बेटी संज्ञा : बहू सर्वनाम

सुधा अरोड़ा

सुधा अरोड़ा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई – 400 076
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” हमारी बिट्टो तो बहुत बढि़या खाना बनाती है , आप उंगलियां चाटते रह जाओ.बिट्टो के ऑफिस में सब उसकी बड़ी तारीफ करते हैं , मज़ाल है कि काम आधा छोड़कर उठ जाये ! कभी कभी तो दस बज जाते हैं ….. अभी सो रही है , एक इतवार ही तो मिलता है ज़रा देर तक सो लेती है.बड़े लाड़-प्यार में पली है हमारी बिट्टो ……”

” इसे तो चाय तक ढंग की बनानी नहीं आती.कभी फीकी तो कभी मीठी चाशनी ! … पता नहीं , इसकी मां ने क्या सिखाया है इसे ! आजकल तो सभी काम करती हैं पर काम करने का ये मतलब थोड़ी है कि रसोई दूसरा संभाले …इसे घर गिरस्ती चलानी नहीं आती … महारानी सो रही है अब तक …..”

यह पहचानना कतई मुश्किल नहीं है कि कौन सा संवाद किसके लिये कहा जा रहा है ! किसी दकि़यानूसी मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में कभी आप जायें जहां एक ही उम्र की दो लड़कियां हैं – एक घर की बेटी है , जिसका एक नाम है और वह अपने नाम से बुलायी जाती है.दूसरी बहू है – नाम उसका भी है पर नाम होते हुए भी वह ‘यह-वह’ , ‘इस-उस’ के सर्वनाम से जानी जाती है.

एक औसत सास की त्रासदी ही यह है कि वह स्वयं जि़ंदगी भर स्त्री बनी रहती है पर सास बनते ही अपना  स्त्री होना भूल जाती है| जिस बात के लिये वह अपनी बेटी की तारीफ करती है , उसी के लिये उसकी बहू उपहास और निंदा का पात्र् बनती है.एक ही स्त्री अपनी बेटी को आधुनिकता और नयेपन को स्वीकारने की छूट देती है और बहू के रवैये के लिए उसकी लानत मलामत करती है ! जिन्हें अपना समय याद रहता है और जो अपने समय में हुई भूलों को दोहराना नहीं चाहतीं , वे अपनी बहू के प्रति न कभी अतार्किक होती हैं , न दुराग्रह पालती हैं क्योंकि अन्तत: एक स्त्री ही स्त्री की तकलीफ़ को ज़्यादा गहराई से महसूस कर सकती है.


ऐसी ही एक समझदार महिला को मैं कभी भूल नहीं सकती जो अपनी बहू प्रीति को लेकर हमारे सलाहकार केंद्र में आई थी.देखने में बेहद खूबसूरत प्रीति गरीब परिवार से थी.बेटे ने अपनी पसंद से उससे शादी की , लेकिन कुछ सालों बाद अपने ऑफिस की एक विधवा सहकर्मी से उसके संबंध बन गये.ऑफिस से लौटते ही वह एक रिंगमास्टर की तरह घर में घुसता और किसी न किसी बात पर चिल्लाने लगता.बेटे का आतंक पूरे घर को नरक बना रहा था.बच्चे दहशत से कांपने लगते.

आम तौर पर होता यह है कि एक स्त्री अपने पति के विवाहेतर संबंध से जीवन भर जितनी भी त्रस्त  रही हो , अपने बेटे के ऐसे संबंधों को उचित ठहराती है या फिर उस संबंध का दोष भी अपनी बहू के मत्थे मढ़ देती है” इसे ही अपने पति को बांधकर रखना नहीं आया वर्ना वह इधर उधर क्यों भागता , पहले तो मेरा बेटा ऐसा नहीं था.”

…… और यहां हमारे सामने एक ऐसी सास बैठी थी जो पूरी तरह अपनी बहू का साथ दे रही थी.उन दोनों की दुनिया एक कमाऊ पुरुष के ईद गिर्द घूम रही थी.आखिर हमारी सलाह पर उस बुज़ुर्ग महिला ने घर और दोनों बच्चों को संभाला और प्रीति को छोटे बच्चों की ट्रयूशन का काम करने दिया.अब कुछ पैसे भी घर में आने लगे और अपने पांव पर खड़े होते ही प्रीति का आत्मविश्वास बढ़ा और उसने हिंसा में पति के उठते हाथ को रोकना सीखा.आज भी प्रीति अपनी सास की बहुत एहसानमंद है जिसने उसकी जि़ंदगी में आये तूफान को झेलने का हौसला दिया.

अगर एक मां होने के साथ साथ आप सास के ओहदे पर भी हैं तो अपने संबोधनों और अपने व्यवहार पर ग़ौर करें ! जैसा रवैया आपका अपनी बेटी के प्रति है, वही बहू के प्रति रखें तो बहू भी बेटी सा ही सुलूक करेगी.ग़ौरतलब है कि आपकी बहू का भी एक नाम है ! वह भी किसी घर की संज्ञा रही है ! उसे सर्वनाम न बनायें.

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ISSN 2394-093X
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