सुर बंजारन

भगवानदास
मोरवाल

 वरिष्ठ साहित्यकार. चर्चित उपन्यास: कला पहाड़, रेत आदि के रचनाकार. संपर्क : bdmorwal@gmail.com मो.  9971817173

काला पहाड़ और रेत जैसे चर्चित उपन्यासों के रचनाकार भगवानदास मोरवाल ने  कहन-शैली,  व्यापक कथा फलक और आंचलिक बोध के साथ मेवाती यथार्थ के चित्रण से हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट जगह बनाई है. उनका शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास है, सुर बंजारन. हाथरस शैली की नौटंकी और उसकी एक मशहूर अदाकारा को केंद्र में रख कर लिखे गये उपन्यास ‘सुर बंजारन‘  का  एक अंश दो किस्तों में स्त्रीकाल के पाठकों के लिए .  

पहली क़िस्त/ बहरशिकिस्त


भारत-पाक युद्ध के बाद नेहरु-युग के उतरते कार्तिक के अलसाये-से कुनमुनाते दिन.  यह वह दौर था जब इस देश के, वह भी उत्तर भारत के पश्चिमी सूबों के शहर-दर-शहर और छोटे-बड़े क़स्बों में तेज़ी से तालीम के इबादतगाहों की पौध रोपी जा रही थी . वैसे इसकी शुरुआत 1962 के भारत-चीन युद्ध ख़त्म होते ही हो चुकी थी .

क़स्बे की दीवारों पर मुस्कराते हल्के लाल, हरे और पीले पतंगी काग़ज़ों पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपे नाम . नामों के ठीक नीचे तारीख़ व दिन के साथ क्रम से छपी फ़ेहरिस्त . जब-जब उसकी आँखों के आगे यह नाम और फ़ेहरिस्त तैरने लगती, तब-तब मारे बेचैनी व परेशानी के उसकी शिराओं में दौड़ता ख़ून ठिठक-ठिठक जाता . किसी अनहोनी या अनिष्टता की आशंका से मानो ये शिराएँ फटने लगतीं . पल-प्रतिपल किसी बरसाती नदी में तेज़ी से चढ़ते पानी की तरह, बढ़ती ख़लक़त को देख-देख कर उसका साँस फूलने लगता . उसने कल्पना भी नहीं की थी कि इस पोस्टिंग के दौरान कभी उसका ऐसी आफ़त से भी सामना होगा . पुरानी अनाज मंडी की तरफ़ बढ़ती भीड़ को देख कर लगता, जैसे पानी के सभी छोटे-बड़े झरने किसी विशाल दरिया में विलीन होने को आतुर हैं .

पूरा थाना उसके सामने जैसे दम साधे खड़ा है . बीच-बीच में वह सब पर एक उचटती-सी असहाय दृष्टि डालता, और फिर ख़ुद ही इस पागलपन या कहिए दीवानगी को समझने की कोशिश करता . उस दीवानगी को जो साँझ होते-होते अपने पूरे उफ़ान पर आ चुकी है . उसने मन-ही-मन तय कर लिया कि जिसे देखेने और सुनने के लिए सिर्फ़ क़स्बा ही नहीं, आसपास के दस-बारह किलोमीटर तक के लोग आ रहे हैं, वह भी इसके इस जलवे को आज ज़रूर देखेगा . मगर यह बाद की बात है . सबसे पहले तो यह सोचना है कि इस उफ़नती हुई बरसाती नदी पर कैसे क़ाबू पाया जाए . ख़ुदा-न-ख़ास्ता कोई अनहोनी हो गयी, तो लेने के देने पड़ जाएँगे . कहीं ऐसा न हो कि जटयात (जाट बाहुल्य) से सटे इस क़स्बे में हुई एक छोटी-सी शरारत हिन्दू-मुसलमान फ़साद का रूप ले ले . इसी की कल्पना में उसके माथे पर पसीना चू आया .


