी नैतिक धरातल पर इस देश का मध्यवर्ग स्वीकार करता है। स्त्री पात्रों में मध्यवर्ग का नायक एक नहीं अनेक है। इसके नायक एश्वर्या, विपाशा हैं तो मेधा पाटकर और अरूंधती राय भी हैं। लेकिन इनका देश अलग है। यह दुनिया वंचितों की दुनिया है और इसके नायकों की दुनिया वंचितों के संघर्ष की दुनिया है। इस देश के कई हित मध्यवर्गीय हितों से अलग और अक्सर विपरीत पड़ते हैं। यहां हारी-बीमारी और अभाव है। देह यहां दर्शन का कम, हाड़तोड़ मेहनत-मजदूरी का औजार ज्यादा है। इस देश तक आते-आते देह की धारणा बदल जाती है। यहां बुजुर्ग होना एक गुण है। यहां प्रखर होना और सामने वाले के दुख में हर तरह से शामिल होने का आभास देना, विश्वास पैदा करना गुण है। इसलिए उन्हें सिने तारिकाओं की मानिंद अपनी देह पर पड़ती उम्र और अनुभव की लकीरों और झुर्रियों को छुपाने की जरूरत नहीं। दुनिया दोनों को पहचानती है। लेकिन एक की पहचान सौंदर्य के रूप में होती है, तो दूसरे की वंचितों के संघर्ष के रूप में। एक मध्यवर्गीय कामना का प्रतीक है, तो दूसरा मध्यवर्ग की नैतिक दीप्ती का। तो क्या यह मान लिया जाए कि जो कमनीय नहीं वह सुंदर नहीं। क्या सुंदरता और संघर्ष में कोई छत्तीस का आंकड़ा है? मध्यवर्ग की आंखों को जो जंचता है, दिल के किसी कोने में वही क्यों खटकता है?

दरअसल मध्यवर्गीय सुंदरता को चुनौती देती जनसंघर्ष की ये नायिकाएं सौंदर्य की एक समानानंतर कसौटी गढ़ रही हैं। यह सच है कि सौंदर्य के प्रचलित मापदंड अपने समय के ताकतवर मुहावरों से निर्धारित होते हैं। मौजूदा वक्त का ताकतवर मुहावरा वैश्वीकरण और बाजारवाद है। इसलिए आज ‘पॉपुलर कल्चर’ और मध्यवर्गीय जीवन के सौंदर्य प्रतिमान इन मुहावरों से तय हो रहे हैं। मुकाबले की होड़ है और बाजार में कुलांचे भरती निजी पूंजी का तर्क समाज में अनूदित होता है- सबसे आगे, सबसे बढ़कर कौन के जुमले में। इस समाज में सौंदर्य से भी यही पूछा जाता है। सौंदर्य ऐसा जो कुछेक को प्राप्त हो मसलन ऐश्वर्या, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ। और मास मीडिया इस सौंदर्य की कामना को 14 साल से लेकर 80 साल के स्त्री-पुरुष में जगाता है और इसके आधार पर उसे एक उपभोक्ता में बदल अधिकतम मुनाफा कमाता है।

लेकिन सौंदर्य के प्रचलित मानक के बरक्स एक दूसरा मानक जनसंघर्ष की नायिकाएं गढ़ रही हैं। घोर असमानता और भयानक उपभोग की इस संस्कृति में जनसंघर्ष की ये नायिकाएं ठीक उसी तरह सौंदर्य के मानक गढ़ रही हैं जैसे कि आजादी के संघर्ष के दौरान गांधी नेहरू और जिन्ना जैसे नेताओं ने विक्टोरियाई अभिजात्य सौंदर्य के प्रतिमान के बरक्स नया सौंदर्य मानक गढ़ा था। यह अनायास नहीं कि बहुचर्चित पुस्तक फ्रीडम एट मीडनाइट’ के लेखकद्वय लापीयर और कॉलिन्स जब गांधी के चेहरे-मोहरे और हाव-भाव का वर्णन करते हैं तो उनकी कलम वर्णन के तनाव को ठीक से थाम नहीं पाती। दोनों ने अभिजात्य सौंदर्य से प्रेरित हो उनके रूप-रंग के बारे में लिखा है-‘‘प्रकृति ने गांधी के चेहरे को शायद जान-बूझकर कुरूप बनाया था। उनके दोनों कान उनके आवश्यकता से अधिक बड़े सिर के दोनों ओर शकरदान के हैंडिल की तरह निकले हुए थे। चपटे फैले हुए नथुनों वाली उनकी नाक उनकी सफेद छिदरी मूंछ पर भारी चोंच की तरह झुकी रहती थी…..।’’ लेकिन प्रचलित मानक पर गांधी को कुरूप कहते-कहते वे अचानक ही ठीठक जाते हैं और उन्हें लिखना पड़ता है-‘‘फिर भी गांधी के चेहरे पर एक विचित्र सौंदर्य की आभा थी क्योंकि वह निरन्तर बहुत चंचल रहते थे और उस पर मैजिक लैन्टर्न की जल्दी-जल्दी बदलती हुई आकृतियों की तरह उनकी बदलती मनोदशाओं और उनकी शरारत-भरी मुसकराहट का प्रतिबिंब झलकता है।’’ नैतिक बल से उपजे सौंदर्य के इस मानक को आजादी के दौर में देश की जनता ने भी अपनाया। विदेशी ताम-झाम और ग्लैमर को स्वदेशी के सौंदर्य ने आग लगा दिया। अपने देश में ही नहीं दुनिया भर में सौंदर्य के दमनकारी मानकों के बरक्स नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा जाता रहा है। अमेरिका को ही लें। चमड़ी के काले रंग को वहां बदसूरती का पर्याय माना जाता रहा है। सुंदर वही जो तन से गोरा है। इस विचार ने सदियों तक वहां अफ्रीकी अमेरिकियों का दमन ही नहीं किया स्वयं काले लोगों ने इस नस्लभेदी सौंदर्य प्रतिमान को आत्मसात कर लिया था। इसे चुनौती तब जाकर मिली जब वहां ‘ब्लैक इज ब्यूटीफूल’ आंदोलन चला।



