दलित महिलाओं के संघर्ष की मशाल: मंजुला प्रदीप

दलित पितृसत्ता को भी जिसने चुनौती दी

आज सावित्रीबाई फुले की जयंती (3 जनवरी) से हम एक मुहीम शुरू कर रहे हैं-स्त्रीकाल में ‘स्त्री नेतृत्व की खोज’ श्रृंखला के तहत विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व की भूमिका में काम कर रही स्त्रियों से एक परिचय की मुहीम. आइये इस श्रृंखला में शुरुआत गुजरात की प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता मंजुला प्रदीप के व्यक्तिव और उनके कार्यों के परिचय से करते हैं. दलित आंदोलन को समर्पित संस्था ‘नवसर्जन’ में सालो तक शीर्ष नेतृत्व की भूमिका में रही मंजुला से हमारा परिचय करा रहे हैं उत्पलकांत अनीस और मेहुल.  

मंजुला प्रदीप पहली महिला थीं, जिन्होंने ‘नवसर्जन’ में काम करना शुरू किया था. गुजरात में नवसर्जन पहली ऐसी संस्था है, जो दलितों के द्वारा, दलितों के लिये दलित अत्याचारों का डॉक्यूमेंटेशन का काम करना शुरू किया था, जिसने गुजरात में दलित संघर्ष और दलित चेतना की एक मुकम्मल बुनियाद रखी और उसे एक नया आयाम दिया. मंजूलाबेन ने अपने परिवार से संघर्ष और विद्रोह की शुरूआत करके नवसर्जन से लेकर सार्वजनिक जीवन में भी न सिर्फ दलित महिलाओं के मुद्दे को लेकर बल्कि आदिवासी, अल्पसंख्यक ओर ओबीसी महिलाओं के लिए भी संघर्ष और विद्रोह किया. बारह साल तक नवसर्जन के निदेशक का कार्यभार सँभालने के बाद 14 नवम्बर 2016 को अपना त्यागपत्र दिया. 22 साल की उम्र में वे 1992 में एक आम कार्यकर्ता की तरह नवसर्जन से जुडीं, जिन्हें बाद में अपने माता-पिता का घर भी छोड़ना पड़ा.

बचपन:
एक दलित परिवार में पैदा हुई मंजूलाबेन प्रदीप का बचपन काफी तनाव भरा रहा है. एक सरकारी अधिकारी और गृहिणी बाप-मां की वे तीसरी संतान हैं. इनकी मां, पिता की दूसरी पत्नी थीं. दोनों के उम्र में फांसले बहुत ज्यादा थे, जिससे इनके माता-पिता के बीच में ताउम्र तनाव रहा. बताया जाता है कि बेटे की आस के कारण इनके माता-पिता के बीच में तनाव और बढ़ गया जब मंजूला प्रदीप का जन्म हुआ. इनका जन्म गुजरात के बड़ौदा शहर में हुआ और प्राथमिक से लेकर एम. ए. (सोशल वर्क) की इनकी पढाई भी वहीं हुई. चार साल की उम्र में इनका यौन शोषण हुआ, जिसे उस समय वे किसी को बता भी नहीं पाई. उन्हें ये बताने की हिम्मत करने में काफी साल लगे कि मेरे साथ कुछ हुआ था, जब उनका दुबारा किशोरावस्था में भी यौन शोषण हुआ.

मंजूला बेन बताती हैं कि जब वे बचपन में स्कूल जातीं तो इनके नाम में कोई जातिसूचक शब्द न होने के कारण, उनसे दुबारा इनका सरनेम पूछा जाता था. मंजूलाबेन  प्रदीप को ये बात बहुत बुरी लगती थी कि उनके नाम के आगे सरनेम क्यूँ नहीं है, जबकि दूसरे बच्चों के नाम में उनका सरनेम है. मंजूलाबेन को उनकी जाति का पता पहली बार बारह साल की उम्र में चला, जब वे अलीगढ़, उत्तरप्रदेश, के पास अपने गाँव गई और जब उनके एक चचेरे भाई एक मरी हुई भैस लेकर अपने मोहल्ले में आये. मरी हुई भैस को देखकर जब उन्होंने अपने चचेरे भाई से पूछा कि उसे क्यों लाये, तब उनका जवाब था, ‘तुम्हे पता नहीं है कि हम चमार हैं.’ मंजूलाबेन बताती हैं कि तब उन्हें बहुत बुरा लगा कि उनके  पापा ने उनसे जाति छुपाई. वे बताती हैं कि जाति का अहसास उससे पहले उन्हें नहीं हुआ था.

