आंबेडकरी गीतों में रमाबाई और भीमराव आंबेडकर : चौथी क़िस्त

शर्मिला रेगे की किताब  ‘अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की’की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है.  इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था. 

 

अब हम अपना ध्यान इन दोनों महिलाओं की भूमिकाओं में प्रस्तुतिकरण में इस असाधारण विरोध पर केंद्रित करते हैं. रमाबाई को जहां ‘रमई’ (समुदाय की मां) की उपाधि मिली वहीं सविताबाई की भूमिका पर संदेह वह बहस बढ़ती गई. इससे हम यह दलील दे सकते हैं कि आंबेडकरी पुस्तिकाओं व संगीत रचनाओं में निजी/वैवाहिक का स्वरूप् ब्राह्मण मध्यम वर्ग को आधुनिकता में गढे गये सरण्यभावी विवाह के आदर्श पर सवाल उठाता है. आंबेडकर और रमाबाई पर रची गई संगीत रचनाओं में दम्पति के बीच का साख्य निजी दायरों को लक्ष्य कर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है. यह संकेत देता है कि समुदाय घर-परिवार व राजनीतिक क्षेत्र एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते.

रमाबाई

इस पुस्तिकाओं में रमाबाई के जीवन का चित्रण एक त्याग की मूर्ति मां व पत्नी की तरह नहीं किया गया है. बल्कि इनमें उनके व्यक्तित्व में आये परिवर्तनों को उभारा गया है. किस तरह एक छोटी अनाथ लड़की ‘रामी’ जिसने आंबेडकर से विवाह किया, एक राजनीतिक बिरादरी की मां ‘रमई की पदवी पा लेती है. गीतों और पुस्तिकाओं में रमाबाई के शुरूआती वैवाहिक जीवन के विवरण है, जिनमें वे आंबेडकर से यही अपेक्षा रखती हैं कि अमेरिका से लौट कर वे अपनी गृहस्थी संभाले लेंगे, कि बाॅम्बे के सीडेन हेम महाविद्यालय में व्याख्याता के तौर पर कार्य करते हुए एक सामान्य जीवन बितायेंगे’. वे उनकी उच्च शिक्षा की अभिलाषा पर सवाल उठाती हैं, नाराज होती हैं और  कई-कई दिनों तक उनसे बात नहीं करती है. लेकिन अंततः रमाबाई अध्ययन के लिये आंबेडकर की भूख को समझ जाती हैं और बिना शर्त उन्हें सहयोग देती हैं. 50 रूपए महीने में पूरा कर खर्च संभालती हैं, बल्कि उसमें से पांच रूपए आकस्मिक खर्चों के लिये बचा भी लेती है. 1916 में अंबेडकर के लंदन जाने के बाद जिस गरिमा से रमाबाई निर्धनता में भी आत्मबल संभाले रहती हैं उसकी इन गीतों में विशेष स्तुति की गई है. भोजन के लिये हर दिन का संघर्ष और रोज चार भाखरी (ज्वार की रोटी) पर जीवित रहने वाले परिवार का दान लेने से इंकार कर देना भी प्रमुखता से वर्णित किया गया है.

आंबेडकर के राजनीतिक आंदोलन में रमाबाई की बढ़ती रूचि को 1920 की मनगांव परिषद के बारे में उनकी जिज्ञासा से, साहू महाराज के कार्ये में उनके सवालों में,1927 के महाड सत्याग्रह मेें भाग लेने मेें उनकी उत्सुकता से (हालांकि आंबेडकर के सुझाव के विपरीत उन्होंने स्त्रियों का नेतृत्व नहीं किया बल्कि भोजन व्यवस्था संभाली) तथा मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में स्त्रियोें की सभा को संबोधित करने से मापा जा सकता है. 1920 में लंदन जाने के पहले आंबेडकर ने श्राद्व के कार्यक्रम का आयोजन किया (उनके पिता की बरसी पर) और हिन्दू कर्मकांडों की परम्परा तोड़ने के लिये ब्राह्मण भोज न कर के वंचित जाति के लिये स्थापित छात्रावास से चालीस छात्रों को भोज के लिये आमंत्रित किया. रमाबाई ने पपरंपरागत मिठाईयां परोसने की योजना बनाई थी  लेकिन अंबेडकर ने तर्क दिया कि इन छात्रों को मांस व मछली परोसी जानी चाहिए, जो उन्हें छात्रावास के भोजन में नहीं मिल पाते. रमाबाई पहले तो इस तर्क में बहुत क्षुब्ध  हुई और श्राद्व की रीतियों में पूरनपोली की बजाय मांस-भोज पर प्रश्न उठाने लगीं किन्तु बाद में उन्होंने अंबेडकर के कहे अनुसार ही किया.


