राजकमल चौधरी के उपन्यास और सेक्सुएलिटी

अनिरुद्ध कुमार यादव

शोधर्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, संपर्क:ईमेल:anirudhdv1@gmail.com

सेक्स मानवीय जीवन की एक जैविक जरूरत है. जैसे जीवन जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है. उसी प्रकार से सेक्स की भी आवश्यकता महसूस की जाती है. सेक्स एक जैविक जरूरत ही नहीं बल्कि मानवीय संतति की विकास को सतत् बनाये रखने का एक साधन भी है. बगैर सेक्स के मानवीय संतति का क्रम बरकरार नहीं रह सकता. किंतु सेक्स का इन आवश्यक रूपों से भिन्न रूपों में भी प्रयोग किया जाता रहा है. हमारे पौराणिक आख्यानों में भी ऋषि कण्व, ऋषि पराशर, आदि की तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सराओं- मेनका, उर्वशी, रम्भा इत्यादि का साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया. इसी तरह से कालान्तर में यौनिक-क्रिया को राजनीति, सत्ता, खरीद-ब्रिकी, भोग-विलास और जीविका के साधन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा. सेक्स के  इन तमाम रूपों का वर्णन राजकमल चौधरी के उपन्यासों में दिखाई देता है.

राजकमल चौधरी के उपन्यासों में सेक्सुएलिटी के विभिन्न संदर्भ मौजूद हैं. उन्होंने यौनिक-क्रियाओं के कारणों की व्यापक स्तर पर पड़ताल की है. राजकमल चौधरी सेक्सुएलिटी को श्लीलता या अश्लीलता के चश्मे से नहीं देखते, बल्कि उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की तलाश करते हैं, जो उसके मूल में है. श्लीलता और अश्लीलता के चक्कर में फंसकर राजकमल चौधरी रूकना न जानते थे. वे परिस्थितियों की विसंगति, विडंबना और विद्रूपता को ही दर्शाने को लक्ष्य मानकर चले हैं. इनके सभी उपन्यासों – ‘बीस रानियों के बाइस्कोप’, ‘एक अनार: एक बीमार’, ‘मछली मरी हुई’, ‘देहगाथा’, ‘अग्निस्नान’, ‘ताश के पत्तों का शहर’, ‘आदिकथा’, ‘पाथर-फूल’ आदि में यौनिक-क्रियाओं का चित्रण किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है. वह दौर ही ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ का था, जिसमें यौनिक-संदर्भों, यौनिक-बिम्बों और यौन-प्रतीकों का बहुतायत प्रयोग किया गया.

‘एक अनार: एक बीमार’ उपन्यास यौनिक-क्रियाओं के चित्रण से भरा पड़ा है. उपन्यास के शुरूआत में ही राजकमल चौधरी ने लिखा है- ‘साहित्य में अश्लीलता आरोपित करने वाले ‘पुलिस-मनोवृत्ति’ के लोग यह किताब न पढ़ें, उनकी सेहत के लिए यही अच्छा रहेगा.”1 दरअसल राजकमल चौधरी साहित्य को जीवन के गहरे यथार्थ से जोड़कर देखने के पक्षपाती थे. इसलिए इन्होंने कलकत्ता शहर के डिम्पल लेन के भिखारियों, रिक्शा चालकों, मजदूरों, वेश्याओं, ठेले वाले इत्यादि लोगों को अपने इस उपन्यास का विषय बनाया है. इस वर्ग के लोगों के लिए यौन-व्यापार या नंगापन कोई माने नहीं रखता, उन्हें तो सिर्फ दो जून की रोटी की आवश्यकता है. उन्हें यह रोटी जो भी उपलब्ध करा दे, वे उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. सीता और ईश्वर के माध्यम से राजकमल चौधरी इन गलियों की सड़ांध, जीवन-शैली, क्रिया-व्यापार आदि का यथार्थ चित्रण किया है. किसी से भागने या छुपाने का कही कोई प्रयास नहीं है. जैसे – ‘स्त्रियाँ आतंकित होकर अपने अंडरवियर और पेटीकोट उतार फेकेंगी. पुरुष आतंकित होकर अपनी सूखी हुई नीली नसें स्त्रियों के अन्दर डालने की कोशिश करेंगे. मगर स्त्री सिकुड़ी हुई रह जायेगी. पुरुष सूखा हुआ बना रहेगा. नए बच्चे पैदा नहीं होंगे. जो बच्चे दुनिया में हैं, वे सिफलिस और कैंसर में मुब्तिला होकर आत्महत्या कर लेगें या पागल हो जाएंगे या बड़े शहरों और चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस के गोलम्बर में खड़े होकर हस्तमैथुन करते रहेंगे.”2