गांधी ने कोट-पतलून के बदले लंगोटी पहनी। कोट-पतलून को उतार कर अधनंगे फकीर का वेश धारण किया तो नेहरू और जिन्ना ने भी साम्राज्यपरस्त सौंदर्य की दलील देते वेश को बदला और देशी रूप धरा। आजादी के नेताओं का सौंदर्य प्रतिमान एक समानानंतर सौंदर्य प्रतिमान था।

आज मेधा पाटकर, शर्मिला इरोम, सीके जानू, अरुणा राय, जैसी शख्सियतें सौंदर्य का समानानंतर संसार खड़ा कर रही हैं। एक ऐसा संसार जिसमें यह एलान तो है ही कि सुंदरता पर अधिकार महज समृद्धि का नहीं, साथ ही सौंदर्य का यह दर्शन जन- जन के करीब है। यह न्याय, समता और गरिमा की आभा से दीप्त है। सैकड़ों आदिवासियों के साथ तेजधार नर्मदा में कमर भर पानी में खड़ी मेधा पाटकर की तस्वीर भी आंखों को बांधती है। पूर्वोत्तर की छोटी गांधी शर्मिला इरोम मनुष्य विरोधी औपनिवेशिक आर्म्ड फोर्स स्पेशल पॉवर्स एक्ट के विरोध में सोलह साल तक सत्याग्रह किया।  यह नैतिक साहस ही है कि सोलह साल तक भूख हड़ताल पर बैठी इस साधारण स्त्री का सौंदर्य आज भी अग्निशिखा सा दीप्त है। घरेलू नौकरानी की नियति लेकर जन्मी आदया आदिवासी सी. के. जानू आज केरल के साढ़े तीन लाख भूमिहीन आदिवासियों की तकदीर बदलने के संघर्ष में लगी है। साहस के सौंदर्य को उसके पूरे व्यक्तित्व में महसूस किया जा सकता है। कहते हैं सुंदरता के पीछे दुनिया चलती है तो फिर एक दुनिया तो इनके पीछे भी चल रही है।



जनसंघर्ष की इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय कामना के प्रतीक के रूप में स्त्री-देह के प्रयोग को एक तरह से चुनौती दी है। इनकी आभा के सामने क्या ऐश्वर्या और उनकी समानधर्मा महिलाएं टिक सकेंगी? इन ‘निर्भीक विद्रोहिणियों’ ने जबरदस्ती ओढ़ायी गई भीरूता को जीत लिया है। ‘वे एक बड़ी लड़ाई को प्रतिश्रुत हैं।’ आजादी की दूसरी लड़ाई की इन नायिकाओं के सत्याग्रह, आत्मबल, निर्भीकता और नैतिक साहस की आभा एक रोज देखने वालों की आंखें भी बदल देंगी। दक्षिण अफ्रीका की कवयित्री ग्लोरिया म्तुंगवा ने ऐसी ही ‘निर्भीक विद्रोहिणियों’ के सौंदर्य को सलाम करते हुए लिखा है-
‘‘वह बहुत सुंदर लग रही है
उसके सौंदर्य को अब तक के प्रतिमानों से नहीं नापा जा सकता
उसका मानदंड मानवता के प्रति उसका समर्पण है।’’

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ISSN 2394-093X
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