बोलिए न पापा कुछ तो बोलिए

पूनम सिंह

कथाकार , कवि और आलोचक पूनम सिंह की कहानी , कविता और आलोचाना की कई किताबें प्रकाशित हैं . सम्पर्क : मो॰ 9431281949

विकास ने जितना कहा था उससे कहीं अधिक अनकहा अपने भीतर लेकर चला गया था और उसके जाने के बाद से उसके शब्दों के बुटधारी पाँव मेरे कलेजे को रौंद रहे थे ।
‘वह क्या था’ उसकी आँखों में जो नश्तर की तरह मुझे चीरता मेरे कलेजे तक उतर गया था । कैसा था उस वक्त उसका चेहरा – आग की भट्टी में दहकते लोहे की तरह।
और मैं ? मैं किस तरह ओदी लकड़ी सी धुआँने लगी थी उसके सामने । मुझे रिएक्ट करना चाहिए था और मैं उसका मनुहार करने लगी थी – ‘प्लीज विकास —– प्लीज —- माँ बगल के कमरे में है  – अच्छा नहीं लगेगा तुम्हारा ऐसा विहेव । वह नहीं आना चाहती थी यहाँ – मैंने ही उसे आग्रह करके बुलाया था क्योंकि तुम बाहर टूर पर गये हुए थे और मैं माँ के साथ दो दिन बिताना चाहती थी । यह घर मेरा भी है विकास – क्या इतना भी हक नहीं बनता मुझे — ?’

वह पराठे का तोड़ा हुआ कौर मसल कर उठ गया था – ‘हक है तुम्हारा तो सराय बना दो ना घर को – माँ के साथ अपने सौतेले बाप को भी बुला लो  – मैं ही चला जाता हूँ इस घर से ।’
घूसे की तरह लगा था यह शब्द मुझे । सौतेला बाप ? छिः ।
माँ और सोम अंकल के रिश्ते को कितना घिनौना रूप दे गया था विकास । इतनी घृणित बात कह गया था और मैं चुप होकर सह गई । क्यों ? आखिर क्यों ?
भीतर से इतनी तेज रूलाई फूटी कि मैं दौड़ती हुई बाथरूम में घुस गई और नल खोलकर दहाड़ मार कर रो पड़ी । खूब रोई – जी भर कर रोई और शांत होकर जब बाहर निकली तो माँ अटैची थामे बाहर खड़ी थी ।
माँ ? अनकहे प्रश्न के आगे सबकुछ निरूत्तर था ।
माँ ने एक शब्द नहीं कहा । बस मेरे सिर पर अपना हाथ रखा और माथे पर एक भींगा चुम्बन  अंकित करके तेजी से बाहर निकल गई ।
मेरे पाँव पत्थर के हो गये थे । खिड़की के शीशे से दिखाई दिया – माँ गेट के बाहर सड़क पर  टैक्सी को हाथ देकर रोक रही थी । पल भर में वह अंदर समा गई और मेरी आँखों से ओझल हो गई । मेरे कलेजे में एक मरोड़ सी उठी और मैं फूट-फूट कर रो पड़ी ।

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साठ साल की माँ की जिंदगी आज सबके लिए एक कहानी बन गई है । अपने पराये सब की जुबान पर निंदा रस का एक स्वाद बनकर माँ जिस रूप में परिभाषित हो रही है वह मुझे भीतर तक हिला कर रख देता है । जितनी मुँह उतनी बातें —
कुछ दिन पहले छोटी बुआ ने भी फोन पर कहा था – ‘यह सब क्या सुन रही हूँ सुरभि ? सरला भाभी को हो क्या गया है ? इस बुढ़ापे में गैर मर्द के पीछे अपना सबकुछ होम कर रही हैं ।’
गैर मर्द ?
मुझे तमाचे की तरह लगा था वह शब्द और मैं रिएक्ट कर गई थी – ‘सोमनाथ अंकल गैर मर्द नहीं हैं बुआ । वे पापा के सबसे कठिन और गाढ़े वक्त के साथी हैं । हमारे परिवार के लिए उन्होंने जितना किया – कोई सगा सोच भी नहीं सकता । उन्होंने भरी जवानी में पापा के लिए अपनी किडनी तक दान दिया  – इतना बड़ा एहसान क्या कोई गैर करता है बुआ ?’

