भारतेंदु की स्त्री चेतना का स्वरूप, सन्दर्भ: ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका

  अरुण कुमार प्रियम

स्वतंत्र लेखन संपर्क : 9560713852 Email. akpriyam@gmail.com

भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक माने जाते हैं ! खड़ी बोली हिंदी को साहित्य के माध्यम के रूप में प्रसारित-प्रचारित करने तथा रचनात्मक स्तर पर इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए भी,उन्हें याद जाना जाता है ! सुविदित है कि 1870 के दशक में उनकी प्रकाशन गतिविधियाँ बहुत तेजी से बढीं और वे उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों में महत्वपूर्ण साहित्यिक एवं वैचारिक शख्सियत के रूप में उभरे ! उनकी दो साहित्यिक पत्रिकाएं-कविवचनसुधा (1868-85) और हरिश्चंद्र मैगज़ीन, जिसका नाम बाद में हरिश्चंद्र चन्द्रिका (1873-85) कर दिया गया, उनके जीवनकाल में ही प्रसिद्धि हासिल कर चुकी थीं ! इनके साथ-साथ 1874से 1877 तक उन्होंने स्त्री केंद्रित  पत्रिका,‘बालाबोधिनी’ भी सम्पादित की थी, जिसका हिंदी की पहली स्त्री-पत्रिका होने के नाते साहित्यिक इतिहास में विशिष्ट महत्व है ! इस पत्रिका की सामग्री, अंतर्वस्तु या ढब-ढांचे को लेकर कहीं कोई विवेचन-विश्लेषण नहीं मिलता और न ही इसकी प्रतियाँ कहीं सुलभ हैं. विभिन स्रोतों से इकठ्ठा किए गए ‘बालाबोधिनी’ के अंको को पुस्तकाकार रूप में लाकर वसुधा डालमियां और संजीव कुमार ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है. इससे हिंदी प्रदेश में नवजागरण के अगुवा भारतेंदु हरिश्चंद्र के स्त्री-दृष्टिकोण को जानने-समझने में मदद मिलती है. साथ ही तत्कालीन ‘स्त्री-उद्धारकों’ द्वारा निर्मित स्त्री के स्वरूप का भी पता चलता है.

स्त्रियों के सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक स्फीयर) में आने और अपने जीवन से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात रखने से स्त्री उद्धारकों’ के बीच और व्यापक जन-समाज में स्त्री  जीवन से सम्बन्धित बहस ने जन्म लिया. हाँ यह भी सच है कि इस बहस के केंद्र में एक खास वर्ग की स्त्रियाँ ही थीं.


सन् 1874 से सन् 1877 तक ‘बालाबोधिनी’ का सम्पादन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किया। वसुध डालमिया ने ‘बालाबोधिनी’ के अंकों का संकलन व सम्पादन कर अपने भूमिकानुमा लेख में लिखा है कि ‘‘यह दस पृष्ठों की एक कृशकाय पत्रिका थी,  जिसका पहला अंक जनवरी 1874 में निकला था। इसे तीन साल से थोड़ी ही अधिक आयु मिली। पत्रिका की कितनी प्रतियां छपती थीं, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती, हालांकि यह पता चलता है कि इसकी सौ प्रतियां सरकार खरीदती थी। जैसे ही फरवरी 1877 में यह राज्याश्रय बन्द हुआ, पत्रिका एकबारगी बन्द हो गयी।’’1

‘बालाबोधिनी’ के इस अल्प जीवन के बाद ‘कविवचनसुध’ में बालाबोधिनी का विलय हो गया। लेकिन अपने इस अल्प जीवन में पत्रिका में भारतेन्दु ने स्त्री प्रश्नों को किस प्रकार स्थान दिया, उसका विश्लेषण आवश्यक है।यह पत्रिका सोद्देश्य थी, इसके नाम से ही स्पष्ट है. पत्रिका में स्त्रियों से संबंधित प्रकाशित सामग्री के विश्लेषण और स्वरूप के आधार पर भारतेंदु  के स्त्री -दृष्टिकोण को समझने में मदद मिलती है. क्योंकि यह व्यावसायिक पत्रिका नहीं थी. एक खास तबके को लक्ष्य करके इसका सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया गया था. जाहिर है भारतेंदु के मष्तिष्क सम्पादकीय नीति जरूर रही होगी. कुछ बिन्दुओं के आधार पर ‘बालाबोधिनी’और भारतेंदु के स्त्री-विमर्श को समझा सकता है-

