देखो-देखो ‘चमईया’ हमार सुतुही

सोनी पांडेय

कवयित्री सोनी पांडेय साहित्यिक पत्रिका गाथांतर की संपादक हैं. संपर्क :pandeysoni.azh@gmail.com

बाबा ब्रह्मदेव तिवारी के दुवार पर भिनहिये से कल्लुवा की माई ‘मोटकी चमईनिया’ डुगडुगी डिबीर-डिबीर बजा रही थी। डीब-डीब-डीब के बेढब आवाज से तंग आकर ज्योत्सना ने ननद से पूछा- ‘‘बीबीजी ये आपके यहाँ कौन सा रिवाज है कि ब्याह के तीसरे दिन भी डीब-डीब लगा हुआ है।’’ मंजू नयी नवेली दुल्हन का मुँह आवाक हो ताकने लगी, चेहरे का रंग एकदम उतर गया, जैसे किसी ने चोरी पकड़ ली हो। मंजू ने पूरी सजगता के साथ उत्तर दिया- ‘‘जब तक कक्कन नहीं छूटता।’’ ज्योत्सना ने दूसरा सवाल दागा- ‘‘और कक्कन कब छूटता है? हमारे यहाँ तो विदायी वाले दिन ही छुड़ा देते हैं? मंजू को गुस्सा आ गया। भाभी ये आपका घर नहीं है, यहाँ के रस्मो-रिवाज अलग हैं, समझी। अम्मा को भेजती हूँ, जो-जो जानना है पूछ लिजियेगा।’’ ज्योत्सना को ध्यान आया कि वह अभी नव वधू है, ननद को नाराज करना ठीक नहीं। तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ती हुयी छोटी ननद का हाथ थाम लिया- अरे! रे ऽऽऽ मेरी प्यारी बीबीजी नाराज हो गयी। गालों को हथेलियों से थपथपाते हुए कहा- चलिए अभी तो आपको प्यारी-प्यारी चुड़ियाँ और नगों वाली बाली देनी है, जिसे आपने मेरे मेकअप बाक्स में पसन्द किया था। मंजू पिघल गयी। ननद-भौजाई चूड़ीकेश और मेकअप बाक्स में उलझी छेड़-छाड़ में मगन थीं कि नाऊन बुकवा लिए कमरे में दाखिल हुई- ‘‘चला हो दुलहिन तनी मीज देईं।’’ चटाई बिछाकर बैठ गई। ज्योत्सना को सरसों के उबटन से उबकाई आती थी। मई का महीना और तीन दिन पहले उसके घर की नाऊन के हाथों का पिसा हुआ बुकवा फुलहा कटोरे में लेकर नाऊन बैठी मुस्कुरा रही थी। मंजू भाभी के मनोभाव ताड़ गयी- ‘‘मुस्कुराते हुए भाभी से कहा- बुकवा तो यहीं लगेगा भाभी, रिवाज है, पाँच दिन तक नईहर का फिर सवा महीना ससुरे का बुकवा लगता है हमारे यहाँ बहुओं को, कोहनी से ढकेलते हुए भाभी से कहा- सोचती क्या है कूद जा मैदान में।’’ ज्योत्सना ने खीझते हुए कहा- मुझे सरसो के तेल से एलर्जी है। उसी क्षण चाची सास अपने साल भर के बेटे को गोंद में लिए आ धमकी- ‘‘क्या हुआ ओ नाऊन, कनियवा बुकवा लगवाने में निहोरा करवा रही है क्या?’’ नाऊन मुँह चमकाकर रह गयी। ज्योत्सना मुँह गिराकर चटाई पर बैठ गयी, नयी नवेली दुल्हन का यह व्यवहार शाम तक पूरे गाँव-जवार में फैल जायेगा जानती थी। माँ की बात याद आयी- ‘‘परजा-पसारी चार घर की घुमनी जीव होती हैं रंजू ससुराल में इनसे सम्भल कर व्यवहार करना, वरना अफवाह उड़ाते देर नहीं लगेगी।’’

ज्योत्सना ने पाँव की पाँच उंगलियां रूमाल से पैर ढककर आगे बढ़ाया, चाची सास ने तपाक से लिहेड़ी लिया- ‘‘हे इनसे का लजाना, साले भर में नंगटे मिसाओगी। मंजु हा-हा-हा हँसने लगी। नाऊन ने पैर खींचा- ‘‘दा दुलहिन निम्मन से मीज देइं।’’ ज्योत्सना रूमाल दाबे सिर झुकाये बैठी रही। सास दूसरे बेला का मांग बहोरने आयी- ‘‘ऐ नाऊन चला जा- आपन माया जाल हटावा, मांग बहोरे के है। नाऊन हाथ में का बुकुवा छुड़ाकर उठ खड़ी हुई। पंडी बाबा के कब के कहे क है? बता देयीं त काल्ह कहत आईब। आज चार दिन हो गईल, पुजइया काल्हे होई न? ज्योत्सना की सास सिर का पल्ला ठीक करते हुए बोली- कुल पोवत करत चार त बजीए जाई- पाँच के हहु दिहा। और ज्योत्सना के आँचल में पाँच बड़े-बड़े लड्डू डाल कर सिन्होरा से सिन्दूर निकाल कर पूरा मांग पीला सिन्दूर भर गयी। गर्मी में इतना सिन्दूर देख ज्योत्सना रूआंसी हो जाती किन्तु ससुराल में नवेली दुल्हन का विरोध सम्भव नहीं था, इसलिए अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहती।

(2)
अगली सुबह नीम अंधेरे सास आकर जगा गयी, पूरे परिवार की औरतों की चहल-पहल सुनकर ज्योत्सना चौकन्नी हुई। याद आया आज ब्याह के पाँचवे दिन की पुजइया है जो सुबह पाँच बजे से शाम पाँच बजे तक चलेगी, सास शाम को ही समझा गयी थी। झट-पट नहा-धोकर तैयार हो गयी। मन रोमांचित था। आज कक्कन भी छूट जायेगा। चार दिन बाद हृदयेश को देखेगी, जिसने विदाई वाले दिन पूरे रास्ते यही समझाया कि जो भी माँ कहे करते जाना। महीने भर की बात है बाद में तो साल में एक बार छुट्टियों में गाँव आना होगा। कितना सहज और साल पुरुष है हृदयेश, उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर कितनी बार चूमा था उसने सफर में, सोच कर सिहर उठी।



ज्योत्सना एक बात सोच कर दंग थी कि घर-भर के मर्द पूरे दिन आँगन-दुवार एक किए रहते, लेकिन हृदयेश की एक झलक भर उसे पिछले चार दिन में नहीं दिखी थी। गजब का शासन चलता था उसके सास का घर में, मजाल की कोई घर में उनका विरोध कर दे।सास कमरे में दाखिल हुई, पीछे-पीछे छोटी सास हाथ में आटे का फुलहा थाल लिए। सास ने आदेश दिया- ‘‘पाँच बार जय चमईया जी- जय चमईया जी बोल कर छू दो दुलहिन। ज्योत्सना को सुनने में भ्रम सा लगा- जी कौन मईया? ‘‘चमईया’’ सास ने तेज आवाज में कहा। ज्योत्सना आवाज कड़की समझ गयी। चुपचाप उच्चारण कर आँटा छू लिया। सास चली गयी। थोड़ी देर में बूढ़ी आजी सास बड़ी फुआ सास के साथ हाथ में फूल-बताशा, धार लिए आयी और वही आदेश दिया जो सास कह गयी थी। बारी-बारी घर भर की औरतें ऐसे ही कुछ-न-कुछ लेकर आतीं और जय चमईया, कहवा जाती। ज्योत्सना सोच में पड़ गयी। चमईया कौन है भला? मंजू मिलती तो उगलवा लेती या फिर हृदयेश से पूछती। अजीब, पेशोपेश में वह कमरे में साड़ी को आँचल का कोर तोड़ते मरोड़ते घूम रही थी की नाऊन पधारी।