“क्योंकि हमलोग बड़ौदा में जहां रहते थे,  वह मोहल्ला मिश्रित लोगों की बस्ती था,  तो हमे कभी लगा ही नहीं कि हम अछूत हैं. हम निम्न जाति के हैं. मुझे बाद में यह पता चला कि मेरे पिता ने मेरे नाम में कोई जातिसूचक शब्द इसलिए नहीं लगाये कि हमारी जाति का पता दूसरे को न लगे,’ वे बताती हैं. बतौर मंजूलाबेन वे पढ़ने में तेज थी, क्लास में टॉप करती थी, स्कूल के अतिरिक्त पाठयक्रम प्रोग्राम में शामिल होती थीं, संगीत और खेलकूद में हमेशा अव्वल रहती थीं- सुन्दर दिखतीं और साफ-सुथरे कपड़े पहनतीं. बचपन के एक शिक्षक उन्हें मंजूलाबेन शर्मा बुलाते थे,  यह संबोधन उन्हें अच्छा नहीं लगता था.

मंजूलाबेन को बचपन से ही पितृसत्ता से सामना करना पड़ा. वे दो बाते बताती हैं. पहला, कि जब वे बड़ी हो रही थीं तो उनके पिता ताने देते थे यह मछली वाले की लड़की है. यानि उनके पिता का कहना था कि अस्पताल (जिस अस्पताल में उनका जन्म हुआ था) में उन्हें बेटा पैदा हुआ था, जिसे बदल दिया गया था, फिर कहते कि हम मजाक कर रहे हैं. दूसरा उनके घर में हमेशा तनाव रहता और उनके पिता हमेशा उनकी माता के साथ मार-पीट करते थे. चार भाई बहनों में मंजूलाबेन, उस छोटी से उम्र में भी उनका विरोध करती, जिससे उनके पिता उन्हें भी काफी पीटते.

कॉलेज जीवन:

बी. कॉम करने के बाद उनके पिता चाहते थे कि वे एम. कॉम. या मैनेजमेंट का कोर्स करें, लेकिन उन्होंने मास्टर इन सोशल वर्क चुना. बड़ौदा यूनिवर्सिटी के इन्ट्रेस टेस्ट में जनरल मेरिट लिस्ट में क्वालीफाई करके उन्होंने एम.ए. में नामांकन लिया. वहां भी वे  पढाई में टॉप रहीं. लेकिन उनका वहां का अनुभव भी स्कूल से इतर नहीं रहा. यूनिवर्सिटी के दोस्त नाम में सरनेम न देखकर जाति जानने को इच्छुक तो रहते थे लेकिन उनकी हिम्मत ही नहीं होती कि सामने से उनकी जाति उनसे पूछें. एक दिन उनके क्लास का एक दोस्त बोला कि मुझे सब पता चल गया है कि तुम रिजर्व केटेगरी से संबंधित हो. बताती हैं, ‘वहां कुछ दलित टीचर भी थे, जो मुझपर गर्व करते थे कि एक दलित लडकी जो पढ़ने में तेज है और यहाँ तक पहुची.’