वह सब तो ठीक है लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आकर सरला भाभी का उनके साथ इस तरह खुलेआम रहना , कलकत्ता , भोपाल और न जाने कहाँ-कहाँ चित्रों की प्रदर्शनी लगाने जाना – यह सब देखने वालों को अच्छा नहीं लगता सुरभि – लोग बहुत कुछ कहते हैं ।
‘कहने वालों को कोई नहीं रोक सकता बुआ । लोग तो आकाश के चाँद में भी धब्बा देखते हैं । कहने दीजिए उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता इससे ।’
‘लेकिन सुरभि !इससे परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच तो आती है न !  भैया के काल कलवित होते ही  भाभी जिस तरह का जीवन जीने लगी हैं वह डूब मरने जैसा है हम सब के लिए । तुम्हें क्या कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा सुरभि ?

उनकी आवाज की तिक्तता ने मुझे दहला दिया था । कुछ पल मैं सकते में रही लेकिन फिर चुप नहीं रह सकी – ‘माँ की कला अगर उसे अपनी एक अलग पहचान दे रही है तो यह हम सब के लिए डूब मरने की बात क्यों है बुआ ? इससे परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ने की जगह ध्वस्त कैसे हो रही है ?’
‘लगता है तेरी भी मति माँ की तरह मारी गई है । कुछ भी कहना व्यर्थ है तुझसे ।’
उन्होंने गुस्से में फोन काट दिया था ।

मुझे याद नहीं उस दिन कितनी देर तक मैं सवालों के जंगल में भटकती रही । माँ के चेहरे पर लांछना की काली स्याही पोतने पर क्यों तुले हैं सब लोग । माँ ने ऐसा क्या कर दिया है ? क्या पापा के बाद उसे रंग रोशनी से विमुख हो जाना था ? उस कला का गला घोंट देना था जहाँ से जिन्दगी जीने की शक्ति और उर्जा हासिल की है उसने ।माँ अगर घुट-घुट कर जीती तो शायद सबकी सहानुभूति उसके साथ होती । लेकिन माँ ने जिन्दगी की बेरहमी के सामने कभी घुटने नहीं टेके । शूलबिद्ध पंजरों से भी हमेशा तन कर ही खड़ी हुई – उसका इस कदर तन कर चलना ही आज सबकी आँखों में शोले भड़काता है । कहने वालों के कहन में माँ वर्जना की सारी दीवारों को लांघ गई है । वह उम्र के अंतिम पड़ाव पर एक गैर मर्द के साथ रह रही है – वह दुराचारिणी है – वह पतिता  है –कुलटा है — ? उफ ! —

प्रश्नाकुल उद्विग्नता और छटपटाहट लिए मैं पूरे घर में घूम रही हूँ । बार बार विकास का कहा ‘सौतेला बाप’ और बुआ का कहा ‘गैर मर्द’ मेरे कलेजे में बरछी की तरह चुभ रहा था । भीतर बहुत कुछ दरक गया था । आँखों के अश्क में रिश्तों के चेहरे बदल गये थे – संबंधों का ताप कहीं चुक गया था ।
अपने से दस साल बड़ी जिस बुआ से मेरा बहनपा सा रिश्ता रहा – सबकुछ शेयर करती रही जिससे – वही बुआ माँ के लिए कैसी ओछी सोच रखती हैं ? माँ के किए सारे एहसानों को भूलकर आज उन्हें पतिता और कुलटा कह रही हैं ।
आप कैसे सब भूल गईं बुआ ? ब्याह के बाद पतिगृह में रहते हुए आप जिस तरह हर रात रखेलिन सौत की सेज सजाती घुट-घुट कर जी रही थीं – मुँह पर ताला जड़ कर दो कुलों की लाज निभा रही थीं – उस ताले को खोलने का काम माँ ने ही तो किया था न बुआ । माँ का संबल पा कर ही आप आत्मदाह के नरक कुंड से निकल कर मुखर हुई थीं अपने अधिकार , अपने सम्मान के लिए ।
आज सबकुछ है आपके पास लेकिन जिसकी बदौलत , उसी को बिना पुतलियों की आँख से देखती हुई कुलनाशिनी कह रही हैं आप ? क्यों बुआ क्यों ?
और विकास ! आज उसने भी मर्यादा की सारी हदें लांघ कर माँ को इसी रूप में परिभाषित किया है । लेकिन क्या दृश्यमान यथार्थ के भीतर की सच्चाई यही है ?  माँ क्या सचमुच दुराचारिणी है – पतिता  है कुलटा है ?

