भाषा बहता नीर

निवेदिता

पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamai

मैं जब बड़ी हो रही थी तो मेरे आस -पास अनेक बोली और भाषा के रंग थे.मैथिली, मगही, बंगला, उर्दू, पंजाबी, तेलगू समेत बिहार के हर कोस पर बदल जाने वाली बोली हमारे बीच थी.हमसबों ने उसी परिवेश में रहते हुए कुछ भाषा बिना मेहनत किये सीख ली.जैसे बंगला, उर्दू और मैथिली, कुछ पंजाबी और कुछ तेलगू के शब्द.बंगला और उर्दू तो जैसे हमारे बीच की भाषा हो गयी.भाषा के संस्कार जेर, जबर, नुख्ता दुरुस्त हुए .ये सब इसलिए हुआ कि अलग-अलग भाषा, संस्कृति से जुड़े लोग एक ही मुहल्ले में साथ रहते थे.हमारे बीच भात और रोटी का साथ था.मां कोई सालन बनाती तो शबनम चाचा के घर भेजती , चच्ची गोश्त भेजती.उसी मुहल्ले में केरल से आकर बसे परिवार  से हमलोगों की गहरी दोस्ती थी.

रज्जी उस परिवार का बेटा और मैं उसकी दीदी थी और अरमान भाई हमसब के भाई.अरमान भाई को इस बात का मलाल वर्षो तक रहा कि मेरी वजह से मुहल्ले की सारी लड़कियों के  वो बहन हो गये थे.राखी के दिन हमारे अपने भाईयों से ज्यादा मुहल्ले के भाई थे जो बहनों की सुरक्षा में लगे रहते थे.कभी-कभी हमें खींज होती थी उनके भाई वाले रौब से .पर हम सीख रहे थे, जीवन के अनेक रंगों से घुल-मिल रहे थे.आज जब मैं अपने देश में भाषा को लेकर गहरी हो रही दीवार को देखती हूं तो लगता है कि हम किस रास्ते चल पड़े हैं .


हम कौन सी जुबान को अपना कहें, किसे पराया.सारी जुबानें हमारे देश के रगों में बह रही हैं.हिन्दी , उर्दू तो बहनें हैं.उसे कैसे अलग कर सकते हैं.मैंने उर्दू और बंगला का संस्कार अपने बचपन से पाया.अगर नसीम चाचा, शबनम चाचा और उस जुबान को बोलने वाली मेरी सहेलियां नहीं होतीं तो हमसब उर्दू की खुशबू से उसकी तहजीब से वाकिफ नहीं होते.मुझे याद है छुटपन में हम सारे दोस्त कभी शबनम चाचा तो कभी रज्जी के घर पडे रहते.हिन्दी, उर्दू, कन्नड, बंगला जुबान का घाल-मेल होता रहता.हमलोग खूब हंसते.अक्सर देर हो जाती तो चच्ची कहती अरे अपने घर जाओ.रात हो रही है.उनका कहना था बाज ;बुरी आत्मा बदरुहें बच्चों की शक्ल में निकलती हैं. बदरुहें हवा में चिरागों की तरह उड़ती हैं.हमारी बोउदी  कहती – तुमरा एकला जाबे ना, दादा संगे निये जाओ और काकी कहती भादों के पुर्नमासी रैत में आत्मा सब नाव पर सवार  घुमैत रहे छै.हम बच्चे थोड़ा डरते और थोडा आत्मा के रहस्यमयी दुनिया के असर में रहते. ये कितनी अनोखी बात थी कि एक ही तरह की चिंता सारी जुबान में थी.बंगला मैंने सबसे आसानी से सीखा .बंगला और मैथिली का स्क्रिप्ट एक ही है.भला हो उस समय का जिसमें सारी जुबानें एक दूसरे की कातिल नहीं दोस्त थीं, बहनें थीं.

ये जुबान हमारी रुहें हैं.इसी दौर में मैंने उर्दू  पढ़ा, बंगला  और मैथिली भी.उर्दू का स्क्रिप्ट नहीं सीख पाने का मलाल है मुझे .इस बात का गहरा अफसोस है कि मैं अपने देश की और जुबान नहीं सीख पायी.उर्दू से मुहब्बत हुई.फैज मेरे पंसदीदा शायर हैं.क्रांति और मुहब्बत से लबरेज उनकी नज्म हम जंवा दिलों पर राज करती थीं, आज भी करती हैं.मैेने उर्दू में लिखने वाले तमाम अफसानानिगार को पढ़ा.मंटो, इस्मत, कुर्रतुल-एन हैदर को पढ़ते हुए जाना कि जुबान और देश की मुक्तलिफ तहजीव को जाने बगैर आप ना तो बेहतर अफसानानिगार हो सकते हैं ना बेहतर इंसान.जब मैं कुर्रतुल एन हैदर को पढ़ती हूं तो लगता है कि उन्होंने अपने देश की संस्कृति को कितने बेहतर तरीके से समझा है.कितनी गहरायी है उनमें.अपनी एक कहानी में लंका का बयान जो उन्होंने किया वो क्या  बगैर अपनी संस्कृति को समझे लिखा जा सकता है.

वे लिखती हैं-‘समंदर के वस्त में एक पहाड़ है .उस पर ब्रह्मा ने एक मजबूत किला बनाया है.जो इंद्र के शहर अमरावती से भी ज्यादा खूबसूरत था जो लंका कहलाता था.उसके चारों ओर समंदरी पानी की खंदक थी और उसकी दीवारें सोने की थी.जिसमें हीरे जवाहरात जड़े थे.रावण ने उस लंका को अपनी राजधानी बनाया था.इशरत, दौलत, बेटे, अफवाज, फतहो-नुसरत, ताकत, जहानत, सबकुछ उसका था.ये कुर्रतुल एन हैदर ही लिख सकती हैं.जिनके लिए रामयण और कुराण अलग नहीं है.जिन्होंने दुनिया की सारी तहजीब, इतिहास और संस्कृति को समझा है.अब जो लोग भाषा को लेकर नफरत की दीवार खडे कर रहे हैं वे बतायें ये किसकी भाषा है? किसका तहजीब है? तुम कौन सा रंग चुनोगे हर रंग मुहब्बत का है.हर जुबान हमारी है, हर तहजीब में देश बसा है और हर  शब्द में महकतें हैं रंग-बिरंगी जुबां के फूल.

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नीलेश झाल्टे  जलगाँव  स्थित  पत्रकार हैं  और  दैनिक  लोकमत  समाचार  से  जुड़े  हैं  . संपर्क: 9822721292

 

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