प्रभा खेतान के साहित्य में स्त्री जीवन का संघर्ष

पंकज कुमार

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में शोधरत है. संपर्क:ssatyarthi39@gmail.com

स्त्री विमर्श अपने आप में पुरुष द्वारा थोपी गई जाति के लैंगीकरण  की अमानवीय व्यवस्था के विरूद्ध स्त्रीत्व का  जीवंत संघर्ष है. पितृसत्ता तथा पुरुषवाद स्त्री जाति का जन्म से ही बनावटी भेदमूलक कसौटियों पर स्त्रीलिंगी जैविकता में कैद कर उनकी यौनिकता, प्रजनन क्षमता, उत्पादन क्षमता को मनमाने सता आधारित अर्थों व उद्देश्यों के लिए मालिकाना हक से निचोड लेते हैं। स्त्री-विमर्श स्त्री के जीवन देह, श्रम, सौन्दर्य, छवि को दोहने वाली मादाभक्षी पितृसत्ता के सार्वभौमिक लिंगवादी वर्चस्व विरोधी, स्त्रीजाति का अस्मितामूलक विमर्श और सामाजिक-राजनीतिक उन्नयन के लिए चौतरफा संघर्ष है। यह संघर्ष साहित्य के जरिये जिन लेखिकाओं ने किया है उनमें प्रभा खेतान प्रमुख हैं. प्रभा खेतान कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और उषा प्रियंवदा के बाद की पीढी की महत्वपूर्ण उपन्यासकार हैं।


प्रभा खेतान ने लेखन-विचार तथा व्यवसाय दोनों को सफलतापूर्वक साध कर चौतरफा मोर्चों पर अपने आप को साबित किया है। स्त्रियों द्वारा इस तरह खुद को साबित करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि पुरुष समाज स्त्रियों को कमतर इन्सान और कम काबिल लैंगिक ईकाई के रूप में जानता पहचानता और मानता है। प्रभा खेतान की व्यवसायिक सफलता सिर्फ विरासत नहीं है। अपनी मेहनत से पाया गया मुकाम भी है। प्रभा खेतान लिखती है ‘‘….व्यापार के वे शुरू के दिन थे बिल्कुल ताजा, हर अनुभव के लिए उत्सुक मन। आज जैसा मन उन दिनों नहीं था। आज तो कितनी चीजों को देखकर अनदेखा करती हूँ। चुनौतियों से बचकर निकलती हूँ। उनकी कीमत भी चुकायी है। औरतपने का हीन भाव, पुरुषों की दुनिया में बार-बार अपना औचित्य स्थापित करना चाहता रहा है। क्या मैं औरत हूँ इसलिए यह काम नहीं करूँगी? करके दिखा दूँगी। दिखाया पर देखा भी कम नहीं?’’  प्रभा खेतान अपनी अधिकांश रचनाओं में उसी तरह मौजूद रहती है, जैसी अपनी कहानियों में लेखक खुद दर्शक भी, सूत्रधार भी और चरित्र भी ।


प्रभा खेतान अपनी रचनाओं में जहाँ एक ओर स्त्री जीवन की विविध समस्याओं को उठा रही हैं, वही दूसरी ओर उन्होंने इन समस्याओं से स्त्री को रोज दो-चार कराने वाली सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई से रु-ब-रू भी कराया है. उन्होंने अपने उपन्यासों में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के बीच स्वतन्त्रता तथा समानता के अधिकार के लिए संघर्षरत विविध चरित्रों को गढ़ा है। ये स्त्री-पात्र जहाँ एक ओर पितृसतात्मक समाज व्यवस्था की सड़ी-गली मान्यताओं को मानने से इन्कार कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर अपने लिए अलग राह बनाने की ओर अग्रसर हैं। चिंतन सम्बन्धी पुस्तकों में उन्होंने उदारीकरण के बाद बदलते आर्थिक और सामाजिक पदिदृश्य का स्त्री-जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव पूंजीवादी अर्थतंत्र में स्त्री-श्रमिक के समक्ष उपस्थित चुनौतियों तथा उसके शोषण के विविध रूपों को रेखांकित किया है।

स्त्री आत्मकथा : आत्माभिव्यक्ति और मुक्ति प्रश्न


पूंजीवादी बाजार व्यवस्था में यौनकर्मी के रूप में स्त्री स्वयं एक वस्तु बनती जा रही है। इस संबंध में अभय कुमार दूबे लिखते हैं कि- ‘‘भूमण्डलीकरण, समाचार माध्यम –छपे हुए शब्द से लेकर दृश्य श्रव्य माध्यम,  एक औरत की जो छवि पेश कर रहे हैं उसमें वह एक सुन्दर देह के सिवा कुछ नहीं हैं।’’  राष्ट्र अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए इसे एक संसाधन के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। प्रभा खेतान लिखती हैं कि- ‘‘फिलहाल स्त्री-श्रम को भूमण्डलीकरण के विधेयक प्रभाव से कहीं अधिक प्रौद्योगिकी  का निषेधक प्रभाव झेलना पड़ रहा हैं।’’