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डबडब आँखें दीवार पर टंगी पापा की तस्वीर से चिपक जाती है – हमेशा हँसता हुआ वही नुरानी चेहरा । कैनवाॅस पर तैल रंग में उकेरी गई यह तस्वीर माँ की बनाई हुई है । कैनवास पर मोटे तैल रंगों का लेप लगाकर झीनी पारदर्शी छोटे-छोटे स्ट्रोक्स से माँ ने कितनी एकाग्रता से बनाई होगी यह तस्वीर , तभी तो उसकी आत्मा की गहराई से निकली राग भरी रोशनी से दीपित पापा का चेहरा आज भी जगमग कर रहा है इसमें —
‘वाऊ! ग्रेट सरप्राइज , आई एम प्राउड आॅफ माई लव’ अपनी चालीसवीं सालगिरह पर माँ के द्वारा दिये गये इस प्रेम उपहार को देखकर पापा ने किस तरह भावविभोर होकर अपनी बाँहों में माँ को भर लिया था ।
माँ पापा के बीच प्रेम के इस अटूट बंधन को मैंने बचपन से देखा – आज कैसे मान लूँ कि माँ उस
बंधन से सर्वथा मुक्त होकर उन्मुक्त जीवन जी रही है —– ?
माँ पापा के जीवन में प्रेम और संघर्ष के इतने गाढ़े रंग मैंने देखे हैं कि मेरा दाम्पत्य मुझे हमेशा फीका और बेरंग दिखता है । एक हठी और दंभी पुरूष के साथ ग्यारह वर्षों से संतुलन साध कर चल रही हूँ मैं । ऐसा नहीं कि मन में कभी विद्रोह आता ही नहीं – खूब आता है – लेकिन माँ पापा के दाम्पत्य का वही गाढ़ा रंग मेरे मन पर ऐसा काबिज है कि कोई क्रांति मन में घटित ही नहीं होती । वह प्रेम जो मुझे विपरीत समय में पतवार की तरह थामता है , उसे मैं मिथ्या कैसे मान लूँ ?

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पापा ! आप तो आर पार सबकुछ देख रहे हैं – कुछ तो बोलिए । माँ की खुद्दारी उसकी आवारगी कही जा रही है  और कहने वाले सभी अपने ही लोग हैं , जिनके बारे में आपने बहुत दुःख के साथ अपनी बीमारी के कठिन दिनों में मुझसे कहा था – ‘संबंधों की अर्थहीनता को कैसे झेला सहा और साधा जाता है , तुम्हारी माँ उसकी मिसाल है सुरभि । खुदगर्ज रिश्तों से भी वह कभी आहत नहीं होती , न उनके प्रति कभी आँखें फेरती है । मैं यहाँ इस बिछावन पर ही पड़े पड़े देखता हूँ – अपने लोगों ने कितनी बार कितने तरह से छला है उसे । मेरी बीमारी में पानी की तरह पैसा बह गया । तुम्हारे ताऊजी ने कुछ रूपयों की मदद के बदले गाँव में मेरे हिस्से की सारी जमीन अपने नाम करवा ली । सरला ने मुझे बताया तक नहीं । शूलबिद्ध पंजरों से भी वह हमेशा तन कर ही खड़ी रही ।’