स्त्री -शिक्षा


स्त्रियों में चेतना और विवेक पैदा करने के उद्देश्य से प्रकाशित इस पत्रिका में एक स्थान पर स्त्री  शिक्षा को आवश्यक इसलिए माना गया कि यदि स्त्रियां पढ़ लिख जाएंगी तो ठगी का शिकार नहीं होंगी। अन्धविश्वासों  से उबर जाएंगी। तर्क यह दिया जाता है कि जबसे पुरुष पढ़ने लिखने लगे तब से वो ठगे नहीं जाते। एक उदाहरण दृष्टव्य है, जो इन्द्रजाल की कहानी के पर्दाफाश के  रूप में पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। ‘‘जबसे अंग्रेज बहादुर का राज्य हुआ है और पुरुष लोग किमिसरौ इत्यादि विद्या पढ़ने लगे हैं तब से वह प्रायः भूत विद्या वालों से नहीं ठगे जाते पर स्त्रियों से अब तक यह मूर्खता नहीं गयी है इसी से उनको प्रायः धूर्त लोग जो  अपने को शुद्ध तांत्रिक रसायनी और दरसनियां भूत विद्या वाले बतलाते हैं, बहुत ठगा करते हैं और स्त्रियां उनके जाल में आकर सैकड़ों वरन हजारों रुपया खराब करती हैं।’’2

उपर्युक्त उद्धरण  से ज्ञात होता है कि लेखक जिसका लेख में नाम नहीं है, वह स्त्रियों को मूर्ख मानता है। इसीलिए स्त्रियां तमाम तरह के तांत्रिकों द्वारा ठगी जाती हैं। लेखक स्त्री  शिक्षा की हिमायत सिर्फ इसलिए करता है कि स्त्रियां ठगने से बच जाएंगी, यदि वो पुरुषों की तरह शिक्षित होंगी। तांत्रिकों की ठगी.जाल से सचेत होने के लिए पत्रिका में कई तरह के प्रयोग कौतुक के रूप में प्रकाशित किए गए हैं . मसलन-रंगीन फूल सफेद करने की युक्ति, गुप्त अक्षर, नींबू दौड़े, बोतल में अण्डा इत्यादि।

इसके साथ ही ‘बालाबोधिनी’ में ‘सती चरित्रा’ नामक शीर्षक से निरन्तर एक नीति वचन प्रकाशित होता है जिसमें स्त्रियों को पति परायणा होने की सीख दी जाती है। शिव-पार्वती ;सतीद्ध के मिथकीय आख्यान के सहारे स्त्रियों को पति परायणता जो स्त्रियों को वैचारिक धर्मिक रूप से कैद करने की साजिश है, का पाठ पढ़ाया जाता है। ‘सती चरित्र’ में जब पार्वती बिना नियंत्रण के अपने पिता दक्ष के यहां जाती है और उसका अनादर होता है तो आत्म ग्लानि से सती ;पार्वती आत्महत्या कर लेती है। इसी प्रसंग को प्रकाशित करते हुए कहा गया है, ‘‘इस आख्यान से यही शिक्षा है जो पति का वाक्य नहीं मानती वह सती की भांति नष्ट हो जाती है स्त्री  को पति से बढ़कर और किसी का अभिमान नहीं होता इससे विवाह उपरांत की आज्ञा के बिना पिता के घर भी जाना उचित नहीं…. देखो तुम लोग भी इसी शिक्षा के अनुरूप चलो पति की आज्ञा मानो…’’3

