एदुआर्दो गालेआनो / अनुवादक : पी. कुमार मंगलम
अनुवादक का नोट
“Mujeres” (Women-औरतें) 2015 में आई थी। यहाँ गालेआनो की अलग-अलग किताबों और उनकी लेखनी के वो हिस्से शामिल किए गए जो औरतों की कहानी सुनाते हैं। उन औरतों की, जो इतिहास में जानी गईं और ज्यादातर उनकी भी जिनका प्रचलित इतिहास में जिक्र नहीं आता। इन्हें जो चीज जोड़ती है वह यह है कि इन सब ने अपने समय और स्थिति में अपने लिए निर्धारित भूमिकाओं को कई तरह से नामंजूर किया।
दुनिया सिकुडती जाती है
आज मातृभाषाओं का दिन है.हर दो हफ्ते पर एक भाषा मर जाती है.यह दुनिया और सिमट जाती है, जब वह अपने कुछ इंसानी लफ्जों और मुहावरों को खो देती है, उसी तरह जैसे वह पौधों और जीवों की विविधता के रंगों को खो रही है.आन्खेला लोइज ने 1974 में इस दुनिया को विदा कहा. वह दक्षिण अमरीका या कहें दुनिया के ही आखिरी छोर पर बसे Tierra del Fuego (तिएर्रा देल फुएगो-आग़ की जमीन) में रह रहे ओनास मूलवासियों के आख़िरी लोगों में से थीं. और अपनी जबान बोलने वाली आख़िरी इंसान भी.
आन्खेला अकेले ही गाया करती थीं. वह ये गीत किसी के लिए भी नहीं गाती थीं. उस जबान में जो अब किसी को याद नहीं थी.मैं उनके निशानों पर चलती जाती हूँ, जो अब रहे नहीं, चले गए हैं मैं भूली-बिसरी गुमनाम-सी हूँ अब
अपने गुजरे दिनों में ओनास लोग कई देवी-देवताओं को पूजते थे. सबसे प्रमुख देवता Pemaulk (पेमौल्क) कहलाता था.पेमौल्क का मतलब “शब्द” था!
मोहतरमा जो तीन सदियों की गवाह बनीं
एलिस 1686 में एक गुलाम के रूप में जन्मी थीं और एक सौ सोलह साल की उम्र में एक गुलाम ही मरीं.
1802 में उनकी मृत्यु के साथ अमरीका में अफ्रीकी लोगों की याद का एक हिस्सा भी मर गया था. एलिस को न पढ़ना आता था न लिखना, लेकिन वह उन कई आवाजों से भरी हुई थीं, जो दूर से आई दास्तानों तथा पास की जिन्दगी के किस्सों-इतिहासों को सुनाया और गाया करती थीं. इनमें से कुछ कहानियाँ उन गुलामों की सुनाई होतीं जिन्हें भागने में एलिस मदद किया करती थीं.नब्बे की होने पर उनकी आँखों की रोशनी जाती रही.
एक सौ दो आते आते रोशनी वापस आ गई थी.-यह ईश्वर था- एलिस ने कहा. वह मुझे कभी निराश नहीं करता.
उन्हें सब फेरी डंक्स वाली एलिस बुलाया करते. अपने मालिक के हुक्म पर वह उस ferry (यानी नाव) पर काम करती थीं जो यात्रियों को डेलावेयर नदी के इस पार से उस पार ले आया-ले जाया करती. जब सवारी, जो हमेशा गोर होते थे, इस जर्जर बुढ़िया का मजाक उड़ाती तब वह उन्हें नदी के दूसरे छोर पर छोड़ आया करतीं. वे चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें वापस बुलाया करते, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं थी. वह जो कभी अंधी रही थी, आखिर बहरी जो थी.
मूलवासियों का दिन
रिगोबेर्ता मेंचू ग्वातेमाला में जन्मी थीं. स्पेनी आक्रमणकारी पेद्रो दे आल्वारादो की ‘विजय’ के चार सौ सालों बाद. अमरीकी राष्ट्रपति द्वाईट आइजनावर की ‘विजय’ के चार साल के बाद.