इस उपन्यास में एक अन्य कथा भी चलती रहती है. जिसमें भी यौन-संदर्भों का चित्रण है. किंतु दोनों में अंतर है, जहाँ पहली कथा में यौन-संदर्भ जीवन जीने के आवश्यक साधन प्राप्त करने के लिए किए गए हैं, वहीं दूसरी कथा में सुख-सुविधओं से सम्पन्न वर्ग द्वारा अपने अकेलेपन, महानगरीय टूटन एवं तनाव को कम करने के लिए, यौनिक उन्माद को शांत करने के लिए विह्स्की, रम की सोलन इत्यादि का सेवन कर अन्ततः सेक्स में शांति ढूँढ़ने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है. जैसे – “ईश्वर ज्यादातर अकेले इधर आता है, दोपहर में. खासकर बुधवार के दिन, जब ड्राई डे होता है और इस इलाके की मेम साहब, आधी औरतें, आधे मर्द, साहब, अपने कमरों में बन्द और बेहोश पड़े शराब या जुआ, ताश या लूड़ों, हस्तमैथुन या ‘होमोसेक्सुअलिटी’ करते होते हैं.”3

यहाँ पर ध्यातव्य है कि अपने समकालीनों में ‘होमोसेक्सुएलिटी’ पर बात करने वाले राजकमल चौधरी पहले साहित्यकार हैं. हिन्दी साहित्य की कहानियों, कविताओं और उपन्यासों में ‘होमोसेक्सुएलिटी’ राजकमल चौधरी के  माध्यम से ही दाखिल होती है. राजकमल चौधरी के बहुचर्चित उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ में भी शीरी और प्रिया ‘होमोसेक्सुअल’ हैं. दोनों लेस्बियनहैं. इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय- ‘होमोसेक्सुएलिटी’ नहीं है,  किंतु राजकमल चौधरी ने इसे विषय प्रस्ताव के रूप में अवश्य सामने रखा है. फिर भी उपन्यास में शीरी उसकी बहन,  फिर शीरी और प्रिया जाने-अनजाने अपने व्यवहार में ‘होमोसेक्सुअल’ हैं. किंतु उन्हें इस बात का इल्म नहीं है. भारत में ‘होमोसेक्सुएलिटी’ का यही रूप दिखाई पड़ता है. जिसे राजकमल चौधरी ने बहुत ही सूक्ष्म ढंग से चित्रित किया है. जैसे पास न होकर भी, शीरी और प्रिया के मन में काले ब्रोंज की काली मूर्ति की तरह निर्मल पद्यावत खड़ा है… मुस्कराता हुआ. दो ‘लेस्बियन’ औरतें और दोनों के मन में, दिलो-दिमाग में, अंग-अंग में ब्रोंज की मूर्ति.” 4


इस तरह दोनों ही स्त्रियाँ यौनोन्माद में एक पुरुष का साथ पाना चाहती हैं. जो उन्हें संतुष्ट कर सके, किन्तु सामाजिक बंधन के कारण वे ऐसा नहीं कर पाती और एक-दूसरे में ही आश्रय ढूँढ़ने लगती है.

राजकमल चौधरी  ने ‘ताश के पत्तों का शहर’ उपन्यास में भी लेस्बियन की चर्चा की है. बोनी उर्फ़ वन्दना सिंह एक लेस्बियन है. वह कहती है मीरा  जैसी खूबसूरत लड़की पूरे कलकत्ते में और नहीं है. मुझे खूबसूरत लड़कियाँ बहुत अच्छी लगती हैं. उनसे बातें करने में, उनसे हाथापाई करने में, उनके  गले में हाथ डालकर घूमने में, उनके  साथ रजाई के  अन्दर लिपटकर सोने में मुझे मर्दों से ज्यादा मजा  आता है. एकदम लगता है, मैं मर्द बन गयी हूँ. एकदम सिर से पाँव तक मर्द. लड़कियाँ मुझे पसन्द हैं, मर्द नहीं.5 किंतु राजकमल चौधरी  ने जहाँ भी ‘लेस्बियन’ की चर्चा की है, उसे एक बीमारी के  रूप में देखा है, वह चाहे ‘मछली मरी हुई’ की प्रिया हो या फिर ‘ताश के  पत्तों का शहर’ की वन्दना. जबकि दूसरी तरफ वे स्वतंत्र यौनिक-क्रिया का समर्थन भी करते हैं. यह राजकमल चौधरी  के  विचारों में द्वन्द्व को  दर्शाता है.


