थेरी गाथाओं में अभिव्यक्त मुक्तिकामी स्वर

स्नेह लता नेगी

सहायक प्रो. हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय संपर्क:negi.sneh@gmail.com
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इक्कीसवीं सदी में समाज के हर क्षेत्र में स्त्री ने अपनी बुद्धि और क्षमता का परिचय दिया है। समाज को भी स्वीकार करना पड़ा है कि स्त्री की क्षमताओं का उपयोग किये बिना समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। स्त्री भी अपनी पारंपरिक छवि से बाहर निकल कर समाज निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर रही हैं। सर्वप्रथम वह बुद्ध ही थे जिन्होंने स्त्री को उसकी क्षमताओं से अवगत किया। स्त्रियों के लिए अलग संघ की स्थापना करके स्त्री को भी शिक्षित होने और निर्वाण प्राप्त करने का स्वतंत्र अवसर प्रदान किया। बुद्ध ने परंपरा से चली आ रही जातीय व्यवस्था, स्त्री-पुरुष असमानता और अंधविश्वासी समाज को मानवता का संदेश दिया। डाॅ. रामधारी सिंह दिनकर का कथन इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- ‘‘बौद्ध धर्म का आर्विभाव ऐसे समय में हुआ जब नारी पुरुष के अत्याचारों से दबी जा रही थी, शास्त्रकारों ने जिसे कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं दी, उसके लिए बौद्धकाल में अमर संवेदना का संदेश मिला।’’1 बुद्ध के समय में पहली बार स्त्री को भी पुरुष के समान अपनी क्षमताओं से परिचित होने का अवसर मिला। जिस ज्ञान और सत्ता पर पुरुष का एक छत्र राज था, बुद्ध के समय में इस वर्जित क्षेत्र में स्त्रियों का प्रवेश एक ऐतिहासिक घटना थी।

थेरीगाथा में भिक्षुणी सोमा और मार का संवाद तत्कालीन समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाता है। मार कहता है- ‘‘जो स्थान ऋषियों के द्वारा भी प्राप्त करने में अत्यन्त कठिन है, उसे दो अंगुलि मात्र प्रज्ञा वाली स्त्री प्राप्त कर लेगी, यह कभी संभव नहीं।’’2 सोमा मार को फटकारते हुए कहती है- ‘‘देख! मैंने सभी जगह से अपनी वासना का संपूर्ण विनाश कर दिया है। अज्ञानांधकार को विदीर्ण कर दिया है। पापी मार! प्राणियों का अन्त करने वाले! समझ ले! आज तेरा ही अन्त कर दिया गया! तू मार दिया गया।’’3 सोमा मार के माध्यम से तत्कालीन पितृसत्तात्मक समाज की जड़ों को हिलाकर रखने की चेतावनी देती है जिसने हमेशा ही स्त्री को अक्षम समझकर दबाये रखा।

