जयभीम वाला दूल्हा चाहिए

शर्मिला रेगे की किताब  ‘अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की’की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है.  इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था. 





1990 के वर्षां में आंबेडकर तथा स्त्री मुक्ति पर विभिन्न विचारों को रखने वाली कई पुस्तिकायें, स्मारिकायें और पत्रिकायें प्रचलन में थी. उदाहरण के लिये, प्रतिमा परदेशी द्वारा लिखित ‘डा. आंबेडकर और स्त्रीमुक्ति’ (मराठी ) की बात करें, जो इस विषय पर विस्तार में लिखी छपी पहली पुस्तिकाओं में से थी. इसकी शुरूआत में आंबेडकर के इस विषय पर भाषणों व लेखों को  स्त्रीवादियों, संगठित वामपंथियों तथा दलित राजनीतिक दलों द्वारा नजरअंदाज किये जाने के कारणों के बारे में चर्चा की गयी.


जन्मशती (1990) वर्ष  में डा. आंबेडकर के कुछ अल्पज्ञात या अनदेखी किये गये कार्यो-विचारों पर कुछ चर्चा हुई अर्थव्यवस्था व मुस्लिम समुदाय पर उनका मत सामने लाया गया, लेकिन स्त्री मुक्ति पर उनके विचार फिर भी अंधेरे में ही रहे. आज जब हम नई शताब्दी के मुहाने पर खड़े हुए हैं और जब सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष का स्वरूप अहम हो गया है तो इस वक्त उस व्यक्ति के विचार नजरअंदाज नहीं किये जा सकते, जो स्त्रियों के मुददों पर सबसे मुख्य रहा, यहां तक कि जिसने हिन्दू कोड बिल के मामले पर कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. सच  यह है  कि इस  विषय में मौन एक षडयंत्र जैसा लगता है और इसके कारणों की तह में जाना ही चाहिये.

(पढ़ें : डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर)

अरूण शौरी की पुस्तक ‘झूठे ईश्वर की उपासना ( Worshiping a false God) में प्रस्तुत तर्कों के विपक्ष में जाने माने इतिहासकार वाय.डी. फड़के ने अपने विचार रखे और गौतम शिन्दे की पुस्तिका ‘भारत में स्त्री क्रांति व मुक्ति’ में फड़के का समर्थन किया गया . फड़के ने यह भी कहा कि बुद्व के स्त्रियों के बारे में विचारों को भी अक्सर गलत समझा जाता है और बताया कि विद्वानों को आंबेडकर के लेख ‘हिन्दू स्त्रियों का उत्थान व पतन’ क्यों और किस तरह पढ़ना चाहिए. शिन्दे की पुस्तिका में इसका भी उल्लेख मिलता है. कुछ लेखकों ने उल्लेख किया है कि वाइसराय की कार्यकारिणी समिति (1942-46) के सदस्य के रूप में आंबेडकर ने खदान प्रभूति लाभ कानून जैसे विधेयक बनाने में काफी श्रम किया. समान मेहनताना, कोयला खदान कर्मचारी कल्याण कोष में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व , समान नागरिकता, स्त्री का आर्थिक विकास पर हक जैसे मुद्दों पर अम्बेडकर का जोर देना भारत में स्त्री आंदोलन के लिये काफी अहम माना जाना चाहिए. इस  नजरिये से देखें तो हिन्दू कोड बिल को स्त्री मुक्ति का घोषणापत्र माना जाना चाहिए और इस बिल को संशोधित करने के षडयंत्रकारी  प्रयासों के कारण उनका कानून मंत्री के पद से इस्तीफा इतिहास में अभूतपूर्व माना जाना चाहिए.



कुछ पुस्तिकाओं में आंबेडकर द्वारा बुद्व की विरासत को स्त्री मुक्ति के लिये पुनर्जीवित करने के कार्य को खास तौर पर प्रशंसनीय माना गया है. इसी तरह सती, बाल विवाह तथा देवदासी प्रथा के जरिये वेश्यावृत्ति को संस्थागत बनाने जैसी ब्राह्मण  प्रथाओें के खिलाफ उनकी आलोचना को भारत में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा पर पहले वक्तव्यों  में से एक माना गया है. इनमें से ज्यादातर लेखकों ने इस बात पर जोर दिया है कि स्त्रीमुक्ति पर आंबेडकरका सैद्धान्तिक दृष्टिकोण किस तरह स्त्री आंदोलन के कई अभियानों की नीव बना. वे महाड़ सत्याग्रह (मार्च 1927) में स्त्रियों के लिये दिये गये आंबेडकर के सम्बोधन का हवाला देते हैं. इन्डिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी की महिला सभाओं द्वारा दलित स्त्रियों के राजनीतिक जागरण का जिक्र करते हैं और 1942 में दलित महिला फेडरेशन की स्थापना का उल्लेख करते हैं. परदेशी की पुस्तिका में आंबेडकर के 1916 में लिखे ‘भारत में जातियां’ लेख का विस्तृत विवेचन किया गया है, जिसमें आंबेडकर तर्क देते हैं कि स्त्रियों की दोयम अवस्था  का प्रवेश द्वार थी जाति व्यवस्था,  जिसने स्त्रियों के शोषण का ढांचा तैयार किया. पुस्तिका यह भी स्पष्ट करती है कि हिन्दू केड बिल जाति-आधारित पितृसत्तात्मक  ढांचे के लिये चुनौती क्यों था? आंबेडकरी  समुदायों की यह पुस्तिका संस्कृति  आंबेडकर के मुख्यधारा से अलग लेखन और उद्बोधनों को प्रकाश में लाकर उनके स्त्रीवाद पर दावे को  पुन: स्थापित करती है.