इसी तरह ‘बीस रानियों के  बाइस्कोप’ नामक उपन्यास में फिल्म-उद्योग जगत में व्याप्त यौन-क्रियाओं का वर्णन किया गया है. इसमें पुखराज और कुन्दन के  माध्यम से यथार्थ को अभिव्यक्त किया गया है. पुखराज कलात्मक फिल्मों का प्रतिनिध्त्वि करती है. जबकि कुन्दन व्यवसायिक फिल्मों के  रूप को व्यक्त करती है. जहाँ फिल्म डायरेक्टर कलाकार और फिनाॅन्सर का त्रिकोणीय संबंध् बनता है. जिसमें फिनाॅन्सर  फिल्म में पैसे लगाने के  बदले हीरोइन को कुछ  भी करने के  लिए मजबूर कर सकता है. फिल्म संसार के  भीतर हो रहे मानसिक एवं दैहिक शोषण और सस्ती लोकप्रियता एवं भौतिक सुखों की प्रबल आकांक्षा से प्रेरित अभिनेत्रियों का स्थितियों के  दबाव के  तहत निर्माता-निर्देशक के  आलिंगन में अपनी देह को परोसने की नियति इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है. साथ ही अवान्तर रूप से पंचसितारा होटलों, क्लबों और बियर-बार के  रंगीन, मादक और अभिजात्य वातावरण में स्थापित और नवोदित लेखकों, निर्माताओं, निदेशकों, सिने कलाकारों की गुजरती शामें, इन गुजरती शामों में शराब के  पेग के  साथ पीछे छूटते सामाजिक सरोकार और व्यर्थ की कला-मूल्यों की बहसें, तन और मन में उभरती देहभोग की पिपासा, फिल्मों में जगह पाने के  लिए भोग का खुला आमंत्रण देती मादा आँखेय्  आदि.6 इस उपन्यास में अपने कटु यथार्थ के  साथ उपस्थित हैं. जैसे- फिल्म में रोल पाने के  लिए कुन्दन मिस्टर मनचन्दा को रिझाती हुई,दोनों  हाथों से टेबल का किनारा पकड़कर वह थोड़ा आगे झुकी, अपनी छातियाँ टेबल की सतह पर उतर जाने दीं. नीली ओढ़नी को हवा में थोड़ा सरका दिया. एक पल मुस्कुराई. एक पल हल्की हो गई और अपने एक-एक शब्द में हल्की सी मिठास, हल्क़ा-सा नशा घोल-कर बोली – ‘मुझे शोखी बहुत ज्यादा पसन्द है, मिस्टर मनचन्दा! मगर शोख होने का कोई मौसम भी तो हो.’7

