यौन हमलावारों से सख्ती से निपटें पीड़िताएं, तभी रुकेंगी बैंगलोर जैसी घटनाएं

तारा शंकर

Crime against women in Delhi विषय  पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से 2016 में पीएचडी
वर्तमान में कमला नेहरु कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर अध्यापन . संपर्क :tarashanker11@gmail.com

समाज में सेक्सिस्ट व्यवहार किस कदर हावी  है, इसका एक बड़ा उदाहरण है बैंगलोर की घटना. दुखद यह है कि पुलिस कह रही है कि इस मसले पर उससे किसी ने शिकायत नहीं की है. ऐसा इसलिए होता है कि पीडिताएं उलटा अपनी ही तथाकथित बदनामी के डर से अपने खिलाफ हुए यौन दुर्व्यवहार को छिपाती हैं. अपने खिलाफ हुए  दुर्व्यवहार को सार्वजनिक किये जाने को जरूरी बता रहे हैं ‘दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ’ अपराध विषय पर पी एचडी करने चुके  तारा शंकर 


अक्सर  ऐसा होता है कि बहुत सारी महिलायें छेड़खानी, लैंगिक शोषण अथवा बलात्कार के बारे में अपनी आपबीती घटना के बहुत समय बाद कह पाने की हिम्मत कर पाती हैं. कुछ महिलायें अपनी आपबीती दोस्तों से सालों बाद शेयर करती हैं. इसलिए नहीं कि उनके मन में बदला लेने का भाव है या अब वो उसपर कोई कानूनी एक्शन लेना चाहती हैं बल्कि शायद इसलिए कि उनके अंदर का बोझ, गुस्सा और उस घटना के समय तत्काल कुछ न कर पाने का मलाल कुछ कम हो सके. अधिकांश महिलायें अपराधबोध, शर्मिंदगी, बेइज्ज़ती, और इस मलाल के साथ महीनों, वर्षों चुप रहती हैं कि घटना के समय वो कुछ बोल क्यों नहीं सकीं, विरोध क्यों नहीं जता सकीं. उनमें से तमाम ये कहती हैं कि उनके साथ जब छेड़खानी हुई तो जब तक वे  कुछ समझ पातीं, तब तक प्रतिक्रिया का समय निकल गया और अपना विरोध नहीं जता सकीं या उसको दो थप्पड़ नहीं लगा सकीं. इसलिए आज भी कहीं न कहीं ऐसा न कर पाने का मलाल और अपराधबोध उनके मन के किसी कोने में रहता है. शायद ये आपबीती शेयर करके वे इसी मलाल व अपराधबोध वाले गुस्से और दुःख के मिश्रण को कुछ कम करना चाहती हैं. कुछ महिला दोस्त समझना चाहती हैं कि ऐसा क्या था जिसने उन्हें तुरंत प्रतिक्रिया देने से रोक दिया. और अगर ऐसा कुछ आइन्दा उनके साथ होता है तो क्या करना चाहिये. बचपन से लेकर अब तक ऐसी तमाम हरकतों-लैंगिक हिंसाओं के कारण मन में जब तब उठने वाले अपराधबोध और मलाल का क्या किया जाय.
ऐसी किसी घटना को समझने, उस परिस्थिति में होने और उस पर प्रतिक्रिया करने को लेकर कुछ बातें ध्यान में रखनी ज़रूरी हैं:

पहली  तो ये कि आपके साथ जो हो चुका है उसपे पछताने, अपराधबोध के बोझ से दबा हुआ महसूस करने, बेइज्ज़ती महसूस करने अथवा शर्मिंदा होने की कतई  ज़रुरत नहीं क्योंकि ग़लत आपने नहीं किया, बल्कि ग़लत आपके साथ हुआ है. इसलिए दूसरों द्वारा की गयी ग़लतियों की सज़ा ख़ुद को बिल्कुल न दें. ये सब उसके लिए छोड़ दो जिसने,  आपके साथ ऐसा किया है.

