उस आख़िरी दृश्य में अनारकली !

डिस्क्लेमर: इस फिल्म के साथ हालिया प्रदर्शित फिल्म पिंक और पार्च्ड की एकाधिक बार तुलना इसलिए कि ये सारी फ़िल्में स्त्रीवादी फ्रेम की दावेदारी रखती हैं. 

अनारकली ऑफ़ आरा एक सीधी रेखा की कहानी, कई बार जानी पहचानी कहानी पर बनी फिल्म है. फिल्म की केन्द्रीय घटना तो एक खबर का कथांतरण है-चर्चित गायिका देवी ने 2011 में बिहार के जेपी यूनिवर्सिटी छपरा के तत्कालीन कुलपति पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया था. कहानी के परिवेश को थोड़ा खीच कर पीछे ले जाया जा सकता है, जब अलग-अलग अवसर पर नर्तकियों का नाच बिहार की संस्कृति में आम था. लेकिन क्या ख़ास है, जो अविनाश दास के लेखन और निर्देशन में बनी पहली ही फिल्म को बेहद खास बनाता है, पहली ही कृति के क्लासिक हो जाने की हद तक ख़ास.

मैं बहुत निर्मम दृष्टि लेकर फिल्म देखने गया था. ऐसा इसलिए भी कि अपने पास से बेहद पास से किसी साथी की कोई मार्क होती सफलता सामने आती है तो आप उत्सुकता, कौतुहल, अभिमान और कुछ-कुछ कठोर आलोचना के भाव से उस सफलता को देखते हैं. मुम्बई की ओर रुख करने के तीन-चार साल के भीतर अविनाश दास ने एक फिल्म हमारे सामने रख दी-निदेशन और लेखन के साथ तो स्वाभाविक है इन मिश्रित भावों के साथ इस घटना का स्वागत. इसी बीच ‘ ज़रा घिस ल, तनी रगड़ ल, ये दारोगा दुनलिया में जंग लागा हो’ जैसे गीत और कथित द्विअर्थी संवादों के टीजर सामने आ रहे थे, फिल्म भी नाचने-गाने के पेशे वाली एक स्त्री के इर्द-गिर्द बताई जा रही थी, फिर तो एक बात और स्वाभाविक थी -इसे देखते वक्त जाति और जेंडर की दृष्टि का केंद्र में होना. इस तरह सिनेमा देखने के निर्मम टूल से गुजरना था फिल्म को, उसके निदेशक, कथाकार, अभिनेत्री और अभिनेताओं को.  फिल्म निर्माण और उसके चलने की व्यावसायिक आवश्यकताओं के बीच रस्सी संतुलन की अपेक्षा तब और बढ़ जाती है, जब देश के सबसे संवेदनशील माने जाने वाले विश्वविद्यालय की प्रोडक्ट और देश की अलग-अलग घटनाओं पर अपनी बेबाक और प्रगतिशील राय रखने वाली अभिनेत्री इसकी लीड भूमिका में हो.
 ‘पार्च्ड’ के जवाब , ‘पिंक’ से कुछ सवाल : स्त्रीवाद के आईने में (!)

पावरफुल इमेजरी (बिंब) जो फिल्म को ख़ास बनाते हैं:    

इसके पहले कि कैमरे की बोलती भाषा, जो स्पष्ट बिंबों के माध्यम से सामने आती है को पढ़ें, डिकोड करें एक संकेत की ओर ध्यान स्वतः रुक जाता है. आप फिल्म देखने के पहले तक तो गानों और कथित द्विअर्थी संवादों की सूचना से लोडेड भाव में होते हैं, कुछ और देखने-बूझने के इरादे में होते हैं कि पर्दे पर दुष्यंत की पंक्ति आपकी सोच को थोड़ा झटका देती है और आप सचेत हो जाते हैं कि आप जिस मानस से यहाँ फिल्म देखने आये हैं, उससे कुछ तो अलग दिखने वाला है. पंक्ति है:
  ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा 
                मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा. 
अब ज़रा कैमरे की भाषा और फिल्मकार के सचेत संकेतों को समझते हैं

प्रतिनायकों की जाति और जनेऊ (यज्ञोपवीत का धागा) का सन्देश 

फिल्म का पहला प्रतिनायक आरा के किसी कुबेर सिंह विश्वविद्यालय, जो संवादों में आरा का कुंवर सिंह विश्विद्यालय ही है, का कुलपति है. नाम के पीछे चौहान सरनेम लगा है, जिससे यदि जाति स्पष्ट नहीं हो तो उसे समझाने के लिए बार-बार उसके गले से लटकते जनेऊ पर फोकस करता कैमरा उसकी जाति स्पष्ट कर देता है- द्विज जातियों के बीच लोकेट कर देता है. प्रतिनायक के साथ ही दूसरा प्रतिनायक है थाने का थानेदार: जिसके कंधे से लगे नेम प्लेट पर कैमरे का फोकस सूचित करता है- बुलबुल पांडे.



