कहानी में तीसरा कक्ष

अनुपम सिंह

अनुपम सिंह दिल्ली वि वि में शोधरत हैं. संपर्क :anupamdu131@gmail.com



जया जादवानी की कहानियों का पहला संग्रह “मुझे ही होना है बार –बार” मेरे सामने है. संग्रह का नाम  इन पंक्तियों  में से चुना गया है –‘सिर्फ मैं ही हो सकती हूँ ,सिर्फ मुझे ही होना है . मुझे ही बिखरना है टूटकर ,मुझे ही बनना है . सृष्टि के अंत के बाद भी मुझे ही होना है …लगातार…..बार-बार”. इस  कहानी संग्रह को पढ़ते हुए पहली  कहानी ‘शाम की धूप” में ही नाम धारी पात्र मिलते हैं –रामखेलावन और राजू . बाकि सभी कहानियां बिना नाम वाले पात्रों की कहानियां हैं, जिसके लिए कहानीकार ने प्रतीकों का सहारा लिया है . इनकी सभी कहानियों को प्रतीकों का वितान कहा जा सकता है . जहाँ प्रतीकों के संबंधों को समझने में जरा सी भी चूक हुई वहां कहानी पूरी तरह से उलझ कर रह जायेगी . इस संग्रह की पहली कहानी ‘शाम की धूप ‘संग्रह की अन्य कहानियों से लम्बी है या औपन्यासिक विन्यास (जिसे कहानी के फ्लैप पर लिखा गया है )लिए हुए है . लेकिन अन्य कहानीकारों की कहानियां देखें तो इसे औपन्यासिक विन्यास की कहानी नहीं कह सकते . यद्यपि इनकी कहानियां स्त्री चेतना की कहानियां हैं लेकिन शाम की धूप उससे थोडा भिन्न है .इस  कहानी  में स्त्री चेतना  दिखाई देती है लेकिन पाठक पर उस स्त्री चेतना का प्रभाव उस रुप में नहीं पड़ता है जैसा कि अन्य कहानियों में उभर कर आई स्त्री चेतना का . यह कहानी स्त्री विडम्बना से अधिक एक ‘छीजते पुरुष’ की कहानी है. लेकिन यदि उस छीजते (वृद्ध होते )पुरुष को उसके पुन्सत्तव को नष्ट होता मान लें तो निःसंदेह यह कहानी स्त्री चेतना की कहानी होगी . यदि ऐसा माना जायेगा तो कहानी में अनावश्यक विस्तार देखाई देगा .

