स्त्री लेखन का स्त्रीवादी पाठ

सर्वेश पांडेय


सर्वेश पांडेय ने स्त्री अध्ययन में शोध किया है , अभी महिला आयोग में कार्यरत हैं . संपर्क : मोबाइल न.- 08756754651

हिन्दी साहित्य में 60-70 के दशक के दौरान लेखिकाओं  का आगमन स्त्री-प्रश्नों  पर सार्वजनिक बहस छेड़ देता है। इन लेखिकाओं द्वारा स्त्री पर आरोपित सामाजिक मर्यादाएँ, यौन वर्जना इत्यादि की आलोचना करते हुए स्त्री के व्यक्ति प्रदत्त अधिकारों को बड़ी संजीदगी से उठाया गया है। यह दौर स्वाधीनता के बाद स्वाधीनता के सपनो से मोहभंग का दौर था। स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की थी। इन्हें यह आशा थी कि देश  की स्वतंत्रता के पश्चात वह अपनी उपेक्षित स्थिति से निजात पा सकेगी। परंतु भारत की स्वतंत्रता उपरांत उन्हे वापस घरों में भेज दिया गया। यद्यपि शिक्षित महिलाओं का एक वर्ग अभी-भी समाजसेवी संस्थाओं व अध्यापन जैसे कार्यों  में लगा हुआ था।

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक ढ़ांचे तथा सांस्कृतिक परिवेश पर पितृसत्तात्मक का प्रभुत्व था। जो कि आज भी पूर्ववत् स्वरूप के साथ-साथ कुछ अन्य नये रूपों में अपने को पुनर्संगठित कर चुका है। स्वतंत्रता उपरांत देश की कानून-व्यवस्था एवं न्यायपालिका ने भी स्त्री की स्थिति को लेकर कोई परिवर्तनगामी रूख नही दिया। स्त्री-पुरूष समानता के सवाल पर संविधान की स्थिति भी असंगत रही। जैसे कि अनुच्छेद 15 द्वारा समानता के सिद्धांत को स्वीकारा गया, मगर साथ ही धर्म के आधार पर बने परिवारिक कानूनों को मान्यता देकर स्त्री-पुरूष समानता के सिद्धांत का विरोध किया गया, ये कानून विवाह, परिवार तथा संपत्ति मे स्त्रियों को पुरूषो से कमतर व भेदभाव पूर्ण अधिकार देते हैं। हिंदू कोड बिल पर हुए विरोध पर गौर करें तो देखेंगे कि यह विरोध मूलरूप से इस बात पर केंद्रित था कि हिंदू परिवारिक कानून मे सुधार करके स्त्रियों के अधिकारों को बेहतर करने से हिंदू परिवार के टूटने का खतरा पैदा होगा। यह भी कहा गया कि इस प्रकार के परिवर्तन पाश्चात्य सोच से प्रेरित है क्योकि हिंदू सोच में स्त्री-पुरूष समानता का अर्थ एक जैसे अधिकार न होकर अलग-अलग प्रकार के अधिकार है। इसकी वजह परिवार में स्त्रियों और पुरूषो  की जिम्मेवारियाँ अलग-अलग होना है। अर्थात् यह सारा विरोध स्थापित परिवार के ढांचे में बदलाव से उत्पन्न खतरों से था। स्त्रियों और पुरूषो की अलग-अलग भूमिकाओं और अधिकारों पर आधारित परिवार की यह छवि स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत की विकास की सोच और नीति पर छाई रही। पचंवर्षीय योजनाओं (1950-75) में स्त्रियो के लिए प्रस्तावित शिक्षा और रोजगार कार्यक्रम महिलाओं को केवल उनकी पारिवारिक भूमिकाओं में सीमित करते है। इस दृष्टिकोण के अनुसार स्त्रियाँ अर्थिक रूप से पुरूषों  पर निर्भर है और सरकारी नीतियों और कार्यक्रम का उदेश्य औरत को इस तरह की सेवाएँ उपलब्ध करवाना, जिससे वे इन परिवारिक भूमिकाओं को और अधिक कुशलता से पूरा कर सके। वैचारिक स्तर पर इससे स्त्री की एक ऐसी छवि बनी जो कि घर व बाहर दोनो जगहों के कार्यों को समुचित ढंग से संपादित करे। औरतों की इसी छवि को मीडिया पाठयक्रमों द्वारा बहुत जोर-शोर से आगे बढ़ाया गया। अभी तक की चर्चा मे सरकारी तंत्र की स्त्री के प्रति दृष्टि को उजागर किया गया। लेकिन समाज में स्त्री की कौन सी भूमिका को मान्यता दी जा रही थी, उसको रखने की जरूरत जान पड़ती है। परंपरागत मध्यवर्गीय मान्यवर्गीय मान्यताओं से थोड़ा भिन्न होकर अब मध्यवर्ग में स्त्रियों का नौकरी करना असम्मानजनक नहीं समझा जा रहा था। (भले ही आर्थिक आवश्यकताओ के जगह से यह सम्भव हुआ हो) आर्थिक लाभ की भावना ही सही पति पत्नियो से नौकरी बुरा नहीं समझते। किन्तु पत्नी में यह अपराध बोध की पैदा किया जाता कि वह पारिवारिक दायित्वों को निर्वाहन ठीक से नहीं कर रही हैं। सीमाओ के बावजूद सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों ने स्त्री को एक स्पेस तो उपलब्ध कराया। 60-70 के दशक में शिक्षित स्त्रियों का एक बड़ा वर्ग निकला, जो कि मुख्यता अध्यापन, नर्सिग, जैसे कार्यो में शामिल हुआ। फलत: उनमें आत्मविश्वास भी पनपा।