एक बार फिर उसकी नज़र उठी और इस बार हवलदार नेमपाल पर आकर टिक गयी . टिकती क्यों नहीं, पिछले कई दिनों से वह अपने इस हवलदार के मुहँ से न जाने कितनी बार इस आफ़त का नाम जो सुन चुका है . इधर हवलदार नेमपाल का भी उससे निगाह मिलते ही हलक़ में थूक अटक गया .
“यार नेमपाल, भीड़ तो मैंने पंडत लखमी चन्द के सांगों में भी देखी है, पर ऐसा बावलापन नहीं देखा . क्या सेठ ताराचन्द और क्या नल-दमयन्ती , क्या साही लकड़हारा और क्या हरिश्चन्द्र… . मैंने उसके एक-से-एक सांग देखे हैं और ऐसी भीड़ देखी है कि कन्धे छिल जाएँ, पर यहाँ तो गजब है भई !”
हवलदार नेमपाल चुप . पलट कर कोई जवाब नहीं दिया उसने .
“अच्छा यह बता, वह आ तो गयी है ?”
“कहाँ जनाब . आ गयी होती तो उसकी कार बाज़ार से लेकर बस अड्डा, और बस अड्डे से  लेकर पुरानी अनाज मंडी तक कई फेरे लगा चुकी होती .“ हवलदार नेमपाल ने एक नयी जानकारी सरकाते हुए बताया .
“कार फेरे लगा चुकी होती…मैं कुछ समझा नहीं ?”
“हाँ जनाब, टिकट विन्डो से लोग तब तलक टिकट नहीं लेते हैं, जब तलक उसकी कार दिखाई न दे जाए .”
“अब यह टिकट कहाँ से आ गयी ?” हवलदार नेमपाल के जनाब का जैसे सिर भन्ना गया .
“जनाब, यह कोई ऐसी-वैसी सांग-नौटंकी नहीं है जो किसी दशहरा-दीवाली पर खुले में होती है . बाक़ायदा टिकट लगेगा .”
“गजब मामला है…टिकट के बावजूद ऐसी मारा-मारी !” फिर कुछ क्षण रुक कर पूछने लगा,”मगर टिकट क्यों ? हमारे यहाँ तो पंडत लखमी चन्द के सांग ऐसे ही बेटिकट होते हैं खुले में .”
“जनाब, वो क्या है कि कस्बे में एक हाई स्कूल बनना है . उसी के कमरों के लिए पैसा इकठ्ठा हो रहा है .”
जनाब की पेशानी पर पड़ी सिलवटें और गहरी होती चली गयीं .

MOHSEN DERAKHSHAN

“जनाब, घबराओ मत ! ऐसा कुछ नहीं होगा . मैंने तो जनाब हाथरस में आज से सात-आठ साल पहले इसकी वह नौटंकी देखी है, जब यह सत्रह-अट्ठारह बरस की रही होगी . इस इलाक़े में ही नहीं पूरे ब्रज में भी इसका ऐसा ही जलवा है…और जनाब, बल्लभगढ़ के दशहरा मैदान में तो मैंने ऐसा नज़ारा देखा है जिसे मैं कभी भूल ही नहीं सकता . लोग पागल रहते हैं इसे सुनने के लिए . जनाब, जब सुर उठाती है तो लगता है जैसे रात के सन्नाटे में कोई कोयल कूक रही है . कभी-कभी तो लगता है यह सरस्वती का रूप है .”
“लोग तो बेमतलब पागल रहते हैं . वैसे कसूर इसमें इसका है भी नहीं, यह मरद की जात होती ही ऐसी है .”
“बात मरद-औरत की नहीं है जनाब . बात है कलाकार की . वैसे भी जनाब कलाकार का क्या तो मज़हब और क्या उसकी जात . अब इसे ही लीजिए, इस पर तो इस इलाक़े में एक गीत तक बना हुआ है, जिसे यहाँ निकाह के वक़्त लड़की वालों की ओर से औरतें उलहाने के तौर पर गाती हैं .”
“गीत बना हुआ है ?”
“जी जनाब . इसे मैं इस थाने में रह चुके सब इंस्पेक्टर असग़र अली के मुहँ से अक्सर सुना करता था . आप भी सुनिए उसकी ये पंक्तियाँ –
नकीलो आयो ब्याहन लू
कहा लायो है नसीरी को नाच
धूळ गोला खूब चला
मजा आतो होतो जो रागिनी को नाच .”