‘नदी बहती थी’ उपन्यास में भी एक कथा के  रूप में मिसेज सविताराय चौधरी , सीता, पूरबी, सोनाली आदि स्त्रियाँ देह-व्यापार में लगी हुई हैं. किन्तु मिसेज सविताराय चौधरी  और अन्य स्त्रियों की वेश्यावृत्ति में अंतर है. जहाँ मिसेज सविताराय चौधरी  उच्चवर्गीय भोग-विलास और यौन-उत्श्रृंखलता का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसे अपने यौनिक-उन्माद को शांत करने के  लिए सदैव पर-पुरुष का साथ आवश्यक है. वहीं सीता, पूरबी, शेफाली आदि नारियाँ आर्थिक दंश को सहन न कर पाने की स्थिति में समाज से छुप कर देह का व्यापार करती हैं. ताकि कुछ  पैसे मिल सके  और रोटी का इंतजाम हो सके . इसलिए शाम को तैयार होकर ऐसी महिलाएँ बस स्टाॅप, गली के  मुहाने, चाय की दुकान इत्यादि स्थानों पर खड़ी होकर अश्लील इशारे करती हुई देखी जा सकती हैं. जिस दिन इनके  देह के  खरीददार इन्हें नहीं मिलते, उस दिन इनके  घर चूल्हा नहीं जलता. राजकमल चौधरी  ने इस उपन्यास में यह भी दिखाया है कि इन स्त्रियों का कर्म भले ही बुरा है, किन्तु मन से ईमानदार हैं. कृष्णा भी वेश्यावृत्ति करती है और जब वह गर्भवती हो जाती है और स्वयं नहीं जानती यह बच्चा किसका है. इसलिए कृष्णा बड़ी ईमानदारी से कहती है,मैंने कई लोगों से कह रखा है कि यह बच्चा उन्हीं का है. और, कई लोगों ने मुझसे कह रखा है, कि यह बच्चा उन्हीं का है और मैंने लोगों से कहा है और लोगों ने मुझसे कहा कि मैं किसी से नहीं बताऊँ कि यह बच्चा उन्हीं का है.8 परन्तु इस तनाव को कृष्णा सह नहीं पाती और फाँसी लगाकर आत्महत्या कर लेती है. समाज में ऐसी ही कितनी कृष्णा, शेफाली, सोनाली, सीता और पूरबी हैं. जो आत्महत्या करने के  लिए अभिशप्त हैं.

राजकमल चौधरी  ने अपने उपन्यासों में महानगरीय जीवन के  अनेक चित्रा खींचा है. किन्तु इन चित्रों में सबसे चमकदार, स्पष्ट और प्रभावी चित्रा महानगर की उन आधुनिकता का है, जो सुख-सुविधा , भोग-विलास, इच्छा-आकांक्षा की पूर्ति और लिप्सा आदि के  लिए अपनी स्त्री-देह का भरपूर इस्तेमाल करना जानती हैं. वे देह को अपनी सफलता की सीढ़ी बना लेती हैं. ऐसी ही नारियाँ- झरना शर्मा, माया, कांति और लेडी नूर मुहम्मद हैं. जो ‘शहर था शहर नहीं था’ की पूरी रूपरेखा तैयार करती हैं. जहाँ नूर मुहम्मद अपने इसी गुण के  कारण विधान-परिषद में पहुँच जाती है. वहीं झरना शर्मा ‘आदर्श महिला सिलाई-कढ़ाई’स्कूल  की आड़ में तन का व्यापार करती है. धर्म  की आड़ में सच्चिदानंद राजनीति और देह-व्यापार दोनों ही करता है. लेडी-नूर-मुहम्मद के  द्वारा राजनीति में ठसक और बंका से उनका अनैतिक यौन-संबंध है. कांति एक विधवा  स्त्री  है. किन्तु वह अभी नवयौवना है. इसलिए उसके  देह के  प्यासे पुरुषों की कमी नहीं है. वह ‘कला-भवन’ के  नाम पर रुपये बनाने के  लिए अपनी सुन्दर काया का राजनैतिक उपयोग करती है. इन सभी स्थितियों को झरना शर्मा के  पति कामेश्वर शर्मा के  पत्र के  माध्यम से बहुत ही सूक्ष्मता के  साथ उपन्यासकार ने व्यक्त किए हैं-समूचा  शहर तुम्हारा दोस्त है.  इलाके  की हर औरत तुम्हें तुम्हारे नाम से जानती है. अपने स्कूल  की बनी हुई चीजें, बेबी-फ्राक , बाबा सूट, रूमाल, तकियों के  गिलाफ, टिकोजी, टेबल-क्लाॅथ, तुम पटना मार्केट की दुकानों में बेचती हो…. तुम बादल के  साथ सिनेमा देखने जाती थी, और वापस आकर मुझे बताती थी कि आज मंगलवार है, और इसीलिए हनुमान मंदिर में औरतों की जबर्दस्त भीड़ थी. तुम मुझसे बहाना करती हो.9