60-70 के दशक  के स्त्री लेखन में भी इसी मध्यवर्गीय शिक्षित व कामकाजी स्त्रियों का अक्स साफ तौर पर दिखाई पड़ता है। परिवार, विवाह जिसे समाज में प्राकृतिक रूप में देखा जाता हैं । जबकि यह मानव निर्मित कृत्रिम संस्थाए है। जिसके उत्पत्ति के इतिहास को एंगेल्स  ने अपनी पुस्तक ‘परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति व राज्य का उदय ’ द्वारा हमारे सामने लाते है। विवाह व परिवार दोनों महिलाओं के लिए बेहद उत्पीड़नकारी रहे हैं। परिवार वह संस्था है जिसके द्वारा शासक वर्ग पुरुषों के बीच में अपनी पितृसत्तात्मक विचारधारा के लिए समर्थन हासिल करते हैं । वर्ग उत्पीड़न के समाज में जाति उत्पीड़न से भरे समाज में पितृसत्तात्मक एकनिष्ठ विवाह उत्पीड़ित वर्गीय पुरूषो को जो विशेष अधिकार देता है, वही शासक वर्गों के लिए पितृसत्ता को संस्था को जिन्दा और बरकरार रखता है। आज के उत्पीड़नकारी परिवारिक ढ़ांचे के बिना, ऐसे परिवारों को बांधनेवाली शादियों के ढकोसलों के बिना शासक वर्गों के पितृसत्तात्मक विचारों के लिए सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकती थी। एक लड़की होने के नाते वह परिवार में दबना सीख जाती है और परिवार में लड़का होने के नाते वह दबाव डालना सीख जाता है। स्त्री को पितृसत्ता ने रिशतो से व्याख्यायित किया। वह मां, बहन, बेटी व पत्नी से जानी जाने लगी, लेकिन व्यक्ति के रूप उसकी कोई पहचान नहीं स्वीकारी गई। वहीं 60-70 के दशक के कई स्त्री कथाकारों द्वारा रचित कहानियाँ व उपन्यास स्त्री के स्वतंत्र पहचान व उनके अधिकारों को सार्वजनिक पटल पर लाते है। विशेष संदर्भित उपन्यासो के क्रम में ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ है उषा प्रियवंदा की काफी चर्चित कृति है। इसमें उपन्यास की प्रमुख स्त्री पात्र सुषमा समाज के इन धारणा को तोड़ती है कि लड़की घर नही चला सकती। पुत्र का दर्जा समाज में इस कारण से भी उच्च माना जाता है कि वह ही परिवार को आर्थिक आधार मुहैया कराता है। (इसके अतिरिक्त कि पुरूष को पितृवंशात्मक समाज व्यवस्था का संवाहक माना जाता है।) इस उपन्यास में सुषमा न केवल आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है बल्कि अपाहिज बाप, माँ, भाई-बहनों के दैनिक जीवन के खर्चों व उसकी शिक्षा का खर्च भी वहन करती है।1 भारतीय परिदृश्य  बढ़ती जरूरतों ने पुरूष की मानसिकता में परिवर्तन किया और स्त्री हेतु असम्मानजनक समझी जाने वाली नौकरी ही परिवार की पद, प्रतिष्ठा व इज्जत बढ़ाने लगी। विवाह व नौकरी समानांतर संभव हो सकी।1 माताओं-पिताओ ने भी आर्थिक सहयोग हेतु बेटी के कामकाजी होने को प्रोत्साहित किया। इस उपन्यास के संदर्भ में देखा जायें, तो सुषमा की नौकरी केवल अपने परिवार के दायित्व का निर्वहन करने के लिए है। यहां वह घर कि जिम्मेदारी को उठाते हुए यानि यह सिद्ध करते हुए कि इस घर में पुत्र की भूमिका वह भी निभा रही है। जैसा कि सुषमा कहती है ‘‘अगर मैं सबसे बड़ा लड़का होती तो क्या न करती? उसी तरह मैं अब भी करती हूँ’’.2 लेकिन कहीं न कहीं सुषमा का अपना भी मन है, स्त्री के अपने भी तो कोने हैं। उसको लगता है कि यह घर जिसके लिए वह समर्पित है, वह उसके बारे में क्यों नहीं सोचता है। वह सोचती है कि यदि मेरे जगह बेटा होता तो माँ बेटे के लिए स्वप्न तो देखती है कि बहू घर लाना है।

