छोरा होकै छोरियों से पिट गया?

नवीन रमण

सोशल एक्टिविस्ट, हरियाणा की सामाजिक विसंगतियों पर निरंतर लिखते हैं. संपर्क :9215181490

दंगल फिल्म को लेकर भावुक और क्रांतिकारी दोनो तरह की समीक्षाओं को पढ़ने के बाद यह तो कहा जा सकता है कि दोनों तरफ से उठने वाले सवालों से मुंह नहीं फेरा जा सकता. भले ही सवालों का चरित्र आक्रामक और बचाव की मुद्रा में  ढल गया हो. सभी ने फिल्म के पहले दृश्य की तरह एंटिना को अपने नज़रिए से एक दिशा दी है. वैसे भी विमर्शों की दुनिया कभी एकांगी या एकमार्गी नहीं होती. हर विमर्श ने संवादों की दिशा को खुले स्पेस में बहस का केंद्र बनाया है. विमर्श के लिहाज से यह फिल्म की सफलता है.

दरअसल यह फिल्म एक पिता की नहीं सफलता के महिमामंडन की कहानी है. जिसे आमिर खान ने भी बखूबी कैश किया है. आजकल सरकार भले ही रूक्के कैशलैश के मार रही हो, पर फिल्म ने खूब कैश किया है. इन आर्थिक सफलताओं के बीच उत्पन्न कुछ सवालों के जरिए मैं भी अपना पक्ष रखना चाहता हूं. इसे पक्ष की तरह ही पढ़ा जाए. किसी अधिकारिक सत्ता की तरह नहीं. क्योंकि फिल्म भी कई तरह की सत्ताओं पर सवाल उठाती है. पर इन सवालों से क्या ये सिस्टम बदल जाएंगे?

क्या भारतीय खेल सिस्टम इस फिल्म से बदल पाएगा?  जबकि आज ही खबर आई है कि कॉमनवेल्थ खेल घोटाले के सरताज बादशाह सुरेश कलमाड़ी को भारतीय ओलंपिक संघ का मानद आजीवन अध्यक्ष बनाए जाने की खबर आ रही है. दूसरी तरफ सेल्फीमैन खेल मंत्री विजय गोयल ने बयान देकर खानापूर्ति कर ली है.

क्या भारतीय समाज में लड़के की चाह बदल जाएगी? खासकर हरयाणा जैसे राज्य में. जो लिंग अनुपात में कमतर  रहा है. पिता के सपनों के समक्ष बेटियों के सपनों को भी क्या तरजीह दी जाने लगेगी? या बेटियां दूसरों के सपने पूरे करने का औजार भर बनती रहेंगी. क्या फिल्म हरियाणा को पैकेज छवि से बाहर निकाल पाएगी?
यह सबसे गूढ़ और जरूरी सवाल है. क्योंकि अक्सर हरयाणा को एक खास छवि से देखने की लत पड़ गयी है. उम्मीद करता हूं कि यह फिल्म उस गढ़ी गई छवि को तोड़ने नहीं तो दरकाने का काम जरूर करेगी.

क्या फिल्म इस धारणा को बदल पाएगी कि छोरा होकै छोरियों से पिट गया? यह काम सबसे मुश्किल लगता है. अगर ऐसा हो जाए तो फिल्म असल अर्थों में सफल मानी जाएगी. कितने मां-बाप छोरियों को अब चूल्हा-चौका से बाहर निकाल पाएंगे? इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा है.अक्सर विकल्पहीनता की स्थिति में लड़कियों पर फोकस किया जाता है। जबकि उन्हें भी सभी क्षेत्रों में समान अवसर मिलने चाहिए. पहले की तुलना में इस पक्ष को सकारात्मक ढंग से देखा जाना चाहिए.

इन सब सवालों से इतर फिल्म को अगर विश्लेषित किया जाए तो हानिकारक पिता नहीं हैं, वो तमाम व्यवस्थाएं हैं, जो पुरुष-स्त्री -दोनों को महीन रूप से पिसती हैं. मनुष्य तो जन्म से सामान्य ही होता है, जबकि ये व्यवस्थाएं उसकी सरंचना को भेदभाव, हिसंक और जातिवादी आदि बनाने में लग जाती हैं. क्या फिल्म  इन व्यवस्थाओ को किसी तरह तोड़ने में सहायक होंगी? या मखौलिया लहजे में इनका मजाक भर बनाकर रह जाएंगी!  या इस फिल्म ने इन व्यवस्थाओं की क्लास भर लगाई है, जबकि जरूरत इनका सिलेबस  बदलने की है!! क्या यह सिलेबस  बदल पाएगा? जो स्त्री-पुरुष भेदभाव पर टिके  होने के साथ-साथ जातिवाद को साथ में पालपोस रहा है.

