निर्मला पुतुल की कविताएँ: आदिवासी पीड़ा और प्रतिरोध का काव्य-संसार

रेखा सेठी

  हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली वि वि, में एसोसिएट प्रोफेसर. विज्ञापन डॉट कॉम सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचनात्मक और वैचारिक पुस्तकें प्रकाशित
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निर्मला पुतुल का काव्य-संसार एक अलग दुनिया खोलता है। वास्तविक और वैचारिक के अंतर को यहाँ शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। अधिकांशतः स्त्री-कविता की पहचान पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा में पढ़ी जाती हैं किन्तु यहाँ आदिवासी समाज का हाशियाकरण, उसे एक अतिरिक्त आयाम देता है। यहाँ हिंसा के कई रूप हैं और लड़ाई उतनी ही गहरी। आज़ादी के लगभग सात दशक बाद भी यह जन-समाज राष्ट्र की मुख्यधारा में सक्रिय रूप से शामिल नहीं हो पाया है। राजनीति और बाज़ार ने उनकी असुरक्षा को तीव्रतर ही किया है। विकास के नाम पर षड्यंत्रों का शिकार होते हुए इन आदिवासियों को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में आदिवासी समाज के अंतर्विरोधों को उकेरते हुए यथास्थिति के प्रतिकार के लिए कविता का अभियान छेड़ती हैं। वे अपने आदिवासी बहनों और भाइयों को विद्रोह के वीर इतिहास की याद दिलाती हैं। बार-बार सचेत करती हैं कि अपने शोषण को पहचानो एवं उदासीन समर्पण की राह छोड़कर संघर्ष की राह चुनो। इस सारे सामाजिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में स्त्रियों की स्थिति और भी विकट है। जीवन के अभावों से सतत संघर्ष, कड़ी-मेहनत, दैहिक-आर्थिक शोषण, स्त्री को डायन बना देने वाली कुप्रथाओं का बोझ—सब मिलकर स्त्री के लिए ऐसी व्यूह-रचना करते हैं कि उसका जीवित रहना, इस समाज में साँस लेना भी कड़े जीवट एवं साहस की माँग करता है। निर्मला पुतुल की कविताएँ इस प्रति-संसार को हमारे सामने सजीव कर देती हैं।

स्त्री-कविता की पहचान करते हुए निर्मला पुतुल की कविताओं को शामिल करने का उद्देश्य स्त्री के इस दोहरे हाशियाकरण से जो जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं उनसे साक्षात्कार करना है। इस कवयित्री की मूल भाषा संताली है। पहला संकलन ‘अपने घर की तलाश में’ सन् 2004 में रमणिका फाउंडेशन से संताली-हिंदी द्विभाषिक रूप में प्रकाशित हुआ। इन कविताओं के ताप तथा स्वर की दृढ़ता ने हिंदी समाज को इन्हें गंभीरता से लेने पर विवश किया। इनमें से अधिकांश कविताएँ हिंदी में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2005 में प्रकाशित की गईं, जिसका शीर्षक था ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’। निर्मला पुतुल अपनी कविताओं के द्वारा नगाड़े की तरह चोट करने वाले ऊँचे स्वर में सामाजिक न्याय की गुहार कर रही हैं। 2014 में ‘बेघर सपने’ प्रकाशित हुआ जो एक बार फिर शोषण और न्याय के सवालों को उठाता है। इन कविताओं में बार-बार बलात्कार का शिकार होती या फिर घरेलू श्रम की मंडी में बेच दी जाती आदिवासी लड़कियों की पीड़ा साकार हुई है। निर्मला पुतुल का काव्य-संसार आज हिंदी कविता से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।

निर्मल पुतुल की कविता में स्त्री-प्रश्न 

निर्मला पुतुल की कविताओं में आ
दिवासी-अस्मिता से अलग कर स्त्री-अस्मिता का कोई अस्तित्व नहीं है। इस कविता में आदिवासी स्त्री-जीवन के असंख्य आख्यान हैं। घर और घर से बाहर जिस गहरे दुःख के अभिशाप को वह निरंतर झेलती हैं ये कविताएँ उसका बयान हैं। अपने एक लेख ‘झारखंडी महिलाओं का पलायन एवं उनका शोषण’ में आदिवासी महिलाओं के जीवन यथार्थ के विषय में निर्मला जी लिखती हैं –“आदिवासी महिलाएँ जिनके पास भूख है, भूख में दूर तक पसरी उबड़-खाबड़ धरती है, सपने हैं, सपनों से दूर तक पीछा करती अधूरी इच्छाएँ हैं, जिसकी लिजलिजी दीवारों पर पाँव रखकर वे भागती हैं, बेतहाशा, कभी पूरब तो कभी पश्चिम की ओर….।”

अपनी कविताओं में कवयित्री इन भागती –हाँफती, डरी हुई महिलाओं के जीवन-प्रसंगों का वर्णन करती है। ये दृश्य करुणा उपजाने वाले हैं ‘ढेपचा के बाबू’ यह दारुण स्त्री-जीवन की प्रतीकात्मक कविता है। यह कविता नहीं कविता में कहानी है, उस स्त्री की जिसका पति उसे छोड़ कश्मीर कमाने गया है, बेटा और बेटी बंगाल। पाँच साल के छोटे बच्चे को लिए वह अकेले हर स्थिति से लड़ रही है। सबकी भूखी ललचायी नज़रे उस पर लगी हैं। ऊपर पाड़ा के लोग उसका सूअर मारकर खा जाते हैं | बाज़ार से उसका सामान चोरी चला जाता है | ज़मीनें बिक रही हैं | लाल कार्ड का लाभ प्रधान हड़प जाता है | स्कूल बंद, खेती बंद, मजदूरी भी पूरी नहीं मिलती, उस पर हँसी-ठट्ठा और अपमान | आदिवासी ग्राम-समाज की औरत को हल चलाने, छत डालने का भी अधिकार नहीं | डायन करार कर नंगा नचाने की दहशत हर दम पीछा करती है | अकेली औरत कैसे निभाए | अपने दुःख और पीड़ा वह किसे दिखाए। बस, इसी आस में बालों में फूल लगाना नहीं छोड़ा है कि कभी उसका पति लौट आएगा। यह कहानी लगभग प्रत्येक आदिवासी स्त्री की है जिसे तरह-तरह का अपमान झेलना पड़ता है। कभी पति के चले जाने पर तो कभी उसके होने पर भी-
कोई आया, कुछ उठा ले गया
तुम बाँसुरी बजाते रहे