परिवार के लिए कमाऊ बेटी होने की वजह से उसके माँ-बाप ने कभी चाहा ही नही उसकी शादी हो। ‘‘यदि पिताजी चाहते तो क्या उसका विवाह नहीं कर सकते थे। लोग लाख प्रयत्न कर बेटी के ब्याह का सामान जुटाते है। क्या उसी के पिता अनोखे थे? बात असल यह थी कि उन्होंने यह चाहा ही नहीं कि सुषमा की शादी हो, उनके अंतर्मन में यह बात अवश्य होगी कि सुषमा से उन्हें सहारा मिलेगा।3  वैसे सुषमा का विवाह न करना उसके माँ बाप की विवशता भी है। क्योंकि भारतीय समाज में विवाहोपरान्त लड़की को पति के निर्णयों के हिसाब से चलना पड़ता है। और जहाँ हिन्दू विवाह पद्धति में कन्यादान की प्रथा हो, वहाँ दान की गई वस्तु पर माँ-बाप का क्या अधिकार, और उस वस्तु को स्वयं क्या अधिकार है। वह तो पति की संपत्ति होती है। और पति ही उसके जीवन का निर्धारक होता है। जैसा कि उसका प्रेमी नील बोलता है, ‘‘मुझे लगता है सुषमा कि तुम्हारा परिवार तुम्हारा अनड्यू एडवांटेज लेता है। तुम्हारे भाई बहन तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारी है। तुम्हारी नही।’’ 4   वही सुषमा की माँ उसके इतनी उम्र में भी विवाह न होने पर कहती है कि ‘‘अब मैं क्या करूं? सयानी लड़की है, कोई बच्चा तो है नहीं जो समझाने-बुझाने से मान जाएगी। वह शादी करने को राजी ही नहीं होती तो मैं क्या करूं? और मुहल्ले-पडोसवाले उनकी बात मान जाते। पर अम्मा भी जानती थी और सुषमा भी, इसलिए ऐसे मौकों पर एक-दूसरे से आँखे चुरा जाती थी। इस घर की मुख्य आय सुषमा का वेतन था।’’ 5

परिवार के दायित्वों को निभाते हुए वह अपना जीवन कहाँ जी सकी। उसका जीवन उपेक्षित व एकाकी ही बना हुआ है। उसके विषय में न तो उसकी माँ सोचती और न परिवार के अन्य सदस्य। ‘‘अपने परिवार का सारा बोझ अपने ऊपर लिए सुषमा कांपने लगती। तब वह चाह उठती कि दो बाँहे उसे भी सहारा देने को हों, इस नीरवता के कुछ अस्फुट शब्द उसे भी संबोधन करे।’’ 6   उसके जीवन के 19 वें वर्ष में जब उसका प्रेम नारायण के लिए प्रस्फुटित भी हुआ था तो विवाह की स्थिति तक न पहुँच पाया। दहेज इसके आड़े गया। दहेज का उदेश्य बेटी को घर में रखने के लिए रिशवत के तौर पर दिया जाता है। ‘‘वकील साहब की बहुत प्रतिश्ठा थी। वह नारायण की शादी बड़े ऊचे घर में करना चाहते थे। उनकी पत्नी ने सुषमा के लिए बहुत हठ किया पर वकील साहब ने नरायण की शादी कहीं और तय कर दी। सुना नारायण को भी वह लड़की पसंद थी। सुना उस लड़की के पिता सिविल सर्जन थे और दहेज से घर आगन भर गया।’’7  और उसका निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि का परिवार दहेज देने में अक्षम होने के कारण पुत्री का विवाह न कर पाया। आज तो दहेज प्रथा समाज में अपनी व्याप्ति पहले से भी कही ज्यादा फैला चुका है। यद्यपि दहेज विरोधी ऐक्ट 1961 में ही पारित हो चुका है, लेकिन इस कुप्रथा को समाज की वैधता मिली होने के कारण यह निषेधित होने के बजाय और विस्तारित होती हुई ही दिखती है। वर पक्ष में यह दहेज एक मानी हुई बात मानी जाती है और आज के सामाजिक परिवेश में दहेज की मात्रा ही ससुराल पक्ष की प्रतिष्ठा का निर्धारक बन गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों को और पल्लिवित पुष्पित ही किया है।

मृदुला गर्ग

उसकी जिंदगी में आगे चलकर उससे उम्र में 5 वर्ष छोटा नील आता है, नील उससे प्रेम करता है और सुषमा भी। वह उससे देह संबंध भी बनाती है। उसमें नील से अपने देह संबंध को लेकर किसी तरह का कोई अपराध बोध नहीं है। लेकिन सुषमा यौन शुचिता की मनोग्रंथि से नहीं निकली हुई है। वह नील से कहती है कि ‘‘तुमने कभी यह भी सोचा नील, कि मैं तैतीस साल के बाद भी अछूती और बेदाग तुम्हारी ही बाँहो में कैसे आई?’’8  लेकिन जिस वक्त नील उससे विवाह का प्रस्ताव रखता हैं, सुशमा के आड़े एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि पहले तो अपने कुटुंब को छोड़ने का तो दूसरी ओर अपने लिए भी सपने है। लेकिन यह सब होते हुए भी सुषमा कहीं से कमजोर पड़ती है, और अनिर्णय की स्थिति को बनाये रखकर कहीं अंत में नील को चले जाने देती है। इस उपन्यास में दिखता है कि स्त्री अभी किस दुविधा में जी रही है, वह आत्मनिर्भर हो गई है और साबित कर रही है कि वह परिवार का दायित्व निभा सकती है। लेकिन कहीं-न-कहीं रूढ़ियों से जकड़ी हुई है। यहां लेखिका की conditioning हुई दिखती है। लेखिका के भीतर भी परंपरायें एवं रूढ़िया बैठी हुई है, जो उपन्यास का अंत लिखते हुए बाहर आ जाती है।