एक नज़र प्रतिनिधित्व के सवाल पर
महाबीर  पहलवान हरियाणा का प्रतिनिधित्व नहीं करता. प्रतिनिधित्व करते हैं फब्तियां कसने वाले लोग और समाज. लड़का होने के नुस्खे  बताता समाज. कुछ अति विद्वानों की राय तो यहां तक चली गयी है कि यह जाट परिवारों की कहानी है. इस पक्ष का तर्क है कि जाटों को फालतू में बदनाम किया जाता है.  जैसे मीडिया जाति को बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ता, ठीक इसके उलट एक गुट महिमामंडन करने का मौका नहीं छोड़ता. जबकि दोनों की राजनीति एक-दूसरे को हष्टपुष्ट करने का काम करती है. भला दोनों में से कोई नहीं कर रहा समाज का. मीडिया के लिए सब कुछ कच्चे माल की तरह है और इस गुट के लिए अपनी जातिवादी राजनीति को चमकाने का मौका.  इन दोनों का अतिवादी रवैया ज्यादा खतरनाक है, उस बापू से जो एक गुरु की भूमिका में ज्यादा दिखता है, बाप की भूमिका में कम.

गीता-बबीता के जीवन का टर्निंग पहलू
जब दोनों अपनी किसी दोस्त की शादी में गई होती है और पापा आकर उनकी पिटाई इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्होंने एक दिन की प्रैक्टिस नहीं की थी. एक गुरु के रूप में आमिर ने बिल्कुल सही पहलू पकड़े हैं. गुरु खेल को लेकर थोड़ा आक्रामक होता ही है–“थारा बाप थारे बारे में सोचता तो है,… पीछा तो नहीं छुड़वा रहा, औलाद का दर्जा तो दे रहा है. इसमें गलत के करया है वो.”

सत्ता का विरोध करते-करते खुद सत्ता बन जाना 
कई लेख पढ़कर यह विचार आया कि सत्ताओं-व्यवस्थाओं का विरोध करते-करते हम खुद में एक सत्ता-व्यवस्था का रूप लेने लगते हैं. जो ठीक उसी तरह बिहेव करती है जैसे बाकी की सत्ताएं एवं व्यवस्थाएं. जबकि जरूरत एक संतुलन की होती है. जिसे अक्सर इग्नोर कर  दिया जाता है.

प्राथमिक टिप्पणी
दंगल फिल्म एक शानदार फिल्म है अगर आप पहलवान महाबीर फोगाट के जूनून के नजरिये से देखेंगे तो. पूरी फिल्म का तानाबाना महाबीर के जूनून के इर्द-गिर्द बुना गया है. उनके जूनून के सामने बाकि के किरदार और खुद महाबीर हल्के पड़ते हैं. जिन्होंने खेल को जिया है और जूनून के स्तर पर जाकर जिया है. उस भावना को वो सभी बेहतर ढंग से फील कर पाएंगे. पिता और गुरु, दोनों किरदार निभाना ,जितना आसान दिखते हैं. दरअसल होते नहीं है. गुरु को पिता से और पिता को गुरु से हर रोज भिड़ना पड़ता है. इस किरदार को आमिर ने बखूबी निभाया है और बाकी के सभी किरदार अपनी पूरी रंगत-मेहनत के साथ परदे पर उकेरे गए हैं.

खेल जूनून के अलावा कुछ नहीं होता
एक खिलाड़ी का जुनून उसे अनाड़ी बना देता है और अनाड़ी हुए बिना मिसाल कायम करना सम्भव ही नहीं है. महाबीर फोगाट और उनके पूरे परिवार के जूनून को सलाम बनता है. गीता-बबीता और बाकी लड़कियों को सबसे ज्यादा बधाई और शुभकामनाएं. क्योंकि वे आज एक आदर्श की तरह बहुत-सी लड़कियों को प्रेरित कर रही हैं.

बाकी आप सभी को एक चौकाने वाला तथ्य और बता देता हूं कि महाबीर फोगाट को एक 16-17 साल का लड़का भी है.

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