इस तरह ज्ञात होता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘बालाबोधिनी’ महिलाओं को शिक्षा का बोध तो कराना चाहती थी लेकिन यह बोध कैसा होगा, साथ में यह भी बताना नहीं भूलती। पत्रिका के प्रथम पृष्ठ में एक निवेदन छपता है कि, “मैं जो कुछ कहूँगी तुम्हारे हित की कहूँगी”4 और अंत में यह आशा भी प्रकट की जाती है कि “सभी स्त्रियाँ पढ़ लिखकर  पुरुषों की सहभागिनी हो जाएँ.”5 यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में निवेदनकार स्त्रियों का भला चाहता है. यह संभव भी है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में निवेदनकार ऐसा निवेदन कर स्त्रियों का भला ही चाहता हो, लेकिन अगले ही पृष्ठ में ‘शीलवती’ शीर्षक कहानी में वह स्त्रियों को एक सीमारेखा के अन्दर रहने की हिदायत देना भी नहीं भूलता है. कहानी में राधावल्लभ महाजन की पत्नी का नाम शीलवती है. लेखक कहता है कि नाम के अनुरूप ही उसके गुण हैं. अपने अछे स्वभाव के कारण उसने सबको अपने वश में कर रखा है.अगर उससे कोई क्रोधित होता है तो वह नम्रतापूर्वक उससे अपने अपराधों की क्षमा मांग लेती है. उसके गुणों का उल्लेख करते हुए कहानी में लिखा गया है कि, “ पड़ोस वालों ने कभी उसकी बोली नहीं सुनी वह अटारी और झरोखों में कभी न बैठती और न मनुष्य से बहुत बोली…. जिस समय उसको घर के कामों से छुट्टी मिलती वह धर्म की पुस्तकों को देखती. सुई का काम वह बहुत अच्छा कर सकती थी, बेल बूटा लगाना, झालर निकालना, सीना पिरोना इत्यादि… पति के सम्मुख नेत्र सदा नीचे रखती और कभी जब पति किसी विषय में कुछ पूछता तो बड़ी सावधानता से अच्छा और हितकारी मंत्र कहती पर यह भी कह देती कि नाथ! मैं क्या जानूं मेरी स्त्री की बुद्धि कितनी”6  शीलवती के लिए इतना आदेश-उपदेश होने के साथ उसके विद्या रूपी गुणों के बारे में बताया गया-“ इसके सिवाय ईश्वर ने विद्या भी उसको दी थी जिससे वह और भी आदर करने योग्य थी. घर के गृहस्थी का सब हिसाब अपने हाथ से लिख पढ़ लेती थी और नैहर वालों को और नाते की स्त्रियों को पत्र भी लिख लिया करती थी.”7

उपर्युक्त दोनों उदाहरण से ज्ञात होता है कि लेखक शीलवती कहानी की पात्र जैसी भारतीय स्त्री  चाहता है। ऐसी स्त्री  जो इतना पढ़ ले कि धार्मिक पुस्तकें पढ़ सके और घरेलू हिसाब कर ले और कुछ चिट्ठी-पत्री लिख सके। हां यह भी कि इसके साथ अपने तयशुदा काम सीना-परोना भी करे।

स्त्री के कर्तव्य और उसका चरित्र कैसा हो

‘बालाबोधिनी’ पत्रिका में स्त्री चरित्र के लिए अधिकांश स्थानों पर मिथकीय और पौराणिक चरित्रों अथवा काल्पनिक पात्रों का सृजन कर उनके जीवन की कहानी को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि वैसा चरित्र बनाना हर स्त्री अपना सपना बना ले। पत्रिका में ‘बालाप्रबोध्’ नामक एक पुस्तक की सूचना है जिसमें मंगलाचरण से ज्ञात होता है कि यह काव्य पुस्तक पुरुष ने लिखी है। वह पुरुष अंग्रेज सरकार से प्रार्थना करता है कि यह पुस्तक स्त्रियों की पाठशालाओं में पाठ्यसामग्री के रूप में लगायी जाय। लेखक अपना नाम हीरालाल बताता है जो सिकंदराबाद के  निवासी है। उसका कहना है कि यह पुस्तक संवाद शैली में लिखी गयी है जिसमें सरस्वती वक्ता हैं और सुमति श्रोता है। पहले अध्याय में सरस्वती सुमति से कहती है कि तुम ससुराल जाती हो और मेरी पुत्री के समान हो। मैं तुम्हें दान करना चाहती हूं और ‘‘मेरे विचार में वह वस्तु अविनाशी उत्तम शिक्षा है सो मैं तुम्हें वही दान करती हूं और प्रथम शिक्षा से उत्तम मध्यम कनिष्ठ स्त्रियों के लक्षण और कुलीन स्त्रियों के धर्मों का निरूपण करती हूं।’’8