‘पचपन खम्भे लाल दीवारे’ के उपरान्त ‘मित्रो मरजानी’ और ‘सुरजमुखी अंधरे के’ स्त्री विषयक चिन्ता व चिंतन का केन्द्र बिंदु है। ये दोनों कृतियां प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती की है। उनका अनुभव संसार बहुत व्यापक है तथा इस संसार का अनुभव करने के लिए उनके पास नारी माध्यम है। स्वभावतः वंचना और पीड़ा के प्रति उनके कथा साहित्य में सहज झुकाव है। अपने साहसी विषय चुनाव और उद्दाम चरित्रों के लिए भी कृश्णाजी पहचानी जाती हैं। खासकर स्त्री चरित्रों के लिए और स्त्री जीवन की अछूती समस्याएं उठाने के कारण। मित्रो मरजानी के रूप में जो अविस्मरणीय चरित्र उन्होंने हिंदी को दिया, वह उनके सृजनात्मक साहस का प्रमाण है जो समूचे अनुभव और जीवन को सृजन की सामग्री बनाकर हर निषेध से इंकार करता है। मित्रो का चरित्र लेखिका ने बहुत ही जटिल ताने-बाने से बुना है। वह पारंपरिक मूल्यों को जीते हुए मध्यवर्गीय परिवार से एक युवती के विद्रोह की कथा है। मित्रो मरजानी की नायिका मित्रो का ब्याह होता है और वह ससुराल आती है। सास, जिठानी, उसके तेवर से सहमकर भी उससे प्रेम करते है। उसके यौवन कामना को उसका पति कोई तरजीह नही देता है वह ससुराल में खुलेआम इसके खिलाफ बगावत पर उतर जाती है। इस बगावत में उसकी पीड़ा स्पष्ट है। मित्रों के इसी अधिकार पर केंद्रित कर लिखी गई कथावृत्ति है। मित्रों जब अपने पति से यौन सुख नही पाती तो अपने सास से कहती है कि ‘‘अम्मा अपने बेटे को किसी नीम-हकीम के यहां जाकर दिखा दो। ‘‘मित्रों का यह वक्तव्य स्त्री के उन अधिकारों का पैरवी करता है कि यौन संबंधो में संतुष्टि  का हक उसे भी मिलना चाहिए।

मन्नू भंडारी

‘मित्रो’ स्त्री के यौन अधिकार का प्रश्न  उठाकर दाम्पत्य जीवन की पितृसत्ताक धारणाओं को कटघरे में रख देती है। हालांकि मित्रो विद्रोह करके माँ के घर चली जाती है। लेकिन अंत में वह ससुराल वापस लौटती है और इस नुक्ते के साथ उपन्यास खत्म होता है कि यौन सुख ही सब कुछ जीवन में नहीं है। बहुत सी अन्य बाते हैं, जोकि बेहद जरूरी है। आपसी समझ यौन सुख से कही ज्यादा महत्वपूर्ण है और दाम्पत्य इस तरह टूटने से बच सकता है। पति के घर वापस लौटकर मित्रो दाम्पत्य जीवन को टूटने से बचाती है। इस तरह स्त्री यौन अधिकार विषयक यह प्रशन भी अंतत परिवार व विवाह (यानि पितृसत्ताक व्यवस्था के मूल आधार) को बचाने के प्रयास में तिरोहित हो जाता है।

कृष्णा सोबती की ही प्रसिद्ध रचना ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ (1972 ई.) बचपन में बलात्कार की त्रासदी को झेली स्त्री पात्र ‘रत्ती’ की जीवन गाथा है। रत्ती उन सभी लड़कियों, स्त्रियों की प्रतिनिधी चरित्र है जो कि बलात्कार की त्रासदी तो झेलती ही है और साथ ही साथ सामाजिक लांछनाएं भी इन्हे ही झेलती पड़ती है। समाज के कोण से देखे तो बलात्कार ही मात्र ऐसा अपराध है, जिसमें समाज की दृष्टि बलात्कार करनेवाले अपराधी के स्थान पर बलात्कार की शिकार स्त्री की ओर टिकती है, स्त्री दोषी भी ठहराई जाती है, सामाजिक लाँछना, अपमान स्त्री के हिस्से में आता है। जिस अपराध की जिम्मेदार रत्ती नहीं है, उसकी सजा उसे मिलती है। यह पुरूष वर्चस्व का ‘संभ्रांत’ संस्कार है।