नवसर्जन से जुडीं
“अबतक जो घटनाएं मेरे साथ घटी थीं, ने मुझे काफी संवेदनशील बना दिया. मुझे लगा कि मेरे समाज के लोगों, खासकर महिलाओं के लिए कुछ करना होगा. नवसर्जन से जुड़ने से पहले मैं गुजरात स्टेट फ़र्टिलाइज़र कंपनी में चयन हुआ था और . वहां अच्छा वेतन और रूतबा मिलने वाला था , जिसे छोड़कर नवसर्जन से 1992 में जुडीं. जब मैं नवसर्जन से जुड़ी तो मेरी संवेदनशीलता ने लोगों की, खासकर महिलाओं की, समस्याओं को समझने में मदद की. नवसर्जन में आने के बाद दो साल तो मुझे अपनी पीड़ा से बाहर निकलने में लगा. हमारी संस्था में जो वर्कशॉप होता था, उसमे मैं खूब रोती थी.” नवसर्जन से जुड़ने के बाद मंजूलाबेन  को जातिव्यवस्था और जाति उत्पीडन के बारे में सही समझ मिली. इसके बाद उन्होंने  बाबा साहेब अंबेडकर की किताबों का अध्ययन किया. जल्द ही उन्होंने दलित महिलाओं के लिए काम करना शुरू किया. मंजूलाबेन ने बड़ौदा के पादरा में अपना ऑफिस खोला. उस इलाके में उन्होंने खेत मजदूरी का और न्यूनतम मजदूरी का मुद्दा उठाया और दलित महिलाओं को अपने आन्दोलन से जोड़ना शुरू किया. महिला नेतृत्व को स्थानीय स्तर पर खड़ा किया. 1995 में पादरा तालुका के गांवों में काम शुरू किया, जहां उन्हें कोई किराये का कमरा भी देने को तैयार नहीं हुआ. उन्हें ऑफिस के लिए कमरे मिलते भी तो हर छः महीने में उसे बदलन पड़ता. आसपास के गाँव में दलित महिलाओं को ट्रेनिंग देना शुरू किया. 1999 में उनके ऊपर विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकर्ताओं ने हमले भी किये..
2000 के दौरान वे नवसर्जन में प्रोग्राम डायरेक्टर बनीं, जहां उन्होंने जेंडर को फोकस करना शुरू किया- दलित समाज में जेंडर समानता को लेकर काम करना शुरू किया. इसकी शुरुआत उन्होंने नवसर्जन संस्था से ही की -जहां पुरूषों की काफी संख्यां थी, लेकिन महिलाएं कम होती थीं. उनहोंने नवसर्जन से महिलाओं को जोड़ना शुरू किया. फिर उन्होंने एक फैसला लिया कि नवसर्जन में जो भी कार्यकर्त्ता नये सिरे से आये, वह महिला होगी. फिर उन महिलाओं को प्रशिक्षण देने का काम शुरू किया. खुद मंजूलाबेन  बताती हैं कि उनके बारे में भी लोगों ने काफी अफवाहें बनाई, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह कभी नहीं की. यहाँ तक कि हमले भी हुए. वे बताती हैं कि जब उनके बारे में (दलित पुरुष भी) अफवाह उड़ाते तो वे सावित्रीबाई फुले को याद करतीं कि कैसे सावित्रीबाई फुले ने भी तमाम कष्ट सहते हुए महिलाओं के लिए एक स्कूल खोला. वे अपना अनुभव बताती हैं कि जब वे रात में किसी गाँव में रूकती तो उनसे पूछा जाता कि आपकी शादी हुई है. जब वे बतातीं कि मेरी शादी नहीं हुई है, तो गाँव के दलित महिला और पुरुष दोनों कहते कि ‘आपकी तो गाँव-गाँव में ससुराल है, आपको शादी करने की जरूरत क्या है?’ वे बताती हैं कि वे किसी दलित महिला को पहली बार लीडरशीप के स्तर पर काम करते हुए देखते तो उन्हें लगता कि महिला भटक रही है. वे संस्थान की दूसरी महिला कार्यकर्ताओं के द्वारा भी ऐसे ही अपमानजनक अफवाहें उडाये जाने के बारे में बताते हुए आक्रोशित होती हैं. उन्होंने स्विस डेवलपमेंट एंड कोओपोरेशन में 2003 में एक साल के लिए काम किया. वहां से आने के बाद नव सर्जन की निदशक बनी.