“नेमपाल लगता है तूसका कुछ ज़्यादा ही मुरीद है .”
“मुरीद नहीं, करजदार कहिए जनाब .”
“क्यों ऐसा क्या करज ले लिया इससे ?”
“जनाब, जिस कॉलेज से मैंने बीए की है न…उसके शुरुआती कमरे इसी की नौटंकी से इकट्ठे हुए पैसे से बने हैं . अब बताओ जनाब, यह इसक करज हुआ कि नहीं ?”
हवलदार नेमपाल की एक कलाकार के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा देख जनाब ने आगे कुछ नहीं कहा .
“जनाब, हमारे लायक कुछ हुकम !” अपने एक साथी को अपने जनाब से उलझता देख, दूसरे सिपाही ने बीच में दख़ल देते हुए पूछा .
“कुछ नहीं . बस लोगों पर नज़र रखो . कहीं कुछ गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए !” जनाब ने उस सिपाही के बहाने वहाँ मौजूद दूसरे सिपाहियों को हिदायत देते हुए कहा .
“जी जनाब !” सारे सिपाहियों ने समवेत स्वर में एकसाथ सेल्यूट मारा और कमरे से बाहर निकल गये .
छत की कड़ी में फँसे हुक से लटके और मंद गति से चल रहे पंखे पर जनाब की नज़र टिक गयी . मन-ही-मन वह दुआ करने लागा कि बस किसी तरह आने वाली कुछ रातें सही-सलामत बीत जाएँ . इसी बीच जैसे उसे कुछ याद आया . उसने हवलदार नेमपाल को फिर से वापस बुलाया .
“जय हिन्द जनाब !” वापस आ हवलदार नेमपाल ने कहा .
“मुझे थोड़ी-थोड़ी देर में हालात के बारे में बताते रहना…और जैसे ही वह आये मुझे तुरन्त बताना . उसकी उस कार के बारे में तो ज़रूर बताना जो फेरे लेगी !”
“जी जनाब…और कुछ हुकम जनाब ?”
“बस इतना ही करना .”
इतना कह कर जनाब यानी थानेदार एस.एस.मलिक ने कुर्सी के पीछे पीठ टेक गरदन ढीली छोड़ दी, और आँखें मूँद अपने पण्डित लखमी चन्द को गुनगुनाने लगा-

थारी सबकी बेअकली पागी
होणी सकल सभा पे छागी .

अपने जनाब यानी थानेदार एस.एस.मलिक के सारे हुक्म-हिदायतों को ताक पर रख, हवलदार नेमपाल सीधा दिगम्बर दाल मिल के मालिक और इस आयोजन के प्रमुख सेठ ताराचन्द की मिल में पहुँच गया . उसे पता है कि जैसा उसके जनाब ने हुक्म दिया है, उसकी सही जानकारी सेठ ताराचन्द से ही मिल सकती है .
“आओ दीवान जी, अब क्या ख़बर लाये हो ?” अपनी ओर तेज़ क़दमों से हवलदार नेमपाल को आया देख सेठ ताराचन्द ने पूछा .
“सेठ जी ख़बर क्या, हमारे तो थानेदार साहब की भीड़ देख-देख कर हालत ख़राब हुई जा रही है . मैंने बहुत समझा लिया मगर उन्हें भरोसा ही नहीं हो रहा है . उन्हें तो बस यही चिंता खाए जा रही है कि जिस तरह भीड़ बढ़ती जा रही है, उसके चलते कहीं कोई फ़साद नहीं ही जाए !”

MOHSEN DERAKHSHAN

सेठ ताराचन्द धीरे-से हँसे . फिर थोड़ा रुक कर अपने बग़ल में बैठे एक और ट्रस्टी मास्टर शौकत अली की तरफ़ मुस्कराकर देखते हुए बोले,”आपने बताया नहीं कि हम तो यहाँ हर साल महाशिव रात्रि के मौक़े पर खेल करवाते हैं . दंगा-फ़साद की बात दूर रही, मजाल है कोई यहाँ किसी से अलिफ़ से बे तो क्या कह जाए .”
“लाला जी, क़सूर इस बेचारे थानेदार का भी नहीं है . इस इलाक़े का नाम सुन अच्छे-अच्छे  दानिश्वर तक ऐसा ही सोचते हैं .” मास्टर शौकत अली ने हँसते हुए कहा .
“मैं अपने जनाब को सब समझा चुका हूँ . खैर छोड़िये, आप तो यह बताइये कि वे आ कब रही हैं ?” हवलदार नेमपाल असल मुद्दे पर आते हुए बोला .
“बस किसी भी समय पहुँच सकती हैं . सीधे यहीं मिल में आएँगी . थोड़ा-सा नाश्ता-पानी कर घंटा-सवा घंटा आराम करेंगी . जब तक वे आराम करेंगी, तब तक उनकी कार के क़स्बे में एकाध फेरे लग जाएँगे .”
“आपसे एक विनती है सेठ जी कि सबसे पहले फेरा थाने की तरफ़ का लगवा देना .”
इससे पहले कि सेठ ताराचन्द हवलदार नेमपाल की बात का कोई जवाब देते, एकाएक मिल के गेट पर हुई हलचल से उनका ध्यान भंग हुआ .