अशक्तता, आत्मलिप्तता बन जाती है। आदिवासी जन-समाज में स्त्री हो या पुरुष तथाकथित ऊँची जातियों द्वारा इतने विवश कर दिए गए हैं कि प्रतिकार की आवाज़ नहीं निकल पाती। शायद इसीलिए बस्ती में आग लगे, जुलूस निकले, कुछ भी हो जाए पुरुष ने  अपने दुःख को और अपने साहस को बाँसुरी की आवाज़ में विलुप्त कर दिया | उसकी स्त्री हर-बार चुप रहकर उसकी निष्क्रियता को नहीं झेल सकती-
इस बार मैं चुप नहीं रहूँगी
छीन कर तोड़ दूँगी तुम्हारी बाँसुरी
कि देखो इस बार
वो मुझे उठाने आ रहे हैं।

उठा लिया जाना, यौन-शोषण, आदिवासी स्त्रियों के जीवन की बहुत बड़ी हकीकत है। डर का अनाम साया उन्हें हर वक्त घेरे रहता है। कैसी हैवानियत की शिकार होती हैं ये स्त्रियाँ। घर का दरवाज़ा खोलकर सोने में डरती हैं। दरवाज़े बंद होने पर भी बाहर की आवाजें असुरक्षा के बोध को कम नहीं होने देतीं। टेलीविजन और अखबार के पन्ने रंगे रहते हैं ऐसी वारदातों के बयान से। निर्मला पुतुल अपनी अनेक कविताओं में कभी सीधे कभी सांकेतिक रूप में ऐसी घटनाओं का वर्णन करती हैं। पीड़ा इस बात की है कि आततायियों के चेहरे अलग से पहचाने जाने वाले चेहरे नहीं हैं।  कौन किस भेष में उनका सौदा कर देगा यह साफ़ नहीं। ‘महज़ बोतल भर दारु और एक मुर्गे’ के लिए प्रसव-पीड़ा सहकर जन्म देने वाली माँ ने अपनी बेटी को वहशी दरिंदों के हवाले कर दिया या फिर किसी छोटे-से एहसान के बदले बापू ने मूर्ख बनकर बाघ से दुष्ट आदमियों के हवाले कर दिया। अपना पति भी उसके साथ दरिंदगी कर सकता है। यह नृशंसता की सीमा है जहाँ मानवीय संवेदनाएँ इस कदर मर जाती हैं कि मनुष्य और पशु का अंतर ही न दिखाई पड़े। दैहिक-शोषण जैसे इस समाज में स्त्री की स्वीकृत नियति है। इसलिए कहीं कोई चीख-पुकार नहीं, बस प्रताड़ित स्त्री के गले में अवरुद्ध हो गई चीत्कार भर है जिसे वह चाहकर भी भूल नहीं सकती-
कैसे भूल जाऊं वह राक्षसी रात
जिसमें दुनिया की सारी संवेदनाएँ
मेरा सबसे ऊँचा विश्वास
पवित्र रिश्ते की आस्था
सबकुछ लुट गया


किसी भी जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी उन रिश्तों में छले जाना है जिन पर विश्वास अपने से भी अधिक हो। आदिवासी स्त्री के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि अपने आस-पास के जन-समाज के लिए वह मात्र देह में तब्दील की जाती रही है। जैसे पशुओं में मात्र नर-मादा होते हैं उसी तरह यहाँ भी औरों को उसकी स्त्री-देह ही दिखाई पड़ती है।
जंगली, असभ्य, पिछड़ा कह
हिकारत से देखते हैं हमें

मेरा सबकुछ अप्रिय है उनकी नज़र में

उन्हें प्रिय है
मेरी गदराई देह
मेरा माँस प्रिय है उन्हें !
यह स्थिति उनके जीवन में किसने पैदा की। निश्चित है कि एक स्वावलंबी समाज की तरह जीने वाला यह वर्ग हमेशा से ताकत के इस उलझे हुए समीकरण में नहीं जीता रहा है। विकास की राजनीति एवं बाज़ार के प्रसार ने वहाँ के स्त्री-जीवन को भी अछूता नहीं छोड़ा। स्त्री को मात्र पदार्थ या भोग्या समझने वालों ने यदि उसकी देह का शोषण किया तो बाज़ार की बदलती अर्थ-नीतियों ने अपने घर से उन्हें बेदखल कर शहरों की श्रम मंडी में लगभग उनके लिए मानव-तस्करी की स्थितियाँ पैदा कर दीं। शहरों में घरेलू काम-काज के लिए इन इलाकों से जिन जवान लड़कियों को लाया जाता है, उनका यौन-शोषण भी होता है और श्रम का उचित मूल्य भी नहीं मिलता। बड़े-बड़े शहर इन गाँव-घर की लड़कियों को निगल जाते हैं | गाँवों से इन लड़कियों का शहरों की ओर विगमन इतनी बड़ी संख्या में हो रहा है कि सभी घर खाली हो रहे हैं लेकिन शहर आकर वो लडकियाँ कहाँ गईं उसकी खबर भी किसी को नहीं लगती। निर्मला पुतुल अपने देश की उन सभी लड़कियों को ढूँढ रही हैं-
कहाँ हो तुम माया ? कहाँ हो ?
कहीं हो भी सही सलामत या
दिल्ली निगल गई तुम्हें

क्या सचमुच इतने लोगों से होकर गुजरी तुम
या वे सबके सब ही गुज़रे
अनचाहे तुम्हारी जिंदगी से ?

दिल्ली
नहीं है हम जैसे लोगों के लिए
क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता माया
कि वह ऐसा शमशान है जहाँ
जिंदा दफ़न होने के लिए भी लोग लाईन
में खड़े है ?

झारखण्ड की धरती संताल
परगना की माटी
दुमका के पहाड़
और काठीकुंड के उजड़ते
जंगल पुकार रहे हैं तुम्हें
तुम जहाँ भी हो लौट आओ माया !
लौट आओ !!

 इतना लंबा उद्धरण यहाँ इसलिए देना पड़ा कि कवयित्री जो ब्यौरे दर्ज कर रही है वह उस सामाजिक जीवन की समझ पैदा करने के लिए आवश्यक है। ये कविताएँ निर्मला के अपने जीवनानुभव एवं कार्यक्षेत्र से उपजती है। उनका कहना है-
“बस, फील्ड वर्क के दौरान जो अनुभव मिलता है वही किसी न किसी रूप में यदा-कदा आप तक पहुँचता रहा है। अब चाहे आप इसे साहित्य का दर्जा दें न दें आपकी मर्ज़ी।”


जीवन के खुरदरे यथार्थ का यह तिक्त अनुभव ही काव्यानुभव में रूपांतरित हो जाता है। निश्चित ही वह साहित्य के पाले में है। मुक्तिबोध अपनी कविता ‘चकमक की चिंगारियाँ’ में जिस अनुभव से कविता के उत्स की बात करते हैं – नुकीले कील धँसे पैर से अँगारों के अनुभव से फूटती है कविता। ऐसा ही अनुभव इन कविताओं को अलग-अलग कोटि में खड़ा करता है। अपने ही सपनों – आकांक्षाओं में स्थापित-निर्वासित होती स्त्री अपना घर तलाश रही है।
स्त्री-कविता की अन्य रचनाओं की भाँति ‘घर’ इन कविताओं का भी बीज शब्द है। दो काव्य-संकलनों के शीर्षक ही घर तलाशने और बेघर सपनों की पीड़ा को व्यक्त करते हैं। ‘घर’ आश्रय भी है और स्त्री की निजता का पूर्णत्व भी। पुरुष की मानक दृष्टि से परे स्त्री का अपना एकांत, अपनी ज़मीन, अपना घर उसके लिए महत्त्वपूर्ण है। सपनों में भागती, रिश्तों के कुरुक्षेत्र में अपने आप से लड़ती, तन के भूगोल से परे मन की गाँठे खोलने की आकांक्षाएँ लिए यह स्त्री समाज के स्थापित ढाँचों से भिन्न अपने होने का अर्थ समझना चाहती है।
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती-हाँफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर
अपनी ज़मीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ !

 स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व एवं अस्मिता के प्रति यह सचेत भाव निर्मला पुतुल को किसी भी स्त्रीवादी कवयित्री के समकक्ष खड़ा करता है। इतना ही नहीं उसके पास जो मुट्ठी भर सवाल हैं उसमें वह अपने साथी से पूछती है कि ‘क्या है वह उसके लिए’ यानी पुरुष के लिए स्त्री अस्त्तित्व के क्या मायने हैं। क्या वह उसके लिए सिर्फ सर टिकाने के लिए एक तकिया, खूँटी या दीवार है या फिर कोई डायरी, चादर या गेंद जिसे जब जैसा चाहा वैसे इस्तेमाल किया। बात सिर्फ उसके जानने की  ही नहीं, इन लिंग-आधारित असमानताओं को स्वयं स्त्री ने भी स्वीकार कर लिया है। वह उसकी नज़र से ही अपनी दुनिया आँकती है। कवयित्री उससे मुक्ति की घोषणा करते हुए लिखती है –
मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते हुए
मुक्त होना चाहती हूँ अपनी जाति से
. . . . . . . . . . .. . .. . . . . . .
अपनी कल्पना में हर रोज़
एक ही समय में स्वयं को
हर बेचैन स्त्री तलाशती है
घर प्रेम और जाति से अलग
अपनी एक ज़मीन
जो सिर्फ उसकी अपनी हो
एक उन्मुक्त आकाश
वह पूछना चाहती है कि ‘रसोई और बिस्तर के गणित से परे’ पुरुष उसके विषय में जानता  ही कितना है।

 इन ठेठ स्त्रीवादी कविताओं के बावजूद, स्त्रीवाद के पाखण्ड पर उन्हें बेहद नाराज़गी है। अंतर्राष्ट्रीय महिला-दिवस का आमंत्रण-पत्र पाकर जिस विडम्बना का बोध उन्हें होता है उसे वे ‘एक बार फिर’ कविता में दर्ज करती है जहाँ ऊँची नाक वाली महिलाएँ मंच पर आसीन होकर उनके नेतृत्व का दावा करेंगी। निर्मला पुतुल की नज़र स्त्री की द्वंद्वात्मक स्थिति पर है। स्त्रीवाद के इस मुहावरे में स्त्री की दुनिया के दो प्रति संसार हैं। एक में उस वर्ग की स्त्रियाँ हैं जो बहसें करतीं, सरकारें बनाती-गिराती हैं तो दूसरे में वो मेहनतकश औरतें जो बहसों के मूल में होकर भी योजना-बद्ध ढंग से जीवन के हर मंच से अदृश्य कर दी जाती हैं। रोती  और गाती स्त्रियों की पंक्तियों के बीच एक तीसरी मेहनतकश औरत भी है जो अक्सर कवियों-लेखकों की पकड़ से छूट जाती है। यह पंक्ति नहीं पूरी जमात है जिसमें हर बार दृष्टि-ओझल रही असंख्य स्त्रियाँ हैं। स्त्रियों पर कविता पढ़ने वाले कवियों और स्त्री विमर्श में शामिल लेखकों की नज़र से अक्सर जो स्त्रियाँ छूट जाती हैं, कवयित्री चुनौती भरे स्वर में उन्हें उस ओर देखने के लिए ललकार रही है। “आदिवासी होने पर मुझे गर्व है पर उसमें आदिवासी स्त्री होना मेरे लिए सबसे बड़ी पीड़ा है चूँकि आदिवासी स्त्रियों को हमेशा हेय दृष्टि से देखा गया| कभी लिखो-फेंको वाली कलम की तरह, या फिर सार के भांड की तरह, तो कभी कामुक दृष्टि से देखा गया|…..स्त्री तो स्त्री होती है चाहे वह आदिवासी स्त्री हो या फिर अन्य सभ्य समाज की स्त्रियाँ हो, यहाँ फर्क सिर्फ इतना है कि सभ्य-समाज की स्त्रियाँ घर पर यानी रसोईघर और बेडरूम में प्रताड़ित होती है और आदिवासी स्त्रियाँ बीच सडकों पर पिटती हैं|”

 साहित्यिक जगत का तथाकथित ‘स्त्री-विमर्श’ स्त्री कविता की धुरी नहीं है। ज़मीन से जुड़ी कवयित्रियाँ उसकी निरर्थकता की ओर ही संकेत करती हैं। कोई भी मुक्ति तब तक संभव नहीं जब तक वह सबकी मुक्ति नहीं बनती। स्त्रीवाद के इस द्वंद्व को निर्मला ने अपनी कविता ‘गजरा बेचने वाली स्त्री’ में बखूबी व्यक्त किया है –
सुन्दरता बेचने वाली इस असुंदर स्त्री के
सपनों में आती हैं
कई-कई गजरे वाली स्त्रियाँ
और इसका उपहास करती हुई
गुम हो जाती हैं आकाश में
तब गजरों में पिरोए फूल काँटे की तरह
चुभते हैं उसके सीने में।
यह स्थिति स्त्रीवाद की असली चुनौती है। स्त्री-कविता इस दिशा में क्या प्रयत्न करती है यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा। स्त्रीवाद की हमारी सैद्धांतिकी भी इन मुद्दों को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती।

 निर्मला पुतुल के पास स्त्रीत्व का अपना मानचित्र है। इन सब स्थितियों को बयान कर देने भर से उनका दायित्व पूर्ण नहीं होता। वह अपने लोक-आदर्शों को कविता में जगाती हैं ‘सजोनी किस्कू’ जिसने संथाल-विद्रोह के समय घर-बाहर का सब भार वहन किया, फिर भी स्त्री होने का दंड उसे सहना ही पड़ा। पीड़ा-प्रताड़ना के ऐसे कहे-अनकहे अध्याय जब तक स्मृतियों में कौंधते रहेंगे परिवर्तन की चेतना, मुक्ति की आकांक्षा जोर पकड़ेगी। वे बार-बार आह्वाहन करती हैं कि ‘उठो और अपने अँधेरों के खिलाफ लड़ो’। निर्मला की कविताओं में लाचारी के कितने ही बिंब क्यों न हों उनकी कविता का बीज स्वर मुक्ति का है, पराजय का नहीं। आत्मबल ही उसका सहारा है और ढाल भी।
स्त्रियों को इतिहास में जगह नहीं मिली
इसलिए हम स्त्रियाँ लिखेंगी अपना इतिहास
* * *
हम खून से लिखेंगे अपना इतिहास
आँसू से नहीं,
* * *
हम भूगोल की सारी सीमाएँ लाँघकर
पहुँच जाएँगे इतिहास के उस गलियारे में
और दर्ज करेंगे अपना सशक्त हस्ताक्षर