‘‘आइये नाऊन, बैठिये।’’ नाऊन खुश हो गयीं शहरी पढ़ी-लिखी बहू से आदर पाकर। चटाई बिछाकर बैठ गयी। आज पाँचवे दिन के कटोरे वाले बासी उबटन से मुक्ति का दिन था। नाऊन ने नेम पूरा किया और हँस कर कहा- कमासुध कनिया से का मिली? ज्योत्सना ताक में थी। पाँच सौ की कड़कती नोट पर्स से निकालकर नाऊन की हथेलियों में दबाकर रखते हुए कहा- अम्मा जी से मत बताइयेगा, नाराज होंगी। तीर निशाने पर लगा था, नाऊन फैल गयी। अरे बहिनी, इ तोहार सास त सछाते चण्डी हई, इनसे के कही? ज्योत्सना ने पूछा- चाची इ चमाईया कौन देवी हैं? नाऊन व्यंग्य से मुस्कुरा उठी। ऐ दुलहिन इ राज तोहरे हमरे पुरखन की पेट क राज है। जेके मरत घरी सास पतोह से बतावेले, अईसे ना। ज्योत्सना की जिज्ञासा प्रबल हुई। काहे? बहुत त ना जानी ऐ दुलहिन, बाकी ऐतना है कि कौनो चमाईन के तोहार पुरखा फसवले रहले, पुजइया लेले, नाहीं त वशे ना चले और उठ कर चल दी। ज्योत्सना सुनकर दंग रह गयी। हद है इतने शिक्षित परिवार में ऐसा ढ़ोंग।
(3)
दोपहर में पकवान बनने के बाद ज्योत्सना को बड़ी ननद रसोई में ले गयी। सास निर्देश देती रही, ज्योत्सना ने कोरे चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाकर पाँच पूड़ी बनाया, थोड़ा सा हलवा नेम के लिए, पहली रसोई का भोग भी ‘‘चमईया’’ को पहले चढ़ता था। दो बजे हृदयेश और ज्योत्सना का नाऊन ने गठजोड़ किया, पति-पत्नी ने चार-दिन बाद एक दूसरे को कनखियों से निहार, छोटी चाची सास ने देख लिया- देखिये-देखिये बड़का बबुवा, आज इनके भोग का भी दिन है। ‘‘लड़कियाँ ठहाका मारकर हँस पड़ी, सास ने आँख तरेरा तो चाची सास चुप हो बैठ गयीं। औरतें लड़कियाँ गाती-बजाती भोग के सोलह थाल लेकर पैदल चल रही थीं। आगे-आगे नाऊन कपाट पर दौरी में पूजन का सामान अछत, फूल, सेन्दूर आदि लिए और सास भर लोटा धार लिए चल रही थीं। लड़कियाँ गा रही थीं- गोरा बदन नीली साड़ी ओ साड़ी वाली….।

ज्योत्सना नंगे पाँव कच्चे रास्ते पर चल रही थीं। जमीन तवे की तरह जल रही था। कोस भर चलने के बाद पति से पूछा, अभी कितना चलना है? बस, सामने वाली बारी में। ज्योत्सना ने पारदर्शी चादर में से देखा सामने घना आमों का बाग पोखरा और एक छोटा सा कमरे नुमा मन्दिर दिखाई दे रहा था।
औरतों का समूह पोखरे के पास बने चबूतरे पर सामान रखकर बैठ गयीं। सभी थक चुकी थीं। सास ने हृदयेश से पूछा- कै बजा? साढ़े तीन, अरे राम रे। ऐ छोटकी दुलहिन के बता रे पूजा का विधि हम पोखरे से पानी लेकर आते हैं, चार बजे पंडी जी कक्कन छोड़ाने और सतनरायन बाबा का कथा बाचने का आ जायेंगे। पाँच बजे तक निबट जाना चाहिए।



(4)
ज्योत्सना के ससुर चार भाईयों में सबसे बड़े थे, छोटा भाई हृदयेश से महज पाँच साल बड़ा था। परिवार में उनके त्याग के कारण सभी अदब-लेहाज करते थें। पत्नी परिवार को बाँधने की कला में माहिर थी सो चार भाईयों का संयुक्त परिवार चार गाँवों में मिसाल था। परिवार में बारह पुरुष, बलिष्ठ, गाड़ी-घोड़ा, छकड़ा से दुवार रज-गज। पुरखा जमींदार, सैकड़ों बीघे की खेती, प्रगतिशील किसान होने के कारण अन्न धन से घर भरा था। इस पीढ़ी में सबसे बड़े बेटे हृदयेश ने विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी पाकर कुल परम्परा में चार चाँद लगा दिया था। लड़के बाहर बड़े शहरों में पढ़ने निकल चुके थे। लड़कियाँ घर की जीप से पास के शहर पढ़ने जाती थीं। हृदयेश के पिता पढ़े-लिखे प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे इसलिए उच्च शिक्षित बेटे के लिए बहू भी उसी के टक्कर की खोज निकाला था, एक पैसा दहेज नहीं लिया, पक्के बनिया थे, लड़की कॉलेज में लेक्चर थी, अच्छा कमाती थी। दहेज न लेकर मुफ्त में वाह-वाही लूटकर प्रगतिशीलता पर मुहर पक्की कर गए।

मन में ‘‘चमईया’’ की पूजा को लेकर सशंकित थे, पत्नी को सख्त हिदायत दिया था जब तक बहू पुरानी नहीं हो जाती भेद नहीं खुलना चाहिए। चमईया की पुजइया में विशेष सतर्कता घर भर की औरतें बरत रही थीं। छोटी सास ज्योत्सना को मन्दिर के पिछवाड़े लेकर गयीं, हृदयेश ने गठजोड़ का गमछा उसके कन्धे पर रख दिया। चाची सास ने एक टीले पर बैठाकर धीरे से हाथ जोड़ कर ज्योत्सना से विनय के स्वर में कहा- ‘‘दुलहिन ये बड़ी कठिन पुजइया है, न करने पर चमईया डागर बजाते हुए गर्भ के समय आयेंगी और सोए में कोख काछ कर चली जायेंगी। ज्यादा कुपित हुई तो माँग भी धो सकती हैं। ये जो घर में तीन निपुती राड़ देख रही हो न बहू चमईया की पुजइया ठीक से न करने का परिणाम है। ज्योत्सना ने चाची सास का हाथ थाम लिए- ‘‘चाची जी आप ऐसे क्यों कह रही हैं? जो कुल परम्परा है उसे मानना मेरा धर्म है। आप पूजा की विधि बताइये। ऐसी कौन कठिन पूजा है जो मैं नहीं कर सकती। हँसते हुए गर्व से कहा- ‘‘बताइये-बताइये… मैं गोल्ड मेडलिस्ट हूँ। चाची सास ने लम्बी साँस छोड़कर मुस्कुराते हुए हाथ थामकर खड़ा किया। मन्दिर के पीछे का चोर दरवाजा खोलकर ज्योत्सना को आदेश दिया, दुलहिन ‘‘चमईया’’ की पूजा निर्वस्त्र होकर पति-पत्नी प्रथम मिलन के पहले करते हैं, बारी-बारी सोलहों भोग थाल का परसाद चढ़ाकर पिंडी को पीले सेन्दूर से पाँच बार टीककर लोटे में पोखरे का पानी वाला होगा धार घोलकर गिरा देना अगरबत्ती बार कर दिया जलाकर अढ़हूल का पाँच फूल चढ़ाकर कहना- ‘‘हे चमईया’’ हमने अपना सबकुछ उतारकर आपको दे दिया आप भोग लगाए तो हम पहने। और थोड़ी देर आँख मूंदकर हाथ जोड़कर खड़ी रहना फिर एक-एक थाल में तुम दोनों के लिए कोरे कपड़े रखे हैं, उठाकर पहन लेना और दरवाजा खोलकर बाहर आ जाना। ज्योत्सना को काठ मार गया। वह चीख पड़ी ‘‘आप पागल तो नहीं हो गयी हैं? नंगे ऽ ऽ ऽ, नंगे इनके सामने मैं सीधे जाकर खड़ी हो जाऊँ। हद है मूर्खता की, मुझसे ये नहीं होगा। छोटी सास भागते हुए ज्योत्सना के सास के पास पहुँची। जीजी नहीं मान रही। सास चिंतित हो उठी, डर पहले से था। बहू के पास आयी, ज्योत्सना सुबक-सुबक कर रो रही थी। सास ने पेट पकड़ लिए, बेटी नहीं किया तो इ कुल नाश देगी। हमार बहिनी इ विनती ह तोहसे, आँचल फैलाकर रोते हुए बहू से अनुनय करने लगी। ज्योत्सना पिघल गयी- नहीं अम्मा जी ये क्या कर रही हैं। हम आपके बच्चे हैं, आप पाँव छूकर पाप मत चढ़ाइये। सास का यत्न मारक था। रोते-धोते ज्योत्सना तैयार हो गयी। एक-एक कर सारे कपड़े उतार कमरे में दाखिल हुई, कमरा चूने की नई-नई पुताई से चमक रहा था। बीच में बड़ी सी मिट्टी की पिंडी बनी थी। कच्चे फर्श को गोबर से लीप-पोत कर चिकना किया गया था। चारों तरफ सोलह थाल करीने से रखे हुए था। जब तिवारियों के घर में बेटे का ब्याह होता था कमरा ऐसे ही चमकता था। बाकी दिनों में गाँव के मनचले आशिकों के आशिकी का अड्डा रहता। अब तो बाकायदा आस-पास के गाँव के मजनु-लैला, इतवार को चढ़ावा चढ़ाने लगे थे।


