लिपस्टिक अंडर माय बुर्का : क़त्ल किए गए सपनों का एक झरोखा

ज्योति प्रसाद
सुनिए, कहानी की शुरुआत पर ध्यान दीजिये। यह किसी लड़की के जीवन में वहीं से शुरू हो जाती है जब दाई या नर्स क्या हुआ है पूछने पर यह बताती है कि लड़की हुई है तभी, ठीक उसी समय से ‘नियम व शर्तें लागू’ हो जाती हैं उस नवजात बच्ची पर। लेकिन वह लड़की तो कुदरत के दिये लक्षणों को अपने अंदर लेकर पैदा होती है। इसलिए उसके अंदर मौजूद उसकी अंदरूनी और रोमानी-रूहानी तमन्नाएँ अपने को ज़ाहिर कर जीने की कोशिश करती है। जैसे ही यह मौक़ापरस्त चाहत बाहर आने को होती है तभी ‘टर्म एंड कंडिशन्स’ लागू हो जाते हैं। निदेशक अलंकृता श्रीवास्तव  की यह फिल्म इसी बिन्दु को पकड़ने की ठीक-ठाक कोशिश है।

स्त्री की यौन इच्छाओं और शुचिता का पूरा अध्याय ही दवाब, शंकाओं और संघर्षों के दायरे में आता है। स्त्री चिंतन को समझने के लिए उन सभी ‘पवित्र शर्तों’ को एक बार देख व सूंघ लेना चाहिए जिन्हें बहुत ऊंचा मुकाम दिया गया। गंदी औरत, बदचलन औरत, बेशर्म औरत, इज्जत मिट्टी में मिला देने वाली औरत…आदि विशेषणों के पीछे की उन सभी तस्वीरों की पड़ताल करने की कोशिश के रूप में यह फिल्म कदम भी उठाती हुई दिखती है।

कुछ दिनों पहले बैंडीट क्वीन फिल्म के बारे में लिखे लेख को पढ़ते हुए मुझे वह क़िस्सा याद आ गया जो हमारे बगल की पड़ोसन सिनेमा हॉल से समेटकर लाई थी। वह फिल्म के फूलन देवी पर फिल्माए गए उस दृश्य को थूक घोट-घोट कर गाली दे रही थीं, जिसमें उनके कपड़े उतार कर घड़ा थमाया जाता है। उन्हों ने मेरी माँ को झँझोड़ झँझोड़ कर कहा- ‘न जाने कैसे लोग पैसे की ख़ातिर नंगे हो जाते हैं। शर्म भी नहीं आती। पैसा ही नहीं होता सब कुछ। इज्जत नाम की भी चीज़ होती है दुनिया में।… जाने क्या मिलता है अपनी इज्जत देकर…ऐसी ही फिल्म देखकर लड़कियां बिगड़ जाती हैं..!’ वह उस दिन काफी बोलीं।

स्त्री शरीर और उससे जुड़ी उसकी बातों और इच्छाओं को हमेशा से ही शर्म और पवित्रता के आवरण में सहेज कर रखने की कोशिश की गई है। राजा एक से अधिक शादियाँ करने के बाद या फिर हरम में एक से अधिक औरतों को रखने के बावजूद गंदा आदमी, बदचलन आदमी बेशर्म आदमी क़रार नहीं दिया जाता। इसके अलावा उस आदमी पर सामाजिक और परंपरा वाला प्रतिबंध भी नहीं होता। ठीक इसके उलट औरत का कृत्रिम चरित्र ही उसके पूरे के पूरे अस्तित्व से जोड़ दिया गया है। इसलिए जब जैसे ही वह अपनी इच्छाओं को ज़ाहिर करती है, ठीक वैसे ही उस पर हमले होते हैं और मिनटों में वह हाशिये पर पड़ी नज़र आती है। इस फिल्म से इस बात को समझा जा सकता है।