उसके स्कूल के बच्चे तक उसे गंदी लड़की कहकर चिढ़ाते रहते है। उसके बारे में तरह-तरह की झूठी अफवाहें फैलाते रहते हैं। जैसे कि ‘‘लड़कियों को पीटती हो और लड़को से चाकलेट खाती हो। उनके सामने अपना फ्राक उठाती हो।…..तुम बुरी लड़की हो।’’ 9 इस तरह की बातें सुनकर रत्ती को गुस्सा आता है, और वह किसी न किसी की जमकर पिटाई कर देती है। वह बचाव के लिए आक्रमण का इस्तेमाल करती है। रत्ती मानो न सुन रही हो न देख रही हो। देखते-देखते दोनों हाथ श्यामली के कंधो पर जा जमे। छोड़ दो रत्ती छोड़ो मुझे…‘‘रत्ती के हाथ कुछ ऐसे हिले झटके से श्यामली औंधे मुँह जा गिरी।’ 10 बलात्कार का प्रशन अब यद्यपि सौ पर्दों में छिपाने का विषय नही रह गया है। रिपोर्ट की जा रही है, प्रकरण सामने आ रहे है परंतु समाज की मानसिकता में अधिक फर्क नहीं आया है ‘सब कुछ लुटा जाने’ का अहसास स्त्री को पुरूषवादी व्यवस्था द्वारा दिया जाता है। ‘आवा’ में बचपन में मौसा द्वारा किया गया यौन दुराचार दस वर्ष की नमिता को जड़ करता है किंतु माँ कि प्रतिक्रिया उसे अधिक तोड़ती है कि चुप रह जाए। बलात्कार को यदि चुपचाप सहा गया तो सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा, वह ‘इदन्नमम्’ की सगुना की शक्ल में या तो शव में बदल जायेगा अथवा सुन्नर पांडेय की पतोह को बेघर करता रहेगा।

बलात्कार भारत में स्त्री के प्रति होने वाले अपराधों में सबसे बड़ा अपराध है। जिसके आकड़े प्रतिबर्ष बढ़ ही रहे हैं बावजूद इसके कि स्त्री के मन में बैठाए गए अपराध बोध के कारण अधिकांशतः अपराधों की रिपोर्ट नही की जाती। एक बार का बलात्कार स्त्री को जीवन ‘‘खराब’ होने का अपराध बोध देता है। नारीवादियों का मानना है कि बलात्कार एक राजनैतिक कृत्य होता है। जिसमें सेक्स का नजरिया कम होता हैं जबकि जेन्डर राजनीति अधिक होती है। इस तरह बलात्कार पुरूषवादी प्रभुत्व दिखाने का माध्यम है। पूँजीवादी देशो में बलात्कार को शारीरिक मानसिक  trauma के रूप में माना जाता है। वहीं भारत में सामंतवादी मूल्यों के कारण अभी भी इसको इज्जत मर्यादा के लूट जाने के रूप में देखा जाता है। समाज में बलात्कृत स्त्री को  पीड़ित के रूप में देखा ही नहीं जाता है, बल्कि उसके प्रति ऐसी लिंग विभेदी धारणा बना दी जाती है जैसे कि स्त्री द्वारा पुरूष को ऐसा कृत्य करने हेतु प्रेरित किया गया होगा या उसका चाल-चलन ही ऐसा है इत्यादि। पितृसत्तात्मक स्त्री को यौन वस्तु के रूप में ही परिभाषित का विशिष्ट  हो। चूँकि सामाजिक संरचना में स्त्री की अवस्थिति वंचित, उपेक्षित व अधीनस्थ की है। इस कारण पुरूष स्त्री देह पर अपना मालिकाना हक समझता है। और मानता है कि स्त्री समाज में अपनी गुलाम परक व वंचित स्थिति के कारण उसको दण्डित नहीं करवा सकती है। फलस्वरूप पितृसत्ताक पुरूष  उन्हें अपना शिकार बनाता है। सुसान ग्रिफिथ लिखती हैं ‘‘कानून की निगाह से देखा जाए तो बलात्कार को शारीरिक अपराध के पहलू के रूप में ही समझा जाता है। इसके बजाय, यह एक इन्सान के रूप में महिला के वजूद को मिटाने वाला अपराध होता है।’’ कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की रत्ती बचपन में हुए बलात्कार का दंश  युवावस्था में देह संबंधो के मध्यफ्रीज्ड होने में और गन्दी लड़की समझे जाने में भोगती है। वह बलात्कार को स्त्री के इज्जत लुट जाने व सर्वस्व समाप्त हो जाने की मनोग्रंथि में ही जीती हुई स्त्रीपात्र है। हिंदी लेखिका उषा  महाजन लिखती है कि ‘‘बचपन में घटी दुःसह्य घटनाएं स्त्री के भीतर की सारी प्रतिरोधात्मक शक्ति नष्ट  कर देती है, अनेक मामलों में उन्होंने पाया है कि बचपन में अथवा विवाहपूर्व अत्याचार (इनसेस्ट ) उन्हें भविष्य जीवन नहीं जीने देता। 11