दूसरी , ये बात जितनी जल्दी समझ लें उतना ही बेहतर होगा कि कि समाज ने आपकी देह की कीमत तय कर रखी है, आपकी वैल्यू उन्होंने परिवार-जात-बिरादर-समाज की इज्ज़त से बाँध रखी है, आपकी स्वतंत्र पहचान को उन्होंने आपकी देह से अटैच कर रखा है. इसलिए ऐसी किसी घटना पर अगर आप शर्मिंदगी, अपराधबोध अथवा बेइज्ज़त महसूस कर रही हैं तो आप उन्हीं को सही साबित कर रही हैं. इसीलिए समाज ऐसी किसी घटना पर अक्सर ऐसे बकवास करता है कि ‘उसकी तो इज्ज़त ही लूट गयी’, ‘वो जिंदा लाश बन कर रह गयी है’, ‘अब वो जीकर क्या करेगी’, ‘कौन करेगा उससे शादी’, ‘कैसे मुँह उठाकर जी पायेगी वो बेचारी’… इत्यादि. और जब आप इसे अपने ऊपर अप्लाई भी कर लेती हैं. क्यों भला? तो पहले इन बेमतलब की बातों को अपने ऊपर लेना ही बंद कीजिये, इनको बेअसर कीजिये. और छेड़खानी, लैंगिक शोषण या बलात्कार के बाद पहले से अधिक ऊँचा सर करके चलें, लोगों से नज़रें मिलाकर चलें, सीना तान के चलें, सफ़ाई नहीं देनी है क्योंकि आप इसके लिए उत्तरदायी नहीं हैं, क्योंकि ग़लती आपने नहीं किसी और ने की है. बेचारी-बेचारा इस समाज की सोच है, तुम नहीं. इस फ़र्ज़ी ‘इज्ज़त’ के बोझ को उतार फेंकिये. अगर तुम जिंदा हो, ख़ुश हो, बेख़ौफ़ हो तो इज्ज़त-पिज्ज़त की किसे परवाह, वो आती रहेगी-जाती रहेगी.

तीसरी, आप छेड़खानी होते समय विरोध क्यों नहीं जता सकी इसका का भी उत्तर  सोशल कंडीशनिंग में छिपा है. उस वक़्त आप  शर्म, डर, ‘बेइज्ज़ती’, विरोध करने के बाद कोई साथ नहीं खड़ा हुआ  वाली सोच, मैं ख़ुद को सही साबित न कर पायी तो टाइप की कई सोच के एक साथ दिमाग़ में चलने के कारण विरोध नहीं कर सकीं. तो अब? कोई बात नहीं. आइंदा के लिए सतर्क हो जाओ. छेड़खानी अक्सर भीड़ में होती है, इसलिए वहीं कूट दो, हल्ला मचाना शुरू कर दो, आपकी तेज़ आवाज़ सामने वाली के लिए सबसे बड़ा चैलेंज होगा, पूरा बवाल काट दो वहीं लेकिन शर्मिंदगी, बेइज्ज़ती के डर से चुप मत रहना क्योंकि विरोध करोगी तो भीड़ में बहुत सारे अच्छे लोग भी होते हैं जो तुम्हारे साथ खड़े हो जायेंगे और कुछ तो अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए ही सही, तुम्हारे पक्ष में झट खड़े हो जायेंगे.

चौथी, छेड़खानी या बलात्कार जैसी किसी आपबीती के बाद आपको अगर कुछ महसूस ही करना है तो वो है गुस्सा. गुस्सा ऐसे लोगों को संबल देने वाली, पैदा करने वाली सामाजिक संरचना पर, मानसिकता पर. और फिर इस गुस्से को चैनलाइज़ करना है कि भविष्य में ऐसा कुछ होने पर चुप नहीं रहना है, किसी अन्य लड़की के साथ ऐसा न हो इसके लिए प्रयास करने की.