मैंने इस समीक्षा को कहानी में तीसरा कक्ष शीर्षक दिया है . और इस संग्रह में “तीसरा कक्ष” नाम की एक कहानी भी है .इनकी कहानियों को पढ़ते हुए मुझे लगातार महसूस हो रहा था कि इनकी सभी कहानियों को “तीसरा कक्ष” नाम से संगृहित किया जा सकता था . बहरहाल यह रही मेरी दृष्टि . कहानीकार ने स्त्री की समाज में  जो दोयम दर्जे की स्थिति है उसी को सभी कहानियों में प्रस्तुत करके यथास्थितिवाद का विरोध किया है. इनकी सभी कहानियों में ,जिसको मैंने तीसरा कक्ष कहा है, ऐसे बिंदु हैं जहाँ कोई नहीं जाता है ,क्योंकि वहां कहीं गहराई है, तो कही अंधकार ,कहीं मरे हुए सपनों की लाश है तो कहीं स्त्री का टूटा हुआ स्वतंत्र व्यक्तित्व .सभी उस पहले और दूसरे कक्ष तक ही रह जाते हैं . ‘वहां मैं हूँ’ कहानी का तीसरा कक्ष यह है कि  –“उसने मेरी देह की कमर में हाथ डाल दिया है ,वह मुझे चूम रहा है ,मेरी देह को –माथा ,होठ ,गला ,कंधे “ यह ‘ मैं ’ जो अपने जिस्म को देख रही है वही रहती है उस तीसरे कक्ष में, जहाँ से सभी को पहचानने की कोशिश करती है –“वह मेरे जिस्म के नजदीक आता है . मैं खुद को दूर कर लेती हूँ –अब तुम्ही भुगतो . मैं अपने शरीर से दूर खड़ी उसे देखती हूँ” कहानी का तीसरा कक्ष ‘आत्म’ का कक्ष है ,’चेतन’ का कक्ष है. पहले में तो ख़त्म हो गए संबंधो का ठंठापन है, जिसको लाश की तरह सब ढो रहे हैं . कोई स्त्री जब अपने इसी तीसरे कक्ष में रहती है तो सपने बुनती है , उसे पूरा करने के लिए संघर्ष करती है ,जैसे ही वह पहले वाले कक्ष में प्रवेश करती है भयातुर हो जाती है , क्योंकि यहाँ कोई उसके सपने को झाड़ू  से साफ करता है . लेकिन बचे हुए टुकड़े उसके पैरों में चुभते हैं तब उसको समझ में आता है –‘’कि न तो सपने को रख सकते हैं न  फेक सकते हैं. इन्हें बाहर फेकने की बजाय अपने अन्दर फेकना चाहिए था ’’जहाँ वे सुरक्षित रहते हैं . सपने जीवन के आधार हैं ,”इन्हें जीवित रहना चाहिए ये दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा कीमती हैं‘’ सपने विहीन जीवन मछली के सामान है जो पानी के बिना जिन्दा  है और तड़प रही है . “इनको जिलाए रखने का एक ही तरीका है पानी……. पानी” पहला कक्ष जहाँ वह खिलौने से खेलती है . दूसरा कक्ष जहाँ वह खेलने के लिए बनायीं जाती है . मेरे ख्याल से तीसरा  कक्ष वह  है, जहाँ वह इन सब का निषेध करती है .

स्त्री  इस तीसरे कक्ष में जाकर ही निषेध की ताकत बटोर पाती है  ,जहाँ पुरुष  जाना ही नहीं चाहता है .पहले और दूसरे कक्ष का ही दरवाजा वह खोलता है ,जहाँ वह रहता है . यहाँ यह याद दिलाना अवश्यक है कि  उसका भी एक तीसरा कक्ष है, जिसके दरवाजे वह कभी नहीं खोलता है . “ वह खोलता एक ही है जहाँ वह होता है . बाकी  सब तो बंद पड़े रहते हैं”.  गर्द, सीलन, स्मृतियों की गंध उस तीसरे कमरे में कैद रखता है . वह ही नहीं उसके तीन-तीन बच्चे भी कैद हैं ,उसके पेट से निकालकर . लेकिन एक दिन उसे अँधेरे और ख़ामोशी से ऊब कर ,“ उसने हडबडाकर दरवाजा खोल दिया …..एक चीख उसके गले से फूटी, हवा में उठी और उठती चली गयी…..हवा ने सुना ,बरगद ने सुना ,फूल, पत्तियों ,नदियों ,समुद्रों ,आसमान और बादल ने सुना. सबने चौककर उसे देखा …..उसने एक पल खुद को तोला और बाहर अँधेरे में छलांग लगा दी ” . कैद से मुक्ति ही स्त्री आन्दोलनों का लक्ष्य है . लेखिका हर तरह के कैद से ,गुलामियों से मुक्त करने के लिए संकल्प बद्ध है .’जब वह होता है’ कहानी में ‘वह’ कौन है? वह पति, प्रेमी, दोस्त कोई भी हो सकता है ,लेकिन यहाँ ‘वह’ एक स्त्री का स्वप्न है.  जो आसमान के समान ही असीम है संभावनाओं से भरा हुआ है .आसमान पुरुष का भी प्रतीक होता है तो क्या सिर्फ पुरुष को ही सपने देखने का अधिकार है .एक स्त्री को जिसको धरती के सामान घोषित किया गया है . जहाँ  नैतिकता ,मर्यादा ,वर्जना ,त्याग आदि के जंगल ,नदी पहाड़ उग आयें हैं जिसके नीचे उसका दम घुट रहा है . “अरे …रे …रे मेरी छोटी –सी बच्ची …..देखो ये सरे खिलौने तुम्हारे हैं …ये घोड़ा..ये हाथी…ये गुडिया …गुड्डा …इन सबसे खेलो तुम …देखो बहार मत जाना …बहार बारिश है ,धूप है …काली आंधी चल रही है “. लेकिन लेखिका कहानी के अंत में  तीसरे  कक्ष का वह दरवाजा खोल ही देती है ,जहाँ से सपने आ रहे हैं ,ताजा हवा आ रही है.कहानीकार का उद्देश्य एक तीसरे रस्ते की तलाश  है जो उन दोनों रास्तों से भिन्न है ,जो पहले और दूसरे कक्ष तक ही ले जाते हैं .-“प्रकृति का चक्र अब रोकना बेमानी है . मैंने अपनी छाती के सरे द्वार खोल दिए और अपना चेहरा उन बरसाती बूदों के नीचे कर लिया ….”. इसी प्राकृतिक और आप्राकृतिक के भेद से सब कुछ ठहरा हुआ था ,स्त्रियों की प्रकृति सिर्फ देह तक ही सीमित थी ,देह से बाहर  उसकी कोई पहचान नहीं थी . लेकिन अब  वह इस निषेधाज्ञा को तोडती ,धूप में तपती ,बारिश में भीगती है . स्त्री अपने वजूद को तलाश रही है .-“मैं वहां नहीं जाती ,जहाँ जाने के लिए मुझे मना किया जाता है ,वे जो कहते हैं ,ठीक कहते होंगे . बस कभी कभी मैं खिलौने तोड़  के देख लेती हूँ. माँ की की आँख बचाकर तेज बारिश  में खिड़की में अपना हाथ निकाल लेती हूँ , खूब दोपहर में ,घर के सारे के सारे लोग सो जाते हैं ,छत पर धुप में पसीना पसीना होकर देखती हूँ . नंगे पैर चलती हूँ तलवे जलते हैं तो मुझे असीम शांति मिलती है ….” .