सास ने खट से दरवाजे की कुण्डी चढ़ाई। ज्योत्सना सहम गई, धम्म से घुटनों में मुँह छिपाकर बैठ गयी। चाची सास ने जूड़ा खोल दिया था, कोई बन्धन लेकर जाना वर्जित था। आगे के दरवाजे से हृदयेश अन्दर दाखिल हुआ। ज्योत्सना घुटनों में मुँह छिपाये दीवार के सहारे बैठी थी। लम्बे घने बाल शरीर पर आवरण का काम कर रहे थे। हृदयेश ने हाथ पकड़कर उठाने का प्रयास किया, जल्दी करो ज्योत्सना लेट हो रहा है। जितनी जल्दी करोगी इस यातना से उतनी जल्दी मुक्ति मिलेगी। ज्योत्सना पैरों से लिपट गयी। ये किस पाप की सजा है हृदयेश? वह रोये जा रही थी। इतने प्यारे रिश्ते की शुरूआत इस मानसिक यातना से क्यो? हृदयेश बैठ गया, उसकी आँखों से भी आँसू बह निकले थे। कोई फायदा इस तर्क-वितर्क का नहीं। मैं तुम्हे रात में सब बताता हूँ। प्लीज अभी इसे खतम करो। मैं आँखें बन्द करता हूँ। हृदयेश आँख बन्द कर वहीं दीवार की तरफ खड़ा हो गया, ज्योत्सना ने हिम्मत करके सभी निर्देश चाची सास के पूरा किया। अन्त में पेटीकोट गले तक बाँध कर पति से कहा अब आप माथा टेके मैं आँख बन्द करती हूँ। हृदयेश में गमछा उतार कर माथा टेका और फिर दोनों ने नए कपड़े पहनकर दरवाजा खोला। इस पूरी घटना से ज्योत्सना इतनी विचलित हो चुकी थी चलना दूभर था। छोटी चाची सास ने हाथ में कसकर पकड़ लिया। कच्चे रास्ते की जलती तपिश ने अब उसके अन्तस तक को झुलसाना शुरू कर दिया था। परम्पराओं के नाम पर दिये जाने वाले मानसिक यातना का यह सबसे बड़ा उदाहरण था ज्योत्सना के सामने, जिसने नव जीवन में प्रवेश से पूर्व ही एक अजीब घुटन भर दी थी। घर पहुँचते पहुँचते साढ़े चार बज चुके थे। दुवार पर मर्दों की चौपाल लगी थी। लकड़ी की हत्थ वाली कुर्सी पर पैर रखकर पंडी जी बैठे भागवत कथा का सार सुना रहे थे। बीच-बीच में घड़ी देख लेते और बेवा औरतों की ओर देखकर बड़बड़ाते- ‘‘इ मेहरारून का झमेला, कुच्छौ नहीं समझता, विलम्ब हो गया तो मुँह पिटाएंगी अपना।’’ नाऊन दौरी कपार पर लिए हाली-हाली भागी आ रही थी। पीछे-पीछे बड़की तिवराईन (ज्योत्सना की सास) हाफी-दाफी आती दिखीं तो पंडी जी कुर्सी पर से कूद कर खड़े हो गये- ‘‘का रे ऽ ऽ ऽ नऊनियाँ तोहूं के सिखवे पड़ी, टेम निकरे जात है और तोर चकल्लस अबही ले चलत बा।