अब चाहे यह घटना हो या ऐसी ही अन्य घटनायें, जैसे रमाबाई की तीर्थयात्रा करने की हार्दिक इच्छा और चाहे इस पर अंबेडकर का तर्को द्वारा उनको समझाने की कोशिशे हो, आंबेडकरी  संगीत व प्रकाशित विवरणों में आंबेडकर और रमाबाई के बीच रिश्तों को कभी बख्शा नहीं गया. बल्कि वे विवरण, भावार्थों और मूल्यों की वैसा ही विस्तार देते हैं जैसे कि उन्हें जिया और महसूस किया गया है. जिस तरह उनकी जिंदगी की कुछ घटनाओं ने उनके जीवन पथ तथा सोच को दिशा दी. आंबेडकर की नाराजगी के बावजूद रमाबाई की शिक्षा में अरूचि, पुस्तकों पर खर्च को लेकर रमाबाई का  खींजझना लेकिन बाद में सहयोग देना, यहां तक कि अपनी सोने की चूड़ियां बेंच कर आंबेडकर के पुस्तकालय ‘राजगृह को सम्भव बनाना’ इन घटनाओं पर बने गीतों में यही दिखाई देता है कि कैसे उनका रिश्ता तर्कों और संवाद के जरिये विकसित हुआ.

पहली क़िस्त के लिए क्लिक करें:

डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर

दूसरी क़िस्त के लिए लिंक पर क्लिक करे :

‘निजी’ आधार पर डा. आंबेडकर की ‘राजनीतिक छवि’ का स्त्रीवादी (?) नकार : दूसरी क़िस्त


 तीसरी क़िस्त के लिए लिंक पर क्लिक करे:


पीड़ाजन्य अनुभव और डा आंबेडकर का स्त्रीवाद


रमाबाई वराले जो 1929 में अपने लेखक पति बलवंत वराले के साथ पिछड़ी जातियों के छात्रों के लिये अंबेडकर द्वारा धारावाड़ में शुरू किया गया छात्रावास चलाती थीं, अपने संस्मरणों में लिखती हैं कि विभिन्न अछूत जातियों की स्त्रियों  के लिये पहली बार आयोजित एक भोज में किस तरह रमाबाई मुख्य अतिथि बनी थीं. धारावाड़ के युवा अंबेडकरी  कार्यकर्ता इस सार्वजनिक भोज के लिये काफी उत्साहित थे ,लेकिन रमाबाई के इसमें शामिल होने के बारे में उन्हें संदेह था. रमाबाई महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र से थीं, जहां भोजन के बारे में कड़े जातीय नियम पाले जाते थे. वराले याद करती हैं कि रमाबाई के इस तरह कार्यक्रम का नेतृत्व करने पर आंबेडकर प्रसन्न होकर बोले थे. यह महार भाटिन (ब्राह्मण महार स्त्री) किस तरह बदल गई है.

कई गीतों में दिखाया गया है कि किस तरह उनके घर में बिरादरी के लोगों को भी परिवारजनों को भांति स्वीकार कर लिया जाता था. भंगी  जाति के एक आठ वर्षीय बच्चे को अपने घर में उन्होंने जगह दी भी और पिछड़ी जाति छात्रवास को चलाने के लिये अपने गहने गिरवी रख दिये थे. इन घटनाओं से पता चलता है कि उन्होंने अपने घर को  राजनीतिक बिरादरी के लिये भी खोल रखा था. ये गीत कहते हैं  कि रमाबाई का यह योगदान उस प्रेम समर्पण और श्रद्धा से जन्मा था ,जो वे अपने असाधारण पति के प्रति महसूस करती थीं. फिर भी उन्हें अंधभक्त की तरह पेश नहीं किया गया है ,बल्कि ऐसे व्यक्तित्व के रूप में जिसने अपने राजनीतिक विचार स्वयं गढ़े हों. इन गीतों में आंबेडकर की रमाबाई पर पूर्ण निर्भरता और उनकी मृत्यु पर आंबेडकर का गहरा शोक चित्रित किया गया है. आंबेडकर अपनी एक पुस्तक पाकिस्तान या भारत का विभाजन रमाबाई को समर्पित करते हुए कहते हैं, ‘उसके बहुत भले दिल, उदात्त मस्तिष्क, पावन चरित्र शीतल धैर्य और मेरे साथ मुसीबतें सहने के लिये उसका हमेशा तैयार रहना उन सब को घेरे हुए थी. इन सब के लिये मेरे आभार का प्रतीक यह समर्पण है.’

