साहित्यिक मतदाता की खुली चिट्ठी : केजरीवाल सर, लिखवायें किताब की कुंजी ‘सफरनामा कितना सच, कितना झूठ.’

आदरणीय अरविंद जी


यह पत्र जो सार्वजनिक लिख रहा हूँ, उसे हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष और दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर परऑफिसियली भी भेजूंगा.  सार्वजनिक इसलिए कि आपका राजनीतिक लक्ष्य पारदर्शी रहा है तो संवाद थोड़ा पारदर्शी भी हो.

वैसे तो मैं आपके प्रति और आपकी राजनीति के प्रति संशकित ही रहता रहा हूँ. खासकर अन्ना के दिनों में ज्यादा संशकित था, वह आंदोलन जिस तरह आपके चाहते हुए और न चाहते हुए आरएसएस के समर्थकों का टूल बन गया था, वह हमने देखा. हालांकि आप कुछ हद तक वहाँ से इसे निकाल पाये तभी संघ समर्थक आपको गलियाते हुए मोदी भक्ति में लीन होते गये और आपकी पार्टी और आपकी राजनीति एक हद तक इस विध्वंसक जमात के प्रभाव से मुक्त हुई.

राजेंद्र यादव की बीमारी के समय तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज का सन्देश

केजरीवाल सर,  हिन्दी अकादमी में आपकी उपाध्यक्ष साहित्यिक झूठ खड़ा कर रही हैं? 

शंका की एक बड़ी वजह आरक्षण और जाति को लेकर आपकी समझ और आपका पिछला रिकार्ड रही है. लेकिन शासन और निर्णयों के स्तर पर आपने मुझे और मुझ जैसों को पुनर्विचार के लिए मजबूर किया है कि एक निश्चित हद तक आप आज राजनीतिक विकल्प हैं और विकल्प की राजनीति कर भी रहे हैं. इसीलिए दिल्ली का वोटर होने के नाते दिलो-जान से चाहा कि आप दिल्ली महानगरपालिका के चुनाव में विजयी होकर आयें-हालांकि वह हो न सका.

मैत्रेयी इतनी इर्ष्यालू थी कि वह नजर रखती थी कि राजेंद्र जी के पास कौन आ रहा है (?)

तो अरविंद जी आप एक राजनीतिक विकल्प के तौर पर दिखते हैं और दिल्ली में स्कूलों, चिकित्सा और अन्य बुनियादी सुविधाओं पर आप शोर से अधिक करते हुए तथा दूसरे राज्यों के लिए नजीर पेश करते हुए दिखते हैं, इसलिए यह गुफ्तगू कर रहा हूँ. आप यह तो मानते होंगे न शासन जनता के बीच सकारात्मक मेसेज के माध्यम से अपना इकबाल बुलंद करता है. जबकि  केंद्र तथा राज्यों में भाजपा की सरकारें निर्लज्ज उदाहरण पेश कर रही हैं. आप यह मानते होंगे कि आलोचनाओं के प्रति निर्लज्ज आक्रामकता बनाते हुए ही भाजपा ने इशरत जहां के एनकाउन्टर के आरोपी पीपी पांडे को कैसे और कहाँ-कहाँ पदों से नवाजा, डीजीपी बनाया, मामला कोर्ट में आया तो वे हटने को बाध्य हुए. हालांकि  लगता है इस बार भाजपा थोड़ा बैकफुट पर गई है पीपी पांडे का नाम राज्य  मानवाधिकार आयोग के मुखिया के लिए आगे बढ़ाकर फिर पीछे हट गई.

आपके कई अतिरेक और आवेग से असहमत होते हुए भी अरविंद जी मैं यह मानता हूँ कि आप पारंपरिक राजनीति में फिट नहीं हो रहे, उसके लिए सिरदर्द बने हैं, तभी तो पूरी राजनीतिक जमात आपको अछूत मानती है.  चूकी आप पारंपरिक राजनेता नहीं हैं इसलिए ही आप मेरी इस चिट्ठी के मजमून को समझेंगे और आपको संबोधित करने के संदर्भ को भी. अन्यथा यह ऐसा कोई मामला नहीं था कि इसे  साहित्यिक विमर्श, वाद-विवाद से परे ले जाया जाये और एक मुख्यमंत्री को, एक संस्थान के अध्यक्ष को, इसमें दखल देने के लिए कहा जाये. ऐसा चलन भी नहीं रहा है. साहित्यिक जमातें एक-दूसरे पर शाब्दिक बमबारी खूब कर लेती हैं, लेकिन इसे वे बहस और जुगाली तक ही सीमित रखती हैं, कभी मानहानि नहीं, कभी निर्णायक कदम नहीं, क्योंकि कुछ सौ करोड़ की जो साहित्यिक सत्ता है, उसमें आपसी साझेदारी  ऐसे निर्णायक क़दमों से प्रभावित होती है.