(पढ़ें :पीड़ाजन्य अनुभव और डा. आंबेडकर का स्त्रीवाद)


ये पुस्तिकायें, जहां आंबेडकर के स्त्रीमुक्ति में योगदान के उपयुक्त आलोचानात्मक पहलुओं को लेकर जोश में आती हैं. वही गायन पार्टियां उनके सामाजिक स्वप्न का पक्ष सामने रखती हे. आंबेडकरी पचांग के उत्सवों में उनके बिक्री स्टाॅल संख्या में दूसरे स्थान पर होते हैं. इन पार्टियों का संगीत क्षेत्र या पीढ़ियों के भेदभाव से परे होता है, जब तक कि गीत में ही नाम उल्लेखित न हो या गीतकार की शैली बहुत पहचानी हुई न हो. 1920 में स्थानीय स्तर पर बने सस्ते कैसेट्स ने इन गीतों की पहुंच का दायरा काफी बढ़ा दिया और ज्यादा लोग ऐसी गायन पार्टियां बनाने के लिये प्रेरित हुए,  जिससे गीतों की संख्या व संगीत की विविधता में बहुत इजाफा हुआ. कई स्त्री गायिकायें और उनके संगीत दल, मंचीय प्रस्तुतियों की लोकप्रियता को कोई नुकसान पहुंचाये बिना अपना स्थान बना पाये. आधुनिक भारतीय इतिहास (खासकर 1932 का पूना समझौता) की घटनाओं को अपनी दृष्टि से देखना आंबेडकर के नित्यप्रति के जीवन का संघर्ष,  सामाजिक राजनीतिक आंदोलन इन रचनाओं के मुख्य विषय हुआ करते हैं.

वर्ष 2000 से नयी रचनायें जैसे ‘मनुस्मृति की होली’ भी अस्तित्व में आई. गीतकारों व गायकों में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व और बढ़ गया तथा 25 दिसंबर को महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में स्त्री-मुक्ति दिवस के रूप में मनाने का प्रचलन भी बढ़ा. कुछ अन्य रचनाये हैं जैसे ‘जयभीम वाला दूल्हा चाहिए’ जिसमें स्त्रियां आंबेडकर से पूछती हैं कि पति को एक सच्चे आंबेडकरी पति के रूप में कैसे बदला जाये, बुद्ध महिला गीत, जिसमें सच्ची आंबेडकरी, यानि जयभीम वाली नारी का वर्णन किया गया है तथा ‘भीमवाड़ी’ का उल्लेख है जो आंबेडकरी स्त्रियों का स्वर्ग है यानि समता पर आधारित एक बस्ती.