नाऊन- अरे बाबा ऽऽऽ अरे बाबा ऽऽऽ बोलती हुई बरामदे की सीढ़ियां चढ़ती आंगन की ओर भागी। पंडित जी पीछे पीछे आंगन में चौक चन्दन पहले से पूरकर, कलशा और गणेश स्थापित देख पंडित जी मुस्कुराते, खैनी पीटते हुए- बोले वाह शेर मैदान मार लिए। चलो अब जल्दी निपट जायेगा। पंडि जी अपने आसन पर जम गये। उनके मुँह से केवल ऊँऽऽऽ का उच्चारण स्पष्ट सुनाई देता। बाकी मंत्र गले में घनघना कर रह जाता। तिवराइन को आवाज लगाया- वर-कन्या को बुलाइये। तभी आंगन में हृदयेश और पीछे लड़खड़ाते हुए ज्योत्सना चाची सास के साथ दाखिल हुयी औरतों ने ज्योत्सना को पकड़ कर चौक पर बिठाया। पंडी जी ने दोनों के कक्कन खोलकर सास को दिया और बँसवार में फेंकवाने का सख्त निर्देश दिया और कथा बाचने लगे। हर अध्याय के आरम्भ में केवल कलावती कन्या सुनाई देता बाकी अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ की ध्वनि के साथ लुप्त हो जाता नाऊन को उनके संस्कृत ज्ञान पर पूरा संदेह था छेड़ते हुए बोली- ए बाबा! तनी अरथ सहित बांचा कुछ बुझाते नइखे। पडी जी पिनक गये, बगल में पड़ी अपनी लाठी जमीन पर पीटते हुए चिल्लाये- ससुरी बिघन डालती है, जानती है, कुबेला हो रहा है, साली नीच जात, नीच बुद्धि नाऊन भी कम नहीं थी तमतमा उठी- ए बाबा जात पर त जइबे न करी नाही त अब्बे कुलआई माई उबेर देइला। मामला बिगड़ते देख हृदयेश ने हस्तक्षेप किया। पंडी जी खतम करिये पाँच मिनट बचा है। पंडी जी का अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ तेज हुआ। गौरी की सिन्दूर पूजा के बाद कथा सम्पन्न हुई। बड़की तिवराइन ने चैन की सास लेकर पूरब में सुरुज नरायन को आरती दिखा पूजा सम्पन्न होने की घोषणा की।
(6)
रात ग्यारह बजे हृदयेश कमरे में आया। ज्योत्सना के मन में प्रथम मिलन का रोमांच समाप्त हो चुका था। ननदों और चाची सास ने कमरे को सुगन्धित इत्र से इतना गमका दिया था कि उसे उबन हो रही थी। भारी बनारसी साड़ी और गहने उसे चुभ रहे थे। एक तरफ छोटे से मेज पर दो गिलास दूध, सूखे मेवे और मिठाईयां करीने से सजाकर रखे थे। हृदयेश ने दरवाजे की कुंडी बन्द कर दी। ज्योत्सना खिड़की के पास आकाश में उगे पूर्णिमा के चाँद को एकटक निहारते हुए सोच रही थी, पूर्णता भी कितना बड़ा भ्रम है। चाँद का एक दाग के साथ उगना और घटते बढ़ते लुप्त हो जाना। सही है ‘‘सब दिन रहत न एक समाना’’ का उदाहरण इस चाँद से बड़ा और क्या होगा। वह नाहक मुस्कुरा उठी हृदयेश ने उसे मुस्कुराता देख बाहों में भीच लिया। ज्योत्सना की तन्द्रा टूटी। एकदम से उसका मन कसैला हो गया। खुद को उसके मजबूत गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश की। हृदयेश ने उसके गालों पर चुम्बन देते हुए कहा- ‘‘अब इतनी क्या शर्म? सब तो ओपेन हो चुका है।’’ ज्योत्सना चीख पड़ी- बस करिये हृदयेश मुझे आपके साथ नार्मल होने में थोड़ा समय लगेगा। हृदयेश नर्वस हो गया। ‘‘अब क्या हुआ?’’ सब नार्मल तो है न? ज्योत्सना छिटकर दूर खड़ी हो गयी- ‘‘नहीं! सब एबनार्मल है, मुझे घुटन हो रही है, शायद मैं बेहोश हो जाऊंगी। हृदयेश ने दरवाजा खोल दिया, हाथ पकड़कर कहा- ‘‘चलो ऊपर छत पर, शायद खुले में कुछ राहत मिले, गरमी बहुत है, हाँ ये सब उतार कर कुछ हल्का पहन लो। इससे भी घुटन हो रही होगी।’’ ज्योत्सना ने पति से कहा- ‘‘आप चलिए! मैं आती हूँ।’’
(7)
ब्रह्मदेव तिवारी के बीघे भर फैले हुए पुस्तैनी मकान में चार भाईयों का परिवार रहता था। दो बीच के भाई क्रमशः एयरफोर्स में कार्यरत थे। छोटा यहीं प्राथमिक में मास्टर था। भाईयों की शादी भी बड़के तिवारी जी ने खूब ठोक-बजाकर कर दिया था। वहां भी दहेज के फेरे में न पड़कर घराना देखकर भाईयों को ब्याहा था। तीन भाईयों की शादी आस-पास के दबंग ब्राह्मणों के घर में किया। इसका परिणाम यह निकला कि बड़े से बड़ा अधिकारी, नेता दरवाजे पर सलामी लगाकर ही आगे बढ़ता। दूसरे नम्बर के भाई के ससुर विधायक, पिता के तर्ज पर दोनों साले भी राजनीति में कूदे और पार्टी बदल-बदल कर सत्ता में काबिज रहते। बस एक फोन मिलाया बड़के तिवारी ने कि थाना पुलिस हाजिर। तीसरे के ससुर इण्टर कॉलेज में प्रिंसपल, नकल कर सेंटर बना अकूत धन कमाया। रिटायर होने पर खुद ही स्कूल, कॉलेज खोल लिया। आज के दिन वे इलाके के मदन मोहन मालवीय थे। चौथा पढ़ने में होनहार था, इलाहाबाद तैयारी को भेजा लेकिन वहां जाकर वामपंथ और साहित्य में रम गया। बड़के तिवारी को पांच साल बाद भाई के रंग-ढंग का पता तब चला, जब अखबार के साहित्यक पृष्ठ पर उनकी क्रांतिकारी कविता छपी मिली। पढ़ते हुए कान खड़े हो गये- लिखते हैं-
मुझे तोड़नी है,
बनी बनाई पुरातन की वज्र वह दीवार
जो तुम्हारे और मेरे बीच
खड़ी की गयी थी
उस दिन जब तुम गाँव के दक्खिन में
और मैं पूरब में जन्म ले रहा था
जब तुम्हारे मुँह में
सभ्यता की काली स्याही से
अक्षर अक्षर कालिमा के नियम
दूध में घोलकर
पिलाया जा रहा था
और मुझे आंगन में
चौक, चन्दन, पूर
सोने के कलश पर
सूरज की अरुणिमा का
चन्दन लगाकर
चाँदी की कटोरी में
चाँदी के सिक्के से
अन्न प्राशन के नाम पर
चटाया जा रहा था
प्रिये!
मुझे गिरानी है
पुरातन की वज्र दीवार,
तुम्हारे लिए,
जोड़कर अधूरे सम्बन्धों की डोर
तुम्हारे दक्खिन से
अपने पूरब तक।

सरपट पत्नी से सतुआ-पिसान लिए पहली ट्रेन से इलाहाबाद भागे। हाथपैर जोड़कर माँ की अस्वस्थता का हवाला देकर घर लाए। अनुभवी ब्राह्मण मानसिकता ताड़कर बाण छोड़ता है। माँ को समझा-बुझाकर तैयार किया। व्याह का दबाव बनाने लगे। दो बार घर छोड़कर भागे। अन्तिम ब्रह्मास्त्र छोड़ा बड़के तिवारी ने। जोरदार हार्ट अटैक का सन्देश भाई के यहाँ भेज अस्पताल में भर्ती हो गये। पिता तुल्य भाई के हार्ट अटैक की खबर सुन छोटके तिवारी गिरते-पड़ते घर भागे। डाक्टर रिश्तेदार थे, एकांत में ले जाकर समझाया तनाव इनके लिए जानलेवा हो सकता है। बेचारे छोटके तिवारी फंस गये और रोते-रोते ब्याह के बंधन में बंध गये।पहले क्रांतिकारी प्रेम का भूत पूरी तरह माथे पर चढ़ा हुआ जानकर बड़के तिवारी ने इस बार न घर देखा, न घराना। इलाके की सबसे खूबसूरत ब्राह्मण कन्या घर लायी गयी। अल्हड़ गाँव की लड़की, किसी तरह नकल से बी.ए. पास किया था। पिता को रिश्ता घर बैठे मिला तो इलाके भर मूसरन डोल बजा-बजा कर ऐलान किया, हमारी बेटी तिवारीपुर के तिवारियों में जा रही है। स्त्री के देह का सौन्दर्य पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है, पत्नी का सौन्दर्य सारे क्रांति पर भारी पड़ा और छोटके तिवारी का वामपंथ छू मंतर हो गया।

(8)
आधी रात को गुलाबी शिफॉन की खूबसुरत नाइटी में ज्योत्सना छत पर पहुँची, हृदयेश ने आकाश के चांद को आंख मारते हुए कहा- ‘‘तुम्हारी ज्योत्सना मेरे पास है।’’ दोनों कुछ छड़ एक दूसरे को एकटक निहारते रहे। गोरा रंग, गोल चेहरे पर काली बड़ी-बड़ी आँखें। उसे याद आया जब आजी उसे पहली बार देख कर आयी थी, कहते नहीं अघाती थीं- ‘‘बाबू चनरमा अइसन गोल मुँह पर आम के फाक नियर बड़-बड़ आँख अउर तोता के ठोर नियर नाक, टह-टह लाल ओठ और पीठ पर धौल जमाते हुए कहती अउरी गावे ले ए बाबू एकदम कोइलिया नियर।’’ ज्योत्सना ने ननद के आग्रह पर मीरा का भजन सुनाया- ‘‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।’’
हृदयेश ने उसके होठों को चूमने का प्रयास किया तो ज्योत्सना छिटककर भागने लगी। बड़े से सुनसान छत पर मियाँ-बीबी एक दूसरे के साथ भागा-भागी खेलने लगे। थककर हँसते-हँसते लोटपोट हुए जा रहे थे- ‘‘बाप रे धाविका पत्नी पहली रात में इतना दौड़ायेगी पता नहीं था।’’ ज्योत्सना ने कहा- ‘‘हृदयेश! एक बात पूंछू?’’ हाँ क्यों नहीं।….
आप भौतिकी के ही प्राध्यापक हैं न?
आफकोर्स, व्हाई नाट।
तुम्हें आशंका क्यों?
‘‘कमाल करते हैं, इतनी मूर्खतापूर्ण परम्परा का निर्वहन पूरे मनोयोग से करते देख।’’ ज्योत्सना ने व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा- बात ठस्स से दिमाग में धस गयी। बना बनाया रोमैंटिक मूड उखड़ गया।