नवसर्जन की निदेशक और महिलाओं के लिए संघर्ष
जब वे वापस संस्था में आयीं तो वहां एक फैसला लिया गया कि संस्था में बड़े स्तर पर बदलाव होंगे. लेकिन मंजूलाबेन ने सोचा भी नहीं था कि निदेशक बनने के लिए चुनाव होगा. संस्था के इतिहास में पहली बार निदेशक के लिया चुनाव हुआ और पुरुषों को पछाड़ते हुए मंजूलाबेन ने निदेशक का काम संभाला. संस्था के पुरुष कार्यकर्ताओं को सबसे बड़ा झटका लगा कि वे एक औरत के सामने हार गये. लेकिन उनके लिए ये राह इतनी आसान नहीं थी. और अब दलित पितृसता से संघर्ष आमने-सामने की होने लगी. वे बताती हैं कि इस संस्था में जितने आरोप लग सकते थे, सारे आरोप मुझ पर लगे. वह चाहे व्यक्तिगत जिन्दगी से जुड़ा हो या संस्थान से जुड़ा. लेकिन वे इन आरोपों से डिगी नहीं और अपने काम में लगीं रहीं. उन्होंने महिला कार्यकर्ताओं को स्वनिर्भर बनाने के लिए करीब 40 स्कूटी खरीदे. इससे पहले इन महिला कार्यकर्ताओं को क्षेत्र में कहीं जाना होता था तो वे पुरुष कार्यकर्ताओं के ऊपर निर्भर होती थीं. संस्था के भीतर भी वे पितृसत्तात्मक नियमों और ढांचे को चुनौती देने लगीं. इससे पहले संस्था में जो भी महिला कार्यकर्ता काम करती थी, उसे पति या किसी रिश्तेदार पुरुष से एक पेपर पर साइन करवाना पडता था कि अगर वह महिला किसी पुरुष के साथ बाइक पर आयेगी जायेगी तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है. जब वे महिलायें अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बाइक पर पीछे बैठकर जाती तो मोहल्ले और गाँव में उनके बारे तरह तरह की बातें कही जाती.  इससे उन महिला कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त होते थे. लेकिन मंजूलाबेन ने उनकों ट्रेनिंग दी. उनको मजबूत बनाया. संस्था की तरफ से स्कूटी दिलवाया, उन्हें उन महिलाओं को ड्राइविंग की ट्रेनिंग भी दिलवाई. जिससे उन्हें काम करने का हौसला भी मिला. इसके बाद प्रत्येक जिले और तालुका स्तर पर संस्थान के अन्दर, जो लीडरशीप थी उसमें महिलाओं को आगे किया तो फिर इन महिलाओं ने दूसरी महिलाओं के लिए जगह बनाई. वे गुजरात की दलित महिलाओं के बारे में बताती हैं कि दलित महिलायें बहुत हिम्मती होती हैं, लेकिन हम उन्हें पहचान नहीं पाते है. गुजरात में आज जो दलित आन्दोलन हुआ है, वह पूरे देश को एक नई दिशा दिखा रहा है, नवसर्जन उस आन्दोलन का एक भाग है.

दलित पितृसत्ता से संबंधित एक सवाल के जवाब में मंजूलाबेन कहती हैं कि गुजरात में दलित महिला के ऊपर घरेलू हिंसा ज्यादा है. गुजरात में दलित जाति पंचायत हरियाणा की  खाप पंचायत की तरह ही है. दलित महिलाओं की अप्राकृतिक मौत बहुत ज्यादा होती है. वे बताती हैं कि दलित महिलाओं में हिम्मत, ताकत और समझ बहुत ज्यादा है.