पापा का कंठ अवरूद्ध हो गया था – आँखों के कोर में ओस की बूँदें झलमलाने लगी थीं । उन्होंने लंबी सांस खींचकर फिर कहा – बस एक ही दुःख मुझे भीतर तक साल रहा है बेटा कि मैं तेरी माँ के लिए कुछ नहीं कर सका । भाई भतीजा घर परिवार नाते रिश्ते सब के लिए सबकुछ किया पर जिसने तिल तिल कर मेरे लिए अपनी जिन्दगी होम की , उसके लिए कुछ नहीं किया । उसकी कला को कोई पहचान नहीं दिला सका । लखनऊ आर्ट काॅलेज से लैंडस्केप में पोस्ट डिप्लोमा और वाटर कलर में विशेषज्ञता हासिल करने वाली तेरी माँ जीवन भर नारायणी प्रेस की किताबों का कवर पृष्ठ बनाकर अपने स्वत्व की खोज करती रही और मैं उसकी कला से बेखबर , अपनी अकादमी सफलता का जश्न मनाता देश विदेश की सैर करता रहा ।  रूढ़की विश्वविद्यालय के वास्तु कला विभाग का हेड एवं मुंबई के जहांगीर आर्ट गैलरी का चेयरमैन होकर भी उसकी पेंटिंग्स की एक भी प्रदर्शनी नहीं लगवा सका । आज जब मैं असक्त होकर बिछावन पर पड़ा हूँ तब अपने चारो ओर रंगों के कोलाॅज को क्षत बिक्षत देखकर छटपटा रहा हूँ । मैंने तेरी माँ की अकूत संभावनाओं को किस तरह नष्ट कर दिया सुरभि —- ।’
पापा फफक कर रो पड़े थे ।
माँ को कितनी दूर तक समझते थे पापा — । पापा के सिवा किसने समझा माँ को ?
पापा ! अगर आज आप इस तस्वीर से बाहर आकर खड़े हो जाते तो मुझे कितना बल मिलता । मैं माँ और सोमनाथ अंकल के रिश्ते को इस रूप में परिभाषित होते नहीं देख सकती पापा । सोम अंकल ने आपकी जान बचाने के लिए खुशी खुशी अपनी किडनी डोनेट की और माँ को बचाने के लिए उसकी कला को संरक्षण दिया । यह कोई गुनाह नहीं – यह तो उदात्त प्रेम की प्रकाष्ठा है ।

आपने ही बताया था सोम अंकल माँ के साथ लखनऊ आर्ट काॅलेज में ही पढ़ते थे । आपकी पहली नियुक्ति लेक्चरर के रूप में उसी काॅलेज में हुई थी । फिर माँ के अप्रतिम सौंदर्य से बंधकर आपने उससे ब्याह रचाया और रूढ़की विश्वविद्यालय में वास्तु कला के हेड होकर चले गये । आपके जीवन का यह पारदर्शी वृतांत माँ के विडम्बनाग्रस्त जीवन के उन सभी सवालों का सहज उत्तर है लेकिन इसे समझेगा कौन ? अपने लोग तो इन सवालों  की ओर पीठ करके खड़े हैं पापा ।

लेकिन मेरी चेतना उस सत्य की अनदेखी नहीं कर सकती – वह दारूण क्षण अब भी मेरी स्मृति में वैसा ही जड़ा है । पर्दे के पीछे खड़ी आपकी उस आवाज को मैं अब भी सुन रही हूँ पापा – ‘जिन्दगी बहुत छोटी होती है सोम लेकिन कला बहुत बड़ी । उसे साधने में कई जिन्दगियाँ चुक जाती हैं । सरला से मैंने प्रेम किया लेकिन उसकी कला को अपना जीवन नहीं दे सका । उसे पा लेने के बाद बहुत कुछ पा लेने की आकांक्षा बलवती होती गई और वह छूटती गई । उसने जीवन भर मेरे साथ कठिन दायित्वभार का निर्वाह किया –  अपनी क्षमताओं और संभावनाओं से सर्वथा विरत होकर सिर्फ मेरे लिए सोचा – लेकिन मैंने उसके लिए क्या किया ? जिसकी पेंटिंग को आर्ट काॅलेज में ‘गोल्ड मेडल’ मिला – उसकी कलात्मक हसरत मेरे एक भरोसे के लिए तरसती रह गई —-।’ सोम अंकल की हथेलियों को अपनी मुट्ठी में कस कर आप फूट फूट कर रो पड़े थे ।
‘सोम !तुम ही मेरी सरला के लिए भरोसे का वह संबल बन सकते हो । मुझे वचन दो – तुम उसकी कला को मरने नहीं दोगे ।’
शब्दों की लय टूट कर फिजाओं में बिखर गई थी ।
पापा !आपने अपनी टूटती हुुई सांसों की डोर से सोम अंकल और माँ की कला का गठबंधन किया था – मैं गवाह हूँ उस पल की लेकिन किससे कहूँ यह सब ?