अशिक्षित तथा प्रौद्योगिकी ज्ञान से रहित स्त्रियों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए उन्हें इस ज्ञान से लैस करने की आवश्यकता है। ‘‘स्त्री श्रम को अत्यन्त निचले पायदान पर रखा जाता है। वह मात्र सहायिका/ हेल्पर है, मगर मास्टर नहीं।’अब तक स्त्रियों को वस्त्र, इलेक्ट्रानिक्स, संचार,चमड़े का सामान बनाने वाले उद्योगों में निचले दर्जे का काम मिलता रहा है।ज्यादातर कुशलता वाला और प्रबंधन वाला काम पुरुषों को ही दिया जाता है।
स्त्री के प्रेम की अभिव्यक्ति – ‘अन्या से अनन्या’


समलैंगिक स्त्रियों का दावा यह रहता है कि चूँकि वह पुरुष से प्यार नहीं करती इसलिए वह पितृसतात्मक व्यवस्था को बाहरी व्यक्ति होने के कारण चुनौती देने में ज्यादा सक्षम है। चूँकि इतरलिंगी व्यवस्था को स्वीकारने वाली स्त्री संसर्ग के दौरान पुरुष का आधिपत्य स्वीकरती है इसलिए वह बाह्य जगत में भी पुरुष के आधिपत्य को चुनौती नहीं दे सकती। प्रभा खेतान समलैंगिक स्त्रियों के इस दावे के प्रति शंका जाहिर करते हुए कहती है। ‘‘क्या लेस्बियन स्त्री सच में पितृसतात्मक संरचना से मुक्त है? क्या, अपने स्वयं के यौन चुनाव में वह उतनी ही स्पष्ट है अपने साथी को उतने ही समान स्तर पर रखती है, जितना की वह दावा करती है। कहीं पर रखती है, जितना की वह दावा करती है। कहीं वह स्वयं भी इतर वैयक्तिक यौन-संबंधों में पितृसतात्मक संरचना को अनजाने ही स्वीकार तो नहीं कर रही।’’


प्रभा खेतान ने साहित्य तथा अलोचना में स्त्री साहित्य की क्या स्थिति है, इसे भी अपने चिंतन का विषय बनाया। ‘‘स्त्रीकरण एक अमानवीय व्यवस्था है, जिसके तहत पुरुष ने अपने विचारों व अवधारणा के अनुसार स्त्री का निर्माण किया है। ऐसे निर्माण में स्वाभाविक है कि स्त्री की सहमति नहीं रही होगी। साहित्य जगत में भी लेखक ने अपनी कल्पना के अनुसार स्त्री स्वरूप का निर्धारण किया है।’’

अपने अधिकांश उपन्यासों में स्त्री जीवन की विविध समस्याओं को प्रभा खेतान ने चित्रित किया है। चाहे पूरब हो या पश्चिम, स्त्रियाँ इस पुरुषवादी व्यवस्था के बीच शोषित होने के लिए अभिशप्त रही हैं. अपनी बात को वो ‘अपने-अपने चेहरे’ उपन्यास में स्पष्ट कहती है कि ‘‘आप नहीं जानती बहन जी! औरत की सारी स्वतन्त्रता उसके पर्स में निहित है।’’   औरत को सही रूप में आजाद देखने के लिए उसे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनना पडेगा। स्त्रियाँ आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो चुकी है फिर भी वह बार-बार पुरुष से छली जा रही है। इस छल के कारण वह कुंठित हो गई है। ‘‘केवल आर्थिक ढाँचा बदलने से स्त्री को पुरुष के दिमाग में जो स्त्री की पुरुष-हित में छवियों गढ़ता है सम्पूर्ण बदलाव नहीं लाया जाता है।’’

जेंडर की अवधारणा और अन्या से अनन्या


प्रभा खेतान पूँजीवाद की सबसे घिनौनी देन देह व्यापार को मानती हैं, जो उनके ‘अग्निसम्भवा’ उपन्यास में मुखरता से स्पष्ट होता है ‘‘शरीर बेचना भी धंधा कहलाता है। पूँजीवादी समाज की सबसे घिनौनी देन बादशाहों की रखैल से लेकर गली बार में बैठी हुई औरत तक मुझे सबसे नफरत है। आज के युग में कोई मजबूरी का हवाला दे बिल्कुल बकवास है ।’’   प्रभा खेतान ने अपने चिंतन में भी यौन कर्म का सभ्य समाज के लिए कलंक बताया है। लेकिन वे इसके लिए समाज की उस मानसिकता को बदलना चाहती हैं जिसमें वेश्या को तो लांछित और कलंकित किया जाता है जबकि पुरुष ग्राहक को समाज बहिष्कृत नहीं करता। वही उनके उपन्यास ‘अपने-अपने चेहरे’ में पितृसतात्मक समाज स्त्री के मानस का निर्माण इस प्रकार करता है कि वह पुरुष के अत्याचार को नियति समझकर स्वीकार करती चली जाती है। वह स्त्री के लिए संस्थानिक विवाह को महत्व देती है, चाहे उसे पुरुष प्रताडित ही क्यों न करे? पारम्परिक संस्कारों से ग्रस्त सरला के मानस में स्त्री जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता दो चुटकी सिंदूर ही है। ‘‘मन्नो तुम ठीक कह रही हो। अरे कितना भी बिजनेस कर ले, पढ़ाई कर ले, लेकिन एक चुटकी सिन्दुर का आत्मबल ही अलग होता है।’’

पितृसत्तात्मक क समाज द्वारा स्त्री को बच्चा बनाने वाली मशीन समझे जाने पर व्यंग्य करते हुए कहती है, ‘‘मुझे क्यों लाए थे आपके भाई बच्चा पैदा करने ही ना? तो जनकर पटक दिया। बच्चे क्या मेरे कहलाए।’’  पत्नी पति की सुख-सुविधा के लिए है यह एक ऐसी मानसिकता है जहाँ पुरुष प्रधानता हमेशा गौण स्त्रित्व पर हावी रहती है। ‘छिन्नमस्ता’ इसका एक पुख्ता उदाहरण है। इसी के समरूप  ‘‘अरस्तु ने स्त्रियों को गुलाम के बराबर ला खडा किया और कहा कि ‘‘उनके अस्तित्व की सार्थकता इसी में है कि वे slaves, artisans and traders  की तरह highest  happiness of the few के लिए प्रस्तुत रहें- राहों में बिछी हुई सी।’’



इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल से प्रारम्भ होकर भूमण्डलीकरण के इस दौर में महिलाएँ अपनी सामाजिक प्रस्थिती (स्टेटस) और सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्षशील हैं किन्तु जैविक- नैसर्गिक भावना के वशीभूत सदैव वंचना की शिकार होती रही है। क्या स्त्री अपनी सर्वाभौमिक पहचान बनाने में समर्थ नहीं होगी? क्या पितृसतात्मक समाज उसे अपने समतुल्य नहीं देख पाएगा? क्या स्त्री अपने अस्तित्व के लिए इसी प्रकार लालापित रहेगी? ऐसे ही कुछ यक्ष प्रश्न है जो प्रभा खेतान के सृजनात्मक साहित्यक कृतियों की केन्द्रिकता का निर्धारण करते है। लेखिका के साहित्यिक सृजन की अन्तर्वस्तु महज अतीत और वर्तमान की अपेक्षा ही नहीं अपितु भविष्य के पुरुष वर्चस्ववाही समाज से भी यही यक्ष प्रश्न करता ही रहेगा।

सन्दर्भ सूची


   1 .खेतान प्रभा- बाजार के बीचः बाजार के खिलाफ, पृष्ठ सं. 77-78 
   2 .दूबे, अभयकुमार- हंस – स्त्री भूमंडलीकरण पितृसत्ता के नए रूप- पृष्ठ 40 
  3 .खेतान प्रभा- उपनिवेश में स्त्री, पृष्ठ सं. 151 
  4. खेतान प्रभा- उपनिवेश में  स्त्री, पृष्ठ सं. 36
  5. खेतान प्रभा- आओ पेपे घर चले, हंस अंक, अप्रैल, 1989, पृष्ठ सं. 73
  6. सिंह, प्रेम – वसुधा अंक विशेषांक, 59-30, पृष्ठ सं. 191
  7. प्रभा खेतान- अग्निसंभवा, हंस अंक मार्च 1992, पृष्ठ सं. 68
  8. प्रभा खेतान- अपने-अपने चेहरे, पृष्ठ सं. 20-21
  9. प्रभा खेतान- छिन्नमस्ता, पृष्ठ 29
  10.अनामिका – स्त्रीत्व का मानचित्र, पृष्ठ 19-20




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