“दीवान जी, लगता है वे आ गयी हैं . आइये मास्टर जी !” इतना कह सेठ ताराचन्द अपने दूसरे ट्रस्टी मास्टर शौकत अली को लेकर तेज़ी-से मिल के गेट की तरफ़ बढ़ गये . पीछे-पीछे हवलदार नेमपाल भी हो लिया .
गेट के बाहर भारी भीड़ से घिरी सफ़ेद फ़िएट को देख हवलदार नेमपाल को समझते हुए देर नहीं लगी, कि जिस घड़ी का पूरी अनाज मंडी और पूरे क़स्बे को इंतज़ार है आख़िर वह घड़ी आ गयी है . सेठ ताराचन्द लोगों की धक्कामुक्की करती अभेद्य प्राचीर को चीरते हुए बमुश्किल कार तक पहुँच पाए . उन्होंने लपक कर शीशे चढ़े चारों दरवाज़ों में से कार का पिछला दरवाज़ा खोला . दरवाज़ा खुलते ही नरमुंडों का एक बेताब झुण्ड, उसमें बैठे चेहरे की झलक पाने के लिए उसमें झाँकने लगा . सेठ ताराचन्द भाँप गये कि यहाँ बात नहीं बनेगी . यहाँ उतारना मुश्किल है . फ़िएट के चारों तरफ़ छायी बेताबी को भाँप उन्होंने तुरंत दरवाज़ा बन्द कर दिया . अब क्या करें वे ? एक पल सोचने के बाद उन्होंने इधर-उधर देखा और जैसे ही उनकी नज़र हवलदार पर पड़ी, वे चिल्लाते हुए बोले,”दीवान जी, भीड़ को गाड़ी से दूर हटाइये !”

हवलदार नेमपाल डंडा फटकारते हुए भीड़ को कार से दूर करने लगा . जैसे ही भीड़ कार से अलग हटी, सेठ ताराचन्द ने झटके से ड्राइवर वाला दरवाज़ा खोला और ड्राइवर को दूसरी तरफ़ सरकने का आदेश दे, ख़ुद ने  यह कहते हुए स्टेयरिंग सँभाल लिया,”मास्टर जी, आप दफ़्तर में चलिए…इन्हें मैं लाता हूँ !”

भीड़ के बीच से रास्ता बना सेठ ताराचन्द ने कार दूसरी दिशा में मोड़ दी . जब तक भीड़ कुछ समझ पाती, कार धूल उड़ाती हुई लोहे की नालीदार चादरों से बने एक विशाल फाटक को पार कर, भीतर अहाते में दाख़िल हो गयी . सेठ ताराचन्द ने फ़िएट अन्दर दाल मिल में लगा दी . पीछे-पीछे हवलदार नेमपाल भी दौड़ता हुआ कार तक जा पहुँचा . जैसे ही हवलदार मिल में दाख़िल हुआ, गेट पर तैनात कारिंदे ने बड़ी चपलता के साथ गेट बन्द कर दिया .

JORGE MUNGUIA

ड्राइवर सीट से उतर सेठ ताराचन्द ने पिछला दरवाज़ा खोल दिया . दरवाज़ा खुलने के साथ ही मारे रोमांच के हवलदार नेमपाल की धड़कनें तेज़ हो गयीं . वह सकुचाते हुए कार के अधखुले दरवाज़े  के पास आया और हाथ बाँध, दम साध कर कार से उतरती अपनी उस नायिका का इंतज़ार करने लगा, जिसे वह अभी तक अलग-अलग किरदारों  हाड़ी रानी, जमालो, मछला, शहज़ादी नौटंकी, तारामती, पद्मावती और न जाने कितने रूपों में देखता आया है, आज साक्षात देखेगा . इधर जैसे ही उसकी नायिका कार से बाहर आयी, वह लगभग दोहरा होते हुए, दोनों हाथों को जोड़ अभिवादन करते हुए दबी ज़बान में बोला,”दीदी नमस्ते !”
“राधे-राधे भईया !”
अपनी नायिका के मुहँ से इतने आत्मीयता भरे जवाब को सुन हवलदार नेमपाल भीतर तक भीगता चला गया . इस बीच उसके स्वागत के लिए श्री दिगम्बर जैन एजूकेशन ट्रस्ट के दूसरे न्यासी और पदाधिकारी भी आ गये .
“गिरधर, जब तक रागिनी जी नाश्ता-पानी कर कुछ देर आराम करती हैं, तब तक पूरे क़स्बे में इनकी कार के फेरे लगवा आओ…और हाँ, ऐसा करो दीवान जी को भी साथ लेते जाओ . पहले ये जहाँ ले जाएँ, उसी तरफ़ चले जाना !”
“जी बाऊ जी .” इतना कह गिरधर नाम का व्यक्ति हवलदार नेमपाल को लेकर फ़िएट में बैठ गया .
”ड्राइवर साब, कार को सामने वाले चौराहे से दाएँ ओर ले लेना . मुझे थाने से पहले छोड़कर आप लोग आगे निकल जाना…और हाँ, जब तक मैं थाने से बाहर न जाऊँ, तब तक आप कार को धीरे-धीरे चलाना !” हवलदार नेमपाल ने दाल मिल से कार के बाहर आते ही ड्राइवर को निर्देश देते हुए कहा .