नायिका के घर से झांकती वर्गीय और सामाजिक स्थिति 

फिल्म का एक ख़ास और बहुत देर तक बार-बार दिखने वाला लोकेशन है नायिका अनारकली का घर, जो है तो किसी रिहायशी इलाके में ही, कोठा नहीं है, लेकिन उसके घर का आँगन, छोटी-छोटी कोठरियां, चापानल, स्टोव पर बनता खाना, बिखरे-बेतरतीब सामान और नृत्य के साज-सामान- ये सब काफी हैं गायिका-नर्तकी के पेशे से गुजर बसर करने वाली नायिका की वर्गीय और सामाजिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए, बहुत कुछ उसके नाम और उसके आस-पास के लोगों के नाम-काम से भी स्पष्ट हैं. और  उसकी मां की शादी के नाच के दौरान ह्त्या के बाद बेटी का भी इस पेशे में आने की विवशता, यानी पीढी-दर-पीढी सा चलन के साथ ही बेटी का पढाई इसलिए छोड़ना का स्कूल का मास्टर उसके गायिका की बेटी होने के कारण ही शायद, उससे अश्लील गाना सुनना चाहता है- इस सबके साथ दुष्यंत की पंक्ति काफी है नायिका की सामाजिक स्थिति और संघर्ष से दर्शकों को जोड़ देने के लिए.

 रंडी अश्लील शब्द है और फक धार्मिक (!) … पिंक के बहाने कुछ जरूरी सवाल

हीरामन की खोज 

तीसरी कसम फिल्म के नायक हीरामन का भोलापन तीसरी कसम फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है- तीसरी कसम के इस भोले और नन-डिमांडिंग आशिक की छाप दर्शकों पर अमिट पड़ती है यह चरित्र आज भी हिन्दी सिनेमा की मजबूत उपस्थिति है. इस फिल्म में भी एक हीरामन है, सातवें दशक के हीरामन सा ही भोला, लेकिन ग्रामीण नहीं स्लमवासी हीरामन !. नायिका के द्वारा पहली बार अपनी बांह पर छुअन के अहसास का आनंद लेते/ उसे याद करते हीरामन को एकाधिक बार देखना नायिका के प्रति उसकी मोह को स्पष्ट करता देता है. उसकी ‘छुअन’ के प्रति प्रतिक्रया शायद आपको हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास के नायक ‘रैक्व’ की पीठ पर स्त्री की छुअन के बाद की प्रतिक्रिया से जोड़ दे, यदि आपने ‘अनामदास का पोथा पढ़ा हो तो.’ और वह क्षण भी आप नोटिस करेंगे, जब भोगने या ऐन्द्रिक प्रेम के लिए अपने चारो ओर नाचते पुरुषों के बीच एक हीरामन को देखकर अनारकली उसके पाँव छू कर अपनी प्रतिक्रया देती है, सम्मान देती है.  ‘देश के खातिर’ के अपने टेक के साथ यह हीरामन भी यकीनन आपको फिल्म देखने के बहुत बाद तक याद रहेगा.

और अनारकली की  वह पदचाप, चेहरे का वह तोष 

फिल्म के अंत में अनारकली अपनी लड़ाई को अपनी नाच के तांडव भाव से क्लाइमेक्स तक ले जाती है, तांडव भाव के साथ उसका क्रोध, उसकी बदहवासी, उसकी पीड़ा लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के बाद तक जारी रहते हैं- लड़ाई के अंजाम के साथ वह अकेले निकल पड़ती है सड़कों पर, सडक जो अपने दृश्यों से किसी भी शहर के सिविल लाइन इलाके की सडक है- और अचानक से, झटके में वह इस तांडव भाव से
बाहर निकलती है, उसकी चाल बदल जाती है, उसकी  पदचाप भी और चेहरे पर पीड़ा की जगह तोष का भाव खिल जाता है- वह भाव बदले के भाव या जंग जीतने के भाव से अलग है, सारी चीजों से निकल आने का भाव और अपनी लड़ाई के अंजाम की पटकथा खुद लिखने का भाव, उसके आस-पास तब न उसका हीरामन है, न नया दोस्त अनवर और न कोई अन्य रखवाला- यहीं से यह फिल्म ‘नो’ कहने के महत्व को समझाने के लिए बनी कोर्ट रूम में अतिनाटकीय और अविश्वसनीय रूप से घटित होने वाली फिल्म ‘पिंक’ से कोसो आगे चली जाती है. पिंक फिल्म में मैंने मर्दाने या संरक्षक स्त्रीवाद की आलोचना करते हुए एक विस्तृत समीक्षा पहले लिखी थी- इस पूरे दृश्य में कैमरे की भाषा है और कैमरे के पीछे से संचालक का विवेक, जिसे स्वरा भास्कर के अभिनय ने बखूबी अभिव्यक्त किया है.


