ब्राह्मणवाद,पितृसत्ता और पुनरुत्थानवाद की चुनौतियों से निपटने की जरूरत

स्त्रीकाल और राष्ट्रीय दलित महिला आंदोलन द्वारा वर्तमान का ‘सामाजिक और सांस्कृतिक संकट तथा दलित साहित्य के समक्ष चुनौतियां’, और ‘ समता की समग्र समझ: दलित स्त्रीवाद’ विषय पर एक दिवसीय सेमिनार सत्ता विरोधी वक्तव्य के साथ आज सम्पन्न हुआ। सेमिनार के वक्ताओं ने ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता और पुनरूत्थानवाद की चुनौतियों से निपटने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि आज राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह की आक्रामकता देखी जा रही है, वह एक राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है. प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव के इस प्रस्ताव से उपस्थितों ने सहमति जताई कि आज कमजोर राजनीतिक विपक्ष के दौर में विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी ही वास्तविक प्रतिपक्ष हैं.
प्रथम सत्र में वर्तमान का ‘सामाजिक और सांस्कृतिक संकट तथा दलित साहित्य के समक्ष चुनौतियां’ विषय की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ आलोचक चौथीराम यादव ने कहा कि ‘कलबुर्गी, पानसारे आदि लेखकों की ह्त्या कोई नई घटना नहीं है, ब्राह्मणवादियों ने भक्तिकाल में भी विरोधी लेखकों की हत्याएं करवाई है. उन्होंने कहा कि रामराज्य को आदर्श बनाकर पेश करने वाली ब्राह्मण चेतना ने दलित संत कवि रैदास की कल्याणकारी राज्य की संकल्पना बेगमपुरा को तबज्जो तक नहीं दिया, जबकि रैदास कहते हैं: ‘ऐसा चाहूँ राज्य मैं जहां मिलै सबन को अन्न, छोट-बड़े सब सम बसै रैदास रहे प्रसन्न.” चौथीराम यादव ने वर्तमान में हिंदुत्ववादी उत्साह के खतरे और उसे संबोधित करने की दलित साहित्य की भूमिका को जरूरी बताया.
सत्र की शुरुआत में लेखिका रजनीतिलक ने दलित साहित्य की प्रवृत्तियों पर अपनी बात कहते हुए प्रतिरोध को उसकी मूल प्रवृत्ति के रूप में चिह्नित किया साथ ही इस बात पर चिंता जताई कि अभी दलित साहित्य अपनी अस्मिता की दावेदारी के साथ दर्ज ही हो रहा है कि इसके ही एक खेमे से ‘दलित शब्द’ पर ही आपत्ति दर्ज की जा रही है.”
 
आलोचक बजरंग बिहारी ने कहा कि ‘रामजस कॉलेज सहित हालिया घटनाओं को लेकर चिंतित हूँ, यह चिंता आज के विषय से भी जुड़ जाती है, जिस भाषा और भंगिमा के साथ राष्ट्रवाद को परोसा जा रहा है वह खतरनाक है. दलित साहित्य को इन सवालों को, उग्र हिंदुत्व के खतरे के सवालों पर विचार करना होगा.”
 
युवा आलोचक गंगा सहाय मीणा ने वर्तमान की स्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए उससे हो रहे संघर्षों को रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि ‘ सारे संघर्षों को वास्तविक रूप से एक साथ आना होगा. जय भीम लाल सलाम को भी और उसे विस्तार देते हुए जय भीम जोहार जयपाल तक, ऐसा कहते हुए  गंगा साही  संविधान निर्माण के दौरान जयपाल सिंह मुंडा और बाबा साहेब आंबेडकर के संवादों को ख़ास तौर पर रेखांकित कर रहे थे.
 
