लिखने बैठा अभिजीत भट्टाचार्य की कुंठा लिख बैठा सहारनपुर का जोश

संपादकीय 


यह पहली बार नहीं है कि अभिजीत भट्टाचार्य ने अश्लील और आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की है, और न ही यह पहली बार है कि बॉलीवुड के किसी कलाकार ने किसी महिला या महिलाओं के खिलाफ अभद्र टिप्पणी की है. दरअसल स्क्रीन बौद्धिकता का आतंक यह है कि उधर से कोई भी शख्स किसी भी विषय पर मुंह खोले वह विमर्श का विषय बन जाता है.दक्षिण-वाम,सत्ता-विपक्ष सबके के पास अपने-अपने स्क्रीन बौद्धिक हैं. कहीं शबाना आजमी,जावेद अख्तर का राज है तो कहीं परेश रावल,अनुपम खेर और अभिजित भट्टाचार्य जैसे शख्स का.



अभी परेश रावल का लेखिका अरुंधती राय के खिलाफ बयान अपने अंतिम समर्थन या विरोध तक पहुंचा भी नहीं था कि गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने जेएनयू की शोध छात्रा और छात्र संगठन आइसा की नेता शह्ला रासीद के खिलाफ अश्लील और सेक्सिस्ट ट्वीट किया. सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और उन्मादी बयानवाजों की ऐसी भीड़ है कि इन दोनों को खूब समर्थन भी मिलने लगे, इसके बावजूद कि एक बड़े समूह ने इनकी निंदा की. समर्थन करने वाले लोगों में वे भी हैं, जिन्हें या तो भारत के प्रधानमंत्री फॉलो करते हैं या जो भारत के प्रधानमंत्री को न सिर्फ फॉलो करते हैं, उनके लिए सोशल मीडिया में बाकायदा कैम्पेन करते हैं. अभिजीत भट्टाचार्य अपने महिला और गरीब विरोधी बयानों से पहले भी सुर्खियाँ बटोरते रहे हैं- वही समर्थन और विरोध वाली सुर्खियाँ, लेकिन इस बार ट्वीटर ने उनपर कार्रवाई करते हुए उनका अकाउंट बंद कर दिया. वैसे अभिजीत अपने ट्वीट के लिए इससे अधिक सजा के काबिल हैं. अभिजीत के बयान के बाद बॉलीवुड की शख्सियतों को भी आगे आना चाहिए था और उसका बायकाट सुनिश्चित करना चाहिए था.

इन बयानवीरों ने जिन महिलाओं के खिलाफ बयान दिया है वे समाज में यथास्थितिवाद के खिलाफ सक्रिय शख्सियतें हैं. अरुंधती राय न सिर्फ एक सम्मानित लेखिका हैं बल्कि समाज में अलग-अलग रूपों में कायम वर्चस्ववाद के खिलाफ सक्रिय भी रहती हैं. शाहला इन दिनों छात्र आंदोलनों में एक जाना-पहचाना नाम है और स्त्री अधिकारों को लेकर सक्रिय रहती हैं. नागरी समाज में सक्रिय इन महिलाओं की जीवटता और वर्चस्ववादी व्यवस्था के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता को एक दो रावल या भट्टाचार्य जैसे लोग प्रभावित नहीं कर सकते, चाहिए मीडिया उनकी स्क्रीन लोकप्रियता को बौद्धिकता का जामा पहनाने की कितनी भी कोशिश करे.



लेकिन आज इन प्रतिबद्ध और निरंतर सक्रिय नागरी महिलाओं की छवि से ज्यादा मुझे उन ग्रामीण महिलाओं की छवि आकर्षित कर रही है, जो सहरानपुर के इलाकों में क्रूर जातिवादी और स्त्रीविरोधी लम्पटों के खिलाफ डटी हुई हैं-इन महिलाओं के संघर्ष और मुद्दों को जाति और जेंडर के अंतर्संबंध की समझ के लिए भी समझा जाना चाहिए और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और उसके खिलाफ संघर्ष को समझने के लिए भी. ये ग्रामीण महिलायें देश में एक विचार के लिए, समता के एक सिद्धांत के लिए और उसके एक प्रतीक के लिए मर मिटने को तैयार हैं, जूझ रही हैं, तलवार के हमले सह रही हैं तो तलवारों को चुनौती भी दे रही हैं. ये शहरों में जाति और जेंडर के मुद्दों पर संघर्ष कर रही महिलाओं की जमीनी प्रतिरूप हैं.


हाँ, मैं सहारनपुर के घडकौली गाँव की बात कर रहा हूँ. वही घडकौली जहां लगाया गया ‘द ग्रेट चमार’ लिखा हुआ बोर्ड इन दिनों सुर्ख़ियों में है. इस बोर्ड को अपनी अस्मिता से जोड़कर ये महिलायें पहरा दे रही हैं ताकि कोई उसका नुकसान नहीं पहुंचाए. इस बोर्ड को गाँव के सवर्णों ने और पुलिस ने एक बार नुकसान पहुंचाया भी था, जिसे लेकर गांव के पुरुषों के साथ इन महिलाओं ने भी लाठियां खाई. महिलाओं के स्पष्ट समझदारी भी है वे ‘चमार’ कहे जाने को लेकर सवाल किये जाने पर जवाब देती हैं कि ‘पहले वे जब हमें चमार कहते थे, उसमें हीनताबोध का भाव था. आज हम अपनी इस जाति में ‘चमार’ कहे जाने में गर्व महसूस कर रहे हैं, तो उन्हें परेशानी हो रही है.’ वे इस सवाल पर कि क्या बहन जी यानी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मायावती में अपनी ताकत महसूस करती हैं या भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर से. बहन जी का मुख्यमंत्री होना उन्हें अच्छा लगता है, सशक्ति के अनुभव के लिए लेकिन चन्द्रशेखर इस अनुभव को एक लक्ष्य भी दे रहे हैं ‘बच्चों को पढ़ाने, संगठित करने और बाबा साहेब की राह पर प्रेरित करने का.’ उनके शब्दों में’ चंद्रशेखर उनके संघर्षों में शामिल हैं, इसलिए वे उनके नेता हैं.’



मैं बात शब्बीरपुर की भी कर रहा हूँ. जहां राजपूत जाति के लोगों ने दलितों का घर जला दिया है, उनपर तलवारों से हमला किया है. उसमें कुछ महिलायें घायल भी हुई हैं. जब हमसब शब्बीरपुर गाँव गये तो हमसे सबसे ज्यादा संवाद बनाने वाली महिलायें ही थीं. वे इस जाति-हिंसा के खिलाफ हैं और उससे जूझने के लिए तैयार हैं. उन्हें यह अहसास है कि दलितों के हालात अब वैसे नहीं रहे जो आज से कुछ दशक पहले थे. उन्होंने कहा कि ‘हमारे यहाँ लड़के, लडकियां सब पढ़ रहे हैं, नौकरियाँ ले रहे हैं. राजपूतों के यहाँ लोग नहीं पढ़ते, इसलिए नौकरी भी नहीं मिलती उन्हें. यही कारण है कि वे आक्रोश में हैं कि कल तक हम जिन्हें दबा कर रखते थे, वे आज तरक्की कर रहे हैं.’ ये महिलायें दलित- असर्शन को समझती हैं. इन महिलाओं से मिलना सुखद अनुभूति वाला रहा, वे हारने को तैयार नहीं हैं. बाबा साहेब उनके आदर्श हैं, घरों में मायावती की तस्वीरें हैं. हमसे बात करते हुए वे स्पष्ट करती हैं कि क्यों संत रविदास का मंदिर या बाबा साहेब की मूर्ति सवर्णों को परेशान करते हैं. अस्मिता और अधिकार के बोध से भरी इन महिलाओं का जोश और उनकी समझदारी आकर्षित करती है किसी अभिजीत भट्टाचार्य या परेश रावल की बौद्धिकता न अरुंधती राय को समझ सकती है, न शाहला मसूद को और न गांवों में जोश, जज्बे और बोध से भरी इन महिलाओं को.

संजीव चंदन

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