 एक ओर स्त्रीवाद का यह सक्रिय तेवर है जिसके शब्द-शब्द में चुनौती, संघर्ष और विरोध की थाप है। नगाड़े की तरह ही बजते हैं ये शब्द। दूसरी और स्त्री मन की कोमल छवियों में रचा-बसा संगीत भी यहाँ है। उन्मुक्त प्रेम की एक कविता है ‘अभी खूँटी में टाँगकर रख दो मांदल’। मीत के बाँसुरी बजाते ही प्रेयसी के पाँव थिरकने लगते हैं –
मन उड़ियाने लगता है
रूई के फाहे सा दसों दिस


 घर-गृहस्थी के दबावों में प्रीत के इन पलों को स्थगित कर देना पड़ता है, सचेतता राग को नियंत्रित करती है लेकिन प्रेयसी जिस अधिकार से बाँसुरी और मांदल रख देने को कहती है उसमें रखने से अधिक पाना है। प्रेम की ललक ही प्रमुख है। इसके अलावा प्रेम की अन्य कविताओं में वियोग का दुःख प्रधान है। अंतरंगता के क्षण स्मृति का हिस्सा हैं, जो बार-बार जीवित-पुनर्जीवित होते हैं। इनमें सपनों के टूट कर बिखर जाने का दर्द, छोड़ जाने की पीड़ा है तो उसके साथ लौट आने की आकांक्षा भी है। ‘तुम्हारे हाथ’, ‘कुछ भी तो बचा नहीं सके तुम’, मेरा कुसूर क्या है?’, ‘ज़माने में और भी गम हैं मुहब्बत के सिवा’ आदि कविताएँ प्रेम के विषम रूप को अभिव्यक्त करती हैं। आदिवासी जीवन की उद्दामता, ऐन्द्रीयता और मिट्टी की गंध को विपरीत प्रथाएँ लील जाती हैं। अपना ही पुरुष न जाने कब घर से बाहर कर दे या छोड़ कर चला जाए। अन्य स्त्री घर ले आए जैसे कई विकल्प पुरुष को रसिया बनाते हैं और स्त्री के अंतरतम में कारुणिक आर्तनाद के सिवा कुछ नहीं बचता।



 निर्मला पुतुल अपने जन-समाज का जो चित्र प्रस्तुत करती हैं वह रोमानियत भरे राग-रंग का नहीं है, सामाजिक अंतर्विरोध का है जिसमें हर बार स्त्री के हिस्से दुःख ही आता है। लोक-संवेदना के  महीन-दीप्त रंग से रंगी दो महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं – ‘माँ के लिए’, ससुराल जाने से पहले’, तथा ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा।’ ससुराल जाने से पहले बेटी माँ को तरह-तरह से कुरेदती है कि वह घर-भर की धड़कनों में जिस तरह व्याप्त है उसे माँ कैसे भुला पाएगी। ऐसा ही अनुरोध पिता से भी है। ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा’ में बेटी बाप से आग्रह करती है कि उसका ब्याह इतनी दूर न कर दें कि वे एक-दूसरे के सुख-दुःख के भागिदार न हो पाएँ। इस कविता के विषय में वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने लिखा –“यह ऐसी कविता है जिसमें एक-साथ आदिवासी लोकगीतों की सांद्र मादकता, आधुनिक भावबोध और प्रतिरोध की गंभीर वाणी गुम्फित हो।”  उतनी दूर मत ब्याहना की टेक लोकगीतों की सी है लेकिन बेटी जो माँग रही है वह आधुनिक भी है और प्रचलित लैंगिक संबंधो की असमानता पर चोट करने वाला भी। इस कविता में विधेय एवं निषेध की पंक्तियों से गुज़रते हुए अपनी बात कही गई है। उसे उस देस नहीं जाना जो पिता के घर से बहुत दूर हो, जहाँ आदमी से अधिक ईश्वर बसते हों। जंगल, नदी, पहाड़ न हों। खुला आँगन न हो। चढ़ता डूबता सूरज न दिखे। मोटरगाड़ियों और दुकानों-मकानों का शहर न हो। वर पढ़ना-लिखना न जानता हो, नशे में न डूबा रहे, बात-बात पर लड़ने को सन्नद्ध न हो। कमाने दूर देश न चला जाए। वह वहाँ जाएगी जहाँ से उसकी आवाज़ पिता तक पहुँच सके जहाँ ऐसा समतापूर्ण समाज हो कि शेर-बकरी एक घाटी पानी पिएँ। उसे उस पुरुष की तलाश है जिसके हाथों ने पेड़ लगाए हों। जो कबूतर के जोड़े-सा उसके संग साथ रहे, बाँसुरी बजाए, उसके लिए फूल चुन लाए और सबसे बढकर –
जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे !

 जिस निश्छल, सम्पूर्ण जीवन की उसे कामना है यदि वह संभव हो तभी स्त्री-जीवन का वृत्त पूरा होगा। द्वंद्व, टकराहट की कई तहों के पार निर्मला पुतुल उस बिंदु तक पहुँचती हैं जो जीवन के उस मूल को बचाएगा जिसे हर हाल में बचाना चाहिए। जीवन के नैसर्गिक रूप का आग्रह इस बात की गवाही देता है कि सामाजिक संरचनाएँ जितनी जटिलतर होती जाएँगी शोषण के उतने ही रूप उसमें घर कर लेंगे।

 आदिवासी अस्मिता के वृहद वृत्त  में स्त्री-अस्मिता की तलाश करने वाली कवयित्री के रूप में निर्मला पुतुल एक व्यापक जन समाज की मुक्ति तलाश रही हैं। बाज़ार की बाहरी ताकतों व अज्ञान के आंतरिक पिशाचों से एक साथ मुक्ति होने पर ही इस स्त्री के जीवन में कोई सुखद मोड़ आएगा जिसे उसे स्वयं अपने आत्मबल के द्वारा अर्जित करना होगा।