रत्ती के जीवन में उसके सभी मित्र जगतधर, रंजन, रोहित, बाली, डेविड, भानुराव, सुब्रामनियम, राजन, श्रीपत उसे षरीर से पाना चाहते है और सफल न होने पर उसके स्त्रीत्व को अपमानित करते है। जिसे वह चीज की तरह इस्तेमाल करना चाहते है। जबकि वही रत्ती की दृष्टि ‘‘पाने के लिए दोनों को एक दूसरे को चाहना होता है रोहित’’12 रत्ती के जीवन में (असद व दिवाकर को छोड़कर) जितने पुरूष  मित्र आते हैं उनके लिए रत्ती देह ही है जो कि आसानी से प्राप्त हो सकती है। और जब रत्ती की अपनी ंहमदबल उन्हें दिखती है तो, वह उसे लांछित करने का पितृसत्तात्मक हथियार इस्तेमाल करते हुए दिखाई देते हैं। ‘सूरजमुँखी अंधेरे के’ पितृसत्ताक पुरूष में स्त्री के प्रति दैहिक मनोवृत्ति की धारणा को और स्त्री के लिए संबंध की परिधि में मात्र दैहिजरूरत ही नहीं बल्कि उससे बढ़कर भावनात्मक व मानसिक संसर्ग होने की सोच को बहुत माकूल तरीके से रखा गया है।
इस दौरे में कृष्णा सोबती के रचना कर्म के पश्चात् मन्नु भण्डारी की प्रसिद्ध कृति ‘आपका बंटी’ का नारीवादी दृष्ठि से अवलोकन करते है। मन्नू  भण्डारी ने स्वंय को सृजन-सक्रिय व्यक्तित्व के रूप में परिभाषित किया, उन बहुत सी सीमाओं को फैलाया और लांघा है जो स्त्री के सृजन के साथ जुड़ी है और जिसके कारण उसका यह कर्म बाधा-दौड़ का पर्याय है। उस दौर के स्त्री की कथा साहित्य की उभरती स्वतंत्र पहचान, उसके व्यक्तिगत सोच और व्यक्तित्व संबंधी उपलब्धियों के आधार पर बनी है। इस नई स्त्री की पहचान ही स्त्री के लेखन की एक अलग कोटि हमें दिखाई पड़ती है। अर्थोपार्जन स्त्री के लिए स्वायत्त व्यक्तित्व के विकास की सीढ़ी व साधन है। महादेवी वर्मा भारतीय समाज में स्त्री की पुरूषों पर आर्थिक निर्भरता को उल्लिखित करते हुए कहती हैं कि ‘‘समाज ने स्त्री को निर्भर कर दिया है कि उसके सारे त्याग, सारा स्नेह, संपूर्ण आत्म-समपर्ण बंदी के विवश कर्तव्य के समान है।’’ 13 महादेवी भी स्त्री की आर्थिक स्वाधीनता को उसकी सामाजिक स्वाधीनता के लिए आवश्यक मानती है। आर्थिक स्वतंत्रता के बगैर स्त्री कोई भी लड़ाई नहीं लड़ सकती। आजादी के बाद मध्यवर्ग का तेजी से विस्तार हुआ, जिसने अपनी जरूरतों के मुताबिक कामकाजी व शिक्षित स्त्री की नई भूमिका को स्वीकार्यता दी। यद्यपि बाहरी दायरे में भी स्त्री के स्वतंत्र इयत्ता को मान्यता नही दी गई लेकिन इसके बावजूद भी इस दायरे में उसे स्वयं का नाम और आर्थिक व सामाजिक भूमिका तो निश्चय ही मिली। जिससें वह अपनी स्थिति को मूल्यांकित भी करने लगी, और अपनी आकांक्षाओं की प्राप्ति की दिशा में प्रयास भी करने लगी। उसमें संघर्षशीलता का विकास भी हुआ। नतीजन एकल परिवारों में भी ‘विघटन’ की घुसपैठ हो गई। ‘आपका बंटी’ (1971 ई.) शिक्षित आत्मनिर्भर स्त्री के संघर्शषील तेवर और एकल परिवारों के टूटन को रेखांकित करता हुआ उपन्यास है। इस उपन्यास का महत्व इसलिए भी है कि इस कथ्य को आधार बनाकर कोई कृति इससे पहले हिंदी में नहीं रची गई थी। इस उपन्यास में अजय और शकुन पति-पत्नी है। शकुन कॉलेज में प्रिंसिपल है। अजय भी अच्छे पद पर कार्यरत है। उनका छोटा सा बेटा बंटी है। अजय-शकुन के बीच के तनावों के कारण दोनो अलग-अलग रहते है। अजय मीरा नाम की स्त्री से प्रेम करने लगता है। अजय मीरा से विवाह करना चाहता है। फलतः अजय व शगुन में तलाक हो जाता है। ‘आपका बंटी’ में अजय व शकुन में एक दूसरे के प्रति प्रेम की रिक्तता की वजह पर तो चर्चा नहीं की गई है। लेकिन यदि उस दौर की सामाजिक स्थितियों का दृश्टिगत रखे तो मिलता है कि शहरों में शिक्षित नौकरीशुदा स्त्री का एक अच्छा खासा तबका अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगा था। और यह स्त्री सार्वजनिक दुनिया में अपनी दखल बनाने लगी थी, तो यह भी बहुत संभव नहीं था कि वह भीतरी दुनिया की अपनी निर्धारित अवस्थिति को यथावत स्वीकार कर लेती। वही पुरूश भीतरी दुनिया में स्त्री की पारंपरिक छवि को इस में भी रखना चाहता था और यही परिवार में उनकी टकराहट का कारण भी बनी है।