दूसरे सत्र में ‘समता की समग्र समझ: दलित स्त्रीवाद’ विषय पर वक्ताओं ने दलित स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी और उसकी मुख्य स्थापनाओं पर बात की. वक्ताओं ने जेंडर, जाति और वर्ग के सवालों को दलित स्त्री के नजरिये से व्याख्यायित किया. छात्र एक्टिविस्ट और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधरत अपराजिता ने दलित पैंथर के घोषणा पत्र को रेफर करते हुए दलित शब्द के भीतर महिला अस्मिता को शामिल किये जाने की ऐतिहासिकता पर बात की और साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि इस ऐतिहासिकता के बावजूद दलित स्त्रियों को अपनी बात क्यों कहानी पड़ी.
 
आलोचक कवितेंद्र ने जहां दलित स्त्रियों के दोहरे शोषण को रेखांकित करते हुए जाति और जेंडर को शोषण की कैटगरी के रूप में चिह्नित किया वहीं उन्होंने कहा कि शोषण तो त्रिस्तरीय है, यानी वर्ग भी एक कैटगरी है. साथ ही उन्होंने कहा कि सभी अस्मिताओं को, सारे संघर्षों को अनिवार्य शत्रुता से बचते हुए साझे संघर्ष की भूमिका बनानी चाहिए.’
आलोचक और रचनाकार रजनीदिसोदिया ने फिल्मों और साहित्य के माध्यम से अलग-अलग जाति-समूहों की स्त्रियों की अलग-अलग मुक्ति प्राथमिकताओं को स्पष्ट किया और दलित स्त्री के अपने संघर्ष में सामूहिकता के भाव और सवर्ण स्त्री के संघर्ष में निजता के भाव को चिह्नित किया.
 
स्त्रीवादी अधिवक्ता अरविंद जैन ने आंतरिक नेतृत्व की जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने यह भी सपष्ट किया कि जबतक दलित स्त्री और स्त्री के निजी संपत्ति के अधिकार सुनिश्चित नहीं होंगे,  उतराधिकार को पुत्राधिकार से मुक्त कर पुत्र्याधिकार तक नहीं विस्तृत किया जाएगा तब तक उसकी यौनिकता पर नियंत्रण की व्यवस्था बनी रहेगी.
 
सत्र की अध्यक्षता करते हुए रचनाकार और आलोचक अनिता भारती ने कहा कि सत्र का विषय ‘ समता की समग्र समझ: दलित स्त्रीवाद’ ही अपने-आप में दलित स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी सपष्ट कर देता है. उन्होंने दलित स्त्री के लेखन और सवर्ण स्त्री के लेखन में विषय और ट्रीटमेंट के भेद पर भी बात की.
 
स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने आयोजन के उद्देश्य को लेकर बताया कि ऐसे आयोजनों के माध्यम से व्यवस्था को तत्कालीन और सर्वकालिक चुनौतियों के लिए आयोजन के महत्व पर जोर दिया. उनके अनुसार इन संवादों से वर्चस्वशाली व्यवस्था और दर्शन के खिलाफ समतामूलक दर्शन को मजबूती मिलती है. टिपण्णीकार के रूप में महेश ठोलिया और भीम प्रज्ञा के संपादक हरेश पंवार ने अपनी बात कही.
 
दोनो सत्रों का संचालन क्रमशः अरुण कुमार और धर्मवीर सिंह ने किया. इस अवसर पर कई किताबों का लोकार्पण भी किया गया. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ के द्वारा प्रकाशित और अनिता भारती के अतिथि संपादन में संपादित ‘दलित स्त्रीवाद’, मजीद अहमद द्वारा संपादित ‘मेरा कमरा’ सहित, रजनी तिलक की किताब पत्रकारिता एवं दलित स्त्रीवाद, टेकचंद का उपन्यास दाई, सुशीला टाकभोरे का उपन्यास तुम्हें बदलना ही होगा और कावेरी की आत्मकथाम  टुकड़ा टुकड़ा जीवन आदि किताब लोकार्पित किये गये.
 कार्यक्रम का प्रायोजन जयराम यादव,  चेयरमैन संतोष देवी चैरिटेबल ट्रस्ट जखराना का था.

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ISSN 2394-093X
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