राजनीति 


 निर्मला पुतुल की कविताएँ व्यापक सामाजिक संघर्ष की कविताएँ हैं। सामाजिक विडम्बनाओं को तार-तार उधेड़ते हुए जिस वर्ग-विषमता, असमानता को रेखांकित किया गया है उसके स्रोत राजनीति में हैं। लोकतंत्र में, समाज के व्यापक राजनीतिकरण से वैषम्य और भी मारक हो जाता है। कवयित्री अपने इलाके में मूल सुविधाओं की अपेक्षा को बहस का मुद्दा बनाना चाहती है। सड़कें नहीं  है, बिजली नहीं है, बच्चे महाजन के पास हैं, महिलाओं को कोसों दूर झरने से पानी ढोकर लाना पड़ता हैI इन बातो को उठाते हुए निर्मला झारखण्ड के उन आदिवासी लोगों की वकील बनकर जिरह करती हैं। वे तथाकथित सभ्य समाज से पूछना चाहती हैं कि क्यों किसी को भी आदिवासी जीवन के ये अभाव लोकतंत्र का केंद्रीय मुद्दा नहीं लगते। राजनीति द्वारा समस्याओं का हल ढूँढने की कोशिश भीतर के खोखलेपन को बेपर्द करती चलती है। कुर्सी और सत्ता की राजनीति व्यापक मानव समाज की हित-चिंता से बहुत दूर है। हिस्सेदारी के प्रश्नों पर विचार करते हुए उन्होंने लिखा है – “व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर सामाजिक हितों की लड़ाई आज तक हमारे संस्कार में शामिल नहीं हो पाई।”  लोकतान्त्रिक समाज व्यवस्था पर यह बहुत बड़ी टिप्पणी है। अपने से परे होकर सोचने का अभ्यास ही लोकतंत्र के स्वप्न को हकीकत बना सकता हैI

इन कविताओं का केंद्र झारखण्ड है जो आज़ादी के बाद से ही विकास एवं शोषण की राजनीति का शिकार होता आया है। ‘विकास बनाम विस्थापन’ यहाँ की राजनीति का बहुत बड़ा मुद्दा है। राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के नाम पर ‘विकास’ का जो मायाजाल बुना गया विस्थापन झेलता आदिवासी जन-समाज उसे संदेह की नज़रों से देखता है –
अगर हमारे विकास का मतलब
हमारी बस्तियों को उजाड़कर कल-कारखाने बनाना है
तालाबों को भोथकर राजमार्ग
जंगलों का सफाया कर आफिसर्स कॉलोनियाँ बसानी हैं
और पुनर्वास के नाम पर हमें
हमारे ही शहर की सीमा से बाहर हाशिए पर धकेलना है
तो तुम्हारे तथाकथित विकास की मुख्यधारा में
शामिल होने के लिए
सौ बार सोचना पड़ेगा हमें।
सड़कों और बाँधो का जाल इस स्वावलंबी समाज को संसाधनों के उत्खनन की मंडी में तबदील करने के लिए अधिक है। बाढ़, सूखा-अकाल झेलते वंचित-वर्ग की विवशता तथा सत्ता के अजब-गजब समीकरण रचते राजनीतिज्ञों के कुचक्र इन कविताओं में एक साथ उभरते हैं।

सक्रिय आंदोलनकर्मी के रूप में निर्मला पुतुल की राजनीतिक चेतना असाधारण है। वह अपने साथियों को सतह के पार देखने के लिए सावधान करती है।“यहाँ पर हमने, वैसे मुखौटे की ओर इशारा किया है जो आदिवासी होने का या इनका साथ देने का भ्रम देते हैं यानी शरीर से आदिवासी और मन से ‘दिक्कु’का रोल करते हैं विकास के नाम पर तरह-तरह के सपने दिखाते हैं, जिनसे कुछ होता जाता नहीं | परिणाम वहीहोता है ढ़ाक के तीन पात| मैंने अपनी कविताओं में उस ओर इशारा किया है| आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी आदिवासियों की स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं हो पाया है|”  नवगठित झारखण्ड राज्य की घोषणा की खबर सुनकर भाई मंगल बेसरा को सचेत करते हुए वे लिखती हैं –
वे तुम्हारे विरोधी थे कल तक
दुश्मन थे तुम्हारे
जिनसे मुक्ति चाहते थे तुम
पर कैसी विडंबना है,
वही खड़े हैं आज सबसे आगे तुम्हारी पंक्ति में
तुम्हारे सबसे बड़े हितैषी बनकर
* * *
पुरखों के सपने रौंदते झक-झक सफ़ेद कुरते वाले के पीछे
मत दौड़ो मेरे भाई। उन्हें पहचानो
वे तुम्हारे सपनों को भुनाने वाले लोग हैं
उनके एजेन्डे में दूर-दूर तक ही शामिल नहीं है
आन्दोलन को जन्म देने वाली आँखों के सपने

 निर्मला का संबंध सामाजिक गतिविधियों से खूब रहा है। वे अपने समाज के अंतर्विरोधों को पहचानती हैं तो राजनीति के फरेब को भी भली-भाँति जानती हैं। इसीलिए उनके स्वर में आशंका बराबर घर किए रहती है। ‘एक खुला पत्र : अपने लालबाबू के नाम’ या ‘खून को पानी कैसे लिख दूँ’ जैसी कविताओं में कवयित्री उन सामाजिक स्थितियों के ब्यौरे देती हैं जिनमें जनता ने जिन पर विश्वास किया वे सत्ता के गलियारों में इतनी दूर निकल गए कि उन तक उनकी आवाज़ भी नहीं पहुँच पाती। नाम बदले हैं, नए राज्य के मुखिया बदले हैं लेकिन इस लोकतंत्र में जो नहीं बदला वो है असहमति के किसी भी स्वर के प्रति संवेदनशील सहिष्णुता। असहमति के स्वरों को ही कभी नक्सलवाद या कोई और नाम देकर मुजरिम करार कर दिया गया। इस विसंगति को शब्द देते हुए उन्होंने लिखा –
न जताएँ कभी असहमति
न करें कभी कोई विरोध
हस्तक्षेप न करें अनेक कामों में
अपनी परिधि में रहें हरदम
बिना इजाज़त झाँके नहीं इधर-उधर
* * *
बिछ जाएँ जब तब उनके इशारे पर उनकी खातिर

निश्चित है यह कविताएँ इस स्थिति का प्रतिकार हैं। इनका एक सन्दर्भ आदिवासी लोक-आदर्शों के प्रति भारतीय इतिहास दृष्टि से भी सम्बद्ध है। संशय और संदेह बहुत गहरा है क्योंकि सिद्धो-कान्हू हो या तिलका-मांझी जिन्होंने 1857 के विद्रोह से बहुत पहले अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया था जिन्होंने अलग-अलग आदिवासी विद्रोहों, मुक्ति आन्दोलनों का नेतृत्व किया उनके ऐतिहासिक योगदान को भारतीय इतिहास में दर्ज ही नहीं किया गया। उसे ज़मीदारों-महाजनों के खिलाफ संघर्ष कहकर हाशिए पर डाल दिया गया। निर्मला पुतुल वर्तमान राजनीति को अंग्रेजों का उत्तराधिकार मानती हैं जिससे उन्हें न्याय की कोई उम्मीद नहीं। इस स्थिति के प्रति सजगता ही हथियार हो सकती है इसलिए सावधानी और सचेतता का टोन उनकी राजनीतिक कविताओं में बराबर बना रहता है।
   