राजा प्रसेनजीत की रानी को जब बेटी पैदा हुई तो प्रसेनजीत दुःखी मन से बुद्ध के पास जाते हैं, तो बुद्ध राजा को समझाते हैं ‘‘इसमें उदास होने की क्या बात है राजन! कन्या एक पुत्र से भी बढ़कर सन्तान सिद्ध हो सकती है क्योंकि वह भी बड़ी होकर बुद्धिमान तथा शीलवान बन सकती है।’’ बुद्ध स्त्रियों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं ‘‘स्त्री संसार की विभूति है क्योंकि उनकी अपरिहार्य महत्ता है। उसके द्वारा ही बोधिसत्व तथा विश्व के अन्य शासक जन्म ग्रहण करते हैं।’’4 इसीलिए बुद्ध ने स्त्री को प्रज्ञा का रूप माना है। प्रज्ञा सभी बुद्धों की जननी है। बुद्ध ने सबसे पहले स्त्री के चित्त के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर सशक्त होने से पहले हमें आत्मिक स्तर पर सशक्त होने की जरूरत है जो बुद्ध ने स्त्रियों के भीतर आत्मविश्वास की लौ जलाकर किया। हमारे समाज में स्त्रियों को कभी भी उसके गुणों से अवगत होने का मौका ही नहीं दिया उसे हमेशा ही परिवार और समाज पर बोझ समझा गया। बुद्ध ने स्त्री को ज्ञान का रास्ता दिखाकर चेतना संपन्न बनाया और ओरों को भी प्रेरित किया। जब समाज में स्त्रियों का आत्मसशक्तिकरण होगा तभी तो वह बाहरी सामाजिक जड़ताओं के विरूद्ध संघर्ष करने में सक्षम होंगी, स्वनिर्णय लेने की स्थिति तक पहुँचेंगी। इसलिए बाहरी परिवर्तन के लिए सबसे पहले आन्तरिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है। स्त्री का सशक्त होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके ऊपर समाज और परिवार दोनों का उत्तरदायित्व है। अगर स्त्री आत्मिक स्तर पर सशक्त नहीं है तो परिवार और समाज के सशक्त होने की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। जैसा कि हम अक्सर कहते हैं कि एक स्त्री के शिक्षित होने पर पूरा परिवार शिक्षित होता है ऐसे में स्त्री का आत्मिक स्तर पर सशक्त होना कितना महत्वपूर्ण है हम सोच सकते हैं। जिसके ऊपर समाज के भविष्य की इतनी बड़ी जिम्मेदारी हो उसे कैसे ज्ञान, अध्यात्म और सत्ता से वंचित रख सकते हैं विचारणीय है। इसलिए बुद्ध के संघ में विवाहित-अविवाहित, युवा-वृद्ध, वेश्या, शूद्र-ब्राह्मण, अमीर-गरीब सभी प्रवेश ले सकते थे और ज्ञान अर्जित कर सकते थे। मानसिक और दैहिक शोषण तंत्र से मुक्त हो सकती थी और उस युग की थेरियाँ उसी मुक्ति का प्रतीक हैं।

थेरीगाथा , बौद्ध धर्म और स्त्रियाँ


‘थेरी-गाथा’ 522 गाथाओं का महत्वपूर्ण बौद्ध साहित्य है जिसमें 73 थेरियों के जीवन के कटु अनुभव है जो बुद्ध की समकालीन थी। यहाँ इन भिक्षुणियों ने अपने जीवनानुभवों को व्यक्त करते हुए जीवन की गाथा है। नैतिक सच्चाई, भावनाओं की गहनता और सबसे बढ़कर एक अपराजित वैयक्तिक ध्वनि, यह भिक्षुणियाँ आशावादी हैं। जीवन की विषमताओं पर अपनी विजय गान गाती हैं। ‘‘भिक्षुणियों के उदगारों में निराशावाद का निराकरण है, पुरुषार्थ की विजय है, साधनालब्ध इन्द्रियातीत सुख का साक्ष्य है और नैतिक ध्येयवाद की प्रतिष्ठा है। नारी की सामथ्र्य में उनका विश्वास है। स्त्रीत्व को वे सत्य-प्राप्ति में बाधक नहीं मानती।’’5 सोमा थेरी और मार का संवाद स्त्री के भीतर सम्यक दृष्टिकोण और पुरुषार्थ के गुणों का परिचायक है- ‘‘जब चित अच्छी प्रकार से समाधि में स्थित है, ज्ञान नित्य विद्यमान है और अन्तज्र्ञान पूर्वक धर्म का सम्यक दर्शन कर लिया गया है, तो स्त्रीत्व इसमें हमारा क्या करेगा?’’6