मंजूलाबेन ने गुजरात के पाटण में पीटीसी (प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग सर्टिफिकेट) कॉलेज में गैंग रेप पीडिता के लिए लड़ाई लड़ीं. इस कसे में 6 शिक्षक कई सालों से लड़कियों से बलात्कार करते थे. सबसे पहले एक दलित लडकी ने आवाज उठाई. उसके साथ 14 बार गैंगरेप हुआ था, उसे एक महीने अपने साथ रखीं और 6 दोषियों को आजीवन जेल की सजा हुई. उन 6 दोषियों में 2 दलित शिक्षक भी थे. इस कारण से उनके ऊपर काफी दबाव आया. यहाँ तक कि नवसर्जन के ही कई पुरुष कार्यकर्ताओं ने कहा की मंजूलाबेन तुम पागल हो गयी हो. आरोपियों में बीजेपी के एक एमपी का भतीजा भी शामिल था, जो दलित था. कई दलित पुरुषों ने इस केस को ख़तम करने की बात की थी वहीं कई दलित पुरुषों ने मंजूलाबेन की सहायता भी की.  इस केस के बाद गुजरात में एक बड़ा बदलाव यह आया कि इस तरह के मामले,जो पहले पुलिस के पास कम पहुँचते थे, वे पहुँचने लगे. उस केस के बाद पुलिस में रिपोर्टिंग करने की संख्या बढ़ गयी. मंजूलाबेन कहती हैं, ‘जब गैर दलित पुरुष हमारी महिला के खिलाफ अपराध करता है तो दलित पुरुष कहेंगे कि लड़ो-लड़ो. लेकिन अपराध में जब कोई दलित शामिल होता है, तो जाति पंचायत से लेकर राजनितिक नेताओं का दबाव समझौता करने के लिए बढ़ने लगता है.’ बतौर मंजूलाबेन, उन्हें सबसे ज्यादा चुनौती अपने समाज से ही मिली है. उन्हें अपने ही आन्दोलन और संस्था के लोगों ने बदनाम करने की कोशिश की, चरित्रहीन तक कहा गया.

लेकिन इस केस के तुरंत बाद नवसर्जन ने करीब और 50 रेप मामलों में कानूनी लड़ाई लड़ा. फिर मंजूलाबेन  ने ये नहीं देखा कि ये रेप पीडिता दलित महिला है या अल्पसंख्यक या ओबीसी, आदिवासी या सवर्ण महिला है. इसके बाद उनहोंने नवसर्जन, जो सिर्फ जाति के मुद्दे पर काम करता था , को महिलाओं के मुद्दे और संघर्ष तक ले कर गयी. 2002 में दंगे के दौरान उन्होंने मुस्लिम  महिलाओं के लिए भी काम किया. आदिवासी महिलाओं और दलित महिलाओं की ट्रैफिकिंग से संबंधित केस को भी मंजूलाबेन कानूनी सहायता देती है. 2008 में उन्होंने गुजरात महिला अधिकार पंच  बनाया, जिसमें सभी जाति की महिलाएं शामिल हैं. इसके कार्यकर्ता गांव स्तर  पर हैं. 2010 में 8 राज्यों  में जाकर उनहोंने कांफ्रेंस किया और 2011-12 में 26 महिलाओं को चुनकर उन्हें ट्रेनिंग दी, जिन्होंने आज अपने क्षेत्रों में अच्छा काम किया है. उनकी कोशिश यह रही कि उनका ये आन्दोलन सिर्फ गुजरात में न सिमटा रहे, बल्कि पूरे देश में भी फैले. आगे की उनकी योजना इस संगठन को मजबूत करने की है और युवाओं और महिलाओं के लिए एक बड़े स्तर पर लीडरशीप खड़ा करने की है. उनकी कोशिश यह भी है कि अभी गुजरात में जितने दलित संगठन है, उन संगठनो को एक मंच पर लाया जाये.  इस मंच का कोई नाम न देकर एक कॉमन  प्लेटफोर्म बनाने की और गुजरात के दलित आन्दोलन को आगे बढ़ने की एक रणनीति पर भी काम कर रहीं हैं.

मंजूलाबेन  कहती हैं शादी और इस तरह की व्यवस्था को नहीं मानती हूँ। उन्होंने इस साल बौद्ध धर्म ग्रहण किया, जबकि इससे पहले वे नास्तिक थी। बतौर मंजूलाबेन, मैं चाहती हूँ कि लोग मुझे एक इंसान के रूप में देखें। राजनीतिक रूप से मैं अपनी एक अस्मिता बनाती हूँ कि मैं एक दलित औरत हूँ या एक दलित हूँ, जब मैं आंदोलन करती हूँ।

उत्पलकान्त अनीस मीडिया शोधार्थी हैं और सूचना तकनीक का आदिवासी महिलाओं पर प्रभाव पर शोध कर रहे हैं.

मेहुल केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात में शोधार्थी हैं.