वे पत्नी और प्रेमिका दोनो रहीं 

खैर,  लिख इसलिए रहा हूँ कि आप पारंपरिक ढंग से अलग राजनीति कर रहे हैं, इसलिए एक संभावना है कि आप समझते होंगे कि हिन्दी अकादमी जैसे संस्थान सिर्फ बाबूगिरी के लिए नहीं बनाये जाते. उसके अधिकारियों का काम फाइलों पर साइन करना और अपनों को उपकृत करना भर नहीं होता है. साहित्य की संस्थाओं का मकसद साहित्य के प्रति जिम्मेवारी होती है, इसलिए यह प्रसंग आपको शेयर कर रहा हूँ और उचित लगे तो इस पर निर्णायक कदम के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ. देखिये मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूँ कि हिन्दी अकादमी में आपने किसी सचिव की नियुक्ति क्यों नहीं की, या इस ओर भी ध्यान नहीं खीच रहा हूँ कि नई उपाध्यक्ष के आने के बाद संस्थान के कर्मियों ने हमलोगों से अपने अवसाद के प्रसंग बताने शुरू किये थे. चूकी संस्थानों में महिलायें बहुत कम ही हैं, इसलिए हमसब को लगा था कि महिला उपाध्यक्ष के होने से संस्थान का भला होगा. अवसाद वगैरह को तो शायद उन्होंने कायदे से ठीक कर ही लिया होगा.

इस पत्र का मकसद इन विषयों पर चर्चा करना नहीं है. या यह भी बताना नहीं कि संस्थानों के बड़े पदों पर बैठे लेखक अपनी किताबों के खरीद के लिए कैसे और कितना असरकारी माहौल बनाते हैं. गपशप तो बस यह करना चाहता हूँ कि  आपकी गैर पारंपरिक राजनीति यह जरूर मानती होगी कि साहित्यिक संस्थाओं के जिम्मेवार लोगों को नैतिक होना जरूरी है. साहित्य का ईमानदार इतिहास दर्ज करवना, उसपर शोधपूर्ण या साहित्यिक विधाओं के फ्रेम में लेखन करवाना उनका कर्तव्य है- ऐसा होता है तो साहित्य के शोधार्थी लाभान्वित होंगे. इसीलिए यह सार्वजनिक गप-शप कि बड़े संस्थानों के पदों पर बैठे बड़े लेखक यदि अपने समकालीनों का अपमान करते हैं, झूठ रचते हुए उन्हें बदनाम करते हैं ,  तो उनका यह कृत्य पुस्तकालयों में सुरक्षित भी हो जाता है. और यह खतरनाक है. खतरनाक है कि साहित्य में श्रेष्ठ को संरक्षण देने के लिए बने संस्थानों के बड़े अधिकारी यदि बाजार के खेल में शामिल होकर किताबों का और किताबों में प्रपंच  रचें, यह  ठीक नहीं है भाषा के स्वास्थ्य के लिए.

राजकमल प्रकाशन ‘वह सफ़र था कि मुकाम था’  को निरस्त करे (!)

इसलिए आपसे आग्रह है कि आप हिन्दी अकादमी में आपकी उपाध्यक्ष की लिखी किताब ‘वह सफ़र था कि मुकाम था’ को अध्यक्ष के तौर पर और एक पाठक के तौर पर भी पढ़ें. और फिर अकादमी से ही शोध करवाएं :  ‘सफरनामा: कितना सच, कितना झूठ.’  सच में हिन्दी अकादमी इससे न सिर्फ हिन्दी का भला करेगी बल्कि आपकी उपाध्यक्ष की किताब को पढने के लिए, उसे समझने के लिए एक अधिकारिक कुंजी भी उपलब्ध करा सकेगी.

छूटते डाक से यह चिट्ठी आपको भेज रहा हूँ. फिलहाल सार्वजनिक तौर पर इसे पढ़ लें. 


आपका 
बस आपका अपना 
एक साहित्यिक मतदाता