पूँजीवाद के  प्रभाव से बाजारीकरण की प्रक्रिया बहुत तेजी से बढ़ गयी. जिससे मनुष्य भी वस्तु के  रूप में  तब्दील हो गया. यही कारण है कि नारियों को एक्सपोज करना, नारी-देह का व्यापार करना या फिर नारी-सौन्दर्य का शहर में लोगों को अपने प्रोडक्ट को ज्यादा से ज्यादा बेचने के  लिए इस्तेमाल किया गया. बाजारीकरण के  दुष्प्रभाव ने मानवीय संवेदना को कुंद कर दिया. समाज के  सभी क्षेत्रों में व्यापार, राजनीति, शिक्षा, सामाजिक कार्य ;एन.जी.ओ. आदि कार्यों में स्त्रियों का व्यापक स्तर पर उपयोग किया गया. राजकमल चौधरी  के  उपन्यास ‘अग्निस्नान’ और ‘देहगाथा’ इसी बाजारीकरण के  बढ़ते प्रभाव को रेखांकित करते हैं. ‘अग्निस्नान’ की पात्र श्रीमती न सिर्फ अपने सौन्दर्य और तन का व्यापार करती हैं बल्कि वे वेश्याओं की दलाली भी करती हैं. वही लुलू जो एक लड़के  से प्यार करती है, किन्तु पैसे के  अभाव में वह नाइट क्लब में रिसेप्शनिस्ट बन कर मुस्कुराती  रहती है. ‘देहगाथा’ मैं, मेरी पत्नी और वह के  बीच के  त्रिकोणात्मक संबंधें पर टिकी है. देवकांत जो पैसे के  लालच में  पार्वती से शादी कर लेता है. वह पार्वती से नहीं बल्कि उसकी दौलत से प्यार करता है. यही कारण है कि बाद में देवकांत अजनबीपन, टूटन आदि का शिकार हो जाता है और जीवन से पलायन कर जाने का इरादा बना लेता है. उपन्यासकार बाजारीकरण के  प्रभाव को उद्घाटित करते हुए लिखता है -भारतीय स्त्री  के  लिए ऐसा स्वरूप, ऐसी आकृति, इतना सौन्दर्य पाना असम्भव है. इसलिए, श्रीमती को पहली बार अहसास हुआ कि उसकी सम्पत्ति और’पूंजी, एकमात्र उसका शरीर है.स्त्री को जब यह अहसास हो जाता है तो उसकी जिन्दगी बदल जाती है, वस्तुओं को देखने-परखने का उसका तरीका बदल जाता है. क्लियोपेट्रा औ’ हेलेन को यह अहसास हुआ था. इजिप्ट और ग्रीस की तारीख के  पन्ने बदल गए थे.10

राजकमल चौधरी ने हिन्दी के  साथ-साथ मैथिली भाषा में भी तीन उपन्यास लिखें. जिसमें मैथिल समाज के  रहन-सहन, रीति-रिवाज, बोली-भाषा, मैथिली-आन्दोलन स्त्री -पुरुष के  अवैध संबंध  इत्यादि का सटीक वर्णन किया गया है. फिर भी इन सब विषयों के  चित्रण में ‘सेक्सअलिटी’ एक बड़ा मुद्दा रहा है. ‘आन्दोलन’ उपन्यास की भूमिका में राजकमल लिखते हैं – आज  के  मनुष्य में तीन प्रवृत्तियाँ मुख्यतः देखी जाती हैं – क्षुध, आत्मरक्षा और यौन-पिपासा. ऐसी तीन प्रवृत्तियों का चित्रांकन लेखन का प्रयत्न रहा है.11 ‘आदिकथा’ उपन्यास में मैथिल समाज के  परम्परागत बंधन , जो एक सहज प्रेम को लेकर रहा है, को दर्शाना ही उपन्यासकार का मुख्य ध्येय रहा है. जबकि ‘पाथरफूल’ उपन्यास ‘सेक्सुअलिटी’ के  संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण है. यह उपन्यास अश्लील समझे जाने के  कारण किसी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित नहीं हुआ. जो कुछ  प्रतियाँ प्रकाशित हो गई थी, उसे भी अश्लील प्रकाशन करने के  जुर्म में जेल हो जाने के  भय से प्रकाशकों ने जला दी. बमुश्किल राजकमल चौधरी  रचनावली के  संपादक देवीशंकर नवीन ने यह पुस्तक खोज निकाली.