कहानी जानी-पहचानी होकर भी क्यों नई है? 


ऐसी कितनी कहानियां हम सबने देखी होंगी अलग-अलग फिल्मों में. एक नायिका, नाचने-गाने वाले परिवेश से, और उसे भोगने के लिए व्याकुल शक्तिशाली खलनायक के षड्यंत्रों और उनके खिलाफ नायिका के संघर्षों से आगे बढ़ती कहानी. उन फिल्मों में पीडिता नायिका होती है और उसके उद्धार के लिए एक प्रेमी होता है, एक नायक होता है. लेकिन अनारकली ऑफ़ आरा के इर्द-गिर्द प्रेमियों की जमात तो है, लेकिन उद्धारक की भूमिका वह उन्हें लेने नहीं देती, अपने हिस्से की लड़ाई वह खुद लड़ती है अंजाम तक-मर्द तो बहुत हैं, नाच-गाने के उसके लिए सट्टा ठीक करने वाला उसका आशिक रंगीला, हीरामन, उसका कमउम्र आशिक अनवर और कैसेट कंपनी का मालिक- सबके सब उसके मददगार हैं, लेकिन न कोई उद्धारक है, न उद्धार के लिए तत्पर, और न ही ऐसा स्पेस उन्हें अनारकली देती है. कहानी नायिका की एजेंसी को कर्तापन के भाव को बखूबी उभारती है. वह स्वीकार करती है कि ऐसा नहीं है कि नाचते-गाते हुए वह किसी के साथ संबंध बनाने से पूरी तरह परहेज करती हैं, लेकिन कोई बिना उसकी मर्जी के सरेआम उसकी बेइज्जती नहीं कर सकता है. यही कर्तापन इस फिल्म की कहानी को प्रचलित कहानियों से अलग करता है. कहानी का अंत एक सन्देश से होता है, ‘पत्नी के भी न कहने के अधिकार से’ और हाँ अंत प्रतिनायक की मौत या ह्त्या से नहीं उसकी संभावित गिरफ्तारी और उसके बहते आंसुओं के साथ होता है. पूरी फिल्म में दर्शक नायिका की पीड़ा से जबतक कि जुड़ता है और उसके प्रति किसी सहानुभूति भाव में आता है, नायिका पीडिता की बनती छवि से बाहर आ जाती है, बार-बार बाहर आ जाती है, अपनी लड़ाई में अपनी एजेंसी के साथ- बेचारा दर्शक भी उसके उद्धारकर्म में अपनी भूमिका नहीं निभा पाता.



आंचलिकता के बावजूद संप्रेषणीयता


फिल्म अपने नाम, अपने कथा-परिवेश, फिल्मांकन और संवाद के स्तर पर आंचलिक है. उसके द्विअर्थी संवादों को समझने के लिए भी उस अंचल की भाषा को समझना जरूरी है. लेकिन कुछ तो दृश्य माध्यमों की अपनी ताकत के कारण और कुछ आंचलिक भाषा के बीच से संवाद की संप्रेषणीयता के कारण दर्शक शायद ही कहीं खुद को डिटैच महसूस कर पाता होगा. फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ की क्षमता को जो समझता है, वह इसे भी समझ सकता है.

न विक्टिमाइजेशन, और न देह राग 

इस फिल्म की खासियत है कि इसमें कथाकार और निदेशक का दूसराभाव (अदरनेस) शायद ही कहीं हावी हुआ है, निश्चित तौर पर वह इस चरित्र के लिए अदर है, लेकिन उसका अदर होना इस फिल्म को कहीं प्रभावित करता नहीं दिखता. नायिका का न तो कहीं विक्टिमाइजेशन है, अति पीडिता की छवि है, और न ही कहीं उसकी देह की अतिकेंद्रियता या दैहिक अंतरंगता के लम्बे प्रसंग- ये सारे तत्व ऐसी थीम पर बनी फिल्मों में बहुधा पाये जाते हैं. इन तत्वों के होने या सायास उन्हें लाने से महिला निदेशक भी नहीं बच पाती हैं, हालिया प्रदर्शित फिल्म पार्च्ड इसका एक उदाहरण है.