इन सब समस्याओं से अलग राजनीति से जुड़ी एक अन्य कविता है ‘सद्दाम को फाँसी के बाद’। इस कविता का सन्दर्भ सद्दाम हुसैन की फाँसी की घटना है लेकिन उसकी व्यंजना साम्राज्यवाद एवं उसके प्रतिकार से जुड़ी है –
साम्राज्यवाद के दूतो
मत भूलो कि ऐसी कई आवाज़े हैं
जो आज भी उठ रही हैं तुम्हारे खिलाफ
तुम कितनी आवाजों को बंद करोगे ?
आदिवासी राजनीति की चर्चा में जो आक्रोश उभरता है उसी की प्रतिध्वनि यहाँ भी है। समस्त ऐसी रचनाएँ साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती देते हुए विद्रोह के स्वर को मुखर करती हैं। इनके सन्दर्भ भिन्न होते हुए भी इनमें आंतरिक एकसूत्रता विद्यमान है।

आदिवासी जन-समाज 
     
निर्मला पुतुल की कविता का कोई भी पाठ आदिवासी अस्मिता के अध्ययन के बिना संभव नहीं है। स्त्री समस्याओं के सन्दर्भ में हो या राजनीतिक भागीदारी के स्तर पर आदिवासी जन-समाज का हाशियाकरण उनकी काव्य संवेदना को गहरे आंदोलित करता है।
दिल्ली की गणतंत्र झाँकियों में
अपनी टोली के साथ नुमाइश बनकर कई-कई बार
पेश किए गए तुम
पर गणतंत्र नाम की कोई चिड़िया
कभी आकर बैठी तुम्हारे घर की मुंडेर पर?

आदिवासियों के साथ भारतीय गणतंत्र का ऐसा ही रिश्ता बना जहाँ वे प्रतीकात्मक विकास के नाम पर यह वर्ग सिर्फ नुमाइश की तस्वीर बनकर रह गया है। निर्मला की कविताओं में नुमाईश के विरुद्ध चुड़का सोरेन, सजोनी किस्कू की व्यथा-कथा सामाजिक संरचना के ताने-बाने से झाँकती है। जंगलों में शिकार करता, चुड़का सोरेन, इतना सीधा  क्यों है कि उसे औरों द्वारा अपना शिकार होना दिखाई नहीं देता।

आदिवासी जन-समाज का इतिहास अपराजेय वीरता का इतिहास है। तिलका माझी, सिद्धो कान्हू, बिरसा मुंडा, उलगुलान की औरतें सबने अपने-अपने स्तर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद को चुनौती दी। 1784 में तिलका माझी ने सशस्त्र दस्ते के साथ हमला कर भागलपुर के बहुत से इलाके अपने कब्ज़े में कर लिए थे। संताल-हूल, मुंडा सबने मुक्ति-अभियान चलाए और अंग्रेजी हुकूमत के लिए सरदर्द बने रहे। ये हमले लगातार होते रहे किन्तु इन आदिवासी विद्रोहों को स्वाधीनता आन्दोलनों के प्रयास के रूप में दर्ज नहीं किया गया। अंग्रेज़ अफसरों और सिपाहियों द्वारा आदिवासी महिलाओं से दुष्कर्म, ज़मीन पर कब्ज़ा, संस्कृति पर आघात, जैसे अनेक मुद्दे आदिवासी संघर्ष के मूल में रहते थेI निर्मला पुतुल वर्तमान साहित्य में आत्म-विश्वास खो चुके जन-समाज को इन प्रेरक लोक-आदर्शों की याद दिला रही है। इनके साथ-साथ इन कविताओं में अनेक पात्र हैं —मांझी हडाम, पक्लू मरांडी, पिलचू बूढ़ी, सुबोधिनी मरांडी, बिटिया मुर्मू —इन सबके माध्यम से जिस आदिवासीजन-समाज का चेहरा उभरता है वह भीतरी और बाहरी दोनों पाटों के बीच पिस रहा है | सत्ता द्वारा दमन और अपने अंधविश्वासों की गिरफ़्त उसके जीवन को खोखला किये दे रही है |  शताब्दियाँ बीत जाने पर भी आदिवासी जन-समाज अपने अंधविश्वासों एवं अंतर्विरोधों से मुक्त नहीं हो सका। घड़ा उतार की प्रथा हो या स्त्री-जीवन से जुड़े अंधविश्वास निर्मला लगातार उनका विरोध करती रही हैं क्योंकि इन प्रतिगामी प्रथाओं के कारण ही इस समाज में परिवर्तन या मुक्ति संभव नहीं हो पाते। वे लगातार इन वर्गों को अपनी शोषण के प्रति सचेत दमनकारी शक्तियों को बेनकाब करती हैं-
ये वे लोग हैं
जो हमारे बिस्तर पर करते हैं
हमारी बस्ती का बलात्कार
और हमारी ही ज़मीन पर खड़े हो
पूछते हैं हमसे हमारी औकात।
नागरिक अधिकारों के अभाव में इस समाज की उपस्थिति हमारे गणतंत्र में ‘अन्य’ की रहीI वे आज भी सत्ता-संस्थानों से संघर्ष कर रहे हैं जिसकी अभिव्यक्ति नक्सलवादी आक्रोश के फूटने में रही दूसरी और इनके प्रति सत्ता का दमनकारी चरित्र भी नहीं बदला। इस जन-समाज के साथ हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था, विश्वास का रिश्ता कायम करने में नाकाम रही है।

जल-जंगल-ज़मीन 

आदिवासी जीवन प्रकृति से
साहचर्य का जीवन है। निर्मला अपनी कविताओं में प्रकृति का  उत्सव नहीं मनाती। प्राकृतिक दृश्यों के सुकोमल बिम्ब यहाँ नहीं हैं। जंगलों की अवैध कटाई जल के स्रोत सूखते जाने की गहरी चिंता है। जल-जंगल-ज़मीन उनके अस्तित्व, उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं।
क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाडियों के भय से
पेड़ों की चीत्कार ?