‘आन्दोलन’ उपन्यास मैथिली भाषा को लेकर कलकत्ता शहर में मैथिल लोगों द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को रेखांकित करता है. निर्मला एक ऐसी महिला है, जो मैथिली आन्दोलन से जुड़ी है. इनके  विषय में उपन्यासकार ने लिखा है – निर्मला जी ? यौवन-मदोन्मता, रूप-गर्विता, बुर्जुआ, रईसी ठाठक प्रतिफल- हिनका त चाही उत्तेजना …. चाहे मैथिली-आन्दोलनसँ भेटय, चाहे कोनो एकान्त पुष्पोद्यानमे पर-पुरुखक संग बैसलासँ, सुमधुर  कण्ठे धीरसमीरे  यमुनातीरे वसति वने वनमाली’ गओलासँ.12  निर्मला का क्रमशः भुवन और फूलबाबू से आकर्षण भी निर्मला के  चरित्र को दर्शाता है. उपन्यासकार ऐसी स्त्रियों को विषकन्या कहता है. एक दूसरा प्रसंग ‘सेक्सुएलिटी’ को लेकर इस उपन्यास में  नीलू का है. जो कमल को भैया कहती है. किन्तु यौन-उन्माद में रात को साये और ब्लाउज में कमल के  कमरे में पानी पीने के  बहाने जाती है. परन्तु जब कमल बहाने को समझ जाते हैं और नीलू को बहुत समझा-बुझाकर अपने कमरे से बाहर भेजना चाहते हैं. तब नीलू कहती है – लोक  किछु कहय कमल भैया! मुदा, हमरा नहि रहल जाइए नीलू बड्ड कातर भ, बड्ड करुण शब्दमे बजलीह13. इसी तरह एक अन्य प्रसंग सुशीला नामक वेश्या का है. जिसके  माता-पिता कलकत्ता में ही रहते हैं. सुशीला की माँ भी एक वेश्या है, जो खुद अपनी बेटी से भी देह-व्यापार करवाती है, क्योंकि इनके  लिए आमदनी का कोई अन्य स्रोत नहीं है. इस प्रसंग के  माध्यम से राजकमल चौधरी  वेश्या-जीवन के  कटु-यथार्थ और उनकी मनोदशा का बहुत सटीक चित्रण किया है.

‘पाथर-फूल’ उपन्यास में जमींदारी व्यवस्था समाप्त हो जाने पर भी जमींदार का रूतबा कायम है, को चित्रित किया गया है. फूलबाबू एक जमींदार है. जो निम्न जाति की स्त्रियों को भोगना अपना अधिकार समझते हैं. वे कादम्ब, इजोरिया जैसी कितनी ही स्त्रियों के  साथ अवैध संबंध में हैं. इसके  अतिरिक्त भी गाँव में राधा, जनकपुरवाली जैसी स्त्रियाँ भी हैं. जो सामाजिक बंधन या आर्थिक विवशता के  कारण खुले आम देह-व्यापार में लगी हुई हैं. राजकमल चौधरी  जनकपुरवाली के  विषय में लिखते हैं -महानंद बाबू की जाँघों के नीचे दबी, बलिदानी बकरे की तरह, पूरी रात और उसके  बाद पूरी-पूरी रात जनकपुरवाली रोती, चिल्लाती, मरती रही थी. महानन्द बाबू और उसके  बाद पूरे गाँव के  अनेक महानन्द बाबू ने, गुलाब के फूल जैसी कोमलांगी जनकपुरवाली को कोसी नदी की टूटी घाट बना दिया – जो आए, वही नहाए,14 नदी के  घाट को क्या!  प्रस्तुत उदाहरण में जनकपुरवाली की लाचारी, बेबशी और शारीरिक और मानसिक पीड़ा को व्यक्त किया गया है.