प्रस्तुत उद्धरण में सरस्वती द्वारा स्त्री  शिक्षा को सर्वोत्तम दान कहा गया है. लेकिन साथ ही वह स्त्रियों का वर्गीकरण करना भी नहीं भूलती। वह कुछ खास गुणों को ‘धारण’ करने के आधार पर स्त्रियों को उत्तम,माध्यम और निम्न श्रेणियों में विभाजित करती है. इस पुस्तक और बालाबोधिनी में इसका समीक्षात्मक परिचय प्रकाशित होने का एकमात्र निष्कर्ष ये है कि हर स्त्री में ‘उत्तम’ बनने की चाह पैदा हो, जो समाज के प्रचलित ढांचे को जस का तस बनाये रखने में सहायक हो. सरस्वती स्त्रियों के लक्षण तय करते हुए कहती है कि ‘‘लज्जा, दया, शील और सत् उत्तम स्त्रियों का लक्षण है।’’9 मध्यम स्त्रियों के बारे में वो कहती है कि ‘‘उनकी प्रीति अपने पुरुष से निर्दोष होती है और जो कुटुंब के संबंधी  हैं उनसे व्यवहारी प्रीति रहती है और लोकलाज करके बताती  है वो भी भली हैं।’’10


कनिष्ठ स्त्रियों के चरित्र के बारे में वो कहती है कि ‘‘एक घर के चार घर कर देने, परिवार के लोगों से प्रीति न करनी और प्रीति करनी तो पड़ोस की छोटी जातों से और पति से भी व्यवहार प्रीति रखनी….. निश्चय जानो कि इनकी प्राप्ति से मृत्यु की प्राप्ति उत्तम है।11



इसी पुस्तक की पात्र सरस्वती एक अध्याय में यह भी निर्धरित करती है कि ‘‘स्त्रियों को निरंतर अपने पति के अनुसार रहना और मन क्रम वचन करके उत्तम सेवा करना उनका धर्म  है और केवल पति की सेवा ही को वे अपना परलोक साधना  जानती हैं।’’12


स्पष्ट है कि पति सेवा को स्त्रियों का धर्म घोषित करके और ऐसा करके स्त्रियों का परलोक सुधरने का काम भी ‘बालाबोधिनी’ ने किया। परलोक का डर दिखाकर स्त्रियों की गतिशीलता को नियंत्रित किया गया और स्त्रियों के ऐसे कर्तव्य निर्धरित करके उन्हें महिमा मंडित किया गया। ऐसा न करने वाली स्त्री का चरित्र भी बता दिया गया। ऐसी स्थिति में कौन स्त्री ‘बदचरित्र’ होने का साहस करेगी।आगे एक उद्धरण  से यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि बिरादरी में आने जाने के क्या नियम निर्धरित किए गए, ‘‘जब कभी किसी बिरादरी के घर से तुम्हारे बुलाने को आवें तो जो पति समीप हो तो प्रथम पति से फिर सास, ससुर जेठ, जिठानी आदि सम्बन्धियों  से आज्ञा मांगों जो वह आज्ञा दें तो कुछ दोष नहीं है जाओ और बिना आज्ञा तो चाहे कैसी ही प्रीत करके तुमको बुलावे और तुमको उनके साथ विशेष प्रीत हो तब नहीं जाना चाहिए।’’13


स्त्रियों के लिए ये नैतिक कर्तव्य निर्धरित करने के पश्चात एक नैतिक आचार संहिता भी प्रस्तुत आलेख में लेखक ने सुझायी है जिससे स्त्रियों के चरित्रा का ‘नैतिक पतन’ न हो। वह लिखता है, ‘‘हंसी ठट्ठे क्रोध् अभिमान निर्लज्ज बातों से वर्जित रहो और अपने भेद की गुप्त बात अथवा घर के दुख-सुख को किसी न कहो कि इसका परिणाम भला नहीं है।’’14

स्पष्ट है कि यहां लेखक निजी और सार्वजनिक को अलग-अलग या गुप्त रखने की बात स्त्रियों को समझाता है। घर के अन्दर स्त्राी के जीवन में कितनी भी पीड़ा, कितना भी अत्याचार, कितना भी दुख, शोषण हो उसे घर और परिवार के निजी दायरे से बाहर कहीं भी अभिव्यक्त नहीं करना है। इस तरह स्त्री की गतिशीलता पर पुरुष का नियंत्रण कायम रहेगा। इस तरह के लेख पितृसत्ता की वैधता बनाए रखने के लिए स्त्रियों को अनुकूलित करते हैं।