कुछ ही देर बाद हवलदार नेमपाल थाने से सौ क़दम पहले उतर कर, तेज़ क़दमों के साथ थाने में घुस गया . कार जब थाने के सामने पहुँची तो ड्राइवर और गिरधर नाम के व्यक्ति ने देखा हवलदार अपने थानेदार के साथ बाहर खड़ा है .

धीरे-धीरे आगे बढ़ती फ़िएट और उसके पीछे-पीछे क़दमताल करती भीड़ के पैरों से उठते धूल के गुबार को देख, थानेदार एस.एस.मलिक को अब कहीं जाकर अपनी आँखों पर यक़ीन हुआ . उसके सामने से गुज़रती कार और उसके पीछे-पीछे दौड़ती भीड़ को वह तब तक अपलक निहारता रहा, जब तक वह अपने पीछे छोड़ गये गर्द-ओ-गुबार के छोटे-से बादल में ग़ायब नहीं हो गयी .

“रागिनी क्या लोगी ?” सेठ ताराचन्द ने औपचारिकता निभाते हए पूछा .
“आप तो जानते ही हैं कि शो से पहले मैं कुछ नहीं लेती हूँ .” रागिनी ने मुस्कराते हुए कहा .
“फिर ऐसा करिए हाथ-मुहँ धोकर आप थोड़ा आराम कर लीजिए !” इतना कह सेठ ताराचन्द बग़ल में हाथ बाँधे खड़े व्यक्ति से बोले,”मुनीम जी, इन्हें ऊपर ले जाइये !”
अपने मालिक का आदेश सुन मुनीम रागिनी को ऊपर ले गया .

MOHSEN DERAKHSHAN



साँझ होते-होते ठण्ड ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया . बुकिंग विन्डो पर मची मारा-मारी और अफ़रा-तफ़री देख, थानेदार एस.एस.मलिक ने पलट कर कुछ दूर खड़े हवलदार नेमपाल की तरफ़ देखा . कहा कुछ नहीं . बल्कि लगभग दस क़दम दूर बने गेट में एक छोटी-सी खिड़की  जिसमें से होकर सिर्फ़ एक ही आदमी अन्दर जा सकता है, उसकी ओर चला गया . इस खिड़की में से होकर वह भी अन्दर चला आया . पीछे-पीछे उसका हवलदार भी हो लिया . दरअसल, गेट के एक तरफ़ बनी इन खिड़कियों का उपयोग सिर्फ़ टिकटधारियों के प्रवेश के लिए होता है,और जैसे ही शो ख़त्म होता है पूरा गेट खोल दिया जाता है .

नालीदार टीन की चादरों से घिरे और बल्बों की रोशनी में नहाये  पुरानी अनाज मंडी के अहाते में दूर तक बैठे दर्शकों पर एक सरसरी नज़र मारी थानेदार मलिक ने . उसकी जहाँ तक और जिधर भी नज़र गयी चिल्ल-पों करतीं मुंडियाँ है मुंडियाँ दिखाई दीं . उसने कलाई पर बँधी घड़ी पर निगाह मारी और फिर अपने बग़ल में खड़े हवलदार से पूछा,”नेमपाल, खेल शुरू होने का टाइम क्या है ?”
“जनाब, साढ़े आठ से पहले तो क्या शुरू होगा . वैसे कई बार बुकिंग ख़त्म होने पर भी शुरू कर देते हैं .“
“इसका मतलब है अभी आधा घंटा और बचा है ?” थानेदार ने थोड़ा चिंतित होते हुए कहा .
“जी जनाब .”
“…और आज खेल कौन-सा है ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने आपको थोड़ा-सा चिंतामुक्त करने की कोशिश करते हुए पूछा .
“जनाब, हरिश्चन्द्र उर्फ़ गुलशन का नाग .”
“यह कौन-सा खेल हुआ ?”
“जनाब वही, हरिश्चन्द्र-तारामती .”
“अच्छा-अच्छा हरिश्चन्द्र-तारामती का सांग है…फिर तो यह ज़रूर देखना पड़ेगा .”
“ज़रूर देखना . जनाब, तारामती का रागिनी ऐसा कमाल का पार्ट अदा करती है कि देखने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते हैं .”