‘‘विवशता है।’’ हृदयेश का चेहरा क्रोध से खींच गया। जिसे छिपाने की उसकी कोशिश नाकाम रही।
दूसरा सवाल उससे भी घातक था। ‘‘सुना है आप डी.यू. में आइसा के पदाधिकारी थे और अभी प्रलेस के पदाधिकारी हैं। मैंने आपके कई वैचारिक लेख हंस जैसी बड़ी पत्रिकाओं में पढ़े हैं। आश्चर्य होता है समाज की रुढ़ परम्पराओं, जातिय व्यस्था का खण्डन करने वाला युवक ऐसी यातनापूर्ण कुल परम्परा का न केवल पालन करता है बल्कि पत्नी को भी मानने के लिए विवश करता है।’’ज्योत्सना पूरे आवेग में थी। ‘‘जिन बुराईयों का आपको पुरजोर खण्डन करना चाहिए उसके प्रति यह अन्ध आस्था क्यों?’’ हृदयेश बगलें झांकने लगा, कोई मजबूत उत्तर न दे सका तो कुतर्क करने लगा।देखों! ज्योत्सना। कुछ बातें मानसिक तौर पर इस कदर हमसे जुड़ी रहती हैं कि हम उसे मानने के लिए विवश हो जाते हैं। इस पूजा से मेरी माँ मनोवैज्ञानिक तौर पर जुड़ी है और एक अजीब संयोग भी है कि जिन लोगों ने इसे मानने से इनकार किया उन सब का सफाया हो गया। अब न मानने का कोई विकल्प नहीं बचता मेरे पास।ज्योत्सना को हंसी आ गयी- ‘‘यह भौतिकी का प्राध्यापक कह रहा है, आई डोंट बिलिव, ह्वाट अ-नॉनसेंस जोक।’’

हृदयेश चिढ़ गया- ‘‘तुम्हें इतनी उलझन क्यों हो रही है, कर्मकाण्डी आचार्य चन्द्रसेन शास्त्री की बेटी कुल परम्पराओं के निर्वहन पर सवाल खड़े कर रही है।’’ कंधे उचका कर कहा- ‘‘घोर आश्चर्य तो मुझे हो रहा है।’’
हृदयेश हाथ से पकड़ी हुई रेलिंग की ओर पीठकर ज्योत्सना की तरफ खड़ा अंधेरे शून्य में निहार रहा था।
पति की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ज्योत्सना ने पास जाकर कहा- ‘‘वैदिक संस्कृति में पितृसत्ता की साजिशें विषय पर शोध किया है मैंने।’’ हृदयेश झट से बोला- ‘‘पितृसत्ता की साजिशें? तुम्हें शीर्षक किसने दिया?’’
जब तर्क मजबूत होते हैं आपके तो रास्ते रोकने का साहस किसी में नहीं होता। ज्योत्सना के होठों पर दृढ़ता की मधुर मुस्कान थी। हृदयेश मुस्कुरा उठा- ‘‘तो तुम्हें वैदिक नियम स्त्रियों के पक्ष में घोर षड़यंत्र लगते हैं?’’
‘‘बिल्कुल’’- ज्योत्सना ने दृढ़ता से कहा। फिर तो तुम नास्तिक हो। हृदयेश में व्यंग्यपूर्ण मुस्कान में लपेटकर तीर छोड़ा। मना क्यों नहीं कर दिया माँ को पूजा से। कहां थी तुम्हारी वैचारिकी डाक्टर ज्योत्सना उस वक्त?
ज्योत्सना आहत हुई, पुरुष स्त्री के आधुनिकता बोध या वैचारिक होने को किस रूप में ग्रहण करता है वह अच्छी तरह से जानती थी। हृदयेश अपनी गलती छिपाने के लिए उसे घेर रहा था। उसे समझते देर न लगी कि अब उसका जूता उसी के सर है।

‘‘डाक्टर साहब स्त्री का आस्तिक या नास्तिक होना यहाँ प्रासंगिक नहीं है, प्रसंग एक विकृत परम्परा को जबरन ढोने का है।’’ ज्योत्सना ने पूरी ताकत झोककर कहा। पति के आँखों में आक्रोश चांदनी रात के धवल प्रकाश में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एक पराजित पुरुष कितना आक्रामक हो सकता है उसके आँखों की लालिमा में साफ-साफ देखा जा सकता था।‘‘ज्योत्सना तुम्हें नहीं लगता कि तुम हमारे मधुर रिश्ते की नींव कटुता की कटीली पृष्ठभूमि पर रख रही हो। ज्योत्सना ने खुद को संयत करते हुए कहा- ‘‘आप नहीं समझेंगे हृदयेश!’’ हमारी संस्कृति में पुरुष का पौरुष कठोरता के प्रदर्शन में निहित है लेकिन स्त्री जिसे प्राकृतिक तौर पर आपने कोमलांगी घोषित कर रखा है । सब कुछ सुकोमल चाहती है वह चाहती है पुरुष उसे फूल की नाजुक पंखुड़ियों से स्पर्श करे और आप जैसे पुरुषों ने स्त्री को सभ्यता के पिंजरे में कैद खूबसूरत परिन्दा ही माना। पुरुष शिकारी की दृष्टि से देखता है नारी देह को और उसके लिए केवल देह है। व्यक्ति मानने का साहस अभी तक हमारे समाज में मर्दो में नहीं है।’’ उसके चेहरे पर घृणा के भाव स्पष्ट उभर आये थे ‘‘बाप रे बाप!’’ तो आप स्त्रीवादी हैं? हृदयेश ने भयभीत होने का अभिनय किया।‘‘नहीं केवल मनुष्य। जिसे प्रकृति ने वाचिक तौर पर प्रतिरोध करने की क्षमता से नवाजा है।’’ ज्योसना ने घृणा से दाँत पीसते हुए कहा।

पूरब में शुक्र ग्रह उग आया था। सप्त ऋषि और शुकउवा कासे देखकर हृदयेश ने झल्लाते हुए कहा- ‘‘भोर हो गयी, जीवन की सबसे मधुर रात इतनी कड़वी होगी मुझे पता नहीं था।’’
‘‘पवित्र रिश्ते की पृष्ठभूमि भयंकर मानसिक यातना के साथ आरम्भ हो तो उसका हश्र यही होता है हृदयेश!’’ ज्योत्सना रुआसी हो गयी ‘‘मुझे थोड़ा वक्त दें आपके साथ सहज होने में मुझे थोड़ा वक्त लगेगा।’’ कहते-कहते वह रो पड़ी।हृदयेश से ज्योत्सना का रोना नहीं देखा गया। स्त्री के आंसू में बड़ी ताकत होती है। बड़े से बड़े चट्टान पुरुष को पिघलाने की क्षमता से लैस। हृदयेश ज्योत्सना को सीने से लगाकर पुचकारने लगा।
‘‘अरे यार! मैं तो गुस्से में यह सब कह गया। रही बात वक्त की तो जानेमन, अब पूरा जीवन तुम्हारा है जब तक चाहो इंतजार करा लो।’’ दोनों की आंखें मिली। सजल स्नेहिल कंपकपाते होठों से हृदयेश ने ज्योत्सना के होठों को चूम लिया। ज्योत्सना ने शर्माकर पति के सीने में चेहरा छिपा लिया।
हृदयेश ने कहा- ‘‘क्या हुआ? आखिर मैं तुम्हारा पति हूं वैसे भी हमारे बीच कोई पर्दा नहीं फिर उस क्षण को लेकर इतना विचलन ठीक नहीं ज्योत्सना। ज्योत्सना ने उसी मधुरता से उत्तर दिया- ‘‘जानती हूं लेकिन जो पर्दा अपनी स्वीकृति के साथ पूरी सजगता से उठना चाहिए था वह मेरे जीवन में भयंकर दुर्घटना बनकर आया हृदयेश! मैं घोर मानसिक पीड़ा से गुजर रही हूं। थोड़ा वक्त दें प्लीज।

