कार्य स्थलों पर महिला कर्मियों के यौन उत्पीडन को लेकर 2013 में क़ानून बना. इसके पहले कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के प्रसंग में 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा बनाम राजस्थान बनाम सरकार के मामले में दिये गये दिशानिर्देश का अनुसरण किया जाता था, जिसे विशाखा गाइडलाइन भी कहा जाता है. 2013 में बना क़ानून कार्यस्थलों पर यौन उत्पीडन के मामले में बहुत स्पष्ट प्रावधान करता है. उसके प्रावधानों में धारा 16 के अनुसार शिकायतकर्ता पीडिता के नाम, उसकी पहचान आदि को जांच के दौरान जांच समिति या नियोक्ता जाहिर नहीं कर सकता है. यदि ऐसा वह करता है तो धारा 17 में उसपर स्पष्ट कार्रवाई का प्रावधान है.
देखें धारा 16-17 के प्रावधान :
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गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा ( केन्द्रीय विश्वविद्यालय) के कुलसचिव के हस्ताक्षर से उसकी वेब साईट पर एक नोटिस लगी. यह नोटिस चीनी छात्राओं द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप पर विश्वविद्यालय के एक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के निलंबन की है. एक्ट की धारा 16 कहती है कि पीडिता का नाम और पहचान जांच चलने तक उजागर नहीं करना चाहिए , जबकि इस नोटिस में पीड़िताओं नाम स्पष्ट रूप से जाहिर किये गये हैं.
देखें तस्वीर, इसे विश्वविद्यालय यदि हटाती भी है तो भी 48 घंटे से यह वहाँ बना हुआ है, स्क्रीनशॉट स्त्रीकाल के पास है. यहाँ दी गई तस्वीर में पीड़िताओं के नाम ब्लैक कर दिये गये हैं.
अब सवाल है कि यदि क़ानून का उल्लंघन विश्वविद्यालय के शीर्ष अधिकारी कर रहे हैं तो धारा 17, जो ऐसा करने वाले को दण्डित करने का प्रावधान करती है का अनुपालन कौन करेगा. कुलपति का नियोक्ता भारत के राष्ट्रपति होते हैं, तो क्या राष्ट्रपति कुलपति और अन्य शीर्ष अधिकारियों पर कार्रवाई करने वाले हैं? लेकिन राष्ट्रपति मानवसंसाधन विकास मंत्री की अनुशंसा पर काम करते हैं, तो क्या देश के मानवसंसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ऐसी अनुशंसा करने वाले हैं? क्या विदेशमंत्री सुषमा स्वराज पीडिता के विदेशी होने के कारण कानूनी कार्रवाई के लिए हस्तक्षेप करेंगी ! सवाल है कि क्या सरकार अपने क़ानून का उल्लंघन करने वाले शीर्ष अधिकारियों का न सिर्फ बचाव करने से बचेगी, बल्कि क्या एक विदेशी छात्रा के उत्पीडन के मामले में अधिकारियों को दंडित करने की मिसाल कायम करेगी?
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