बैन की मार झेल चुकी फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ के साथ एक बहस तो छिड़ ही गई है। फिल्म रिलीज़ हो चुकी है और तारीफ़/तीखे हमले दोनों ही बटोर रही है। फिल्म के बैन को अगर एक तरफ रख कर फिल्म के किरदारों और कथा पर नज़र डाली जाये तब दर्शकों की ज़िम्मेदारी और समझ किस दिशा में जाएगी, जैसा सवाल उभरता है। चारों किरदारों को अपने ध्यान का विषय बनाया जाना चाहिए। चारों औरतों की उम्र अलग अलग है। चारों का ताल्लुक (निम्न) मध्यम वर्ग का ही मालूम होता है। वास्तव में वे चारों औरतें प्रतीक के रूप में उभरती हुई नज़र आती हैं।

उनकी ज़िंदगी के दो पहलू हैं। एक वह जो उनके परिवार ने उन्हें निश्चित फ्रेम के तौर पर दिया है। दूसरा, जो उन्हों ने खुद को देखने की तमन्ना के साथ विकसित किया है। इसी दूसरे फ्रेम को वे छुपाती फिरती हैं। गौर से देखेंगे तब यह अनुभव होता है कि सारा झगड़ा समाज और परिवार द्वारा दी जाने वाली औरतों को आदर्श और चुप रहने वाली गुड़िया में तब्दील कर देने या फिर उन्हें पालतू बना देने वाली पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया को न मानने की वजह से है। फिल्म में इन औरतों ने अपनी खुद की शैली ईजाद करते हुए उस परंपरा को धता बंधा दिया है जो उन्हें आदर्श बने रहने के तरीके थोपती है। जैसे ही वह इस चाकू मार विरासत को धक्का देती हैं और अपने बारे में सोचती हैं वैसे ही समाज और परिवार के धड़े उन्हें धमकाते हुए दिखाई देते हैं।

भोपाल का छोटा मोहल्ला और उसकी ये चारों रंगीन सपने लेकर जीने वाली औरतों में जितना आक्रोश है उतना ही आज़ादी और मनमर्ज़ी को करने की ज़िद्द भी है। सबसे युवा रेहाना अपने को बुर्के  की दम घोंटू ज़िंदगी से आज़ादी की ख़ातिर जोख़िम उठाती है। चाहे वे जूतों, लिपस्टिक या फिर आधुनिक कपड़ों की चाहत (चोरी) हो या फिर देर रात पार्टी में जाने की इच्छा। वह बुर्के सिलने का काम करती है। जो प्रतीक है एक ही ढर्रे की आज़ादी छीनने वाली परवरिश की और माहौल की। वह युवा है और हर उस फल को चखना चाहती है जिसकी उसे सख़्त मनाही है। रेहाना मुस्लिम परिवार से है। इसलिए यहाँ इस बात से बचा जाना चाहिए कि ऐसा केवल मुस्लिम परिवार में होता है। जबकि ऐसा हर धर्म और परिवार में होता है।

आमतौर पर घरों में लड़कियों को परवरिश के साथ ही बचाव वाले गलियारे में ठूँसा जाता है। अपने को कैसे बचा कर रखना है, अपने शरीर को ढक कर रखने की सीख, सुंदर दिखने से परहेज, नाच गाने से दूर रहने के आदेश आदि, यही सिखायेजाते हैं। और यह एक महत्वपूर्ण वजह है जिसके कारण वे बहुत बड़ी संख्या में हिंसा और अपराध की शिकार बनती हैं। रेहाना को कॉलेज में इस उम्मीद से दाखिल करवाया गया है कि वह उससे जुड़ी आशाओं को पूरा कर पाये। लेकिन इसके साथ ही क़ायदा उसके सामने रख दिया गया है कि वह कौन से सपने देख सकती है और कौन से नहीं। जो यह ‘नियम व शर्तें लागू’ वाली दशा है, वह उसे चुभती है और वह इससे बाहर निकलने के लिए कुछ रास्ते अपनाती है।