आपके लिए माँ के अथाह प्रेम और समर्पण को मैंने बचपन से देखा है । आज भी माँ आपकी पथराई आँखों में टंगे उस सपने को ही पूरा करने के लिए सबकी आलोचना की पात्र बनी हुई है । लेकिन नम आँखों से भी वह उजली हँसी हँसती हुई कभी आहत नहीं दिखती । आपके जाने के वर्ष भर बाद पहली बार जब शिमला फाईन आर्ट सोसाईटी द्वारा आयोजित प्रदर्शनी में माँ की पेंटिंग्स को सर्वश्रेष्ठ सम्मान से नवाजा गया और उसकी पेंटिंग्स के लिए कई कला प्रेमी आगे बढ़ कर लाखों की बोली लगाये थे तो माँ ने सोम अंकल को साफ मना करते हुए कहा था – ‘अनूप की बीमारी में उसके सिरहाने बैठ कर असंख्य जागती रातों का दर्द पिरोया है इसमें – उस दर्द का सौदा मैं कैसे कर सकती हूँ सोम ?’ और माँ ने मेरे सामने ही फोन काट दिया था ।

आपके जाने के बाद ही यह बात भी मैंने जानी कि माँ आपकी बीमारी में अपने घर को बैंक से माॅरगेज करा कर उन पैसों से आपका ईलाज करा रही थी । इतने बड़े दुःसाहसी फैसले के बारे में उसने किसी से नहीं बताया था । जिन दिनों आप डायलेसिस पर थे और अस्पताल में पैसा पानी की तरह बह रहा था – मैंने माँ से विह्वल होकर पूछा था – ‘कैसे कर रही हो यह सब ? भैया की पढ़ाई और मेरी शादी में तो पापा ने पी॰ एफ॰ तक से सारा पैसा निकाल लिया था । घर परिवार और हमारे निर्माण में जीवन भर की कमाई लुटा दी उन्होंने और अब उनकी बीमारी में इतना खर्च ? माँ मैं विकास से कुछ मदद के लिए कहूँ ?’

मेरी नम आँखों को देख कर माँ ने मुझे कलेजे से लगा कर कहा था – ‘पगली , दामाद के सामने माँ बाप को याचक बनायेगी ? तू चिंता न कर , ऊपर वाला है न —- ’
नहीं माँ ! मैं शिवम भैया से  आज ही बात करूँगी ं।
माँ ने मुझे बहुत मजबूत आवाज में मना किया था – ‘नहीं सुरभि ऐसा हरगिज मत करना । तू जानती है विदेश में पीएच॰ डी॰ की पढ़ाई करने में कितना खर्च होता है । इन दिनों उसे जूली सपोर्ट कर रही है । नौकरी छोड़ कर पढ़ाई करते हुए बेटे के ऊपर इतना बड़ा बोझ देना मुनासिब  नहीं । रूपयों का बंदोबस्त हो जायेगा बेटा – बस डोनर मिल जाये – ईश्वर से यही प्रार्थना कर ।
होंठों पर हँसी और आँखों में पानी – माँ का चेहरा उस क्षण ओस में नहाये गुलाब की तरह आपके के सिरहाने जड़ा था ।

और फिर डोनर के रूप में अप्रत्याशित रूप से देवदूत की तरह अवतरित हुए थे सोमनाथ अंकल । माँ के सुहाग को बचाने की खातिर उन्होंने खुशी खशी अपना अंग डोनेट किया । लेकिन हमारा दुर्भाग्य था आप फिर भी हमारे बीच नहीं रहे । आप चले गये – बहुत बड़ा कवच टूट गया माँ का । सर से पाँव तक बिंध चुकी है वह फिर भी उफ नहीं करती ।