आपका बंटी में शकुन व अजय के तनाव का यही कारण मुझे प्रतीत होता है। संभवत् यही कारण है कि शकुन से तलाक लेने के पश्चात् वह मीरा (जोकि कामकाजी महिला नहीं है) से विवाह करता है।
घर बाहर दोहरे कार्यभार और नैतिकता के दोहरे मापदण्डों ने स्त्री के शरीर व मन को तोड़कर रख दिया है और परंपरागत सहिष्णुता वाली उसकी छवि मन्नू जी के ‘आपका बंटी’ में बिल्कुल चरमरा गई है। आप देख सकते है कि शकुन परंपरागत छवि वाली नारी नहीं है। उसका अस्तित्व पूरी तरह समानता और प्रतिस्पर्धा की भावना से भरा हुआ है। वह ऐसा कर सकता है तो मैं क्यों नहीं? की सहज इच्छा में जीती हुई वह औरत जिस छवि का निर्माण करती है वह औरत के बदलते रूप का प्रमाणिक इतिहास है। शकुन इस निर्णय पर पहुंच जाती है कि मैं उस व्यक्ति के साथ रहूँगी, जिससे मैं प्रेम करती हूँ। उससे मैं ब्याह करूंगी। अर्थात स्त्री अपने को केन्द्र में रखकर निर्णय लेती हुई ‘आपका बंटी’ में व्यक्त होती है। यहां शकुन के इस निर्णय में बंटी भी कोई बाधा नहीं बन पाता अर्थात् मातृत्व की त्यागमयी, पारंपारिक मान्यता से मुक्त होते हुए वह अपने जीवन का निर्णय स्व-केन्द्रियता के आधार पर लेती हुई दिखती है। यह इस उपन्यास का सबसे सशक्त पक्ष है। वहीं यह उपन्यास समाज में अकेली तलाकशुदा स्त्री के प्रति संकीर्ण धारणाओं को उल्लिखित करता है। जहाँ स्त्री की स्वतंत्र भूमिका न तो समाज को स्वीकार्य है और न ही नियोक्ता या संस्थानों को। स्वतंत्र स्त्री के प्रति समाज में सदैव भय की धारणा रही है। पितृसत्तामक व्यवस्था इन्हें विद्रोहिणी के रूप में इंगित कर उनके चरित्र पर सदैव लांछन ही लगाता रहा है ताकि इस बहिश्करण व उपेक्षा से भयभीत होकर वह पुनः परिवार व विवाह यानि पितृसत्ता की मूल धूरी में आ जाये। यह भी एक कारण बन जाता है कि शकुन डा. जोशी से अपने प्रेम संबंध को अंततः पति-पत्नी संबंध में परिवर्तित करने को विवश हो जाती है। अर्थात् वह एक सुरंग से निकलकर दूसरे सुरंग में चली जाती है।

अनामिका

विवाह स्त्री-जीवन की नियति रहीं है। विवाह पितृसत्तात्मक व्यवस्था की निरन्तरता को कायम रखने हेतु अनिवार्य होता है। इसी कारण विवाहित को समाज में सम्मान का दर्जा दिया गया है वहीं तलाकशुदा स्वतंत्र स्त्री के सम्मान पर सदैव प्रश्न  चिन्ह लगाया जाता है। विवाह संस्था के ढ़ाँचे में पुरूष वर्चस्वता के रेशे इतने सघन रूप व विवाह जैसी संस्थाओं के द्वारा स्त्री-पुरूष के बीच पदानुक्रम व असमानता को कायम रखा जाता है। जिसमें महिलाओं की श्रम-शक्ति, यौनता व प्रजनन शक्ति आदि पर पुरूषों  का नियंत्रण होता है।
मन्नू भण्डारी की यह कृति भारतीय कानून के पितृसत्तात्मक झुकाव को सामने लाती है। जैसे कि बच्चे का प्राकृतिक संरक्षक उसका पिता माना गया है न कि उसकी माता। शकुन के मन में सदैव यह भय है कि अजय उसके जीवन के एकमात्र सहारे ‘बंटी’ को भी कभी भी उससे छीन सकता है। यह कानून का क्रूर स्त्री-विरोधी पहलू है जो स्त्री संतान को जन्म दे, और पालन पोषण कर उसको पढ़ा लिखा रही हो (वह भी बिना पति के सहारे के) उसी स्त्री को ही अपने संतान पर कोई अधिकार नहीं मिलता है। अर्थात यह राज्य के पुरूषवादी चरित्र को परिलक्षित करता है। जहां राज्य परिवार के भीतर पुरूश की उच्च स्थिति को मान्यता प्रदान करता हुआ दिखता है। गर्डा लर्नर ने मानव सभ्यता के प्रारंभिक कानूनी व्यवस्थाओं के पितृसत्तात्मक पक्ष को उजागार किया है। 14 जिनसे आधुनिकता के साथ उद्भूत हुए ‘राष्ट्र-राज्य’ भी मुक्त न हो सके है।

मन्नू भण्डारी, कृश्णा सोबती, उषा प्रियंवदा के साथ-साथ ममता कालिया भी 60-70 के दशक की सशक्त हिंदी लेखिका है। जिन्होंने लेखन में स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपना विषय-वस्तु बनाया। फिलहाल उनके सबसे चर्चित उपन्यास ‘बेघर’ को विचार चिंतन का केंद्र बिंदु बनाकर उनमें स्त्री-परिप्रेक्ष्य की जाँच पड़ताल करते है। यह उपन्यास 1971 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास का मूल कथ्य स्त्री हेतु पुरूष वर्चस्वषाली समाज में स्त्री की ‘यौन शुचिता’ के मिथ को चुनौती देता है। पितृसत्तात्मक समाज में कौमार्य का एक नैतिक, धार्मिक और रहस्यात्मक महत्व रहा है और आज भी है। वस्तुतः प्राचीन काल से लेकर आज तक यौन संबंधो के नियमन में जितनी सतर्कता और चिंता जताई गई है। उतना किसी और कार्य में नहीं .अभद्र दैहिक व्यवहार और यौन कुंठाए स्त्री-पुरूष के जीवन संबंध को प्रारंभ से ही विकृत करते रहे है। स्त्रियां कालक्रम में अगर घरों की चार दिवारी में कैद हुई तथा आर्थिक परिस्थितियों में शरीक होने से वंचित रह गई तो यह मूलतः योनि शुचिता तथा शरीर और नस्ल की शुद्धता के बोझिल मूल्य बोध का परिणाम है।