दूसरा किरदार ब्युटिशियन लीला का है। जो अपने अंदर की तीव्र इच्छा को तो पूरा करना ही चाहती है साथ ही शादी से ही जुड़ी बड़ी प्लानर-व्यवसायिका बनना चाहती है, प्रेमी अरशद के साथ। पर अपनी माँ के चुने हुए लड़के से शादी करना, उसको एक दूसरे किनारे पर ले जाता है। दोनों माँ बेटी के चरित्रों में उन स्त्री विडम्बना को देखा जा सकता है जो उन्हें जीवन में सामाजिक व पारिवारिक स्ट्रक्चर से मिली है। विधवा माँ और बेटी के जोड़े में, माँ ने भी उतने ही ग़म उठाए हैं पर फिर भी वह अपनी बेटी को उसी रूप में देखना चाहती है जिसमें वह विधवा बनने से पहले थी। उसके मुताबिक शादीशुदा होना अहम है।

तीसरी किरदार शिरीन अपने शरीर को अपनी ही मर्ज़ी के विरुद्ध जाकर, पति के हवाले करती एक पत्नी के किरदार में दबी हुई औरत है। वह हर तरह से दबती है। पारिवारिक जिम्मेदारियों के सवाल पर, घरेलू काम को लेकर, पति के दूसरी औरत से संबंध को लेकर, निरंतर होते अबॉर्शन से शरीर में होती परेशानियों के कारण, तीन बच्चों की परवरिश को लेकर और नौकरी की बात को छुपाते हुए। शिरीन इन सब बातों से पल पल जूझ रही है तो दूसरी तरफ उसका पति बिना किसी दबाव के जी रहा है और पत्नी की लगाम हर तरह से कस रहा है, फिर चाहे शारीरिक स्तर पर हो या मानसिक स्तर पर। शिरीन की कहानी लगभग हर भारतीय औरत की ही कहानी है।

घर के अंदर जिसे नितांत निजी ज़िंदगी कहा जाता है, वह वास्तव में शोषण के साथ दिखाई पड़ता है। अपने ही शरीर पर हक़ न होना आज भी एक बहुत बड़ा बहस का मुद्दा भी है। कब सेक्स करना है कब नहीं करना है, पत्नी की मर्ज़ी है भी अथवा नहीं, उसे किन शारीरिक और मानसिक दिक़्क़तों से गुज़रना पड़ रहा है, क्या वह बच्चे को जन्म देना छाती है अथवा नहीं, क्या वह अपने शरीर से जुड़े फैसले ले सकती है या नहीं.., सुध लेने वाला कोई नहीं दिखता। दूसरी तरफ लीला, रेहाना और उषा का किरदार सेक्स संबंधी चाहतों को पूरा करने की कोशिश में दिखते हैं, जिन्हें लोग हरगिज़ स्वीकार नहीं करते।

चौथा और एक और महत्वपूर्ण किरदार उषा जी का है जो ‘हवाई मंजिल’ में बुआ जी ही बन कर रह गई हैं। पति की मृत्यु के बाद एक लंबा सफर अकेलेपन में गुज़ार चुकने वाली उषा जी के मन में आज भी वही ताज़ा तरंगें मौजूद हैं जो किसी भी औरत में होती हैं। उनके इर्द गिर्द ऐसे लोगों का जमावड़ा है जिन्हों ने बुआ जी को एक औरत की नज़र से देखने की कभी कोशिश नहीं की। उन्हें वृद्ध और धार्मिक महिला का लिबाज़ पहना दिया गया है। पर कमरे के भीतर वह एक ऐसी औरत का चरित्र जीती हैं जो आज भी इच्छाएं रखती हैं। अपनी तृप्ति को वह प्रेम और रस से भरे हुए उपन्यास पढ़कर और अपने ही जिम ट्रेनर से फोन पर इश्क़िया बातें कर के पूरा करती हैं। औरत के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कभी कोशिश नहीं की जाती। उसे खुद के लिए उस चुनाव से महरूम कर दिया जाता है, जिसे वह चाहती है। उससे वह जिंदगी जीने की उम्मीद की जाती है जो हजारों साल से उसके लिए निर्धारित की गई है। लेकिन उषा, इस निर्धारित भूमिका को न सिर्फ तोड़ती है, बल्कि वह वैसे ही जीती हैं जैसे उनका मन कहता है।
इस फिल्म पर बवाल आख़िर क्यों?