दोनों का वाक्युद्ध पूरी रात चलता रहा, भोर की लालिमा पूरब में छिटकने लगी। सास बहू को जगाने कमरे में पहुंची। कमरे में दोनों को न पाकर शंका हुई कि कहीं गर्मी के कारण दोनों छत पर न सो रहे हों। जल्दी जल्दी सीढ़ियां चढ़ती हुई छत पर पहुँची। माँ को देख हृदयेश ने पत्नी को झट से बाहों से अलग किया। ज्योत्सना तुरन्त नीचे भागी। माँ ने बहू को नाइटी में देख बेटे को आँखों ही आँखों में बहुत कुछ सुनाया। हृदयेश ने सर झुकाकर आगे ऐसा न करने का आश्वासन दिया।
(9)
ब्याह के पन्द्रह दिन बीत गये। बड़ी मान मनउल्ल के बाद मुश्किल से दो बार पति पत्नी एक हुए थे। ज्योत्सना पति की सहजता सरलता और संयम पर मुग्ध हुई जा रही थी। गाड़ी पटरी पर लौट रही थी। दोनों बड़े चाचा ससुर अपने परिवार को लेकर नौकरी पर लौट चुके थे। घर में तीन बेवा वृद्ध औरतें छोटे चाचा सुसर-सास, सास ससुर के अतिरिक्त छोटी ननद मंजू और साल भर का चचेरा देवर बिट्टू रह गये थे। बड़ी ननद को हफ्ते भर बाद ही ससुराल वाले विदा कराकर ले गये थे। हृदयेश दो बहन एक भाई में सबसे बड़ा था। चाचा का हमजोली होने के कारण उनसे वह मित्रवत व्यवहार रखता था। वह उनसे इतना प्रभावित था कि उनके कहने पर कुएं में कूद सकता था। अल्हड़ गाँव की लड़की चाची भी उसके साथ देवरों सा हास-परिहास करती थीं। बड़की तिवराइन आँखों की आँखों में देवरानी को समय-समय पर सीमाओं का ज्ञान कराती रहती। आवश्यकता पड़ने पर जबान भी चलाती।



भरे पूरे परिवार में कमकरिन बर्तन चौका के लिए, महराज रसोई बनाने के लिए, तथा दरवाजे पर तीन नौकर झाड़ू बटोरू के लिए, गोरु चउवा की देखभाल के लिए और इसके अतिरिक्त चुनमुन यादव बड़के तिवारी के व्यक्तिगत ड्राइवर कम बॉडीगार्ड अधिक थे। पिस्टल टांगकर लकदक सफेद शर्ट, पैंट और स्पोर्ट शूज में पूरे माफिया लगते। आगे-आगे मूछों पर ताव दिये सभा पंचायतों में बड़के तिवारी चलते पीछे-पीछे पिस्टल पर हाथ फेरते चुनमुन यादव। दोनों की जोड़ी इलाके में सरनाम थी। ज्योत्सना ने घर में अच्छी पैठ बना ली। तीनों आजी सासों का पैरा दबा देती बाल झाड़ती, सिन्दूर बिन्दी लगाकर पैर छूती। बड़की तिवराइन संस्कारी बहू पाकर धन्य हुई।

ज्योत्सना छोटी सास से घुल मिल गयी, दोनों घंटों बातें करती, साथ खाती-पीती, बिल्कुल सहेलियों की तरह। धीरे-धीरे आपसी दुःख-सुख भी बांटने लगीं। ज्योत्सना विज्ञान पढ़ना चाहती थी, पिता ने कुल परम्परा के अनुसार जबरन संस्कृत पढ़ने को विवश किया। जिसका गहरा क्षोभ उसके मन में था। वह अपने विद्रोह से पितृ सत्ता को जड़ से उखाड़ फेकना चाहती थी। चाची सास की खूबसूरती ने उन्हें घर में इस कदर कैद कर लिया था कि वह बाहर की दुनिया का विकास स्कूल, अस्पताल, डाकखाने से ज्यादा नहीं जानती थी। दबाकर रखने का परिणाम यह हुआ कि वह बात-बेबात अनायास हंसती और किसी को बिना सोचे समझे कुछ कहतीं।
ज्योत्सना पिता को कोसती, वह समाज को। एक दिन ज्योत्सना ने पूछा- ‘‘चाची जी आप चमईया माई की पूजा करते असहज नहीं हुई थीं?’’

काहे की असहजता बहिनी, देहियें न देखेगी छिनरी, कोठरी में घूसकर उसके कपार पर टांग पसारकर खड़ी हो गयी। साया उठा दिया और गाने लगी देखो-देखो चमईया हमार सुतुही देखो और ठठाकर हँसते हँसते लोट-पोट हो गयी। और चाचा जी? ज्योत्सना पूछते वक्त फटी आँखों से चाची सास को एकटक देख रही थी, ऊ तो कोने में खड़े होकर मूत रहे थे। हमने तो कह दिया। देखो जी हम साया नहीं उतारेंगे, खाली साया में आपकी भाभी ने अन्दर आने दिया आप आंख मूने नहीं तो हम समनवे पहिन लेंगे, फिर यह न कहियेगा की बड़ी निर्लज है।’’ फिर? ज्योत्सना अवाक थी। फिर क्या इन्होंने आंख मूंद लिया, मैंने कपड़ा पहिना सामान चढ़ाया और निकल गयी। इ देखो, साल भितरे की देन है, पलंग पर गोल मटोल बच्चा निश्चिंत सोया था। ज्योत्सना का दिमाग घूम गया। उफ्फ ये गाँव की औरत भी इतनी समझदार निकली और मैं संसार की सबसे बड़ी मूर्ख जिसे ये सब नहीं सूझा। उसे अपने ऊपर गहरा क्षोभ हुआ जी में आया सिर दीवार पर दे मारे।
(10)

मई में शादी हुई और जुलाई में दो माह गाँव रह कर हृदयेश और ज्योत्सना दिल्ली लौट आये। महानगर की जीवन शैली और व्यस्त दिनचर्या में पिछले दिनों का गम जाता रहा। हृदयेश और ज्योत्सना दोनों अभी बच्चा नहीं चाहते थे। सास हर महीने फोन कर कोई नई बात का सवाल दागती और ज्योत्सना टाल जाती। सास को चिन्ता हुई पढ़ी-लिखी आधुनिक खयालों वाली शहरी लड़की ने लगता है पूजा में कोई कमी कर दी है। पति से चिन्ता जाहिर कर रोने लगी। एक अज्ञात भय ने दंपति को घेर लिया। क्वार का महीना, जाड़े ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था। शाम होते ही बुर्जुग ओढ़ना-बिछावन डाल बिस्तर में दुबक कर बैठ जाते। एक शाम बड़के तिवारी शहर से लौटकर संध्या वंदन कर दुवार पर आराम कुर्सी पर आँख बन्द कर कुछ मंथन करने में लीन थे। बड़की तिवराईन एक चुरुआ ठण्डा तेल पति के कपार पर डाल, सिर दबाने लगीं। दस मिनट तक पत्नी की आवाज न सुनकर बड़के तिवारी को आश्चर्य हुआ। ऐसे समय पर वह अक्सर पूरे घर की रिपोर्ट देती। ज्यादातर छोटे भाई की छोटके तिवारी पूरे विद्रोही, आज कल खुलेआम मांस मछली खाने लगे थे। तिवारी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गये, क्या बात है हृदय की अम्मा, तुम्हारा इतना मौन मुझे अखर जाता है। कोई तो चिन्ता का विषय अवश्य है तुम्हारे मन में बड़की तिवराईन ने पति को सजल आँखों से देखा, ‘‘सुनिये जी छः महीने बीत गया और बहू ने अभी तक खुशखबरी नहीं दी, मेरा जी घबराता है। ना जाने क्या होने वाला है। पति के हथेलियों को पकड़कर आँखों में आंखें डालकर कहा- ‘‘हमको दिल्ली जाना है। बड़के तिवारी ने तुरन्त स्वीकृति दी। ठीक है चलो तुम्हे देश की राजधानी दिखाते हैं, तुम भी क्या याद रखोगी।