इससे पहले कि थानेदार एस.एस.मलिक प्रत्युत्तर में कुछ कहता, जगह-जगह टंगे लाउड स्पीकरों से एकाएक हारमोनियम और झील-नक्काड़े की संगत सुनाई देने लगी . एक तरह से यह दर्शकों के लिए शो शुरू होने का पूर्व संकेत है . जब-जब झील-नक्काड़े के साथ ढोलक की थाप और हारमोनियम की धुन आगे बढ़ती हुई रात के सन्नाटे में घुलती, तो लगता मानो कहीं दूर एकसाथ कई झरने किसी गहरे पानी में गिर रहे हैं . पुरानी अनाज मंडी शो शुरू होते-होते एक विशाल जन समुद्र में तब्दील होता चला गया . हिलौरें मारता ऐसा समंदर तो उसने कभी अपने पण्डित लखमी चन्द के सांगों में भी नहीं देखा . उसकी निगाह आसपास की छतों, उनकी मुंडेरों और छज्जों पर बैठी ख़लक़त पर पड़ी, तो देखते ही उसका दिल किसी दुर्घटना की आशंका से बैठने लगा .
“यार नेमपाल, आख़िर यह है क्या बला ?” छतों पर बैठे मुफ़्त के दर्शकों की भीड़ को देख कर थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने हवलदार से पूछा .
मगर हवलदार ने अपने जनाब को कोई जवाब नहीं दिया . इसी दौरान एकाएक ख़ामोश हो गये साज़ों के बीच हुई इस उद्घोषणा से चिल्ल-पों थम गयी .
“तो साहिबान, कुछ ही देर में आपके पेशे-नज़र है नौटंकी हरिश्चन्द्र-तारामती !”
उद्घोषणा ख़त्म होते ही मंच से धीरे-धीरे परदा उठा गया . इधर परदा उठा और उधर रात की कोरी फ़िज़ा में झील-नक्काड़े व हारमोनियम के सुरों के साथ वंदना के स्वर गूँजने लगे .

कार्तिक की गहराती रात की कुनमुनाती ठण्ड में नालीदार टीन की चादरों से घिरी नम आँखें, पुत्र वियोग में ज़ार-ज़ार रोती तारामती के भीगे संवादों पर टिकी हुई हैं . देखते-ही-देखते पूरा अहाता मानो पत्थर हो गया . जो अहाता कुछ देर पहले थानेदार एस.एस.मलिक को हिलौरें लेता नज़र आ रहा था, वह ऐसे शांत हो गया जैसे अमावस्या की रात को हो जाता है . मजाल है अनाज मंडी में बैठे जिस्मों में किसी तरह की कोई जुम्बिश तो हो जाए . साँसें मानो थम-सी गयीं . मंच के सामने काठ हो गयी आँखों से ढुलकते आँसुओं की बूँदों पर, मोटे-मोटे बल्बों की रोशनी पड़ने से फूटती किरनों को देख, पहली बार थानेदार एस.एस.मलिक को अपनी आशंका पहली ग़लत नज़र आने लगी .

दृश्य ख़त्म होने के बाद गिरे हुये परदे के पार्श्व में हारमोनियम पर जंजीर  फ़िल्म का बना के क्यों बिगाड़ा रे, बिगाड़ा रे नसीबा / ऊपरवाले…ऊपरवाले  गीत का मद्धिम स्वर झील-नक्काड़े की तान पर गूँजने लगा . इस मद्धिम स्वर के बीच जैसे ही एक बार फिर परदा उठा . हारमोनियम का इस बार सुर बदल गया . सामने श्मशान में अपने पुत्र रोहिताश्व के पार्थिव शरीर को, अपनी साड़ी को फाड़ कर उससे ढकते हुए तारामती विलाप करने लगी .

