सुनो आवारा लड़कियों और अन्य कविताएं

सीमा संगसार

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित. सम्प्रति: शिक्षिका, बेगुसाराय, बिहार. संपर्क:sangsar.seema777@gmail.com

1. सुनो आवारा लड़कियों

एफ एम रेडियो की
तेज धुन पर
मटकते हुए
मुँह में कलम दबाए
अखबारों के पन्ने पलटते हुए
आइडियाज समेट सकती हैं
अगले संपादकीय के लिए
एक आवारा लड़की —

नीली जींस की जेब में
अपने हाथ छुपाए
चम सकती हैं
थियेटरों में
नए नाटक के मंचन तक
बारिश में भींगती हुई
लौट सकती हैं अपने घर
बिना किसी छतरी के

‘ क’ से कविता के
क्या हो सकते हैं मायने
अच्छी तरह जानती हैं
ये आवारा लड़कियाँ —

सुनो आवारा लड़कियों
मोबाइल , अखबार
रेडियो और कविता
ये लक्षण सभ्य हैं या नहीं
यह अब तुम्हें तय करना है
{लड़के आवारा नहीं होते}

2. स्त्री देह

उनके पास भोगने के लिए
बस पीड़ा है !
जो उन्हें मिलती हैं
मास दर मास
प्रवाहित होने से
अथवा उसके स्थगन से

एक औरत जिन्दा रहती है
अपने गर्भाशय के साथ
वह जकड़ी जाती है
मासिक चक्र के बंधन में

वाजदा खान की पेंटिंग

सुनो !
तुम्हारी सारी काव्यात्मक गाथाएं
निरस्त हो जाती हैं
इस गहन पीड़ा में
नग्न देह पर
सभी रंग फीके पड़ जाते हैं
उनके इस लाल रंग से —–

3. जल में जीवन तलाशती मछलियाँ

जल में जीवन तलाशती मछलियाँ
जब दूर फेंक दी जाती हैं
किनारे पर
छटपटाते हैं प्राण उसके
जल के बिना

कुछ चीजें आदत होती हैं
जैसे की
साँसों को भरना
और बुलबुले की तरह छोड़ना

स्त्रियाँ भी बैचेन होती हैं
जब उन्हें बंद कर दिया जाता है
किसी एक्वेरियम में
रंग बिरंगी मछलियों के साथ

ड्राइंग रूम में
अतिथियों के स्वागत में
प्रतीक्षारत स्त्रियाँ
कैद हैं डिनके नसीब
सुरक्षित आवरण में

मछलियों को गर छोड़ दिया जाए
पुनः बहते नीर में
जीवित हो उठेंगी उनके सपने
खुली आंखों से
खुले आसमान के नीचे
साँस लेने की —

आदतें जो बचपन से है संस्कार में
उसे तोड़ कर जी लेने की —-

4.  कठपुतली

मेरी जिन्दगी की
सिराओं को पकड़ कर
खींच रहा है कोई
और / मैं बेवश
खिंची चली जाती हूँ

लोग ताली बजाते हैं
हँसते हैं
मेरी इन कलाबाजियों को देखकर
उन्हें मैं एक
तमाशा से अधिक
कुछ नहीं दिखती

मेरे हिलते डुलते शरीर
और/ चेहरे की भाव भंगिमाएँ
सब कुछ उस पर निर्भर है
जो नियंत्रित कर रहा है मुझे

मैं तो जिन्दा हूँ
मेरी रूह मर गई है
लोग कहते हैं
मैं कठपुतली हूँ

{रात ख्वाब में देखा था कठपुतली की रूह को कहीं दूर जाते हुए)

 वाजदा खान की पेंटिंग

5.   वो चार दिन

बचपन की जमीन पर
अट्ठा गोटी खेलती लड़कियाँ
अनजान होती  हैं
उन चार दिनों की
मानसिक यंत्रणाओं से

जब उसे अछूत मान लिया जाएगा
सच है
सवर्ण होते हैं पुरुष
और / नारी
सदियों से दलित हैं —–

6.  बंद दरवाजे खुली खिड़कियाँ

कुंडियां लगा दी जाती हैं
बंद दरवाजों में
उनके बाहर निकलने के
सारे रास्ते
बंद हो जाते हैं
फिर आहिस्ते से
खोलती हैं वह
अपने दिमाग की खिड़कियाँ
जब वह भोग रही होती हैं
एकांत को —

विचारों की कई लड़ियां
मछलियों की तरह
फिसलती जाती हैं
और / वह लगा रही होती हैं
गोता उनके साथ
बहते पानी में

दरवाजे बंद हों तो क्या?
खुली खिड़कियों से
ताजी हवा के झोंके
अंदर आ ही जाते हैं