इस तरह बुद्ध की पत्नी यशोधरा और सावित्री बाई फुले की विरासत को संभालकर आगे ले जाने वाली रमाबाई को एक युग पुरूष‘ को गढ़ने का श्रेय आंबेडकरी  साहित्य में दिया गया है. इसके उलट सविता बाई आंबेडकर  के बारे में आंबेडकरी  समुदाय संदेह और गुस्से का इजहार करता है और कभी-कभी एक सधी  हुई चुप लगा जाता है. इसका कारण सविताबाई का वह वक्तव्य हो सकता है, जब अंबेडकर की मृत्यु के तीस वर्ष बाद उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखने की इच्छा जाहिर की. उन्होंने दावा किया कि इसके जरिये वे सच्चाई को समुदाय के सम्मुख रखना चाहती हैं तथा आंबेडकर की मृत्यु में उनकी भूमिका पर उठे शक के बादलों को हटाना चाहती है. सुरक्षात्मक अंदाज में लिखते हुए सविताबाई आंबेडकर के मन में उनके लिये भावनओं पर जोर देती है, दोनों के बीच पत्र व्यवहार का हवाला देती है और अपने वैवाहिक जीवन के कई संस्मरणों से इसे एक आदर्श सख्य भाव विवाह साबित करती हैं . वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचती हैं  कि अपने राजनीतिक लाभ के लिये कुछ लोगों ने यशवंत के मन में और समुदाय में उनके बारे में कई भ्रांतियां फैलाई. 2003 में सविताबाई की मृत्यु के बाद कुछ पुस्तिकायें प्रकाशित हुई, जिसमें अंबेडकर की मृत्यु मेें उनकी भूमिका को लेकर फैले हुए सच और झूठों की तर्कपूर्ण समालोचना की गई. एक ऐसी ही पुस्तिका में उनके आंबेडकर से रिश्ते के अत्यंत निजी होने की बात की गई है. ऐसा रिश्ता, जिसमें घर तथा राजनीतिक बिरादरी के बीच पुल बनाने की कोशिश दाम्पत्य का अनिवार्य हिस्सा कभी नहीं थी, और इसलिये इस रिश्ते को समुदाय ने नकार दिया.

आंबेडकर के जीवन की संगीत व शब्दों में अभिव्यक्ति में रमाबाई और सविताबाई दाम्पत्य के दो विपरीत ध्रुवों   की तरह चित्रित हुई है. आंबेडकरी  आंदोलन में सक्रिय कई शिक्षकों में से एक गायकवाड़ गुरूजी के संस्मरणों में हमें आंबेडकर के जीवनकाल में लिखे गये दलित स्त्रियों के गीत मिलते हैं. इनमें से कुछ में रमाबाई व सविताबाई के इस  परस्पर विरोधी स्वरूपों में कुछ मेल-मिला करने की कोशिश की गई है. रमाबाई की मृत्यु के तेरह वर्ष बाद आंबेडकर सविताबाई से मिले और उनका विवाह हुआ. एक गीत में रमाबाई व सविताबाई के बीच बहनापे  की कल्पना की गई है, हालांकि स्पष्ट है कि वे दोनों आपस में कभी मिली ही नहीं होंगी.
‘‘रमाबाई और सविताबाई, जाति से अलग होके भी
एक ही थाली मेें खाती हैं अपने भीम की खातिर’’
एक अन्य गीत में एक दलित स्त्री, ब्राह्मण सविताबाई को दलित समुदाय के तौर-तरीके अपनाने की सलाह देती है.
ओ बामन घर की बेटी, अपनी साड़ी से खुद को ठीक से ढंकों
बाबा अपने काम में खोये हैं अपनी कुर्सी पर, उनका ध्यान तुम पर नहीं है.