राजकमल चौधरी  ने ‘पाथर-फूल’ उपन्यास में ग्रामीण समाज में व्याप्त सहज अनैतिक यौन-संबंधों का चित्रण भी किया है. जहाँ चोरी-छुपे विवाह पूर्व और विवाहेत्तर संबंध बनाये जाते हैं. कौन पुरुष या कौन स्त्री  किस स्त्री  या पुरुष से ‘फंसा-फंसी’ है, उसका भी बखूबी चित्रण किया गया है. जिसमें नैतिकता, पाप-पुण्य जैसे विचार उनके  दिमाग में आते ही नहीं. राजकमल चौधरी  ने लिखा है – गाँव में खेत-खलिहान, बाग-बगीचा, दलान-आँगन में… यह स्वेच्छाचार नैतिक है या अनैतिक, आचार है या अनाचार – यह समाजशास्त्र और दर्शन का विषय है. किंतु सत्य इतना ही कि यह स्वेच्छाचारिता परम अनिवार्य सत्य है. सत्तन जी की बहन, गोपाल जी की बेटी,गोवर्धन की पत्नी, वैदिक जी की पोती किसी खेत-खलिहान में बाँस के  बगान में, और किसी घर के  पिछवाड़े में किसी झाड़ी में….15

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि राजकमल चौधरी  के  हिन्दी और  मैथिली दोनों ही भाषाओं में रचित उपन्यासों में ‘सेक्सुएलिटी’ एक अनिवार्य अंग के  रूप में मौजूद रही है. हालाँकि दोनों का परिवेश नितान्त भिन्न रहा है. हिन्दी उपन्यासों में महानगरीय जीवन में भोग-विलास की संस्कृति देखी जा सकती है. साथ ही आर्थिक विवशता के  कारण देह-व्यापार भी. जो कि मैथिली उपन्यासों में भी दिखाई पड़ता है. किंतु यौनोन्माद मैथिली उपन्यासों में नहीं है. इसमें ग्रामीण परिवेश में सामाजिक-जीवन का अनिवार्य अंग बन गए- अनैतिक यौन-संबंधें का चित्रण ज्यादा हुआ है. जो कि यथार्थपरक भी है. इस तरह से कहा जा सकता है कि राजकमल चौधरी  के  उपन्यासों में चित्रित ‘सेक्सुएलिटी’ अपने समय और समाज के  कठोर सत्य को सामने लाता है. यही इनकी महत्ता है.


संदर्भा सूची
  1.राजकमल चौधरी  रचनावली ;(खण्ड-6,) संपा.- देवशंकर नवीन, पृष्ठ संख्या- 58
  2.वही, पृष्ठ संख्या- 68  
        3.वही, पृष्ठ संख्या- 64
  4.मछली मरी हुई – राजकमल चौधरी, पृष्ठ संख्या – 134 
  5.ताश के पत्तों का शहर – राजकमल चौधरी, पृष्ठ संख्या- 112 
  6.राजकमल चौधरी: पूँजीवादी लोकतंत्रा का प्रतिपक्षी उपन्यासकार – डाॅ. सुभाषचन्द गुप्त, 
             पृष्ठ संख्या –    209-210
  7. राजकमल चौधरी रचनावली ;(खण्ड-6)संपा.- देवशंकर नवीन, पृष्ठ संख्या- 37-38
  8.राजकमल चौधरी रचनावली ;(खण्ड-5), संपा.- देवशंकर नवीन, पृष्ठ संख्या- 207
  9. वही, पृष्ठ संख्या- 320-321
  10.राजकमल चौधरी रचनावली ;(खण्ड-6), संपा.- देवशंकर नवीन, पृष्ठ संख्या- 251
  11.राजकमल चौधरी रचनावली ;(खण्ड-5), संपा.- देवशंकर नवीन, पृष्ठ संख्या- 19
  12.कृति राजकमल, संपा.- प्रो. आनन्द मिश्र, श्री मोहन भारद्वाज पृष्ठ संख्या- 154-551
     फुटनोट – निर्मला जी? यौवन-मदोन्मत्ता, रूप-गर्विता, बुर्जुआ, रईस ठाठ का प्रतिफल… इन्हें                   तो चाहिए  उत्तेजना… चाहे वह मैथिली-आन्दोलन से मिले, चाहे किसी एकान्त पुष्पोद्यान में पराए               पुरुष के साथ  बैठने से, सुमधुर कंठ से ‘धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली’ गाने से.
  13.वही, पृष्ठ संख्या- 160 लोग कुछ भी कहें, कमल भैया! किन्तु मुझे नहीं रह जाता है नीलू बहुत                   कातर होकर, बड़े करुण शब्द में बोलीं.
        14.राजकमल चौधरी रचनावली ;(खण्ड-5) ,संपा.- देवशंकर नवीन, पृष्ठ संख्या- 125
  15.  वही, पृष्ठ संख्या-125 

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