धीरे-धीरे इनको ख़त्म करने या इन प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार करने के षड्यंत्र इन्हें इनकी ज़मीन से बेदखल कर रहे हैं। सीधे-सादे आदिवासी भले ही इस षड्यंत्र को न पहचान पायें। निर्मला की कविताएँ इसकी पोल ज़रूर खोलती हैं। वे सवाल करती हैं कि जो धरती खनिजों की सम्पदा से इतनी संपन्न है उसके बाशिंदे गरीबी के अंधेरों में लिप्त क्यों हैं। सामान्यतः जिसकी ज़मीन होती है उसकी संपत्ति पर भी उसी का अधिकार होता है तो फिर आदिवासी ही अपनी सम्पदा से बेदखल कैसे कर दिए गए। वास्तविकता का यह बोध उन्हें और चौकन्ना कर देता है। वे सावधान भी हैं, सजग भी और सक्रिय भी। इसीलिए वे समाज और प्रकृति को अभिन्न जैविक इकाई की तरह बचाने का आह्वान करती हैं-
जंगल की ताज़ा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ो का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सौंधापन
फसलों की लहलहाट

भूमंडलीकरण, बाज़ार और आदिवासी जीवन का संकट 

अपने समय और समाज की धड़कन पर निर्मला पुतुल की जो पकड़ है उसकी एक पहचान बाज़ार के बढ़ते वर्चस्व के परिणामों पर भी है। वैश्वीकरण की अर्थ-नीति छोटे जन-समाजों के अस्तित्व के लिए संकट बनने के साथ-साथ उसके चरित्र को भी हमेशा के लिए बदल रही है। बाज़ार का आकर्षण ही उन्हें अपना शिकार बना लेता है| बदली हुई रुचियाँ अहसास ही नहीं होने देतीं कि उन्होंने क्या खोया-
यह कहते हुए
शर्मिंदा महसूस कर रही हूँ
कि बाज़ार में घूमते
जब प्यास लगती है
तो पानी से ज्यादा
पेप्सी और स्प्राइट की तलब होती है
पता नहीं कब
हमारी प्यास में घुस गया यह सब

 बाज़ार इस तरह अनुकूलन करता है कि अपने होने का अर्थ धुँधला होने लगता है। शहरों की  ब्रांडधर्मिता जैसे सबको एक-सा किये दे रही है, वही चलन कस्बों, गाँवों से होता हुआ संताल परगना जैसे खुद में सिमटे समाजों तक भी फ़ैल चला है-
संथाल परगना
अब नहीं रह गया संथाल परगना।
अपनी भाषा और वेशभूषा में यहाँ के लोग
बाज़ार की तरफ भागते
सब कुछ गड्डमड्ड हो गया


 बाज़ार का सबसे पहला नियम संस्कृति की बहुलता ख़त्म कर उसे एकरूप बनाने का  उपक्रम है। सब एक जैसे रहें, एक जैसा सोचें, असहमति की गुंजाइश भी ख़त्म हो जाए। यह मसला केवल बाजारी उपभोक्तावाद तक सीमित नहीं है। बाज़ार का एजेंडा पूरे देश की संस्कृति पर कब्ज़ा करने का है। इसलिए बड़ी भाषा तो उनके काम की है लेकिन उसके प्रभाव से अन्य भाषिक अस्मिताओं का नष्ट होना अवश्यम्भावी है। देखने में हो सकता है आभास न हो लेकिन होता सब कुछ योजनाबद्ध ढंग से है- ‘वे दबे पाँव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में……’I निर्मला पुतुल इस सारी दुरभिसंधि को भली-भाँति समझती है उसके विरोध में वह वैचारिक एवं काव्यात्मक संघर्ष का बीड़ा उठाए हुए है। अपने एक लेख में उन्होंने लिखा–“ग्लोबलाइज़ेशन नव-उपनिवेशवाद का अभिनव आक्रामक दौर है। इससे कोरपोरेट राजनीति  शुरू हो रही है। आज की राजनीति और अर्थ-नीति मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा संचालित हो रही है। उनकी धन-लोलुपता, सभ्यता-संस्कृति को प्रदूषित कर रही है। जीवन-मूल्य विघटित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में बहुत सारी जातियों, सभ्यताओं, संस्कृतियों का निःशेष न होना अचरज की बात होगी”  कवयित्री बहुत बड़ी अर्थशास्त्री भले ही न हो लेकिन ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की उनकी समझ को ख़ारिज नहीं किया जा सकता। उनके दिमाग में यह नक्शा साफ़ है कि सभी साधनों का अधिग्रहण कर बाज़ार एक स्वाबलंबी समाज से उसकी आत्मनिर्भरता छीनकर उनके समक्ष गरीबी-भुखमरी का विकल्प छोड़ता है। कड़ी मेहनत से उपजाया अन्न उनकी पहुँच से बाहर है। वे इस सत्य से भी अनजान हैं कि उनकी बनाई चीज़े कैसे पहुँच जाती हैं बिकने शहर के बड़े बाजारों में जबकि –
जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में ?

 यानी दुनिया भीतर दुनिया है, अनेक तहों में लिपटी जिसे पूरा जान पाना कठिन है। निर्मला अपनी तीसरी आँख से उसे पहचान लेती हैं। भूमंडलीकरण के आर्थिक-राजनीतिक, सामाजिक आशय  आदिवासी जन-जीवन मानवीय इतिहास में जिस संकट की रचना करते हैं वे उसकी पूरी खबर लेती
हैं |

विद्रोह और सशक्तिकरण का स्वर 

कविता में विद्रोह की छवियाँ
सदा प्रिय होती हैं। यथार्थ जीवन में विद्रोह की डगर जितनी असाध्य है कविता में पक्षधरता के स्तर पर उस पंक्ति में खड़ा होना उतना ही काम्य। इसलिए जब निर्मला पुतुल लिखती हैं –
आज की तारीख के साथ
कि गिरेंगी जितनी बूँदें लहू की धरती पर
उतनी ही जन्मेंगी निर्मला पुतुल
हवा में मुट्ठी बाँधे हाथ लहराते हुए।

 उनकी इस मुद्रा पर मन रीझ-रीझ जाता है। यथार्थ की बेबाकी, दमन-प्रताड़ना का ऐसा चक्रव्यूह और उसके भीतर से उठने का साहस –– इससे बनी है निर्मला पुतुल। उनके इस साहस को सलाम करने का मन होता है। यह प्रशंसा सिर्फ मुद्रा के लिए नहीं है, उन्होंने एक महीन आलोचनात्मक दृष्टि बुनी है। तमाम सामाजिक विसंगतियों, अंतर्विरोध पर एक-एक कर ऊँगली रखते हुए, फ़ील्ड-वर्क के दौरान अनुभव बटोरते हुए, वे एक व्यापक काव्य-दृष्टि बुनती हैं जिसमें विद्रोह और सशक्तिकरण साझीदार हैं। उनका अनुभव उन्हें बताता है कि स्वयं को सशक्त किए बिना विरोध सकारात्मक नहीं होगा। ‘पहचान’ उनकी कविता का महत्त्वपूर्ण शब्द है
सौदागर हैं वे….. समझो……
पहचानों उन्हें बिटिया मुर्मू ….पहचानो !

