जब मैंने स्त्रियों की माहवारी को पहली बार जाना

जीतेंद्र कुमार

  लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. संपर्क: 9968205114

स्त्रियों के लिए माहवारी को टैबू बनाया जाना सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया है. इसे गोपनीय,  टैबू और लज्जा का विषय बनाने में यह प्रक्रिया न सिर्फ स्त्रियों के मानस को नियंत्रित और संचालित करती है, बल्कि पुरुषों का भी ख़ास मानसिक अनुकूलन करती है. माहवारी को लेकर पुरुषों के बीच की धारणा को समझने के लिए यह एक सीरीज है, जिसमें पुरुष अपने अनुभव इस विषय पर लिख सकते हैं.

एक न्यूक्लिअर  फैमिली में नौकरीशुदा महिला होने के नाते मां पर जिम्मेवारियां कुछ ज्यादा ही थीं। ऊपर से पीरियड्स में अत्यधिक दर्द और रक्तस्राव की वजह से उन्होंने गर्भाशय का आपरेशन कर उसे निकलवा दिया था। हालांकि उन दिनों ये बात समझ नही आई सिवाय इसके कि माँ की तबियत खराब है। बहन छोटी थी। साथ मे शहरी और थोड़ा बहुत शायद वामपंथ मिश्रित अम्बेडकरवादी विचारधारा की वजह से पीरियड्स को लेकर मेरे घर मे किसी तरह का भेदभाव भी नही था। तो कुल मिलाकर मुझे पीरियड्स के बारे में कुछ भी पता नही था। छठी में स्कूल में एक लड़की को दोपहर के अवकाश के दौरान चुपचाप बैठे देख जब मैंने “चुप-चुप बैठी हो जरूर कोई बात है” वाला गीत गाया जो दूरदर्शन के किसी एडवर्टिजमेंट में लगभग हर रोज पांच बार आता था, उस लड़की ने प्रिंसिपल मैडम से शिकायत की और मेरी खूब पिटाई हुई। वजह समझने में 5-6 साल लगे कि यह गीत किसी सैनिटरी नैपकिन के विज्ञापन के लिए था। तो इस तरह से उस समय तक मुझे कुछ भी पता नही था पीरियड्स के बारे में। हालांकि उन्ही दिनों खेतों या कूड़े के ढेरों पर कपड़ों से तह किये बेलनाकार टुकड़े को देख दूसरे लड़कों के माध्यम से पता चला कि महिलाएं इसे अपने शरीर के अंदर डालती हैं। क्यों डालती हैं इसके हम बच्चों के अपने फंतासी की कहानियां थीं। बहरहाल इसका कुल मतलब यही था कि जो भी है बहुत ही घिनौना होता है। इन कपड़ों से ही हमने महिलाओं के चरित्र को लेकर भी अपनी कल्पनाएं कर डाली थीं।

माहवारी पर बात की झिझक हुई खत्म 

बहरहाल, उन्ही दिनों मेरा दाखिला जिले के नवोदय विद्यालय में हो गया जहां लड़कियां भी होस्टल में रहती थीं लेकिन संपर्क न के बराबर था। लड़कियां क्लास में कम से कम एक साथ बैठती थीं लेकिन बात उनसे कभी कभार ही होती। ज्यादातर शिक्षकों के सामने पढ़ाई की जरूरी बातें या फिर झगड़े। ऐसे में लड़के- लड़कियों का एक दूसरे के बारे में जानना समझना असंभव ही था। एक सीनियर दीदी जो मुझे बहुत माना करती थीं, बहुत सारे लड़कों की नजर में रहती थीं। उन्ही लड़कों में किसी ने मुझे खबर भिजवाई कि वह दीदी गरम पानी मंगवा रही हैं। मैं मेस से पानी गर्म करवा उन्हें पहुचाने गया।  दीदी मेरे हाथ मे गरम पानी देख बहुत झेंप सी गई। मुझे ये सारी बातें सालों बाद समझ आई।

अब तक पीरियड्स को लेकर इधर -उधर की जानकारियां तो हो गईं थी लेकिन ये तमाम जानकारियां स्त्रियों को हम पुरुषों से हीन बनाती थीं और बहुत हद तक उपहास का पात्र भी। दसवीं की बायोलॉजी क्लास में भी टीचर डायग्राम और ब्लैकबोर्ड से ज्यादा इसके बारे में नही बता सके। ऐसे में सोच में आमूल चूल बदलाव तब आया जब आगे के दिनों में एक महिला के संपर्क में आया और उनसे प्रेम हुआ। खास दिनों में जब परेशान देखता तो समझ आने लगा और पहले की पीरियड्स को लेकर रहने वाली घृणा अब लाचारगी और सहानुभूति में बदलने लगी। फिर जब उन्हें भी मुझसे प्रेम हुआ तब धीरे धीरे वो इसके बारे में बताने लगीं। असहाय दर्द से लेकर सामाजिक टैबू की सारी बातें मेरे लिए लगभग नई थी। मेरे घर मे किसी तरह का रोक- टोक न होने की वजह से बहन को लेकर खास तो कभी नही पता चला लेकिन मेरी प्रेमिका अपने कमरे में ही नजरबंद कर दी जाती थी जिसका कभी उसने अफ़सोस भी नही जताया। सालों से अपनी माँ और बड़ी बहनों को उसने ऐसा ही करते देखा था।

जजिया कर से बड़ी तानाशाही लहू पर लगान 

सालों बाद विभिन्न वजहों से मैं पीरियड्स को लेकर ज्यादा जागरूक और महिलाओं के इस मुद्दे को लेकर खासा सेंसिटिव हो चुका था। कई महिला मित्रों की इसमें खास भूमिका रही। मेरा फिलहाल मानना है कि महिलाओं और पुरुषों की बराबरी का द्योतक पीरियड्स की स्वीकार्यता को माना जा सकता है। जिस दिन आम तरीके से किसी भी जगह किसी भी परिस्थिति में अगर किसी महिला का पीरियड्स से गुजरना टैबू नही रह जाता तो समझिये के जेंडर की लड़ाई लगभग जीती जा चुकी है। और हां, प्रेम की इसमें खास भूमिका है। प्रेमीगण प्रेमिकाओं को और प्रेमिकायें अपने प्रेमियों को इसके बारे में जागरूक कर सकती हैं। बाकी लोग तो कर ही सकते हैं।

यूं शुरू हुई हैप्पी टू ब्लीड मुहीम 

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