हफ्तेभर बाद का टिकट मिला, हृदयेश को फोन से खबर कर दिया गया। ज्योत्सना ने जिंस-कुर्ते, टाउजर, टाप सब आलमारी में छिपा दिया। रात में सोते वक्त हृदयेश से कहा- ‘‘अम्मा-पिताजी कब तक रहेंगे? हृदयेश कोई किताब पढ़ रहा था- सुनकर हँस पड़ा। जानेमन घबड़ा गयी? अभी वो आये नहीं और आपने जाने का हाल पूछ लिया।’’ ज्योत्सना झेप गयी। मेरा मतलब ये नहीं था, अब गाँव की तरह यहाँ तो दस नौकर-चाकर है नहीं, और अम्माजी ठहरी पूरी कर्मकांडी, सब कैसे मैनेज होगा? सोच रही हूँ और एक बात ध्यान रखना, चेतावनी देते हुए कहा- ‘‘अण्डे-आमलेट का फरमान मत देना उनके सामने गलती से भी वरना मेरा छुवा जीते-जी नहीं खायेंगे। ज्योत्सना के चेहरे से चिन्ता साफ झलक रही थी।सास आई, हफ्ते भर रहकर हिदायते देतें, डाक्टर को दिखाते-सुनाते दिल्ली घूमकर चली गयीं। स्टेशन पर रोते हुए बेटे से वचन लिया छुट्टी होते घर चले आना। छुट्टियों में ज्योत्सना मायके जाना चाहती थी लेकिन हृदयेश तैयार नहीं हुआ। कई दिनों तक पति-पत्नी में शीत युद्ध चलता रहा। अन्त में हृदयेश ने समझौता करते हुए कहा- ‘‘अपने पिता से कहो घर आकर ले जायें विदा कराकर।’’ ज्योत्सना मान गयी, कोई चारा नहीं था। दिल्ली से बनारस के लिए ट्रेन रवाना हुई, स्टेशन पर बड़के तिवारी बुलैरो लिए पहले से खड़े थे। बेटे-बहू को देखकर हर्षित हुए, मिलने-मिलाने, हाल-चाल के बाद गाड़ी तिवारीपुर की ओर चल पड़ी। रास्ते भर पिता-पुत्र पूरे गाँव का हाल-चाल, देश-प्रदेश की राजनीति का गाँव पर प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा करते रहें। अबकी गर्मी में किन-किन के घर में लगन है और कितना दान-दहेज मिल रहा है पर बड़के तिवारी विशेष रस लेकर बतियाते। ज्योत्सना सर झुकाये दोनों की बातें सुनती और मन ही मन पति को बनारस की सड़कों से गुजरते हुए कोसती, नैहर के रास्ते से गुजर रही थी, हृदयेश ने खबर तक करने को सख्त मना किया था। ‘‘तुम्हारे माँ-बाप का ड्रामा स्टेशन पर ही चालू हो जायेगा, आकर घर से ले जायें समझी। हमारे घर की बहुयें बिना दिन रखे विदा नहीं होती।
(11)
गाँव का नैसर्गिक वातावरण ज्योत्सना को बचपन से लुभाता रहा है। दुवार पर पूरा खानदान जमा था, गाड़ी रुकते ही छोटी ननद मंजू भागकर जल्दी से गाड़ी खोलकर भाभी के पाँव छूकर सामान निकालने में भाई की मदद करने लगी। बड़की तिवराईन ने भर लोटा धार से बेटे-बहू को ओईछ कर नजर उतारा। बहू को पकड़कर अन्दर ले गयीं। टोले भर की औरतें और लड़कियों का हुजूम आंगन में उमड़ा देख ज्योत्सना सहम गयी। सफर की थकान से शरीर टूटा जा रहा था। चाची सास गले मिलीं और बारी-बारी सभी बड़ी-बुर्जुग महिलाओं के पैर छुलाया। लड़कियों ने भाभी को छेड़ा, ‘‘अकेले आयी भाभी, हम तो सोच रहे थे भतीजे का नेग लेंगे।’’ बड़की तिवराईन का दिल बैठ गया। चाची सास ज्योत्सना को भीड़ से निकालकर कमरे में ले गयीं।
‘‘जाओ नहा-धोकर आराम करो, शाम को बतियाते हैंऔर आंख दबाकर खिलखिला उठीं। ज्योत्सना को छोटी चाची की खिलखिलाहट बड़ी प्यारी लगती थी। औरतों का खिलखिलाकर हँसना कितना दुभर है, जानती थी। याद आया मायके में माँ कभी खुलकर हँसने नहीं देती थी। बड़े भाई तो कई बार हाथ तक बचपन में चला देते थे। वह हँसना चाहती थी कई बार छोटी चाची की तरह खिलखिलाकर, स्वच्छन्द हँसी।

महीना भर बीत गया, मई-जून में विदाई की कोई तिथि नहीं मिली, सास दुखी मन से हृदयेश से कह गयीं- ‘‘स्टेशन पर माँ-बाप से मिला देते तो बहू को दुख न होता।’’ हृदयेश को भी दुख हुआ, पिता-भाई तो कई-बार दिल्ली आकर मिल गये थे, लेकिन माँ से मिले ज्योत्सना को पूरा एक साल हो गया था। वह घंटों रोती रही। एक दिन ज्योत्सना बड़की आजी का पैर दबा रही थी, आजी खुश हो गयीं, खूब दूध-पूत का आशीष दे अपनी कोठरी में ले गयीं। काठ के पुराने सन्दूक को खोलकर एक छोटा सा नक्कासीदार बक्सा निकाला, बक्सा गहनों से भरा था। दो मोटे-मोटे पछुऐ उसके हाथ में रख पहना दिया, तुम्हारी कलाईयां वैसी ही गोल-मटोल है बहू, जैसे जवानी में मेरी थी। आँखों से झर-झर आंखू बहने लगा। ज्योत्सना उनके कष्ट को समझ सकती थी। भरे यौवन में वैध्वय कितना बड़ा अभिशाप है उसने बनारस के विधवा आश्रमों, घाटों आदि पर भटकती, भीख मांगती विधवाओं के जीवन में बहुत नजदीक से देखा था शोध कार्य के दौरान।