 बहुत-सी कविताओं का पाठ इस बात पर बल देता है कि ‘वे नहीं जानते’। न जानने वाला जन-समाज औरों के हाथों चले जाने को अभिशप्त है। निर्मला पुतुल भीतरी और बाहरी अँधेरों से घिरे उस वर्ग की नियति बदल डालना चाहती हैं। वे बार-बार उसे सचेत करती हैं, जगाती है और फुफकारती है-
उठो कि अपने अँधेरे के खिलाफ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ
उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफ़ान से बवंडर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिंगारी

 अधिकांश ऐसी कविताओं का स्वर आक्रोश से भरा, उग्र एवं विद्रोही है। सीधे लक्ष्य पर चोट करने वाला। एक कविता ‘धीरे-धीरे’ इसका अपवाद है। इस कविता में अनेक बिम्ब आए हैं- धरती की छाती फोड़ निकलते अंकुर, धीरे-धीरे फैलती जंगल की आग, बड़े होते बच्चे आदि। ये उन प्रतिक्रियाओं की बात करते हैं जिनमें प्रतिकूल परिस्थितियों की धुँध छंटेगी, सबके असली चेहरे निकल आयेंगे। समय की कोख में पलते गर्भस्थ शिशु की तरह वेदना से फूटेगा एक नया युग, नया समय –
अक्सर चुप रहने वाला आदमी
कभी न कभी बोलेगा ज़रूर सर उठाकर
चुप्पी टूटेगी एक दिन धीरे-धीरे उसकी
निर्मला पुतुल की कविताएँ इसी आदमी की चुप्पी टूटने की मुहिम हैं। अपने जीवन की इन स्थितियों के विषय में उन्होंने बताया है कि जीवन में संघर्ष करते-करते अनेक ऐसे क्षण आए जब “मैं पूर्णतः अकेली पड़ गई। …..बावजूद इसके मैं विरोध करती रही

कविता, भाषा और स्त्री-कविता 

 निर्मला पुतुल की प्रायः सभी कविताएँ पहले संताली में लिखी गई फिर हिंदी में आईं। अपनी संस्कृति के समान अपनी भाषा को बचाने का संकल्प इसके मूल में अन्तर्निहित है अर्थात आदिवासी जीवन का संकट,कविता और साहित्य के सभी पक्षों को आच्छादित करता  है। मुक्तिबोध के ही समान निर्मला पुतुल की कविताएँ भी अलग-अलग न होकर एक ही लम्बी कविता जान पड़ती हैं। ये कविताएँ थोड़े बहुत अंतर से संवेदनात्मक घनत्व की दृष्टि से एक ही वृत्त रचती हैं। अपने ‘काव्यगत उद्देश्यों’ के विषय में वे स्पष्ट हैं। सच को सच और झूठ को पूरी ताकत से झूठ कहने’ के साहस से रची गई कविताएँ हैं। कवयित्री बार-बार कहती हैं कि इनमें कोई चिकनी-चुपड़ी भाषा नहीं हैं। छन्द, तुक, लय पर भी अतिरिक्त ध्यान नहीं है। इन कविताओं को किस काव्य-परंपरा में रखा जाएगा, कविता माना जाएगा या नहीं इसकी चिंता उसे नहीं है। उसके निकट इन कविताओं की दोहरी सार्थकता है – एक तो वह उसके ‘एकांत का प्रवेश-द्वार’ है – “मैं कविता नहीं/ शब्दों में खुद को रचते देखती हूँ।’ इस स्व का संवाद व्यापक परिवेश से है। यह प्रतिबद्ध लेखन है जो लोकतंत्र में बराबरी के हक़ की लड़ाई लड़ता है                     चाहती हूँ मैं
नगाड़े की तरह बजें
मेरे शब्द
और निकल पड़ें लोग
अपने-अपने घरों से सड़कों पर।


सन्दर्भ सूची
1.हिस्सेदारी के प्रश्न-प्रतिप्रश्न, संपादक उमाशंकर चौधरी पृ. 203
2.और तुमबाँसुरी बजाते रहे, बेघर सपने पृ. 21
3.और तुम बाँसुरी बजाते रहे, बेघर सपने, पृ. 21
4. सबसे डरावनी रात, बेघर सपने पृ. 14
5.मेरा सबकुछ अप्रिय है उनकी नज़र में, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 72-73
6.तुम कहाँ हो माया?, अपने घर की तलाश में, पृ. 31-33
7.स्त्री होने की सजा सब जगह भोगनी पड़ती है, निर्मला पुतुल से प्रोमिला की बातचीत, आदिवासी अस्मिता की .  पड़ताल करते साक्षात्कार सं रमणिका गुप्ता, पृ. 89
9. अपने घर की तलाश में, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 30
10.अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 9-10
11. संवाद, नया ज्ञानोदय, अप्रैल 2017 पृ.19
12.गजरा बेचने वाली स्त्री, बेघर सपने पृ. 33
13. स्त्रियाँ लिखेंगी अपना इतिहास, बेघर सपने पृ. 74
14.अभी खूँटी में टाँगकर रख दो मांदल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ.78
15.नगाड़े की तरह बजते शब्द के फ्लैप से
16.उतनी दूर मत ब्याहना बाबा, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ.52
17.झारखंडी महिलाओं का पलायन एवं उनका यौन शोषण, निर्मला पुतुल, हिस्सेदारी के प्रश्न-प्रतिप्रश्न, संपादक उमाशंकर चौधरी पृ. 211
18.तुम्हारे अहसान लेने से पहले सोचना पडेगा हमें, बेघर सपने, पृ. 40
19.संवाद, नया ज्ञानोदय पृ. 20
20. भाई मंगल बेसरा, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 58-59
21. खून को पानी कैसे लिख दूँ, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 34-35
22.सद्दाम को फाँसी के बाद, बेघर सपने पृ.55
23.चुड़का सोरेन से, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 20
24. ये वे लोग हैं जो, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 54
25.बूढ़ी पृथ्वी का दुःख, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 31
26.आओ,मिलकर बचाएँ, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 77
27जब टेबुल पर गुलदस्ते की जगह बेस्लरी की बोतलें सजती हैं, बेघर सपने पृ. 65
28. संथाल परगना, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 26
29.वैश्वीकरण के भँवर में आदिवासी भाषा-साहित्य, निर्मला पुतुल, आदिवासी साहित्य विमर्श, सं: गंगा सहाय        मीणा पृ.65
30.बाहामुनी, नगाड़े की तरह बजते शब्द , पृ. 12
31.उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 91
32.बिटिया मुर्मू के लिए, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 15
33. बिटिया मुर्मू के लिए, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 14
34. धीरे-धीरे, नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृ. 84
35.स्त्री होने की सजा सब जगह भोगनी पड़ती है, निर्मला पुतुल से प्रोमिला की बातचीत, आदिवासी अस्मिता की पड़ताल करते साक्षात्कार सं रमणिका गुप्ता पृ. 87
36. मैं चाहती हूँ, नगाड़े की तरह बजते शब्द पृ. 93

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ISSN 2394-093X
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