अभी हाल में ही शिवम भैया ने यह जानने की कोशिश की थी कि क्या आपके बनाये  घर को माँ ने सचमुच किसी ‘सम्बल’ नाम के एन॰ जी॰ ओ॰ को रजिस्टर्ड कर दिया है और अब सोम अंकल के साथ यायावरी की जिन्दगी जीने लगी हैं — ?
मैंने पूछा – किसने बताया आपको ?
भैया के स्वर में नाराजगी थी – क्यूँ ? मैं विदेश में हूँ तो क्या देश की खबर मुझे नहीं मिलती ? ताऊजी और बुआ ने सबकुछ बताया है मुझे ।
भैया ! अपनी माँ का हाल दूसरों से पूछते हैं आप ? माँ से खुद क्यों नहीं जानना चाहा यह सब ?
सुरभि तुम्हें पता है पापा के बाद माँ ने मुझसे अनजाने एक दूरी बना ली है । मैं नहीं जानता इस दूरी का कारण क्या है । अपनी तरफ से मैंने भरसक कोशिश की कि माँ को अपने साथ रहने के लिए राजी करूँ लेकिन वे विदेश में मेरे और जूली के साथ रहने को तैयार नहीं । यहाँ रहती तो ‘नाइटिंइगिल’ के साथ उनका मन भी बहला रहता और हमें बेबी सीटर में बेटी को डालने की जरूरत भी नहीं होती । लेकिन उन्हें तो अपने बच्चों से अधिक अपनी आड़ी तिरछी रेखाओं से लगाव है —।’
भैया ! उन्हीं रेखाओं ने उन्हें जीवित रहने का एक मकसद दिया है  – आप क्यों कहते हैं ऐसा ?
देखो सुरभि मेरी बात को समझने की कोशिश करो । आड़ी तिरछी रेखा खींच लेने से कोई बड़ा आर्टिस्ट नहीं बन जाता । इसके लिए समय के अनुसार ताम झाम और पब्लिसिटी जरूरी है । मैंने सोचा था माँ यहाँ रहती तो कैलिर्फोनिया के इंडियन फेमिली के बीच बच्चों को चित्रकारी  सिखलाने का काम उनके लिए आसानी से मैनेज किया जा सकता था । अपनी कला से वे कुछ अर्थोपार्जन भी कर लेतीं और आगे उनके लिए न्यूआर्क , वाशिंगटन जैसी बड़ी जगहों पर चित्रों की प्रदर्शनी के लिए कई संस्थानों से बात भी की जा सकती थी । परन्तु वे यहाँ रहने को पहले तैयार हों तब तो ? सच तो यह है सुरभि कि वे मुझे अपने से बिलकुल अलग कर चुकी हैं । मेरी इत्ती सी भी परवाह नहीं है उन्हें — वे भूल चुकी हैं कि उनका कोई बेटा भी है ।
ऐसा हरगिज नहीं सोचिए भैया – वे बहुत प्यार करतीं हैं आपको । हाँ उनका प्रेम एक्सपोज नहीं होता – वह उन्हीं की तरह अंतर्मुखी है – उसे समझने की जरूरत होती है – जैसे पापा समझते थे । मेरी आवाज की आद्रता ने भैया को चुप कर दिया था । लेकिन माँ के साथ उनकी संवादहीनता वैसी ही बनी रही ।

तिरस्कार और उपेक्षा की ऐसी पीड़ा हर क्षण सह रही है माँ । क्यों पापा – क्यों —–
सोम अंकल और माँ के रिश्ते में जो संयम , धैर्य और पारदर्शिता है , उसे आपकी तरह कोई और क्यों नहीं देख पाता ? क्यों नहीं सोच पाता कि जिस रिश्ते में मन निर्भय हो और मस्तक ऊँचा , वह रिश्ता ईश्वरीय होता है – उसे कलुषित कैसे कहा जा सकता है पापा ?
रौशनी और अंधेरे बहुत पास-पास होते हैं लेकिन दोनों में  बहुत फर्क होता है – आपने ही कहा था कभी । रौशनी में सब कुछ दिखता है लेकिन वह खुद नहीं दिखती । अंधेरे में केवल अंधेरा दिखता है । माँ क्या वही रौशनी नहीं -जिसमें देखने वाले को सब कुछ दिख रहा है – केवल वह नहीं दिख रही है । बोलिए न पापा कुछ तो बोलिए ।

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ISSN 2394-093X
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