देह और प्रज्ञा के बीच: अलका प्रकाश की कविताएं

अलका प्रकाश


स्त्री -विमर्श से संबंधित तीन पुस्तकें ,” नारी चेतना के आयाम “,”तंद्रा टूटने तक”एवं “सत्ता प्रतिष्ठान और स्त्री अस्मिता “.’सिर्फ सवाल नहीं’कविता संग्रह
संपर्क : alka.prakash12@gmail.com

महिला दिवस पर 


देह और प्रज्ञा के बीच

बिखर गई मेधा
देेह के आगे
दिखती नहीं प्रज्ञा
एक  जोड़ी जांघों के समक्ष

जाना केवल
आदिम रसना ने
देह का मादक स्वाद

अन्य मनस का बोध
होने न दिया अहंकार ने
प्रकृति,   पुरूष से हारी
क्या करती वह बेचारी

ले आती घोर बवडंर
कभी अंधड़ कभी तूफान
फिर भी एहसास
कहाँ करा पाती

शिव-शक्ति का संमन्वय
मात्र, मिथ एक कल्पना
अहा! देवी देह से परे
तुम हो क्या ?

पंच कन्याओं से पूँछू
उत्तर देंगी क्या वे?

सुमित्रा महाजन से पूँछू
शायद कुछ बतला सकें
स्मृति इरानी या सुजाता सिंह
एक बार स्पष्ट कर दें

देह मुक्त छवि होती है क्या स्त्री की?
या वंचना हैं ये सब!

फरेब

जब बनी मैं माँ
तब समझा महानता का छद्म
गरिमा और मर्यादा का विद्रूप

आज चेहरे की झुर्रियाँ और एकाकीपन
मिला यही सेवा का प्रदाय
सारा जीवन सब में बीता
कहाँ गये वे सब

मातृत्व महान तब क्यों नहीं
जब अनब्याही बनती है माँ
प्रेम पाप कैसे हो गया?

समर्पण का वह पल तो पावन था
कुछ हंसी कुछ वक्र निगाहों के साये
सब कुछ पितृसत्ता की सहूलियत
उस दायरे के बाहर सब पाप

फरेब ऐसा रचा कि
समझ न सके हम



सोलह  दिसंबर के बाद रफू होती आत्मा

शाम बहुत उदास है आज
मन कहीं गहरे में असहज

आता है बार-बार ख्याल
कि कैसे होगी वह

हो रही है रात
आ रही होगीे आॅफिस से अकेले

कभी-कभी उचट जाती नींद
उन सब स्त्रियों के लिए
जो अपनी आँखो से
देख रही है सपने
बुन रही हैं भविष्य के नीड़

बना रहता है डर
कर लेती हूँ फोन
हो पाती हूँ किन्तु
कुछ ही देर के लिए निश्ंिचत

लगता है सब तरफ से
चीख रहीं है न लड़कियाॅं
आशंकाएं आशंकाए आशंकाए
कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाय
हो जाय बलात्कार
कर दी जाय हत्या

दरिंदे बी.बी.सी. पर कह रहे हैं
न जाने क्या क्या ….

नहीं फूट रही है
अब प्रेम की कोपलें
उग रहे हैं जगह-जगह
विष वृक्ष कांटेदार

निर्भया का जाना
दे गया है भय
चीर गयी है आत्मा अभागी
सभी स्त्रियां कर रहीं हैं प्रार्थनाएं
कि वह पुनः जन्म न ले इस धरती पर कभी .
कि मिले मिले उसको शांति

लड़ रहे है हम लड़ाई
हमें क्षमा कर देना निर्भया
तंद्रा का टूटना जरूरी था

प्रश्नाकुल भाव जगत
और ये आँखे सदानीरा
कि रक्त संबंध भी तो कभी-कभी
दे जाते हैं धोखा
और जब उन्होंने कहा
‘‘कि यह स्पर आॅफ मोमेंट था’’ …

तो लगा कि यह देह का टैबू
आत्मा से बहुत बड़ा हो गया जैसे दैत्याकार

अब तो नहीं होता किसी भी पुरूष पर
विश्वास करने को जी

‘‘वासांसि जीर्णानि,’’
पढ़ते-पढ़ते सोचती हूँ…
नये वस्त्र के अचानक
तार – तार हो जाने पर
रफू से काम चल जायेगा क्या?

मन का चेहरा

जो तेजाब तुम्हारे चेहरे
पर फेंका गया था
उसके कुछ छींटे
हम सबकी आत्मा पर भी पड़े है लक्ष्मी
हरा है वह घाव अब भी

वो चेहरे बिगाड़ने वालों !
देखो आत्मा कितनी उजली हैं हमारी

देखो कैसे हंस रही है तुम पर
मर्मांतक पीड़ा झेलती
जी गई अनन्या फिर भी

सोचा क्या था सनातन पुरूष तुमने
मेरी न हुई तो नष्ट कर दूंगा?

मेरी औरत/तेरी औरत /उसकी औरत
ज्यादा दिन सुख नहीं लूट पाओगे तुम
साध यौनिकता पर नियंत्रण
डाल मानसिक गुलामी और दासता की बेड़ियां
अब कुछ उखाड़ नहीं पाओगे तुम

तुम्हारा जो खूंटा है न
हो गया है बहुत जर्जर
पहले उसे तो उखड़ने से बचा लो!

बेघर 

लड़की का कोई घर नहीं होता
कोई जाति नहीं होती:मिसेज मिश्रा……
यह घर तुम्हारा नहीं
फिर तुम कौन हो इस घर में
जो बार-बार अन्दर-बाहर,
की जाती हो

रात दिन क्यों सजा रही हो इसे
इजाज़त लेती हो हर काम की
जो कभी मिलती, कभी नहीं मिलती

कोई नया कदम उठाते
तुम्हें याद आता है
कभी पापा का चेहरा
कभी मां की आंखें
कभी बच्चे की किलकारी
कभी उसकी तुमसे जुड़ी जरूरतें

सब खोने का भय तुम्हें
बहुत-बहुत डराता है
कुछ पाने के एवज में!

तुम आश्चर्य से देखती हो
हंसते हुए लोग
विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ
मनाते हुए लोग
ज़ेवर से लदी खुशहाल औरतें
पति के साथ सैर करती औरतें
समझौता दर समझौता करती औरतें

तुम क्यों नहीं कर पाती समझौता
जो घर तुम्हारा नहीं है
फिर भी जिसका सबसे अधिक मोह है

औरत हूँ न

घर में पर्याप्त खाना है
पर  खा नहीं पा रही हूँ
मेरा श्रृंगारदान  प्रसाधनों से अंटा है

पर सज नहीं पा रही हूँ
अपने लंबे केशों को संवारने का मन नही करता
कल  मैं इन्हें कटवा दूँगी
बोलने का मन नहीं करता
लोग मेरी बड़-बड़ पर हँसते

कुछ है जो बहुत तंग करता
यह बेचैनी जीने नहीं देती
भाव में अभाव नहीं खोजती
कुछ है मेरी बनावट में कमी
असफलताओ की लंबी श्रंृखला ने

निराशा भर दी
किसी का दोष नहीं
उनको हाथ पीला करने की जल्दी थी
इनको सब परफ्ेक्शन में चाहिये था
सब सज गया है घर-आँगन–फुलवारी
पर मन रो रहा है

अब अमिधा और व्यंजना का नहीं प्रश्न
बात-सीधे-सीधे कहती हूँं
सपाट बयानी मेरी आदत

कला तो उलझाती है
उसका अन्त करती है

एक लड़की की उधेड़बुन

लोकल बस में सफर करते
अक्सर उसकी देह
रगड़ जाती है मर्दों से

सकुचाती वह बैठी रहती
कभी घूरती निगाहों से बचने के लिए
दुपट्टा सिर से बाँध लेती

कभी उसके सहयोगी कहते
चलिए घर छोड़ दें
वह मना कर देती

उसने सुने हैं उनके कह-कहे
‘यार सीट गरम हो गयी’
ऐसी-जैसी बहुत सी बातों को
प्रायः वह अनसुना कर देती

सुबह की आपा-धापी में
जब सारे काम निपटा कर
वह दफ्तर पहुँचती
एक कड़वा स्वर गूँजता
‘कमरे में गरमी आ गयी यार’
अब काॅफी की जरूरत नहीं
‘भोला जाओ कोलड्रिंक लाओ’

उसे पता है-
इसी ‘हाॅट’ शब्द के चक्कर में
विज्ञापन सुंदरियाँ अनवरत्
वक्षों और नितंबो की
शल्य क्रिया करा रही हैं
घर पर कुछ बोले तो
एक रटा-रटाया वाक्य
किसने कहा था, बाहर निकलने को
घर पर पड़ी रहो
क्या वहाॅ खतरे कम हैं

अगर रो कर दुख बाहर करे तो
तमाम कंधे हैं मौके की तलाश में
ऊँगली से हाथ पकड़ने का सफर

उसके कानों में गूंजते हैं रहीम के दोहे
‘रहिमन निज मन की व्यथा’…….
दूसरी ओर से एक नारा-

‘साइलेंस इज वायलेंस’
उसी उधेड़बुन में
उसका सिर चकरा जाता

बाॅस के चैंबर में कैसे जाय
जो टैब पर पोर्न देख
कुर्सी पर टाॅग फैलाए
ढूंढ रहा है अगला शिकार

कहाॅ जा कर फरियाद करे
नौकरी जाने का भय
नारीवाद तो सिखा रहा है
‘देह को मुक्त करो’

उसका प्रश्न है किसके लिए

इन ड्रेकुलाओ के लिए
कोई दार्शनिक की भंगिमा में
कह रहा है, देखो!
औरत की देह हथियार है

इस बाजारवाद के दौर में
तुम्हारे पास देह है
तुम कुछ भी खरीद सकती हो

वह उत्तर देती है-
मेरी देह में एक आत्मा भी है
इसका मैं क्या करूं?