राष्ट्रवादियों के द्वारा इतनी नायाब थीम तय हो और उसमें उनकी दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता विषय-चिन्तन न हो तो लक्ष्य अधूरा रह जायेगा. इसीलिए पूरे सप्ताह तक ‘नर’ की ‘नारी’ और उसकी चेतना पर आयोजकों की ओर से कई विमर्श सत्र तय किये गये थे. हालांकि आयोजकों की ओर से आधिकारिक तौर पर तो मनुस्मृति पर कोई कार्यक्रम तय नहीं था, लेकिन ‘नर’ की ‘नारी’ का चिंतन और उसकी चिंता राष्ट्रवादी करें और उसे मनुस्मृति का कवच न पहनायें तो फिर काहे का राष्ट्रवाद और उसका नारी चिन्तन. कमी पूरी हो जायेगी अंतिम दिन हाल न. 8 में अंतिम कार्यक्रम के तौर पर ‘आधुनिक युग में मनुस्मृति’ की भूमिका विषय पर विमर्श के साथ.
‘मानुषी थीम’ पर आधारित वर्ल्ड बुक फेयर में समग्रता में किस ‘स्त्री’ का स्वरुप बनता है उसे उसके आयोजनों, प्राथमिकताओं, विमर्शों और भागीदारों के माध्यम से समझें, इसके पहले यह स्पष्ट हो लें कि किन मायनों में इस ‘असहिष्णु राष्ट्रवादी सरकार’ का पुस्तक व्यापार ‘सहिष्णु(!) पिछली सरकारों’ के पुस्तक व्यापार से बेहतर बताया जा रहा है. प्रकाशक बताते हैं कि आज किताबों की सरकारी खरीद में छोटे-बड़े सभी प्रकाशकों की किताबें शामिल की जाती हैं, जबकि इसके पहले ‘नामवरों’ के घर की मरम्मत या सजावट करने वाले या ऐसे ही ‘साहित्य-विभूतियों’ को इस या उस प्रकार से उपकृत करने वाले बड़े प्रकाशक ही लाभान्वित होते थे. मेले के प्रकाशक तो यह भी बता रहे थे कि इस बार स्पेस आवंटन में भी बड़े प्रकाशकों की ‘च्वाइस’ को तबज्जों नहीं दिया गया- उनके अनुसार यह सरकार द्वारा पोषित पुस्तक व्यापार का लोकतांत्रीकरण है. पता नहीं क्या सच है, लेकिन सच यह जरूर है कि दिल्ली में वर्ल्ड बुक फेयर में स्टाल के आसमान छूता किराये और विमुद्रीकरण से व्याप्त आशंका के कारण कई प्रकाशक इस मेले से दूर रहे.
अब समझने की कोशिश करते हैं कि मानुषी थीम वाले इस मेले में ‘नारी-चेतना’ विमर्श के तौर पर किस स्त्री का स्वरुप उभरता है. मेले में किताबों के क्रय-विक्रय व्यापार के बीच होने वाले विमर्शों और अन्य परफार्मेंस आधारित आयोजनों के आधार पर, जिस स्त्री का स्वरुप बनता है, वह राष्ट्रवादी एजेंडे में फिट बैठती वह नारी है, जो मिथकों में जीवित है या मध्यकालीन भक्ति चेतना में पगी है- खबरदार, जो मीरा, ललद्यद या आंडाल में किसी विद्रोही तेवर की पड़ताल की तो. इस नारी का कोई सिरा थेरियों से नहीं जुड़ता, थेरीगाथा से नहीं जुड़ता.
संस्कृत साहित्य में नारी-चेतना थीम की एक वक्ता कौशल पंवार को छोड़ दें तो ‘राष्ट्रवादी मानुषी थीम’ में गैरद्विज स्त्री को ढूंढें नहीं ढूंढ पायेंगे आप- न आरक्षण, न सद्भावना, न समता का भाव और न आधुनिक होने की चाह- कुल मिलाकर यही छवि है ‘राष्ट्रवादी मानुषी’ की. वह तो भला हो ‘दलित –दस्तक’ का कि अपने स्पेस पर वे दलित लेखिकाओं को लेकर आये.
कुछ सेल्फियों या कुछ अकारण-सकारण ली गई और फिर सोशल मीडिया में जारी तस्वीरों से ज्यादा ‘मानुषी थीम’ इस मेले में खोजना एक श्रमसाध्य, थकाऊ और अंततः निराश करने वाला अनुभव होगा!