यदि मैं इनकी कहानियों के लिए एक वाक्य में कुछ कहूँ तो यह कि  इनकी कहानियां निषेधाज्ञा का उल्लंघन हैं . वह स्त्री-पुरुष किसी के लिए भी खीचे गए किसी भी लाइन को पार करना चाहती हैं . स्त्री संघर्ष का इतिहास सौ साल से अधिक के संघर्ष का इतिहास है . जिस तरह स्त्री संघर्ष का इतिहास एक देश के भूगोल को लांघ गया, स्त्री भी वैसे ही भूगोल की सीमा को तोड़ना चाहती है . मैंने कहीं पढ़ा था कि  “स्त्री मुक्ति दिवस न पूर्वी है न पश्चमी वह अंतरराष्ट्रीय  है “. लेखिका की दृष्टि  भी स्त्री के लिए भूगोल की जो सीमा है उसको तोड़ने पर  है –“हमें पूरा का पूरा तय कर दिया जाता है जैसे भारत या किसी भी देश के मानचित्र को यहाँ से वहां तक . सरहदों के पास जाने से खतरा है अब मैं किसे बताऊँ मुझे सरहदों के पास जाना ही इसलिए है . नहीं तो क्या जरुरत है फिर “.  स्त्री इन सीमाओं को तोड़कर ही अपने सपने की तलाश पूरा कर सकती है . कोई सवाल कर सकता है कि  स्त्रियों ने  ऐसा  कौन सा  सपना  देखा है,  जिसके लिए वे सभी सीमाओं को तोड़ देना चाहती हैं . तो जवाब यदि इस कहानी से देना हो तो वह होगा ‘समानता’ का . जहाँ स्त्री को  सिर्फ देह न समझा जाय .

किताब: मुझे ही होना है बार-बार 
लेखिका: जया जादवानी 
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन 

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ISSN 2394-093X
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