झाँकती है देह आँखों के पार और अन्य कविताएं

सुजाता

लेखिका, आलोचक.चोखेरवाली ब्लॉग की संचालक, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,श्यामलाल कॉलेज,दिल्ली वि वि. संपर्क : ई-मेल : sujatatewatia@gmail.com

झाँकती है देह आँखों के पार

और इस दूसरे जाम के बाद मुझे कहना है
कि दुनिया एकदम हसीन नहीं है तुम्हारे बिना
हम तितलियों वाले बाग में खाए हुए फलों का हिसाब
तीसरे जाम के बाद कर ज़रूर कर लेंगे…

हलकी हो गई हूँ सम्भालना …
मौत का कुँआ है दिमाग,बातें सरकस
बच्चे झांक रहे हैं खिलखिलाते
एक आदमी लगाता है चक्कर लगातार
धम्म से गिरती है फर्श पे मीना कुमारी
‘न जाओ सैंया…कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूंगी…’
और सुनो –
जाना, तो बंद मत करना दरवाज़ा।
आना , तो खटखटा लेना ।

मौत के कुएँ पे लटके ,हंसते हुए
बच्चे ने उछाल दिया है कंकड़
आँखें मधुमक्खियाँ हो गई हैं
आँखें कंकड़ हो गई हैं
आँखें हो गई हैं बच्चा
आँखें हंसने लगी हैं
झाँक रही हैं आँखें
अपने भीतर !

बच्चे काट रहे हैं कागज़ कैसे आकारों में
कि औरतों की लड़ी बन जाती है मानो
दुख के हाथों से बंधी एक-से चेहरों वाली
एक- सी देह से बनी
झाँकती है देह आँखों के पार !

अरे …देखो ! उड़ गई मधुक्खियाँ शहद छोड़
जीने की लड़ाई में मौत का हथियार लेकर

आँसू कुँआ हैं, भर जाता है तो
डूब जाती है आवाज़ तुम्हारी
सूखता है तो पाताल तक गहरा अंधेरा !

बहुत हुआ !
तुम फेंकते हो झटके-से बालटी डोरी से बंधी
भर लेते हो लबलबाता हुआ ,उलीचते हो
रह जाती हूँ भीतर फिर भी उससे ज़्यादा

उफ़ ! दिमाग है कि रात की सड़क सुनसान
जिन्हें कुफ्र है दिन में निकलना
वे दौड़ रहे हैं खयाल बेखटके

इंतज़ार रात का
इंतज़ार सुबह का

बहती है नींद अंतरिक्ष में, आवारा होकर
भटकती है शहरज़ाद प्यार के लिए
अनंत अंधेरों में करोड़ों सूर्यों के बीच
ठण्डे निर्वात में होगी एक धरती
हज़ारों कहानियों के पार !

एक अबबील उड़ी
दो अबाबील उड़ीं
तीन अबाबील उड़ीं
चार…
पाँच…
सारी
फुर्र !

पुर ते निकसीं रघुवीर वधू

बेमतलब -सी बात की तरह होती है सुबह
नीम के पेड़ पर कमबख्त कोयल बोलती ही जाती है
उसे कोई उम्मीद बची होगी

सारी दोपहरें आसमान पर जा चिपकी हैं आज, उनकी अकड़ !
एक शाम उतरती है पहाड़ से और बैठ जाती है पाँव लटका कर, ज़िद्दी बच्ची !
ढलने से पहले झाँकना चाहता है नदी में कहीं कोई सूरज
सिंदूरी रेखा खिंचती है
जैसे छठ पूजती स्त्रियों की भरी हुई मांग
पूरा डूबा है मन आज
आधी डूबी हैं मछलियाँ
मल्लाह पुकारता है – हे हो !
आज और गहरे जाएंगे पानी में …