पतिव्रतपत्रिका में स्त्रियों को अपने पतियों के प्रति ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ बने रहने की शिक्षा देने के लिए ‘पतिव्रत’ शीर्षक से लेख प्रकाशित होते थे। ऐसे ही एक लेख में लेखक स्त्रियों को सम्बोधित करते  हुए कहता है कि ‘‘पति की सेवा से बढ़कर सपने में भी स्त्रियों को दूसरा धर्म वेदों में नहीं मिलता, हंसी से व क्रोध से वा अनजाने व किसी और किसी प्रकार से अनादर करके पति को जो कोई स्त्री कुछ कडुवी बात कहती है, उसको और कोई प्रायश्चित नहीं है, कर्म सेवा मन से व बानी से जो पति का सपने में भी अनादर करती हैं, उनका नरकों से उद्धार नहीं होता जो स्त्री पति की प्यारी नहीं है उसका सब सौभाग्य व्यर्थ है उसका खाना, पीना, सोना,  शृंगार करना बरंच जीना तक भी व्यर्थ  है क्योंकि जिसको पति और उसका प्रेम नहीं प्यारा है वह संसार में व्यर्थ जन्मी है….’’15

उपर्युक्त उद्धारण से ज्ञात होता है कि स्त्री के लिए उसका पति ही सर्वस्व माना गया है। पति ही के लिए स्त्री का जन्म हुआ, पति को खुश रखना उसके लिए ही जीना उसका जीवन है। यहाँ तक कि जिसने तनिक भी पति की उपेक्षा की उसका जीवन ही नहीं जन्म लेना ही व्यर्थ है।

किशोरावस्था और शिशु पालन पत्रिका के लगभग हर अंक में शिशुपालन के तौर तरीकों पर लेख प्रकाशित हुए। शिशु पालन केवल स्त्रियों का कर्तव्य है, पत्रिका में प्रकाशित लेखों में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है। हां एक खास बात ये जरूर है कि पत्रिका में गर्भवती स्त्रियों के खान-पान और दिनचर्या संबंधी लेख भी प्रकाशित होते थे। ऐसे अनेक उद्धारण देखे जा सकते हैं। कुछ उद्धारण निम्नवत हैं- ‘‘गर्भवती स्त्राी को परिमित आहार करना अर्थात जैसी क्षुध और परिपाक शक्ति हो उसके अनुसार खाना, अधिक वा न्यून न खाना चाहिए, और जो पच के शरीर की पुष्टि उत्पन्न करे वही उत्तम पदार्थ गर्भवती स्त्री के खाने के योग्य है।’’16


‘‘गर्भिणी स्त्राी को प्रतिदिन निर्मल वायु सेवन करना उचित है अर्थात् देह धेना और नहाना आवश्यक है। जो शरीर दुर्बल हो तो गुनगुने पानी से स्नान करना और बदन धोना चाहिए…..गर्भधरण काल में जननी के मन का भाव जिस प्रकार का होता है संतान का स्वभाव भी प्रायः वैसा ही होता है…….’’18

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि गर्भवती स्त्रियों की देखभाल के प्रति समाज को जागरूक करने के लिए पत्रिका में अेधिकतर लेख प्रकाशित होते थे। संभवतः ये स्त्रियों की संतानोत्पत्ति करने के विशिष्ट गुण के कारण था ताकि वो देश के लिए अच्छे बच्चे पैदा कर और उनका अच्छे से पालन-पोषण भी कर सके। इसलिए पत्रिका में स्थान-स्थान पर शिशुपालन की तरकीबें बतायीं जाती थीं।