थोड़ी देर के लिए यदि महिला मिथक कहानियों की यात्रा की जाये तब हमारे सामने पंचकन्याओं और अप्सराओं की छवियाँ उभरती हैं, जिन्हें धार्मिक, सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त नहीं हो पाई कभी। अपनी यौनिक इच्छाओं की पूर्ति उनको इतनी महंगी पड़ी कि उन्हें पत्थर में तब्दील होते दिखाया गया। उद्धारकर्ता भी एक पुरुष ही बना। अप्सराओं का पूरा स्केच ही परिवार और समाज के बनाए गए संस्थानों के खिलाफत में खड़े हुए दिखते हैं। उनकी शक्ति, यौनिकता, रूप-सौन्दर्य और रिश्तों से परे जीवन की परिकल्पना उनके चरित्रों की ख़ूबी है जिसे रह रह कोसा गया, पाप द्वार, माया, मोहिनी, तपस्या भंग कर देने वाली आदि नामों से नवाजा गया। लेकिन फिर भी उनके नामों को मिटाया नहीं जा सका। ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का ’ के चरित्रों में इन्हीं मिथकों की हल्की छवियाँ देखी जा सकती हैं। ये सभी छवियाँ आकर्षित तो करती ही हैं साथ ही साथ उस जमे हुए पैटर्न को तोड़ती भी हैं जो उनके लिए तय किए जाने की कोशिश की जा रही है। इसलिए यह फिल्म सेंसर और समाज के तथाकथित तबको की आँखों में सुई की तरह चुभ रही है।

चरित्रों में आत्मविश्वास का स्रोत
इन आम स्त्री चरित्रों की बुनावट में एक दिलचस्प आयाम को जोड़ा गया है, उसे रेखांकित करना जरूरी भी होगा। रेहाना का कॉलेज गोइंग लड़की होना, उसकी स्कूल के बाद की शिक्षा की तरफ एक संकेत है। इसके अतिरिक्त उसका बुर्खें सीने के काम को उसके इनकम के स्रोत के रूप में देखा जा सकता है। शिक्षा और उसका खुद के लिए देखे गए सपने उसे एक रोज़ पूरी तरह से दकियानूस पम्परा के विरोध में खड़ा कर देने की संभावना भी दिखाते हैं। वह अंग्रेज़ी गीतों को पसंद करने वाली भावी आर्थिक रूप से स्वतंत्र लड़की की संभावना का वहन करने वाली चरित्र है। इससे अलग लीला और शिरीन पहले से ही कामगार हैं और आर्थिक क्षेत्र में अच्छा कर रही हैं। उषा उर्फ़ बुआ जी भी इसी तरह काम से जुड़े सारे निर्णय लेती हैं और चाभियों का गुच्छा अपने पास रखती हैं। उनके द्वारा लिए गए फैसले आखिरी होते हैं और उनकी राय के बिना कोई भी कदम नहीं उठाया जा सकता। यह सभी विशेषताएँ इन औरतों की आर्थिक मजबूती की तरफ तो इशारा करते ही हैं साथ ही उनके आत्मविश्वास को उजागर भी करते हैं।

फिल्म का कमजोर पक्ष
फिल्म के अंत में यदि चारों किरदार दस मिनट के लिए सिगरेट पीने की बजाय एक बेमिसाल प्रतिक्रिया देते तो फिल्म अपने लक्ष्य को पूरा करने में सफ़ल हो जाती। सिगरेट आज़ादी का प्रतीक नहीं है। इस बात को खुद सिगरेट भी जानती है जो एक चेतावनी देती है- ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।’ आदमी सिगरेट पीता है इसलिए औरतें भी पी सकती हैं, वाला मामला स्त्री विमर्श को कमजोर ही करता है। महिला सशक्त किरदारों की विशेषता आदमी की बराबरी या उससे तुलना करने में नहीं है। आठ मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक हिन्दी अखबार हर बार बाइक रैली का आयोजन यह कह कर करता है कि दुनिया (आदमियों) को दिखा दो कि औरतें भी बाइक चला सकती हैं। यह केवल एक संदर्भ है। असली सशक्तिकरण हर तरह के शोषण से मुक्त पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक माहौल, मानसिक और शारीरिक स्वस्थता, बराबर की आय समान कामों के अंतर्गत, अपने को अभिव्यक्त करने की आज़ादी, सुरक्षित, बराबरी के मौकें, काम करने व जीने के लिए उचित माहौल…आदि आदि है। हजारों साल से जमी सत्ता को सिगरेट पी कर चुनौती नहीं दी जा सकती। इसलिए फिल्म का अंत थोड़ा खटकता भी है।