कभी-कभी इन गीतों के अर्थ अलग-अलग और दुविधा भरे भी होते  हैं. उदाहरण के लिये कुछ में हिन्दू प्रतीकों जैसे कुमकुम का तिलक, जेण्डरीकृत संहितायें और आदर्श आंबेडकरी स्त्री की परिभाषा में नियंत्रण की भरमार. आंबेडकरी संगीत को ये पीढ़ियां एक जटिल अध्ययन का विषय हैं,  और इन्हें सिर्फ राजनीतिक या बाजारी हथकंडा मान कर खारिज नहीं किया जा सकता. इन कुछ सरलीकरण किये हुए द्वैतों जैसे भावुक/तर्कसंगत, हथकंडे/अभिव्यक्ति को दलित अभियानों पर शोध में बार-बार लाया गया है और मराठी मध्यम वर्ग में फैली उस सामान्य समझ में भी इन्हें देखा जा सकता है , जो इन पुस्तिकाओं व संगीत को रूढ़िवादी और अंध भक्ति का नाम देती है. ये समझ के साथ बदलते हुए स्रोत अकादमिया द्वारा अपेक्षाकृत अनदेखे ही किये जाते रहे हैं,  जैसा कि पहले कहा गया, ये स्रोत जाति-विरोधी  स्त्रीवाद को आंबेडकरी प्रति समुदायों में स्थापित करते हैं. दलित सामूहिक आंदोलनोें पर सच्चे शोध के लिये उन आसान निष्कर्षों से परे जाना होगा जो आंबेडकरी को मात्र भावात्क प्रतीक मान लेने पर ही खत्म हो जाते हैं. असल में इन भावनाओं को खंगालना होगा, व्यैक्तिक और सामूहिक भावनाओं को  अधिक गंभीरता से जांचना होगा. सामूहिक कल्पना चित्रों जैसे जय भीम वाली नारी (आंबेडकरी स्त्री) और भीमवाड़ी (आंबेडकरी यूरोपिया) के भावार्थों का अनुवाद और अधिक गहराई में जाकर करना होगा. फिलहाल यह याद रखना जरूरी है कि आंबेडकर का स्त्रीवाद पर दावा किन्हीं अकादमिक क्षेत्रों से नहीं बल्कि इन्हीं अपारम्परिक स्रोतों से शुरू हुआ था. अब इस प्रकाशित सामग्री व संगीत संस्कृति से दिशाज्ञान लेकर हम आंबेडकर के कुछ खास स्त्रीवादी लेखों से परिचित होंगे.

(पढ़ें : आंबेडकरी गीतों में रमाबाई और भीमराव आंबेडकर )

स्त्रीवादियों के लिये महत्वपूर्ण लेखन

स्त्रीवादी विद्वान उमा चक्रवर्ती के अनुसार मंडल आंदोलन के बाद दो भिन्न दिशाओं में छिटक गये सिद्वांतों से पहचान का मौका था-जात के मुद्दे पर समाजवादी अवधारणा तथा जेण्डर के मुद्दे पर स्त्रीवादी अवधारणा. उनके अनुसार शहरी भागों में जाति पर चर्चा ने बौद्विक रास्ता पकड़ा और जाति व्यवस्था को समझाने की बजाये उसे परदे मेें छुपा दिया. इस संदर्भ में चक्रवर्ती का साफ इरादा जाति के स्त्रीवादी विश्लेषण को आगे बढ़ाने का है और वे आंबेडकर के उस फाॅर्मूले को स्थापित करना चाहती है , जिसमें वे जाति को श्रेणीबद्व असमताओं का एक तंत्र मानते हैं. यह फार्मूला ब्राम्हणी पितृसत्ता की ऐतिहासिक संरचना की व्याख्या करने के लिये उनका आधार बनता है. साथ ही जाति व जेण्डर के बीच देशव्यापी गठजोड़ को भी वे साफ देख पाते हैं.

अब मैं जातिमुखी पितृसत्ता की संरचना और स्त्रीवादी अवधारणा के बारे में आंबेडकर के लेखन महत्व को और विस्तार देना चाहती हूं.आंबेडकर के  लेखन का विशाल भंडार और गहराई उसके भीतर दिखती निरन्तरता लेखों के चयन को मुश्किल बना देेते हैं. मेरा चयन कुछ पक्षपात वाला है क्योंकि इतने महती साहित्य के साथ जुड़ने में मेरी क्षमता सीमित है. साथ ही यह संचयन आय रूप से उन लेखों को प्रकाश में लाने के लिये है जो जाति जेण्डर गठजोड़ पर है और इसलिये ब्राम्हणी पितृसत्ता पर स्त्रीवादी आदर्श लेखों के रूप में लिये जा सकते हैं. इस दौरान मैने आंबेडकर के मराठी व अंगे्रजी में दिये गये भाषणों और लेखों का भी उल्लेख किया है,  जो ‘डा. बाबा साहेब अम्बेडकर लेख व भाषण, खण्ड 17 भाग तीन’ से लिये गये हैं.