साज़ों के सुर-ताल के साथ राजा हरिश्चन्द्र और तारामती के भाव-विह्वल संवादों को सुन सचमुच थानेदार एस.एस.मलिक का रोआँ-रोआँ सिहरता चला गया . और अधिक नहीं बैठा गया उससे . वह धीरे-से उठा और बाहर आ गया . मगर बाहर भी उसके कानों में तारामती का वियोग और कातर विलाप गूँजता रहा . जब भी तारामती का विलाप उसके कानों में गूँजता, तभी उसे लगता मानो कोई ज़ख्मी कोयल स्याह अँधेरे में टिमटिमाते तारों को अपना दुःख सुना रही है . थोड़ी देर बाद वह फिर से अन्दर आ गया . उसने एक बार फिर दूर तलक फ़ैली शान्त लहरों पर नज़र दौड़ाई, तो पाया  दम साधे ग़मगीन लहरों के चेहरे आँसुओं से पूरी तरह भीगे हुए हैं .
कैसे बहाऊँ तोहे मैं हिलकी भरे है दम-ब-दम
बैरी दग़ा दे चल दिया लाया न कुछ माँ का रहम
लाखों सहे दुःख-सुख मैंने तेरे पिछारी लाड़ले
सो आज  मुझको त्याग कर तू चल दिया मुल्के अदम .

हिलकियों के साथ पछाड़ खाकर तारामती जैसे ही बेटे रोहिताश्व की मृत देह लिपटी, पुरानी अनाज मंडी का पूरा अहाता मारे सुबकियों के काँपने लगा . पलभर के लिए ख़ुद थानेदार एस.एस.मलिक को लगा जैसे उसकी शिराओं में दौड़ता ख़ून जम गया है . इसके बाद उसे भी पता नहीं चला कि दुबोला, चौबोला, छन्द, बहरतबील जैसे छंदों में पिरोए गये हरिश्चन्द्र-तारामती के बीच क्या-क्या संवाद हुए . उसे ख़ुद ही पता नहीं चला कि कब उसकी अपनी आँखों के कोरों से बग़ावत कर आँसू बह निकले . उसे लगा जैसे दर्शकों की इस शान्त लहरों के बीच बैठा, वह पण्डित नथाराम शर्मा गौड़ का लिखा नहीं, अपने पण्डित लखमी चन्द का सांग देख रहा है –

बेटा आला किला टूट ग्या, टूटी पड़ी किवाड़ी रहगी .
चीर नै लैके राजा चल दिया, राणी नगन उघाड़ी रहगी ..
राणी धोरे ते टळती बरियाँ, ढह पड़या होता सिंभळती बरियाँ .
लकड़ियाँ बेसक जळती बरियाँ, पेड़ में गडी कुल्हाड़ी रहगी ..

थानेदार एस.एस.मलिक को होश आया भी तो तब,जब कानों में बोल अटल छात्र की जय  का उद्घोष गूँजा . इससे पहले कि वह सँभल पाता अहाते का गेट खोल दिया गया . वह तेज़ी से बाहर की तरफ़ लपका . बाहर आकर वह थाने से आये अपने सिपाहियों को हिदायतें देने लगा . कुछ देर में लबालब भरा बाँध तेज़ी-से रीता होता चला गया . मंच के सामने ख़ाली अहाते में जलते हुए बल्बों की ऊँघती रोशनी में कानों में गूँजता तारामती का विलाप, आँसुओं से भीगी सूनी कुर्सियाँ, सिलवट पड़ी जाजमें और कुछ बिछौने रह गये .