अभेनित्रियों की उपस्थिति 


यह फिल्म बॉलीवुड में नायिकाओं की बढ़ती ताकत का भी एक उदाहरण है, जो अपने अभिनय के बल पर नायक विहीन सफल फ़िल्में दे रही है. स्वरा भास्कर फिल्म की नायिका के रूप में अप्रतिम है. फिल्म का अभिनय पक्ष काफी मजबूत है- जो सभी चरित्रों के हिस्से से एक समान सच है. मुझे अनारकली (स्वरा के अभिनय से उभरी अनारकली) में वे नायिकायें दिखाई दे रही थीं, जिनसे अपने शोध के दौरान मैं मिला था- नाच-गाने और देह व्यापार से जुडी महिलायें- उस आख़िरी दृश्य में भी जब अपनी अस्मिता के सम्पूर्ण बोध के साथ अनारकली सडक पर अपादमस्तक अकेली थिरक सी उठती है.
और अंत में गीत. सच में इस फिल्म के गीत इसकी जान हैं. एक गायिका की कहानी में जिसका होना जरूरी भी है. एक गीत साथी डा. सागर ने भी लिखा है, अपने चिरपरिचित अंदाज का श्रृंगार गीत.

पुनश्च 


अनारकली यानी बाई जी


‘बाई जी’ (अनारकली)के बारे में तो बचपन में बहुत पहले सुन लिया था, जब लोग दुर्गापूजा के आयोजन के लिए गाँव के लिए बाई जी बुलाने की तैयारी करते, गाँव में कभी बाई जी नहीं आई-लौंडा नाच या वीसीआर रिकार्ड से काम चलाया गया. सबसे स्पष्ट और बाई जी की यौनिकता पर सीधा प्रहार करते हुए घटना का जिक्र सुना शहर में सातवीं-आठवीं में, जब पान की दुकान पर पता चला कि पड़ोस के विधायक जी के परिवार के लोगों ने ‘बाई जी’ लोगों को बुलाया था- नाच के दौरान और तथा नाच के बाद रात भर तंग करते रहे-प्राइवेट पार्ट को टच, चोट आदि, आदि -बाई जी रोते -रोते गईं थीं. आगे चलकर यह भी सुना कि मध्य बिहार के एक बाहुबली ने एक बाई जी से शादी कर ली-हालांकि बाद के दिनों में उन्हें घर में सम्मानित देखा, मोहल्ले में दबंग. फिर एम.फिल के रिसर्च के दौरान ‘बाई जी’, यानी नाचने वाली महिलाओं से उनके कोठे पर मिला और देह व्यापार करने वालियों से भी. जिनसे मिला, उनमें से कुछ सिन्दूर लगाती थीं, उनके बच्चे पढ़-लिख रहे थे और वे रोज मुजरा करतीं अपने कोठे पर.


एक कहानी भी पढ़ी हरि भटनागर  की इन दिनों ‘मुसुआ’. कहानी का अंत एक किशोर होते बच्चे ‘मुसुआ’ के द्वारा अपनी बाई जी से बदला लेने के साथ होता है, वह उनका टहलुआ होता है, रोज उनकी देह टिपता है, पाँव- पीठ, जांघ-कभी वासनात्मक सोच नहीं होती उसके मन में- लेकिन किसी दिन अपने एक अपमान का बदला लेने के लिए वह उनके लहंगे में ‘मूस’ डाल देता है- बाई जी पीड़ा से कराहती हैं और वह ताली बजाकर हंसता है.
बाई जी की पहली घटना और कहानी में बाई जी के साथ मुसुआ का बदला-‘बाई जी’ की यौनिकता पर मर्दाने हमले से जुड़े हैं, कमोवेश एक जैसे. हालांकि मुसुआ की बाई जी दबंग हैं, मेरे शोध की बाई जी लोगों की तरह या बाहुबली की पत्नी की तरह- पीड़ा के उनके अपने प्रसंग होंगे विधायक जी वाली घटना की बाई जी की तरह, लेकिन अधिकाँश मामले में लोगों के साथ व्यवहार करते हुए वे दबंग होती जाती हैं और अपनी अस्मिता के प्रति सचेत और यौनिकता के प्रति अपने नियन्त्रण बोध से भरी भी- इसके उदाहरण कोठों के इलाके से घूमते हुए कई बार आपको मिल सकते हैं, जब बुलंद आवाज में बाई जी लोग किसी-किसी ‘मर्द’ को डपटती आपको मिल जायेंगी.

और एक बाई जी अनारकली ऑफ़ आरा के रूप में भी है स्क्रीन पर. वह दबंग, बोल्ड और अपनी वजूद पर अधिकार बोध से भरी है- वह गालियाँ गाती जरूर है, विधायक जी के परिवार जैसे गलीजों से निपटना भी जानती है- हालांकि इस फिल्म का प्रतिनायक विधायक नहीं, कोई पारम्परिक लफंगा नहीं- एक बड़ा भारी शिक्षाविद है, शिक्षा का अफसर!

संजीव चंदन स्त्रीकाल के संपादक है 
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