पत्रिका में स्त्रियों को अर्थशास्त्र और अर्थनीति संबंधी  ज्ञान देने के लिए भी लेख प्रकाशित हुए थे। सन्तानोत्पत्ति और अच्छी मां बनने के साथ-साथ स्त्रियों को स्वावलम्बी बनने की सलाह दिए जाने वाले लेख भी छपे। इसका वास्तव में यह अर्थ नहीं था कि स्त्रियां सम्पत्ति की मालिक बनें। लेखक की चिंता यह थी कि स्त्रियां जब दान करें तो अपनी कमाई से दान-धर्म का कार्य करें। पति की कमाई से दान का पुण्य उन्हें नहीं प्राप्त होगा। मेहनत की कमाई से दान फलदायक होगा। लेकिन इसी बहाने स्त्रियों को कम से कम सम्पत्ति अर्जित करने का एक अवसर तो मिला। यह ऐसे लेखों की सार्थकता थी।

सती का महिमामंडन


पत्रिका में ‘लाजवन्ती’ नामक लेख में एक बाग की खूबसूरती का वर्णन लेखक ने किया है हालांकि लेख में लेखक/लेखिका का नाम नहीं है। सुन्दर बाग का वर्णन करते-करते लेखक मध्य में सायास मेंहदी के पौधे  का जिक्र करता है और उससे सती स्त्रियों का प्रसंग आता है। बाग में एक सती के चउरे की उपस्थिति का वर्णन भी लेख में आती है। निम्न उद्धारण में हम देख सकते हैं कि सती प्रथा का किस प्रकार सहज तरीके से महिमामंडन किया गया है।‘‘यह मेंहदी भी सोहाग के सिंगारों में एक बड़ी चीज है और यह कुल की सतियों को चढ़ाई जाती हैंऋ देखो उसी बगीचे के किनारे एक सती का छोटा सा चउरा भी है, अहा इसकी अपने प्यारे प्रीतम में कैसी प्रीति थी कि उसी के साथ ही जल गई।’’19

उपर्युक्त उद्धारण से पता चलता है कि उस कुल में सती होने की प्रथा थी और मेंहदी सतियों को चढ़ाई जाती थी। यह पत्रिका उस कालखण्ड में प्रकाशित होती थी जब सती प्रथा पर रोक लग चुकी थी और जहां-जहां प्रभाव बाकी था वहां पर रोक लगाने के प्रयास जारी थे। ऐसे समय में पत्रिका के सम्पादक ने इस प्रकार का लेख क्यों प्रकाशित किये जिसमें एक स्त्री हुलस कर कहती है, ‘‘अहा, इसकी अपने प्रीतम में कितनी प्रीति थी कि उसके साथ ही जल गयी।’’19 यह लेख सम्पादक की स्त्री मुक्ति की मुहिम या मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। थी। यह पत्रिका उस कालखण्ड में प्रकाशित होती थी जब सती प्रथा पर रोक लग चुकी थी और जहां-जहां प्रभाव बाकी था वहां पर रोक लगाने के प्रयास जारी थे। ऐसे समय में पत्रिका के सम्पादक ने इस प्रकार का लेख क्यों प्रकाशित किये जिसमें एक स्त्री हुलस कर कहती है, ‘‘अहा, इसकी अपने प्रीतम में कितनी प्रीति थी कि उसके साथ ही जल गयी।’’19 यह लेख सम्पादक की स्त्री मुक्ति की मुहिम या मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

भारतेंदु ‘बालाबोधिनी’ माध्यम से ऐसी स्त्री का निर्माण करना कहते थे जो घर परिवार रूपी संस्था को सुचारू से चलाने के लिए कुशल अवैतनिक मैनेजर की भांति काम करे और अपने ‘उद्धारक’ मालिक के प्रति वफादार रहे. वह संस्कारी हिन्दू मानस की हो. जिससे नए मध्य वर्गीय हिन्दू मानस वाले समाज  की अच्छी,योग्य और सुशील स्त्री पाने की तृषा की तुष्टि हो. वह अच्छी मां बने. शिशु पालन के तरीके उसे आते हों. हाँ शिशु पालन और सती विषय पर पत्रिका में बहुतायत में लेख प्रकाशित होते थे. बच्चों की देखभाल और परिवरिश करना स्त्रियों का कर्तव्य है, ये समझाने वाले लेखों को पत्रिका में नियमित जगह मिलती दिखाई देती है. सती और सतीत्व को महिमामंडित करने हेतु अक्सर मिथकीय सतियों का गुणगान और गौरव गान पत्रिका में प्रकाशित होता है. संपादकद्वय ने जब पत्रिका का संकलन संपादन किया तो भारतेंदु के विषय सती से संबंधित पंक्तियों को संकलन के मुखपृष्ठ पर जगह दी. पंक्तियाँ हैं-
“सीता अनुसुइया सती अरुंघती अनुहारि
शीललाज विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि.”20