पाँचवी, कई बार होता है कि ऑफेंडर आपसे शारीरिक रूप से, सामाजिक अथवा पेशे की हैसियत से मजबूत है और आप तुरंत प्रतिक्रिया नहीं कर सकीं या सच कहो तो डर गयीं. तो भी कोई बात नहीं, बाद में ही सही हिम्मत जुटाओ और पुलिस में जाओ, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक को लिख डालो, ट्वीट कर दो, सोशल मीडिया पर खुलकर अपनी बात कहो, न्यूज़ मीडिया सब जगह बवाल मचा दो लेकिन छोड़ो मत. घर वाले साथ न दें तो अकेले ही भिड़ जाओ लेकिन जिंदा लाश, इज्ज़त लुटी, शर्मिंदगी की मारी बेबस लड़की बनकर अपराधबोध मत ढोना.

छठी, अक्सर ऐसे लोग जान-पहचान के होते हैं अथवा रिश्तेदार या फैमिली वाले होते हैं (जैसे नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो, इंडिया 2013 के मुताबिक़ बलात्कार के लगभग 86% ऐसे ममलों में जान-पहचान के लोग शामिल होते हैं). ऐसे में तो और भी ज़ोर से बोलो. क्योंकि ऐसे मामलों में मानसिक-मनोवैज्ञानिक शोषण सर्वाधिक होता है. ख़ुद के अंदर का एस्टीम, ख़ुद्दारी मरने मत दो. सिर्फ़ अपने बारे में नहीं बल्कि अपने जैसी लाखों लड़कियों के बारे में सोचो. बोलोगी तभी तुम्हारे साथ माँ-बाप अथवा कोई भी खड़ा होगा वरना सब तुम्हें ही चुप रहने की सलाह देते रहेंगे. ऐसे कई मामले सुनने में आते रहते हैं कि लैंगिक शोषण करने वाला सौतेला या सगा भाई होता है, बाप, मामा-चाचा इत्यादि नज़दीकी लोग होते हैं! अक्सर ऐसी चीजें बचपन से शुरू हो जाती हैं. और कई बार तो आपको पता तक नहीं होता कि आपके साथ क्या हो रहा है और जब एहसास होता है तब तक ये सब बंद हो चुका होता है लेकिन पिछली हरकतें याद करके आप अंदर ही अंदर गुस्से-अपमान-रिश्ते की आड़ में शोषित किये जाने से टूटती रहती हैं. ये बात आपको रह-रहकर परेशान करता रहता है. कुछ के साथ तो ये बहुत बाद तक होता रहता है. बोलने पर अक्सर घर वाले ही मामले को दबा देना चाहते हैं, आपको मुँह बंद रखने की सलाह देते हैं और कई बार आपकी बात पर किसी को यकीन ही नहीं होता. आप प्रायः ऐसे लोगों से उम्र में बहुत छोटे होते हो तो कई तरह का भय आपको चुप रहने पर मजबूर करता रहता है लेकिन ये बेबसी आपको खाये जाती है. ऐसे में सलाह ये है कि आप पुरज़ोर तरीक़े से इसका विरोध करें, अपना मुँह खोलें. वो रिश्ता ही क्यों बचाना जो शोषण कर रहा हो? उस घर को ही क्यों बचाना जो शोषण पर आपका साथ नहीं दे रहा है? बेइज़्ज़ती के डर से ख़ुद को अंदर से क्यों खत्म करना? मुँह खोलने पर ख़ुद सही साबित न कर पाने का डर हो तो सबूत इकठ्ठा करके मुँह खोलो. क़ानूनी सलाह का सहारा लें. किसी भरोसेमंद दोस्त को या जिस पर भी आपको पक्का यकीन हो ये बाते शेयर करें. और कोई भी साथ न दे तो अकेले लड़ो, सबसे लद जाओ. रिश्तों के नाम पर इमोशनली कमज़ोर नहीं होना है क्योंकि जब आप ही बचोगे तो रिश्ते-घर-परिवार इज्ज़त क्या बचेंगे. अपने शोषण की शर्त पर किसी रिश्ते को बचाना मूर्खता है. ख़ुद को बचाने के लिए अटूट हिम्मत से आवाज़ उठाओ. सोशल मीडिया का ज़माना है, बात बहुत जल्दी फैलती है, उसको हथियार बनाओ. बहुत लोग हैं जो तुम्हारे साथ खड़े मिलेंगे!