ये लेख तीन भागों में व्यवस्थित किये गये हैं हर एक हिस्से में प्रासंगिक परिचय संक्षिप्त वितरण व विवेचन है, जो आंबेडकर  की पितृसत्ता के बारे में समझ के विभिन्न आयाम दिखते हैं. पहले भाग जाति यानि राजतीय विवाह, जाति और स्त्रियों पर हिंसा में अटूट संबंध’’ में दो लेख है-‘भारत में जातियां, उनका जन्म, विकास तथा कार्य तंत्र’ (BAWS
VOl 17, Part 2) तथा हिंदू स्त्री का उत्थान व पतन (BAWS VOl 17, Part 2) . पहले लेख में जाति को सजातीय विवाहों के संदर्भ में व्यास्थापित किया गया है, जिसमें जाति और स्त्रीदमन में गठजोड़ को समझा जा सके. दूसरे लेख में भारत के इतिहास के उपनिवेशी व राष्ट्रवादी पाठ्यान्तरों की पड़ताल की गई है और वैदिक युग को स्त्रियों के लिये स्वर्णिम काल माने जाने वाले मिथक को नकारा गया है.
दूसरे भाग ‘मनु का मतिभ्रंश स्त्रियों के खिलाफ श्रेणीबद्ध हिंसा की पहेली का खुलासा’ में दो ऐसे खुलासे पर चर्चा और कुछ संक्षिप्तीकरण है. ये है पहले नं. 18 मनु का मतिभ्रंश या संकर जातियों के माध्यम की ब्राह्मणवादी व्याख्या (BAWS
VOl 4, 215-25) तथा पहले नं. 19 पितृत्व से मातृत्व की ओर सक्रमण ब्राह्मण  इससे क्या पान चाहते थे? (BAWS
VOl 4, 226-32)  और और विवादित राम व ‘कंश व कृष्णा की पहेली’ के कुछ अंश (BAWS.VOL.4.appendisI,323-43) . इस भाग के लेख ‘स्त्री और प्रतिशील ’ (BAWS.VOL.3.429-37) मेें भी संदर्भित है तथा हिन्दू स्त्री का उत्थान व पतन लेख के आखिरी हिस्से के रूप् मेंभी छपे हैं.  आंबेडकर की पहेलियों को पढ़ना मैं समझती हूं, ब्राम्हणी पितृसत्ता की जेण्डरीकृत हिंसा के उस श्रेणीवद्व चरित्र को बेनकाब करताहै,  जिसके द्वारा जाति- व्यवस्था की संरचना की बरकरार रखा जा सका.

आखिरी भाग ‘हिन्दू कोड बिल पर संसदीय बहसों और आंबेडकर  के इस्तीफे के बारे में है. हिन्दू कोड बिल पर सभी चर्चाओं को एक साथ रखता है. ’ (BAWS.VOL.4.Part
16, 4-12, 267-81) तथा मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देते हुए डा. अम्बेडकर के भाषण के अंश प्रस्तुत करता है. (BAWS.VOL.14 भाग दो , 137-27) . यह भाग विधेयक की तीन प्रकार से जांच पड़ताल करता है. पहले यह विधेयक को आंबेडकर  के निजी जीवन के लोकतंत्रीकरण के प्रस्ताव के रूप में देखता है. दूसरे यह विधेयक के पक्ष में आंबेडकर की सार्थक दलीलों को पेश करता है, जिसे बाद में ‘अबधित स्वतंत्रता’ के उनके लक्ष्य का नाम दिया गया. अंत में यह विधेयक के विरोध को रेखांकित करता है और इस  रूढ़िवादी विपक्ष को लोकतांत्रिक करार को रद्द करने वाले की तरह देखता है.

अंत में 1927 में दलित स्त्रियों के ऐतिहासिक सम्मेलन में अपने उद्बोधन में आंबेडकर ने पूछा था,
‘‘यहां सभा में बैठी’’ कायस्थ व अन्य सवर्ण महिलाओं के बच्चों और हममें क्या कोई फर्क है? आपको सोचना होगा और इस वास्तविकता को जानना होगा कि आप भी एक ब्राह्मण  स्त्री की पाकीजगी और चरित्र रखती हैं. बल्कि जो साहस और कुछ कर दिखाने की इच्छा आप में है, वह उनमें भी नहीं है. फिर आपके बच्चों का अपमान क्यों होना चाहिए? आपने इस बारे में कभी सोचाा ही नहीं वरना आप एक सत्याग्रह खड़ा कर चुकी होती….

(पढ़ें: आंबेडकर की राजनीतिक छवि का स्त्रीवादी नकार )

आंबेडकर के उस उद्बोधन के बाद काफी कुछ घटित हो चुका है. आंबेडकर के शब्दों पर  बहस खड़ी करने से आगे बढ़कर राजनीति-दीक्षित दलित स्त्रियों ने बहुत कुछ कर दिखाया है. बाबा साहेब की वफादार बेटियों के रूप में दलित स्त्री वादियों ने ब्रम्हण स्त्रीवाद के खिलाफ विद्रोह का लंबा सफर तय किया है और जाति-विरोधी राजनीति की दिशा का संकेत दिया है. ऐसा करते हुए, उन्होंने स्त्रीवाद तथा जाति विरोधी रानजीति के कई संभावित भविष्यों की राह खोली है. आंबेडकर की स्त्रीवादी विरासत का दलित पुरूषों व गैर दलित स्त्रीवादियों द्वारा संपूर्ण दोहन किया जाना अभी बाकी है. यह पुस्तक इसी  दिशा में एक गैर दलित स्त्रीवादी का विनम्र प्रयास है.

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ISSN 2394-093X
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