थेरीगाथा के अध्ययन से पता चलता है कि तत्कालीन समाज कितना स्त्री विरोधी था। अमीर घरों की स्त्रियाँ परिवार के भरण-पोषण तक सीमित थी तो गरीब, शूद्र स्त्रियाँ दासियों के रूप में शोषित थी। पूर्णिका ऐसी ही थेरी थी जो दासी थी जिसका जीवन मालिक के भय और दण्ड के साये में यापन होता था। पूर्णिका अपनी गाथा में कहती है- ‘‘मैं पनिहारिन थी। सदा पानी भरना ही मेरा काम था, स्वामिनियों के दण्ड के भय से, उनके क्रोध भरे कुवाच्यों से पीड़ित होकर मुझे कड़ी सर्दी में भी सदा पानी में उतरना पड़ता।’’7 इन थेरियों के सामने एक तरफ सामाजिक उत्पीड़न के चलते स्थिति गुलामों से भी बदतर थी तो दूसरी ओर पारिवारिक वातावरण उससे भी कहीं अधिक खराब था। श्रावस्ती के दरिद्र परिवार में जन्मी सुमंगलमाता अपने कष्टपूर्ण दाद्रियमय पारिवारिक जीवन को अन्य थेरियों के साथ साँझा करते हुए चित्त में संवेग उत्पन्न होने पर पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होते हुए परम ज्ञान की प्राप्ति के सुख का उद्गार प्रकट करते हुए कहती है- ‘‘ओह! मैं मुक्त नारी। मेरी मुक्ति कितनी धन्य है। पहले मैं मुसल लेकर धान कूटा करती थी, आज उससे मुक्त हुई। मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे बर्तन! जिनके बीच में मैली कुचैली बैठती थी और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।… अहो! मैं कितनी सुखी हूँ। मैं कितने सुख से ध्यान करती हूँ।’’8


भिक्षुणी सुमंगला संघ में आकर पहली बार महसूस करती हैं कि वह भी एक इंसान है। स्वतंत्र और आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। उसके भी सुख हैं और वह सुख देह से परे मानसिक बौद्धिक सुख है, निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसित होने का सुख है। क्यों वह स्त्री होने के कारण किसी की छत्र-छाया में रहे। ये थेरियाँ स्वतंत्रता की कीमत समझ चुकी थीं। तत्कालीन विषम परिस्थितियों में स्त्री अस्तित्व के स्वातंत्र्य की इतनी सहासिक बेबाक स्वीकृति इससे पहले कहीं नहीं दिखाई देती। थेरियों ने जिस सहास के साथ समाज की ग्रसित मानसिकता के विरूद्ध आवाज उठाई वह आज भी प्रेरणा स्रोत है। उससे पहले स्त्री मात्र आनंद प्रदान करने का साधन, संतान पैदा करना, पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करने की भूमिका में बंधी थी। वंश चलाना, बच्चा पैदा करना उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था। ऐसे में बुद्ध ने उसे एक मनुष्य के रूप में पहचान दी उसके सामथ्र्य से परिचित कराया। ‘‘थेरीगाथा नारी स्वतंत्रता को प्रकट करने वाला प्रथम ग्रंथ है।’’9