 बालाबोधिनी में प्रकाशित सामग्री के अध्ययन-विश्लेषण से ज्ञात होता है की भारतेंदु मनुवादी पुनरुत्थान को खाद पानी दे रहे थे. जो कालांतर में खूब फलता-फूलता है. ध्यान रहे की भारतेंदु के अध्येताओं ने भारतेंदु को हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का जनक कहा है और नवजागरण के अग्रदूत की संज्ञा भी दी गई. पता नहीं किस गणित से रामविलास शर्मा उन्हें इन संज्ञाओं से नवाजते हैं. ऐसा भी कहा जा सकता है कि बालाबोधिनी के  अध्ययन से मूल्य निर्णय देना भारतेंदु के साथ ज्यादती है. ऐसा हो भी सकता है. लेकिन बालाबोधिनी का संपादन और उसके  कंटेंट का चयन भारतेंदु के लिए नवजागरण की संज्ञा पर एक प्रश्न अवश्य है. जिसे सुना जाना चाहिए. अगर भारतेंदु पुनरुत्थान के समर्थक नहीं थे तो क्या यह अकारण है कि वो अपने बलिया वाले भाषण में स्त्री शिक्षा पर बोलते हुए कहते हैं कि  ‘‘लड़कियों को भी पढ़ाइए किन्तु उस चाल से नहीं जैसी कि आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है। ….ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज शिक्षा दें।’’21इतना ही नहीं स्त्री शिक्षा पर हंटर कमीशन के सामने बयान  देते हुए वे कहते हैं कि ‘‘मैं इस देश में लड़के-लड़कियों के मिले-जुले स्कूल की योजना का समर्थन कभी नहीं कर सकता।’’22 इतना ही नहीं उन्होंने ‘विद्यांकुर’ और ‘इतिहास तिमिरनाशक’ जैसी पुस्तकों को लड़कियों के पाठ्यक्रम से हटाने की सिफारिश की क्योंकि इससे उनके अनुसार स्त्रियों के चरित्रा का कोई विकास नहीं होता।


जाहिर है भारतेंदु एक ऐसी स्त्री की निर्मिती चाहते थे जो न सिर्फ पश्चिमी स्त्री के बरक्स हो बल्कि आम परम्परागत भारतीय स्त्राी जैसे घरेलू दाई, धेबिन, नाउन, फेरी लगाने वाली के बरक्स हो.ध्यान रहे कि भारतेंदु की बालाबोधिनी में समाज के निचले तबके की स्त्रियों की समस्याओं पर स्त्रियों को तो छोड़ ही दीजिये, पुरुषों यानि स्त्री के ‘उद्धारकों’का भी कोई लेख या रपट नहीं मिलती है. जाति व्यवस्था की क्रूरता और घृणा पर कोई टिपण्णी तक नहीं मिलती  और भारतेंदु नवजागरण एवं हिंदी में आधुनिक काल के जनक कहे जाने लगते हैं.


सन्दर्भ सूची
1. बालबोधिनी,संपादक-भारतेंदु हरिश्चंद्रएसंकलन-संपादनः वसुध डालमिया, संजीव कुमार, राजकमल       
        प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, पहला संस्करण-2014, पृष्ठ-6
2. वही, पृष्ठः 119-120
3. वही, पृष्ठ-129
4. वही, पृष्ठ-31
5. वही, पृष्ठ-32
6. वही, पृष्ठ 35-36
7. वही, पृष्ठ-35
8. वही, पृष्ठ-146
9. वही
10. वही
11. वही, पृष्ठ 146-147
12. वही, पृष्ठ-147
13. वही, पृष्ठ-193
14. वही
15. वही, पृष्ठ 58-59
16. वही, पृष्ठ-63
17. वही, पृष्ठ-68
18. वही, पृष्ठ-69
19. वही, पृष्ठ-55
20. वही, मुख पृष्ठ
21भारतेंदु समग्र, सं. हेमन्त शर्मा, हिन्दी प्रचार संस्थान, 1989, पृष्ठ-1013
22. वही, पृष्ठ-1010

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