आजी मौन थी ये ‘चमईया’ और इसकी अन्धभक्ति घर में क्यों होती है? ज्योत्सना ने बड़ी मासूमियत से पूछा। आजी ने संयत होकर कहा बताती हूँ तुम्हें, और काठ के सन्दूक से सास की जनानी वंशावली निकालकर बैठ गयीं- ‘‘हमारे पुरखों में एक थे जटाशंकर बाबा, बड़े विद्वान, बलिष्ठ और सुन्दर। गाँव की जमींदारी राजा साहब से शास्त्रार्थ में जीतने के कारण इनाम में मिला था। घोड़े से गाँव-गाँव घूमते आसासियों का दुख-दर्द पूछते, सूखा पड़ने पर किसानों का लगान राजा को अपने खजाने से देते। न्यायप्रिय और दयालु थे। बाबा के जीवन में सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भोरे राजा का बुलावा आया, घोड़े से चल दिये, सूनसान रास्ते में एक जगह घोड़ा अड़ गया, बड़ी कोशिश करते रहे, लेकिन घोड़ा टस से मस न होता। बेचारे सिर पर हाथ रख पास के बगीचे में जा बैठे दिन चढ़ आया था, भूख-प्यास से बेहाल, बाग में कुँआ तो था, लेकिन लोटा डोर नहीं। बाबा ने सोचा अब जीवन समाप्त। बेचारे ईश्वर को याद कर रोने लगे, तभी एक बूढ़ी औरत अपनी जवान बेटी के साथ लोटा-डोर लिए आई,
बाबा गिरते-पड़ते पहुँचे। बूढ़ी औरत ने कहा- आप बड़ मनई बुझाते हैं, हमारे हाथ का छुआ पियेंगे। बाबा ने हाथ जोड़ विनय किया, जीवन मिले तो सोचेंगे। बुढ़िया ने बेटी को इशारा किया। लड़की भर लोटा पानी लिए आई और मुस्कुराते हुए बाबा को पिलाने लगी। लड़की दिव्य सुन्दरी थी, बाबा मुग्ध हो गये। अक्सर बाग से गुजरने लगे। लड़की और उनका मेल-जोल बढ़ा तो बुढ़िया की झोपड़ी तक पहुँचे। बुढ़िया को कुजात छांट जात वालों ने गाँव निकाला दे रखा था, विधवा औरत जवान बेटी के साथ विराने में झोपड़ी डाल रहती थी। कहते हैं- ‘‘इतनी बड़ी डाईन थी कि उड़ती चिड़िया का पंख बांध देती थी।’’ धीरे-धीरे मड़ई अटारी में बदल गयी। गर्भ रहता तो बुढ़िया मार कर गिरा देती। लड़की महीने शोक मनाती फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती। आखिरी गर्भ माँ से छिपा ले गई। जब-तक पेट उभरा पाँच माह हो चुके थे। माँ ने जहर खा लिया। लड़की बाबा के दरवाजे पर आकर बैठ गयी। बाबा का तीनों त्रिलोक घूम गया। समझा-बुझा कर वापस किया, अगले पूरे दिन साथ रहे, सोचते रहे कैसे मुक्ति मिले? आखिरकार अपने विश्वासपात्र नौकर को आदेश दिया, हाथ-पैर बाँध के पोखरे में बोर दो और ब्रह्महत्या से मुक्ति के लिए चार धाम को निकल गये।

इधर बाबा के चार भाईयों में तीन की पत्नियों को गर्भ था। आधी रात को डग्गर बजाते सपने में आयी और पेट काछ के चली गयी। सबेरे तक घर-आँगन खूने-खून। क्या बतायें बिटिया पुरनिया (आजी सास) कहती थी, लगा खूँट नसा गया। साल भर बाद बाबा लौटे तो दरवाजे पर सियापा छा गया था। देवी प्रकोप से बारी-बारी तीन जवान बेवा औरते घर में दहाड़ रही थी। पत्नी बेटी को छाती से साटे पास आने से डरती। बाबा ने देस-देस के पण्डितों को दिखाया। कोई फायदा नहीं। पण्डा, मौलवी, पीर, मजार सब एक किया लेकिन जस का तस सब बना रहा। इसी बीच किसी ने एक ओझा का पता दिया ओझा बुलाया गया। गजब हो गया बहिनी- ‘‘ओझा बकने लगा, गर्भ के साथ चमईनिया डोला रही है।’’ बाबा ने उपाय पूछा- ‘‘ओझा बोला- वंश-दर-वंश पुजइया लेगी महराज। चौरी मांग रही हैं। हिस्सा मांग रही है।’’ कोई चारा नहीं था- बाबा मान गये- उसकी कोठी ओझा को दे बारी वाले पोखरे के पास चौरी बन्हा दिया। पत्नी गर्भ से हुई, नौ माह पर जुड़वा बेटे हुए। ओझा आ धमका, पूजन दें महराज! नहीं तो छोड़ेगी नहीं, जनम-विवाह सब पर। पत्नी हाथ जोड़ विनती करने लगी, देंगे क्या मांगती है? ओझा ने उसकी मांग सबको सुनाई, पैदाइस पर उसका मन्दिर, विवाह पर वर-बहू नंगे जेवनार, गहना, कपड़ा चढ़ा कर पाँचवें दिन साथ रहें, तभी वंश चलेगा।

मन्दिर के नाम पर बाबा ने एक कोठरी बनवा दी। पत्नी ने चार बेटों को जनमा लेकिन आगे बेटों ने चमईया को पूजा देने से मना कर दिया। देखते ही देखते तीन बेटे मर गये। छोटा बेटा बारह का था जल्दी-जल्दी ब्याह कर पुजइया दिलाया। वंश इसी से आगे बढ़ा। इनके भी चार बेटे हुए, ये हमारे पति थे। बड़के भाई माँ की बात मानकर सब करते गये। हमारे पति पढ़े-लिखे होने के कारण नहीं माने। नतीजा देख रही हो। ‘चमईया’ बड़ी जगता हैं। कह कर फफक-फफक कर रोने लगीं। ज्योत्सना पूरी कहानी ध्यान से सुन रही थी। अजीब संयोग जुड़ा था वंशावली की कहानी से। एक तरफ छोटी चाची सास तो दूसरी तरफ आजी सास का वृतांत। माथा घूम गया, अब समझ आया उसे कि बच्चा पैदा करना बेहद जरुरी है वरना सास पागल हो जायेगी। साल भर बाद ज्योत्सना ने बेटे को जन्म दिया। सास ने अंग्रेजी बाबा बजवा कर ‘चमईया’ को कांची-पाकी मसाला चढ़ाया, बड़के तिवारी ने बारह गाँव के ब्राह्मणों को महाभोज दिया।

कुल परम्परा चलती रही। शादी के पन्द्रह साल बीत गये। ज्योत्सना अब दो सुन्दर बेटों की माँ थी। सास खुशी से मुसरन ढोल बजातीं। चाची सास भी अब तक दो बेटों की माँ बन चुकी थी। जिस कुल में तीन पीढ़ियों से एक खूँट पर वंश बेल आगे बढ़ती थी वहाँ अब चारों भाईयों की वंश वृद्धि हो रही थी। ज्योत्सना हर साल छुट्टियों में घर आती, रास्ते में ‘चमईया का मन्दिर’ देख सभी गाड़ी में बैठे-बैठे हाथ जोड़ते। देखते ही देखते इन पन्द्रह सालों में ‘चमईया’ की महिमा पूरे इलाके में फैल गयी, तिवारीपुर के तिवारियों की कुल देवी ‘चमईया’ की कृपा से दरवाजे पर हंस लोटता है। सावन में आस-पास की औरतें कढ़ाई चढ़ाने लगीं। प्रेमी मन्नत का धागा बाँधने लगे। कोठरी भव्य मन्दिर में बदल गया। चुनमुन यादव के संरक्षण में हाट-बाजार सजने लगा। ‘चमईया’ के गीतों के कैसेट से बाजार पट गया।


ज्योत्सना के बाद सबसे पहले बड़े चाचा ससुर के बेटे का ब्याह हुआ। पति-पत्नी दोनों डाक्टर बहू को कुल परम्परा के अनुसार चमईया की पूजन विधि बताने की बारी आई। मन्दिर के पिछवाड़े वाले चोर दरवाजे पर नवेली दुल्हन को ले जाकर ज्योत्सना ने वही निर्देश दिया जो छोटी चाची ने किया। लड़की आवाक मुँह ताकने लगी। पुजइया हो गयी। साल भर बाद बहू ने बेटे को जन्म दिया। घर में एक बार फिर शहनाई बजी। कुल की परम्परा वंशावली में दर्ज हुई, बहुओं के शादी के पहले साल में बच्चा जनमना अनिवार्य है नहीं तो चमईया कुपित हो जायेंगी और बहुओं की कुल परम्परा में चमईया की पूजा का मंत्र वाक्य बना- ‘‘देखो देखो चमईया हमार सुतुही।’’

नोट : जातिसूचक शब्दों का प्रयोग यथार्थ के सन्दर्भ से है, लेखिका की उनसे कोई सहमति नहीं है