इन थेरियों ने संघ में शामिल होकर स्वयं ज्ञान प्राप्त किया और ओरों को भी शिक्षित होने के लिए प्रेरित किया। संघ के सभाओं, परिषदों को संबोधित करने तथा अन्य गतिविधियों में भाग लेने के लिए स्त्रियों को प्रेरित किया। थेरी गाथा की पटाचारा ऐसी ही थेरी थी जो गौतम बुद्ध के सर्वाधिक प्रिय शिष्याओं में से एक थीं। पटाचारा ने समाज के अन्य स्त्रियों को शिक्षित होने के लिए प्रेरित करती जगह-जगह घूमकर स्त्रियों को जागरूक करतीं। धीरे-धीरे पटाचारा की 500 से भी अधिक शिष्यायें बन गई। अपनी शिष्याओं के साथ पटाचारा समाज में शांति, सद्भाव व स्वाधीनता के आनन्द का संदेश देती थी। पटाचारा उच्च कोटि की कवयित्री होने के साथ-साथ उच्च कोटि की दार्शनिक भी थीं। अपने निजी जीवन के दुःखों के साथ विक्षिप्त अवस्था में बुद्ध का स्नेही सानिध्य पाकर जीवन के निस्सारता पर विचार करते हुए कहा- ‘‘हल से भूमि जोतकर मनुष्य उसमें बीज बोते हैं, इस प्रकार वे धन उपार्जन करते और अपनी स्त्री, पुत्रादि का पालन करते हैं, तो फिर क्यों न मैं साधिका निर्वाण को प्राप्त कर पाती? मैं जो कि शील से सम्पन्न हूँ अपने शास्त्र के शासन को करने वाली हूँ, अप्रमादिनी हूँ, अचंचल और विनीत हूँ।’’10 अपने समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर अपनी मानसिक शारीरिक कमजोरियों से ऊपर उठकर बौद्धिक और आध्यात्मिक भूख मिटाने व व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त करती हुई बुद्ध की समकालीन स्त्रियाँ संघ में शामिल होकर अपने व्यक्तित्व को पूर्ण मनोयोग के साथ जीती हैं। यह भी सत्य है कि भारत की पहली बुद्धिजीवी स्त्रियाँ बौद्ध संघों से ही निकली जैसे गौतमी, सुमंगला, पटाचारा, विशाखा आदि। बुद्ध के विचारों से प्रेरित होकर सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फूले और डाॅ. अम्बेडकर ने स्त्रियों के लिए आन्दोलन चलाया।

तमाम मान्यताओं और परंपराओं से परे बुद्ध मनुष्य मात्र को सर्वोपरि मानते हैं। बुद्ध व्यक्तित्व रूपांतरण की बात करते हैं। जैसे ‘अप्पः दीपो भवः? अपना दीपक स्वयं बनने के लिए प्रेरित करते हैं। बुद्ध स्वयं कहते हैं कि कोई भी बात इसलिए मत मानो कि मैंने कहा है बल्कि अपने तर्क की कसौटी पर कस कर उसके सही गलत को पहचानते हुए मानों अपनी अन्तः प्रज्ञा, तर्क और बुद्धि का प्रयोग करो। पूर्णा और मुक्ता थेरी को दिया गया बुद्ध का यह उपदेश इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- ‘‘पूर्णे! तू पूर्णता प्राप्त कर। पूर्णमासी के पूर्ण चन्द्रमा की तरह तू कल्याणकारी धर्मों में पूर्णता प्राप्त कर। प्रज्ञा की परिपूर्णता से तू अन्धकार-पुंज को विदीर्ण कर देगी।’’11 ब्राह्मण धर्म व्यवस्था के अन्तर्गत स्त्री के लिए कोई अधिकार नहीं था ऐसे में बुद्ध ने ब्राह्मणवाद को चुनौती देते हुए निम्न कही जाने वाली जातियों और स्त्रियों को संबल दिया उनके मनोबल को बढ़ाया। थेरी गाथाओं में इन थेरियों में आत्मविश्वास से लबरेज अभिव्यक्ति दिखाई देती है। धम्मदिन्ना थेरी निर्वाण प्राप्ति के मार्ग पर प्रशस्त होते हुए जब वह पुरुषार्थ कर रही थी तब वह कहती है- ‘‘जिसके अन्दर परम लक्ष्य के लिए इच्छा उत्पन्न हुई है और इस इच्छा ने जिसके पूरे चित्त को भर दिया है, जिसका चित्त कभी भोगों में बँधा नहीं, वही ‘ऊध्र्व स्रोता (संसार रूपी स्रोत – धारा के ऊपर जाने वाली) कहलाती है।’’12 ये थेरियाँ मनुष्य की गरिमा को स्थापित करती है और स्वविवेक से प्रकाशित एवं संचालित होने का संदेश देती है।