राजनीतिलक

भारतीय परिदृश्य में देखे तो यहाँ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के स्वरूप ने स्त्री की यौन शुचिता की धारणा को और ज्यादा मजबूती दी है। फलतः हम यौन शुचिता के मिथकीय मनोग्रंथि को इस उपन्यास के नायक परमजीत में देख सकते है।’ पहला न होने की निराशा के सन्नाटे के साथ-साथ उसे अपनी जिन्दगी का सारा नक्शा  मुचड़ा हुआ दिखायी दे रहा था।….वह दुर्घटनाग्रस्त आदमी की तरह सन्न बैठा रहा। संजीवनी को देखकर वह चकित हो रहा था। वही लड़की थी, बिल्कुल वही पर कितनी अलग लग रही थी। इतनी थोड़ी दूर पर बैठे हुए भी वह मीलों दूर जो पड़ी थी।’’15 परमजीत ने संजीवनी के साथ विवाह कर एक सुन्दर सा घर बसाने को जो स्वप्न देखा था, वह एक पल में चकनाचूर हो गया। कौमार्य भंग स्त्री को वह अपनी पत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर सकता था। परमजीत के प्रेमाभिव्यक्ति में स्त्री देह दृष्ठि ही ज्यादा दिखाई देती है। इसके कई संदर्भ उपन्यास में दिखाई पड़ते है। ‘अकेले मे तुम्हारे तलुवे सहलाकर, तुम्हारे बाल खोलकर, ……….तुम्हे एक ही पल में लड़की से औरत बना दूँगा संजी।’’ 16 ‘‘ये ओठ भी मेरे हैं , आँखे भी मेरी हैं , ठोढी भी मेरी है।’’17 ‘‘हमें इतना पास बैठना चाहिए कि मैं तुम्हे गोद में डाल तुम्हारे ऊपर हाथ फेर सकूँ कही भी।’’18 यह निश्चित रूप से किसी प्रेमी के वाक्य नहीं हो सकते, बल्कि यह तो पुरूश वर्चस्वपरक व्यवस्था के किसी प्रतिनिधि चरित्र के ही वाक्य हो सकते हैं जो कि स्त्री देह को अपनी संपत्ति के रूप में प्राप्त करना चाहता है।

इस तरह से ये पांचो उपन्यास ‘बेघर’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘आपका बंटी’ व ‘पचपन खम्भे लाल दीवारे’ स्वतंत्रोपरान्त भारत में स्त्री की अधीनस्थता के विभिन्न पहलुओं व स्त्री विरोधी धारणाओं को प्रश्नांकित करते हुए स्त्री-जीवन के अनुभव खण्ड को लाकर हिंदी सृजन संसार में सशक्त पदार्पण करते हुए स्त्री लेखन की एक प्रवाहमान धारा विकसित करते हैं। ये उपन्यास इसलिए भी अपनी महत्ता रखते हैं क्योंकि यह लगभग 10 बर्षो के भीतर की ही प्रकाशित रचनाएँ हैं और विशेषकर हिंदी पट्टी के सामाजिक परिवेश को केन्द्रित करके बुनी गई हैं और संबोधित भी हिंदी पट्टी समाज को ही की गई हैं। इस प्रकार यह रचनाएं तत्कालीन परिवेश में स्त्री की उपेक्षित अवस्थित को अभिव्यक्ति देते हुए स्त्री सरोकारो से पाठक को जोड़ने वाले पुल की भूमिका में आती है।

संदर्भः
1   प्रमिला कपूर, कामकाजी भारतीय नारी, पृ. 52
2  पचपन खम्भे लाल दीवारे , उशा प्रियवंदा, पृ.11, संस्क-1991, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली।
3   वही, पृ.33
4   वही, पृ.48
5    वही, पृ.11
6   वही, पृ.26
7   वही, पृ.36
8    वही, पृ.55
9   सूरजमुखी अंधेरे के,कृष्णा सोबती, पृ. 50, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नई दिल्ली
10    वही, पृ.50
11  उषा महाजन, उठो अन्नपूर्णा साथ चलें, हिमालय पुस्तक भण्डार, 1998. पृ.117
12    सूरजमुखी अंधेरे के, कृष्णा सोबती, पृ.70
13   श्रृखला की कड़ियां, महादेवी वर्मा.
14  नारीवादी राजनीति संघर्ष एवं मुद्दे, संपा-साधन आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, पृ.3 संस्करण 2001, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विशवविद्यालय।
15    बेघर, पृ.72
16   वही, पृ.63
17    वही, पृ.79
18   वही, पृ.59

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ISSN 2394-093X
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