यौन सम्बन्धों पर बनी महिला प्रधान फिल्मों को क्यों शिकार किया जाता है?
फिल्म फायर, बैंडिट क्वीन, कामसूत्र, डर्टी पिक्चर, इंडियाज़ डॉटर, वॉटर आदि फिल्मों को सेंसर और सरकार ने अपना निशाना बनाया है। सभी फिल्मों में महिलाओं से जुड़े मुद्दे हैं।  इस फिल्म के साथ भी ऐसा ही है। यह फिल्म भी महिला प्रधान फिल्म है। सभी के विषय में स्त्री देह, उसकी यौनिकता व उनके शोषण के विभिन्न पहलू हैं। सेक्स आज भी बंद कमरे का मुद्दा है। समाज और उसकी प्रणाली में औरत-मर्द-बराबरी की बात हवा में तैरती है जबकि वास्तविक स्तर पर ऐसा नहीं है। औरत को अपनी अभिव्यक्ति की क़ीमत आज भी चुकानी पड़ती है। रात को घूमती औरत, जीन्स पहनने वाली औरत, बियर या शराब पीने वाली औरत, सेक्स की चाहत रखने वाली औरत इत्यादि श्रेणी में रख दी जाती हैं जो आदर्श औरत के सांचें में नहीं आतीं। ये सभी समाज को चुनौती देने वाली लगती हैं। इसलिए इन पर भरसक हमले किए जाते हैं।

परंपराओं पर सवाल कर देने वाली ‘वॉटर’ फिल्म की चुहिया सभी को पचाये नहीं पचती, क्योंकि वह सीधा सवाल करती है कि आदमी क्यों नहीं विधवा होता? अजीबो गरीब यह भी है कि ‘इंडियाज़ डॉटर’ जैसी डॉक्युमेंट्री फिल्म जो निर्भया घटना की जड़ की पड़ताल की कोशिश पर बनी फिल्म थी, उसे लेकर सरकार को देश की छवि की चिंता हो गई और उस पर आनन-फानन पररोक लगा दी गई। पर यू-ट्यूब के ज़माने में इसका फायदा सरकार को हो नहीं पाया। ठीक इसी तरह अन्य महिला प्रधान फ़िल्मों के साथ भी किया गया।

दिलचस्प यह भी है कि जो इसका विरोध करते हैं वे ही सरकारी खर्चे और ‘हॉलिडेज़’ में स-परिवार सहित खजुराहो की मूर्तिकला देखने जाते हैं। संभव हुआ तो वहीं से या फिर लौटकर फेसबुक पर अमेज़िंग ट्रिप इन अ अमेज़िंग प्लेस की हैडिंग के साथ फ़ोटो साझा करते हैं। ऐसे लोगों की मानसिकता को बॉलीवुड ने बखूबी कैश भी किया है। इन्हीं के लिए आदर्श माँ, प्रेमिका, बहन, बेटी, बहू की छवियों को गढ़ा गया। ये सभी लोकप्रिय चरित्रों की श्रेणी में आते हैं। लेकिन लिपस्टिक अंडर माय बुर्का  की चारों किरदार आदर्श-परिधान से परहेज़ करती हैं इसलिए वह सम्भ्रात जमाने के निशाने पर आ जाती हैं।
लेखिका , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधरत हैं. सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles