महिला दिवस पर कुछ कविताएं
मैं नहीं छिनने दूंगी अपनी पहचान…
ऐ सुनो पितृसत्तामक समाज
मैं तुमसे पूछना चाहती हूं एक सवाल?
क्यों मेरी पहचान छिनना चाहते हो तुम?
मैंने तो तुमसे कभी नहीं कहा
भूल जाओ, अपनी जड़ों को
मां-बाप, परिजनों को
उन गलियों को जहां हम जीते हैं
अपना बचपन, जहां होती है जिंदगी जवां
कैसे भूलूं मैं मां की लोरियों को
पापा के लाड़ को,
भैया-दीदी, दोस्तों के साथ की मस्ती को
मैं तो अपनी जड़ों से बिछड़कर
लहलहाती हूं तुम्हारे आंगन में
हां सही है मेरा नाम जुड़ा है तुमसे
संग कटेंगे अब जीवन के शेष अध्याय
लेकिन इसके माने ये तो नहीं
कि तुमसे जुड़ते ही जीवन की किताब के
मिट गये सारे पुराने पन्ने.
इस समाज ने हमेशा छिनी औरतों से उसकी पहचान
लेकिन मैं अपनी मां की तरह
नहीं करूंगी त्याग, नहीं फटने दूंगी
अपने जीवन से प्रारंभिक पन्नों को
तुम मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय हो
किंतु मेरी बुनियाद प्रारंभिक पन्ने हैं
उन पन्नों के बिना गिर जायेगी
मेरी जीवनरूपी इमारत
इसलिए मैं सफल नहीं होने दूंगी
इस साजिश को,
मैं तुम्हारे साथ हूं खड़ी
लेकिन तब ही, जब तुम
स्वीकारो मेरी पहचान को
क्योंकि मैंने तो तुमसे
कभी नहीं छिनी तुम्हारी पहचान…
रजनीश आनंद
मात्र देह होने का एहसास…
मैं औरत हूं, लेकिन
बार-बार होता है एहसास
मात्र देह होने का
आईने के सामने खड़े होकर
जब भी टटोला है खुद को
साफ उभर आयीं, वो वहशी नजरें
जो बचपन से आज तक
मुझे लील जाने को आतुर थीं
जिन्होंने बार-बार कराया मुझे
मात्र देह होने का एहसास
घर के परिचित, जो मां के सामने
पुचकारते थे मुझे, वही
मां के जाते ही, खूंखार लगने लगते थे
उनकी तेज होतीं सांसें, आज भी
डरा जातीं हैं मुझे
मां के जाते ही वे जकड़ना चाहते थे मुझे
अपनी वासना के जाल में
मैं भागकर छुप जाती थी मां के आंचल में
ऐसी ललचाती नजरों से कभी नहीं बच पायी मैं
घर-बाहर हर जगह मौजूद हैं ऐसी नजरें
तभी तो हर शाम जब आफिस से घर आती हूं
ऐसी घूरती, निगलने को आतुर नजरों से भिड़कर
औरत नहीं मात्र देह होने का
एहसास घर कर जाता है मन में…
अब इच्छाओं पर नहीं लगेगा ताला
क्यों मेरी हर इच्छा पर
ताला लगा दिया जाता है?
और चाबी नहीं दी जाती मुझे
मरती इच्छाओं के बंद कमरे में
घुटन सी महसूस होती है
पसीने से तर-बतर शरीर
लेकिन फिर भी मैं
जद्दोजहद करती हूं
कोई झरोखा मिल जाये
जहां से झांकू मैं
अपनी इच्छाओं का बालपन निहारूं
उसकी अल्हड़ जवानी का लुत्फ उठाऊं
लेकिन नहीं, मैंने तो हमेशा
अपनी इच्छाओं को अर्थीं पर देखा
हां, उसे कांधा देने समाज के कई ठेकेदार आ जाते थे
लेकिन बस अब और नहीं
तय कर लिया है मैंने
तोड़ दूंगी हर दीवार
नहीं सजने दूंगी
अपनी इच्छाओं की अर्थी
औरत हूं मैं, सृजन कर सकती हूं
तो जन्म दूंगी अपनी
इच्छाओं के मधुर जीवन को
मासूम बालपन से गंभीर वृद्धावस्था
तक संवारूंगी उसे, क्योंकि अब कोई
ताला नहीं लगा सकेगा मेरी इच्छाओं पर…
ताकि सुंदर बने स्त्री-पुरुष संबंध…
बस बहुत हुआ अब,रूक जाओ कि
मैं अब नहीं सह पाऊंगी
कब तक तुम रहोगे
मेरे तारणहार की भूमिका में
अरे! मैं निर्णय ले सकती हूं
यह जीवन मेरा है, मैं इसे
अपने तरह से जीना चाहती हूं
हमेशा मेरे लिए निर्णय लेकर
क्यों पंगु बनाकर रखना चाहते हो मुझे
हमेशा मैं छली जाती हूं
प्यार, अधिकार से ना मानूं
तो ताकत का जोर दिखाते हो तुम
उसपर भी ना मानूं तो
रस्मो-रिवाज की पाबंदी लगाते हो तुम?
तुम भी तो इसी समाज का हिस्सा हो
तो तुम क्यों नहीं मानते उन रिवाजों को?
मैं अकेली क्यों पिसती रहूं परंपरा की चक्की में
जब से मानव सभ्य हुआ, उसने औरतों पर
कसा अपना शिकंजा, बनाया उसे वस्तु
जो या तो बिस्तर पर शोभा देती है
या फिर घरेलू कामकाज में पिसती है
घर के बाहर जाकर काम करके भी
वो नहीं थकती, तुम थकते हो
तभी तो जब आफिस से दोनों आते हैं
तुम हुक्म बजाते हो, वो बांदी बन जाती है
कब समझोगे तुम भला
एक ही सिक्के के दो पहलू हैं हम
जीवन की नैया अगर तुम,तो पतवार हूं मै नहीं चल सकता दोनों के सामंजस्य
बिना यह सुंदर जीवन
तुम्हारी चाहते हैं, तो क्या मेरी नहीं हैं
तुम कह सकते हो अपनी बात
मैं कहूं तो बदचलन कहलाती हूं
लेकिन बस अब और नहीं
मुझे नहीं चाहिए, तुम्हारी दया
हां, मैं तुम्हें दोस्त के रूप में चाहती हूं
जो चले मेरे साथ, मुझे ऊर्जा दे
मेरी ऊर्जा को, मेरे जीवन को निस्तेज ना करे
तो आओ निर्णयकर्ता नहीं मित्र बनो तुम
ताकि सुंदर बने स्त्री-पुरुष संबंध…