1990 के दशक में रचे गये कुछ नये गीत अंबेडकरी  गायन पार्टियों ने कैसैट्स पर रिकार्ड किये, जिनमें उन मतभेदों पर चिंता जताई गई है, जो आधुनिक शिक्षा व रहन -सहन तथा जेण्डरीकृत चेतना द्वारा जन्मी राजनीतिक प्रतिबद्धता के बीच खड़े हो गये हैं जैसा कि पहले भी कहा गया, युवा स्त्रियों को रमाबाई की तरह बनने की प्रेरणा देते कई गीत हैं ,लेकिन युवकों को बाबा साहेब के पदचिन्हों पर चलने की प्रेरणा उतनी दमदार नहीं है. वैसे ही जो ब्राह्मण पत्नी हैं, उसे विषकन्या करार दिया जाता है ,जो पुरूष को समुदाय के प्रति जिम्मेदारियों से विमुख कर देती हैं.

गैर दलित स्त्रीवादियों के नजरिये, जैसा कि हमने उर्मिला पवार के कथ्य में देखा के विपरीत आं बेडकरी  समुदाय में दाम्पतय की अवधारणा ऐसी है कि अंबेडकरी  के जीवन में निजी व राजनीतिक की जांच पड़ताल ‘स्वयं सिद्व’ सच्चाइयों के पैमानों पर नहीं की जा सकती. दलितों पर निजीत्व और सामूहिकता को अलग-अलग कर के देखने के लिये डाले जाते रहे दबाव के विपरीत, आंबेडकर परिवार के जीवनवृत्त सार्वजनिक और निजी की नर्मित और पुननिर्मित के कई सक्रिय माडल प्रदान करते हैं. आंबेडकर के निजी जीवन को समझते समय इन  निष्कर्षों को निकालने में आती यह मुश्किल सिंगुबाई मुतिसापुर की एक दलित गायिका/संगीतकार ने सबसे अच्छी तरह व्यक्त की है.
मेरे पिता उसे पिता कहते रहे, मेरी मां उसे पिता कहती है
मैं भी उसे पिता ही कहती हूँ 
मेरे बेटे के लिये भी वह पिता ही है.
पूरे संसार में फूंक के तो दिखाओ और एक ऐसा रिश्ता.
क्या किसी और के साथ है ऐसा रिश्ता, जो हमारा है हमारे  भीम के साथ
साथ साधु-संत आये और गये लेकिन मेरी प्रार्थनाओं का कोई फल नहीं मिला. ओ मेरे कुनबे कल कहां थे तुम?
आज कहां तक आ गये. तुम्हारे गोबर सने हाथों में उसने रख दी कलम.
आंबेडकर की निजी जिंदगी को यह जोशभरा लगाव जो संगीत-साहित्य में झलकता है, साफ बताता है कि आंबेडकरी समुदाय स्त्री-अधिकारों और जेण्डर मुद्दों पर आंबेडकर के नजरिये को समझने में उन अकादमियां से मीलों आगे है, जिसे आंबेडकर में बड़ी सीमित रूचि रही है. कुछ खास अपवादों को छोड़कर अधिकांश अकादमिक साहित्य आंबेडकर के स्त्रीवाद में योगदान को नजरअंदाज करते रहे हैं और इसमें आंबेडकरी सिद्धांतों पर लिखी गयी पाठमालायेंभी शामिल है.