1982 में जब सेना ने माया आदिवासी लोगों की पहाड़ियों को उजाड़ा तब रिगोबेर्ता के करीब–करीब पूरे परिवार को मार डाला गया था. उनका वह कस्बा भी नक़्शे से गायब कर दिया गया जहाँ नन्ही रिगोबेर्ता की नाभीनाल गड़ी थी ताकि उसकी जड़ें जमीन में गहरे फैल सकें. दस साल बाद उन्हें शान्ति का नोबेल मिला. रिगोबेर्ता ने कहा:-हालाँकि यह पाँच सौ सालों की देरी से आया है, मैं इस पुरस्कार को माया लोगों के लिए आदर और सम्मान कीतरह स्वीकार करती हूँ. माया लोग सचमुच धैर्य का समाज हैं. वे पाँच सौ सालों का कत्लेआम झेलकर आज भी खड़े हैं.वे जानते हैं कि समय मकड़ी की तरह धीरे-धीरे बुनता है.
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फ्लोरेंस
दुनिया की सबसे मशहूर नर्स फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने नब्बे साल की अपनी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा भारत को दिया था. वह, हालाँकि, कभी उस मुल्क को नहीं जा पाईं जिसे वह प्यार करती थीं.
फ्लोरेंस खुद बीमार हो गई थीं. क्रीमिया के युद्ध में उन्हें छूत की एक असाध्य बीमारी ने आ घेरा था. तब, हालाँकि, लन्दन के अपने कमरे से ही कितने ही लेख और चिट्ठियों के जरिए वह भारत की सच्चाइयाँ ब्रिटिश जनमत के सामने ला रही थीं.भुखमरी पर ब्रिटिश साम्राज्य की असंवेदनशीलता:
फ्रांस-प्रसिया के मुकाबले पाँच गुना ज्यादा लोगों की मौत. किसी को कोई खबर नहीं. हमने उड़ीसा की भुखमरी पर कुछ नहीं कहा, जब एक-तिहाई आबादी को वहाँ के खेत-मैदानों को अपनी हड्डियों से सफ़ेद कर देने पर मजबूर किया गया.
गावों में संपत्ति का बँटवारा:
यहाँ तो तम्बूरा बजने के लिए खुद ही रकम अदा करता है. एक गरीब किसान हर वो काम करने की रकम अदा करता है, जो वह खुद करता है या जिसे जमींदार खुद न कर उससे करवाता है.
भारत में अंग्रेजी न्याय:
हमें बताया जाता है कि गरीब किसान को अंग्रेजी न्याय का सहारा हासिल है. ऐसा कुछ नहीं है. कोई भी इंसान वह रखने का दावा नहीं कर सकता जिसका वह इस्तेमाल नहीं कर सकता.
गरीबों का सब्र
किसान-विद्रोह पूरे भारत के लिए एक आम बात बन सकते हैं. कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि ये लाखों भारतीय, जो अभी खामोश हैं और सब्र रखे हुए हैं वे हमेशा ऐसे रहेंगे. एक दिन गूंगे बोलेंगे और बहरों को सुनना होगा.
लेखक के बारे में
एदुआर्दो गालेआनो (3 सितंबर, 1940-13 अप्रैल, 2015, उरुग्वे) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातीनी अमरीकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं। साप्ताहिक समाजवादी अखबार एल सोल (सूर्य) के लिये कार्टून बनाने से शुरु हुआ उनका लेखन अपने देश के समाजवादी युवा संगठन से गहरे जुड़ाव के साथ-साथ चला। राजनीतिक संगठन से इतर भी कायम संवाद से विविध जनसरोकारों को उजागर करना उनके लेखन की खास विशेषता रही है। यह 1971 में आई उनकी किताब लास बेनास आबिएर्तास दे अमेरिका लातिना (लातीनी अमरीका की खुली धमनियां) से सबसे पहली बार जाहिर हुआ। यह किताब कोलंबस के वंशजों की ‘नई दुनिया’ में चले दमन, लूट और विनाश का बेबाक खुलासा है। साथ ही,18 वीं सदी की शुरुआत में यहां बने ‘आज़ाद’ देशों में भी जारी रहे इस सिलसिले का दस्तावेज़ भी। खुशहाली के सपने का पीछा करते-करते क्रुरतम तानाशाहीयों के चपेट में आया तब का लातीनी अमरीका ‘लास बेनास..’ में खुद को देख रहा था। यह अकारण नहीं है कि 1973 में उरुग्वे और 1976 में अर्जेंटीना में काबिज हुई सैन्य तानाशाहीयों ने इसे प्रतिबंधित करने के साथ-साथ गालेआनो को ‘खतरनाक’ लोगों की फेहरिस्त में रखा था। लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि “लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है”।
अनुवादक का परिचय : पी. कुमार. मंगलम जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय से लातिनी अमरीकी साहित्य में रिसर्च कर रहे हैं .
क्रमशः