सातवीं, छेड़खानी, सेक्सुअल हरैस्मेंट, बलात्कार इत्यादि से सम्बंधित अद्यतन (लेटेस्ट) कानूनी प्रावधानों व प्रक्रियाओं की जानकारी रखें. मतलब ये कि क्या-क्या हरकतें सेक्सुअल हरैस्मेंट अथवा छेड़खानी की परिभाषा में आती हैं, किन-किन हरकतों के कितनी सज़ा-जेल (ज़मानती अथवा ग़ैर-ज़मानती) का प्रावधान है. पुलिस अथवा अन्य किसी सरकारी-ग़ैर सरकारी संस्था में शिकायत कैसे दर्ज़ करायी जा सकती है..इत्यादि. जैसे निर्भया गैंग रेप के बाद 2013 में बने एक्ट में छेड़खानी, सेक्सुअल हरैस्मेंट, बलात्कार से सम्बंधित बहुत सारे बदलाव लाये गए हैं. यकीन मानिये इससे आपको बहुत मानसिक हिम्मत मिलती है.

आठवीं, आपको अपनी दैहिक भाषा (बॉडी लैंग्वेज) एकदम निडर रखना चाहिए. छेड़खानी करने वाले, सेक्सुअल एडवांस दिखाने वालों की आधी हिम्मत आपकी बॉडी लैंग्वेज से ही परास्त हो जाती है. नज़रें झुकायें नहीं, शर्मायें और आपके शरीर में ऐसा कुछ नहीं जिसको आप हमेशा ढँकने की जुगत में चिंतित दिखें.
अंतिम बात, ये कि समाज हमेशा से तुम्हारे शरीर से ‘इज्ज़त’ या एक खास ‘पहचान’ जोड़कर उसकी ‘कीमत’ तय करता है! आपकी उम्र, आपकी लंबाई, किसी अंग विशेष के आकार-आकृति-स्वरुप, आपके रंग, आपकी वैवाहिक स्थिति, आपकी जाति-धर्म अथवा आर्थिक हैसियत के आधार पर आपकी कीमत तय करता है. और इसी ‘कीमत’ के आधार पर समाज आपकी सेक्सुअलिटी, कहीं आना-जाना (मोबिलिटी), शादी, प्रेम, आपके कार्यों इत्यादि को कण्ट्रोल करता है और मौका मिलते ही कैश भी करता है. इसी कीमत को ये समाज छेड़खानी हो जाने, लैंगिक शोषण या बलात्कार होने की स्थिति में ‘लुट’ जाना कहती है यानि कीमत को कोई और चुरा ले गया और आपकी वैल्यू थोड़ी कम हो गयी. और जब तब आप भी ऐसा मानती रहेंगी, तब तक आप इसी समाज को सही ठहरा रही होंगी. और तब तक आपको अपराधबोध भी होता रहेगा, शर्मिदगी भी होती रहेगी, आपको कभी-कभी आत्महंता सोच भी आएगी, पहचान का संकट आयेगा. इसी ‘कीमत’ को, फ़र्ज़ी ‘इज्ज़त’ को सबसे पहले दिमाग़ से निकालो. आपका स्वतंत्र अस्तित्व, आपकी आज़ादी इसका मोहताज़ नहीं. आपकी पहचान आपकी देह, आपकी जाति-धर्म, घर-परिवार-रिश्तों, उम्र, रंग से नहीं होनी चाहिए.आपका अस्तित्व इनमें से किसी के बदौलत नहीं है.

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ISSN 2394-093X
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