शोधार्थी, जेएनयू. इतिहास एवं साहित्य में रुचि के साथ-साथ थिएटर भी।संपर्क : saahir2000@gmail.com
एक बम तो, मैं भी फोङूँगी ही
उस दिन क्या हुआ था?
शंकर के लिंग
गोली में तब्दील होकर
फ़िज़ा में उड़ रहे थे…
हर घर में
लिंग ही लिंग
खिड़की, दरवाज़ा
यहाँ तक कि दीवार तक
छेदकर, घुस आए थे…..
फिर योनि के रास्ते
दिल, दिमाग़
हर नस में
दाग दी गईं
गोलियाँ….
उस दिन से दिमाग़ में भी
एक योनि बन गई…..
जब भी साँस लो
गोली ठाँय सी लग जाती है
हर रोज़
वही मौत
फिर-फिर और फिर….
इन लिंगों को इकट्ठाकर
एक बार ही सही
एक बम तो
मैं भी फोङूँगी ही।
( कुंनन-पोशपोरा में आर्मी द्वारा किए गए समूह बलात्कार की घटना के सन्दर्भ में)
आओ विदा लें
आओ विदा लें
कि शब्द बने रहें मधु
कि लम्स बचे रहें सुंदर
कि लमहात यादगार रहें
कि क्षणों को दाग़ न लगें
आओ आगे बढ़ें
आओ विदा लें
आओ सौदा करें
आओ सौदा करें
तुम मेरा ख़याल रखना
मैं तुम्हारा।
तुम मेरे साथ चलना
मैं तुम्हारे।
तुम मुझ पर चिल्लाना
मैं तुम पर
तुम मुझ पर झल्लाना
मैं तुम पर
तुम मुझको रुलाना
मैं तुमको…….
इस तरह तुम भी जी लोगे
और मैं भी
हमारा आसमाँ
और ये हवा
मुफ़ीद नहीं है
इसलिए आओ
सौदा करें
कि जी सकें
स्वर्णयुग
स्वर्णयुग में
मेरा अक़ीदा है ही नहीं
मैं जानता हूँ
आग जैसे मानव को
वर्तमान में जलते हुए
आसमाँ और समंदर
बुनते हुए
हर रोज़
हर वक़्त