प्रतिसमुदायों की सूचना अैर उनसे सीखना


‘आंबेडकरऔर स्त्रीमुक्ति’ विषय पर संगीत और पुस्तिका साहित्य का प्रथम शक्तिशाली उभार 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में देखने को मिलता है. आज ये गीत व पुस्तिकायें आंबेडकरी  पचांग में शामिल खास अवसरों पर वितरित होती हैं . माध्यम वर्ग की सामान्य समझ इन समारोहों को विवेकहीन/भावुक करार देती हैं और ऐसे अवसरों पर यातायात व स्वच्छता की समस्याओं के चलते इनकी काफी आलोचना होती है. कुछ सामाजिक वैज्ञानिकों को छोड़कर अधिकांश इन जनसभाओं को आंबेडकर की व्यक्तिपूजा या नेतृत्व द्वारा जनता को बरगलाने से जोड़ते हैं. वैसे भी दलित जनों को अतिभावुक और ऐतिहासिक दृष्टि से शून्य माना जाता है. इन लेखों में अक्सर आंबेडकर की विवेकी दृष्टि की तुलना इन सालाना जलसों की विवेकहीनता से की जाती है और आशय यह होता है कि दलित आंबेडकर की विरासत को आगे नहीं ले जा रहे हैं लेकिन इन जलसों के रिकाॅर्ड जो आंबेडकरी पंचाग की वजह भी हैं और उसकी परिणिति भी कुछ अलग ही किस्सा बयान करते हैं.
पिछले दशक में आयोजित आंबेडकरी जलसों की रिपोर्टों को यदि सहानुभूति पूर्वक देखा-परखा जाये तो नागपुर और मुम्बई में होेने वाले इन जनमेलों की वजह से होने वाली यातायात समस्या, रेलगाड़ियों में भीड़ और कचरे के ढेरों की आलोचना को इस तरह भी देखा जा सकता है जैसे कुछ खास दिनों पर कुछ अचिन्हित सार्वजनिक जगहों को अपनी उपस्थिति से दलितों ने चिन्हित  कर दिया हो और इसी बात के लिये उनकी निंदा की जा ही हो. कुछ अन्य लेखों में मैने दलील  दी है कि आंबेडकरी पंचाग की तिथियां आंबेडकरी यूटोपिया को वास्तविक जगहों से जोड़ती हैं और इस तरह एक आंबेडकरी प्रति संसार को गढ़ती हैं, या ऐसे वास्तविक स्थानों  की  रचना करती हैं, जो कभी-कभी ही लोगों से गुलजार लेने के बावजूद भी  अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज कराये रहते हैं. आंबेडकर को सीधे संबोधित प्रज्ञा दया पवार का यह मंत्र इस स्थिति को भली-भांति व्यक्त करता है.
”हर साल 6 दिसंबर को बिना नागा मैं अपने बेटे प्रतीक हजारो मांओ, बहनों और भाइयों के साथ एक मोमबत्ती जलाती हूं और आपको सादर नमन करती हूं. आपकी स्पष्ट छवि मुझे प्रतीक तथा हजारों, लाखों करोड़ों आंबेडकरियों की गर्वित आंखों में दिखाई देती है. यह बहुत आशा भरा पल होता है जो हर दिन के संघर्षों के बीच डरावनी वास्तविकता के बीच हमें आने वाले कल के सपने देखने के लिये प्रेरित करता है. सच में आपने हम सब को बहुत सुंदर बना दिया है.”

आंबेडकरी (आंबेडकर के‘पढ़ो, संगठित हो और विरोध करो’ के आहान पर आधारित समुदाय) यूटोपिया एक आदर्श समाज के लिये प्रयत्नों की अभिव्यक्ति है, लेकिन अन्य यूटोपिया की तरह ही इसका कोई तयशुदा पता या भौतिक स्थान नहीं है. संगीत व आंबेडकरी साहित्य, जो आंबेडकरी संघर्ष के सबसे खास हथियार रहे हैं. इस यूटोपिया तथा जनमानस के बीच जुड़ाव तंतु का काम करते हैं, लोगों को उस संभावित राजनीतिक नैतिक पहचान से जोड़ते हैं, जिसे वे अपना सकें. इस संगीत व इन पुस्तिकाओं ने ही आंबेडकरी समुदाय को जन्म दिया है,  जिसके अपने खास दावे हैं और एक वैकल्पिक संस्थागत प्रचार तंत्र है.इसकी शुरूआत हुई स्वायत्त दलित स्त्री संगठनों के बीच सहयोग सूत्र जुड़ने से,  दलित स्त्री फेडरेशन व विचार मंचों के बनने से और बाद में दलित राजनीतिक दलों (भारतीय रिपब्लिकन पार्टी, बहुजन महासंघ व रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया) की महिला शाखाओं के पुनर्जीवित होने से. दिसंबर 1996 में डा. प्रमिला सम्पत द्वारा चंद्रपुर में ‘विकास वंचित दलित महिला परिषद’ का आयोजन किया गया, जिसमें 25 दिसंबर का दिन भारतीय स्त्री मुक्ति दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा गया.यह प्रस्ताव ही स्त्री आंदोलन की जमीन पर आंबेडकर और स्त्रीवाद को लेकर शुरू हुए विचारात्मक व क्रियात्मक तनावों- मतभेदों की नींव बना. इस सम्मेलन के कुछ वर्षों बाद आंबेडकरी आंदोलन की याद दिलाते रहने वाले उसे पुर्नव्यखायपित व पुर्नसूचीबद्व करने वाले अहम औजार यानि आंबेडकरी पंचागों ने 25 दिसंबर को भारतीय स्त्री मुक्ति दिवस के रूप में उल्लिखित  करना शुरू कर दिया.

क्रमशः 

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles