यहाँ झील और ज्यादा गहरी और शांत हो गयी

नूर ज़हीर

वर्जीनिया वूल्फ की किताब  ‘ A Room of One’s Own’ का प्रकाशन 1929 में हुआ था, उसका केन्द्रीय स्वर है कि एक स्त्री का अपने लेखन के लिए अपना कमरा होना चाहिए, अपने निजी को सुरक्षित रखने के लिए भी अपना कमरा, इसके लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है.
हाल में हिन्दी अकादमी द्वारा शिखर सम्मान से सम्मानित नूर ज़हीर का यह लेख द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन से प्रकाशित ‘मेरा कमरा’ किताब का हिस्सा है.

एक छोटा सा कमरा हो, जिसकी एक खिडकी पहाड़ों की तरफ और दूसरी नीली, झिलमिलाती झील की तरफ खुले. लिखने की मेज हो और बाकी दप दीवारें, जिनमे खिड़कियाँ न हों, किताबों से भरी अलमारियों,ताकों से ढकी हों. मेज पर कागज-कलम तो हो ही,साथ ही जरुरत के
शब्दकोश,पर्यायवाची,मुहावरे-कहावतों की किताबें जरुर खुली-बिखरे पडी हों,जो हर आनेवाले को,यानी कमरे की मालकिन को भी यह एहसास दिलाएं की इस जगह काम होता है,यहाँ फिजूल वक़्त जाया न कीजिए,कुछ लिखिए-पढ़िए.



आज जब जवानी के ख़्वाब  की तस्वीर नजरों के सामने आती है तो ग़ालिब के शे’र का एक मिसरा याद आता है-‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले ‘लेकिन इस शे’र का दूसरा मिसरा अभी तक की गुज़री जिन्दगी पर पूरा नहीं उतरता, क्योंकि बहुत अरमान मेरे तो कभी नहीं निकले.
यह देखकर की वक़्त का कोई मूड नहीं है मेरे अरमान पूरे करने का, मैंने अपने ख़्वाब का दायरा कुछ घटा  दिया.झील या पहाड़ में से एक हो तो चलेगा.इतनी किताबें भी न हों तो भी चलेगा.घटते –घटते यह कमरा एक जरुरत भर की जगह रह गया.इस्टमैन कलर से ख़्वाब ब्लैक एंड व्हाईट हुए.दिल ने अलग एक कमरा और थोड़े से सुकून से समझौते कर लिया. इतना तो एक लेखक को चाहने का हक़ है,चाहे वह लेखक औरत ही क्यूँ न हो.

आज पुराने ख़्वाबों की पोटली खोलती हूँ तो दिल फिर उन वीरानियों में लौट जाना चाहता है,जहाँ ख्याल पर चाहतों की धमाचौकड़ी मची रहती है.सोचती हूँ अगर वह कमरा मिल जाता जो मैं सोलह सत्रह साल की उम्र मी चाहती थी,जब मैंने यह पक्का फैसला कर लिया थी की मुझे लेखक ही बनना है और खुछ नहीं तो…मैंने उस कमरे को हासिल करने की ज्यादा शिद्दत से कोशिश क्यों नही की.
क्या मेरा एक्टिविज्म जो मुझे सड़क-सड़क ,गाँव-गाँव घसीटता रहा ,वह जिम्मेदार है, क्योंकि काफी बड़ी उम्र तक तो जीवन में कुछ स्थायी हुआ ही नहीं या जब घर बसाने का फैसला किया तो एक ऐसे आदमी का हाथ पकड़ा जो लिखने के लिए एकांत या किसी  खास जगह को जरुरी नहीं समझता था और मैं अपनी जरुरत का एहसास उसे दिला पाने में नाकामयाब रही या यह कि बच्चों की जरूरतों और शोर-शराबे को ज्यादा एहमियत दे और अपनी जरुरत के बारे में नहीं सोचा.



ऐसा नहीं कि शौहर और बच्चे मेरे कोई बुरे है या मैं उनकी जरूरतें पूरी करके खुद को खुश नहीं पाती थी.सुबह उठकर अक्सर चार बजे घर के किसी कोने में दरी बिछाकर,तख्ती पर कागज़ लगाकर जल्दी जल्दी छः बजने के अन्दर वह सब लिख डालने की कोशिश करती जिसने रात भर में दिमाग के कोने –खुदरों से निकलकर एक शक्ल अख्तियार कर ली थी.छः बजे बच्चों को उठाकर स्कूल के लिए तैयार करना होता था.


अकसर खाली मिले कुछ लम्हों में झील और पहाड़ों वाला ख़्वाब सामने आकर मुह चिढाता.फर्क बस इतना होता की झील और नीली और ज्यादा गहरी, शांत हो गयी थी.कभी कभी तो उसके एक सिरे से सूरज उगाता दिखाई देता कभी कोई कश्ती तिरती हुई गुजर जाती .अजीब बात है की पूरे देश से हरियाली कम होती जा रही है.लेकिन मेरे ख़्वाबवाले पहाड़ ज्यादा हरे हो गए थे. ऊँचे देवदार के पेड़ों से ढकें.कभी कभी तो उनके बीच में से कोई झरना भी फूट पड़ता जो कल कल करती झील में रूपोश हो जाता.ख़्वाब था या कमबख्त पर्यावरण मंत्रालय का विज्ञापन.

एक चीज और यदि मैं अपनी मेज के आसपास होती तो मेरे दिल को बेहद तस्कीन पहुँचती .हुआ यूँ की जिस रचनाकार को भी मैं पढती और अगर वह मुझे बहुत पसंद आता तो जी चाहता उसकी तस्वीर मेरी मेज के आसपास हो. मैं लिखते लिखते सर उठाऊ तो उससे नज़ारे चार करके पूछ सकूँ-क्यों दोस्त यह चित्रण पसंद आया?यार यह कुछ वैसा नहीं बन रहा जैसा दिल चाहता है तुम ज़रा मदद करो न! प्रेमचंद,शेक्सपियर,यशपाल, अमृतलाल नागर, सीमोन डा बोउआर, वर्जीनिया वुल्फ, इस्मत चुगताई सब मौजूद रहते.रोज उनकी गिनती बढ़ती, क्योंकि मेरी किताबें ,मेरी जानकारी में इजाफा होता.


फिर कुछ ऐसा हुआ की घर भी अपना हो गया जिसके चलते मैं अपनी जरूरत और जेब के हिसाब से अपनी किताबें बढ़ा सकती थी .मेज एक कमरे में लग गयी.दो दीवारों पर लकड़ी के टाक भी बन गए और किताबों से भर गए .कमरा उतना हवादार है जितना एक फ़्लैट में हो सकता है सुकून उतना नहीं जितने की जरुरत है.निचलेवाले फ़्लैट की मिसेज जैन तार सप्तक में बात करते है फोन पर हो या धोबी से या अपने पतिदेव से.दिलासा यहीं है कि उनके बच्चे और मियाँ कभी बात नहीं करते फ़्लैट उपर होने से सड़क का शोर भी उतना नहीं आता गरज ये कि अपने कमरे की ख्वाहिश में जितने व्यवहारिक चीजें है,सो पूरी हो गयी है हाँ,पहाड़ ,झील नदारद है और शायद कभी होंगे भी नहीं.

सच पूछिए तो अपनी सुस्ती की देखकर कभी-कभी यह भी ख्याल आता है कि अगर यह सब पहले मिल जाता और पूरा का पूरा मिल जाता तो क्या मेरे लेखन में कुछ बदलाव आ गया होता? क्या मैं बेहतर लिख पाती ?क्या मैं ज्यादा लिख पाती?अभी तक  जो लिखा ,वह एक चुनौती,एक ढिठाई से लिखा कलम चलाते रहेंगे हालत साथ दे या की मुखालिफ हो. अगर सब कुछ मिल जाता तो शायद वह चुनौती या वह अड़ियलपन भी जाता रहता जो लेखन का आधार बना.आज यह हालत है कि वह खुद -ब -खुद चार बजे आँख खुल जाती है. मेरे कमरे में जहाँ कल्पना में तो पलंग नहीं था लेकिन हकीकत में एक अदद बिस्तर शामिल है,जब सूरज आकर रुकता है तो मुझे लिखता हुआ या कम से कम कुर्सी पर बैठे, कोहनियाँ मेज पर टिकाये खुद से बातें करते देखता है सूर्य भी पुरुष है कामकाजी महिला को सह नहीं पाटा ,आगे बढ़ जाता है.

मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं दे सकता यह कमरा भी नहीं. एक तरह से अच्छा है यही मान लिया जाए की वह ख्वाब्वाला कमरा नहीं मिला जैसा की एक शे’र है-
यारब दुआए वस्ल ना हरगिज क़ुबूल हो,
फिर दिल में क्या रहेगा जो हसरत निकल गयी.

हाँ,एक चीज जरुर है जो इस अधूरे मगर मेरे अपने कमरे ने दी है.सिर्फ मेरे कमरा होने के कारण मैं इसकी दीवारों,दरवाजों पर कुछ भी लगा या चिपका सकती हूँ बहुत सारे लेखकों की तस्वीरों के अलावा एक नोटिस,कोई एक बरस पहले इस कमरे में अन्दर आनेवाले दरवाजे पर लगाई –‘यह नास्तिक का कमरा है .आस्थावान ज़रा सोच-समझ कर अन्दर आयें.