जब हम स्त्री सशक्तिकरण की बात करते हैं तो मोटेतौर पर हमारी समझ आर्थिक और सामाजिक समानता तक सीमित होती है। लेकिन बुद्ध की दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि हमें बाहरी स्तर पर भौतिक संसाधनों से सशक्त होने से पहले अन्तर्मन के स्तर पर स्त्री कितनी सशक्त है देखने की जरूरत है। अन्तर्मन के स्तर पर सशक्त होने से आशय है कि जीवन के प्रति हम कितने आशावादी हैं। बुद्ध जीवन के प्रति उसी आशावादी दृष्टिकोण को विकसित करते हुए निर्वाण की (मुक्ति) प्राप्ति की ओर स्त्री का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जहाँ स्त्री ज्ञान और आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो। उत्तरा थेरी की गाथा यहाँ उल्लेखनीय है- ‘‘एक निष्ठ होकर मैंने काया, मन और वाणी को संयत किया। फिर तृष्णा को समूल मैंने उखाड़ कर फैंक दिया। आज मैं शान्त हूँ। निर्वाण-प्राप्त हूँ। निर्वाण की परम शान्ति का मैंने साक्षात्कार किया है।’’13 अन्तर्मन का रूपांतरण सब परिवर्तनों की धुरी है। बुद्ध इस तथ्य को समझते थे इसलिये दमन या विरोध की बजाये आंतरिक परिवर्तन पर जोर देते हैं। थेरीगाथा की थेरियाँ उसी आंतरिक परिवर्तन का प्रतीक हैं। इसलिए डाॅ. अम्बेडकर ने कहा था ‘‘मैं समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असंभव है।’’14 बुद्धकालीन समाज की स्त्रियाँ कई संदर्भों में सशक्त थी और अपने समय को भी सशक्त करने की सामाजिक भूमिका भी निभा रही थीं।


थेरी गाथा बुद्धकालीन ही नहीं अपितु हर काल के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो स्त्री जगत को न केवल मानसिक और शारीरिक, बल्कि बौद्धिक और आर्थिक गुलामी के प्रति विद्रोह की शिक्षा देती है। ये थेरियाँ समाज में चली आ रही व्यवस्था, उसके मूल्यों परंपराओं के विरुद्ध आवाज उठाते हुए नवीनता के साथ-साथ आधुनिकता की मशाल जलाए मनुष्य मात्र की परतंत्रता के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है। आज हम जिस स्त्री विमर्श की बात करते हैं वह विमर्श इन थेरियों से ही शुरू होता है जिसने आज स्त्री विमर्श का व्यापक रूप ले लिया है। लेकिन दुःखद आश्चर्य यह है कि थेरियों की इस सहास गाथा को मुख्यधारा का स्त्रीवादी चिंतन रेखांकित नहीं करता। यह हाशिये पर की वैचारिकी के खाते में ही है। यह संघर्ष गाथा भले ही इतिहास के पन्नों में कहीं गुम है लेकिन निश्चित ही भविष्य में स्त्री संघर्ष की बात इन थेरियों के बिना अधूरा है। वास्तव में थेरियों की यह गाथा स्त्री मुक्ति की पहली आवाज थी।

संदर्भ:
1. डाॅ. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 155
2. भरत सिंह उपाध्याय, थेरी-गाथाएँ, पृ. 26
3. वही, पृ. 27
4. डाॅ. अम्बेडकर, हिन्दू नारी का उत्थान पतन, पृ. 22
5. भरत सिंह उपाध्याय, थेरी-गाथाएँ, वस्तुकथा से
6. वही, पृ. 26-27
7. वही, पृ. 86
8. वही, पृ. 12
9. डाॅ. विमल कीर्ति (अनुवादक), थेरीगाथा, पृ. 4
10. भरत सिंह उपाध्याय, थेरी-गाथाएँ, पृ. 48
11. वही, पृ. 3
12. वही, पृ. 6-7
13.  वही, पृ. 8
14. डाॅ. कुसुम मेघवाल, भारतीय नारी के उद्धारक बाबा साहेब डाॅ. बी. आर. आंबेडकर, पृ. 101

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