यह लौटने का समय है
समय…प्रतीक्षाओं की लय …

झूठ बोलकर खेलने चले गए बच्चे पहाड़ी के पीछे
तितलियाँ साक्षी हैं उनके झूठ की
अभी साथ में करेंगे धप्पा और चांद को आना पड़ेगा बाहर मुँह लटकाये
ये देखो आज शिकारी छिपा है आसमान में , एक योगी भी है
छिप-छिप के रह-रह टिमकते तारे …चोर हैं चालीस
कहानियों की सिम-सिम …नींद का खज़ाना…लो…सो गए…

अब सब काम निबट गए
पाँव नंगे हैं मेरे
बच्चों ने छिपा दी होगी…
या रख दी होगी मैंने ही कहीं
मेरे नाप की कोई चप्पल नहीं है भैया ?
– आपको कुछ पसंद ही नहीं आता
ह्म्म…

सपनों के लिए बुलाया गया है आज मुझे कोर्ट…
अचानक लगता है खो गई हूँ
यहाँ वह पेड़ भी नहीं है बरगद का चबूतरे वाला
किसी हत्या के भी निशान नहीं हैं मिट्टी पर
चौकीदार कहता है –
पूजा करनी होगी आपको , गलत गेट से आ गई हैं आप, दूसरी तरफ है बरगद , सही-सलामत ।

एक प्रेम को भर देना चाहती थी आश्वासनों से ,मीलॉर्ड !
फुसफुसाता है कोई- झूठ !

शब्दकोश से मेरे गायब हो रहे हैं शब्द जजसाहब –
गड्ढे बन गए हैं जहाँ से उखड़े हैं वे…मैं गिरती हूँ रोज़ किसी गड्ढे में
फुसफुसाता है कोई- झूठ !

मैं धरती से बहिष्कृत थी…
कोई बोला- झूठ !

मैं कविता लिखती थी …मैंने लिखा था सब …ये देखिए
मेरी ही हस्तलिपि है…मेरी..
वह छीनते काग़ज़ उठ खड़ा हुआ है- झूठ !

मैं तब भी थी …अनाम…मैं भटक रही थी अँधेरी गुफाओं में
चलती रही हूँ रात-रात भर …दिन भर स्थिर …
बड़बड़ाती रही हूँ नींदों में …दिन भर  मौन …

मीलॉर्ड ! मुझे सुना नहीं गया मेरे क़ातिलों को सुनने से पहले
वह चिल्ला पड़ा है – चुप्प् प !!

आप पर अनुशासनहीनता का आरोप है
अदालत की तौहीन है …

होती हूँ नज़रबंद आज से …अपने शब्दों में …कानो में गूंजता है – झूठ है !
होती हूँ मिट्टी …हवा…आँसू …

मुझे उनके जागने से पहले पहुँचना है
चीखता है ऑटो वाला- हे हो !
मरने का इरादा है क्या !

डरती हूँ , डरता है मुझसे डर भी

सामने खाई है और मैं
खड़ी हूँ पहाड़ के सिरे पर
किसी ने कहा था
-‘शापित है रास्ता

पीछे मुड़ कर न देखना
अनसुनी करना पीपल की सरसराहट
किस दिशा को हैं
देखना पाँव उसके   जो रोती है अकेली इतना महीन
कि पिछली सदियों तक जाती है आवाज़
दर्द यह माइग्रेन नहीं है
उठा लाई हूँ इसे अंधेरे की पोटली में बाँध
वहीं से
बच्चों के चुभलाए टुकड़े  टूटे हुए वाक्य गीले बिछौने
सारे टोटके बांध लाई हूँ

सम्बोधन तलाशती हूँ
मुँह खोलते अँट जाती है खुरचन पात्र में
मेरे स्वामी
प्रभु मेरे !
मुट्ठी में फंसे मोर पंखों की झपाझप सर पर…

नहीं,खाई में कूदना ही होगा
तो मुड़ ही लूँ एक बार ?
नहीं दिखते दूर- दूर भी
पिता
माँ
बहन
साथी

देखती हूँ अपने ही पाँव उलटे !

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ISSN 2394-093X
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