रातभर थानेदार एस.एस.मलिक के अवचेतन में तारामती का आर्तनाद रह-रह कर जैसे दस्तक देता रहा . सवेरे उसने हवलदार नेमपाल को अपनी ओर आता देखा, तो उसे देख वह मुस्करा  दिया . हवलदार नेमपाल उसके पास आया और अभिवादन करते हुए बोला,”जय हिन्द जनाब !”
“रात को सब ठीकठाक तो निपट गया नेमपाल ?”
“वो तो आप बताओगे जनाब .”
“तेरा कहना एकदम सही था . मजाल है पूरे शो में कोई टस-से-मस तो हुआ हो . मान गये यार, क़ुदरत ने क्या गला दिया है .”
अपने जनाब यानी थानेदार एस.एस.मलिक की आँखों की चमक देख, हवलदार नेमपाल के फेफड़ों में मानो ताज़ा हवा भर गयी .
“जनाब, अभी तो आपने पहला ही खेल देखा है . जब और देखोगे तब बताना .”
“अच्छा सेठ जी के पास जाओ तो उनसे मेरी सिफ़ारिश करना कि मुझे वे रागिनी से मिलवा दें !”
“सेठ जी मिलवायें तो तब जनाब, जब वह यहाँ हो !”
“क्या मतलब, आज कोई खेल नहीं है ?”
“क्यों नहीं है…और फिर खेल तो शाम को है ना .”
“मैं कुछ समझा नहीं ?”
“जनाब, वह तो शो ख़त्म करते ही रात को निकल गयी .”
“कहाँ निकल गयी ?”
“जनाब, सवा-डेढ़ सौ मील के अन्दर उसका कहीं शो होता है, तो शो ख़त्म करते ही वह अपने घर निकल जाती है . अगले दिन शो से पहले आ जाती है .”
“ये बात है ! अब समझ में आया अपनी कार से आने का भेद . यार, इस रागिनी का तो बड़ा जलवा है . इतनी ठसक तो किसी फ़िल्मी हीरो-हीरोइन की भी नहीं होगी जितनी इसकी है…और तेरा वो पण्डित जी क्या नाम है उसकाSSS…” थानेदार एस.एस.मलिक कुछ सोचने लगा .
“लखमी चन्द जनाब .”
“लखमी चन्द तो हमारे हरियाणे का है . अरे यार वोSSS जिसने यह नौटंकी लिखी है…क्या नाम है उसकाSSS…”
“अच्छा-अच्छा आप तो पण्डित नाथराम शर्मा गौड़ की बात रहे हो जनाब .”
“हाँ-हाँ वही गौड़ साहब . उसने भी इसे लिखने में जैसे अपनी कलम ही तोड़ दी .”
“जनाब, कहना नहीं चाहता क्योंकि छोटा मुहँ बड़ी बात वाली बात ही जाएगी . रागिनी तो रागिनी, पण्डित नथाराम की नौटंकियों का एक ज़माने में आलम यह था कि इनके सांगीत जिन्हें अब नौटंकी कहते हैं, इनकी किताबों को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीखते थे . एक से बढ़ कर एक ऐसी नौटंकियाँ लिखी हैं कि अगर नाम गिनाने लगूँ , तो तीन सौ दो की एक लम्बी-चौड़ी तहरीर बन जाए .”
“ऐसे कितने सांग, मेरा मतलब है कितनी नौटंकियाँ लिखी होंगी तेरे नथाराम ने ?”
“जनाब यह पूछो कि क्या नहीं लिक्खा है . क्या तो शृंगार रस, क्या वीर रस . क्या भक्ति रस, क्या आल्हा-ऊदल…कुछ भी तो नहीं छोड़ा जनाब इसने .” इसी बीच अपने जनाब को किसी सोच में डूबा देख हैरत से पूछा नेमपाल ने,”किस सोच में डूब गये जनाब ?”
“नेमपाल, मैं यह सोच रहा हूँ कि हम तो अपने पण्डित लखमी चन्द को ही हरियाणे का शेक्सपीयर समझा करते थे,पर इस देश में तो पता नहीं कितने शेक्सपीयर छिपे हुए हैं .”
“आपने सही कहा है जनाब . आपको सुनकर हैरानी होगी कि पण्डित नथाराम ने महाभारत के ग्यारह पर्वों को छत्तीस भागों में, और रामायण काण्ड के आठ काण्डों को पच्चीस भागों में लिखा है . इतना ही नहीं जनाब, आपने रैदास का नाम तो ज़रूर सुना होगा…वही रैदास जनाब, जिसने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा . इसी रैदास ने, जिसने चमार के घर में अपने गुरू के शाप से जन्म पाकर, अपने पुनर्जन्म में अपने भक्ति भाव से अपने जीवन को कृतकृत्य किया, और गुरू से भी ज़्यादा दुनिया में नाम रोशन किया, उसी रैदास के जीवन पर आधारित रविदास रामायण तक लिखी है . यह रामायण हाथरस से ही छपी है . और तो और इन्होंने डॉ. राजेन्द्र बाबू, सुभाष चन्द्र बोस, गोबिंद वल्लभ पन्त और मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद जैसे राष्ट्रीय नेताओं के जीवन-चरित्र पर भी आधारित सांगीत लिखे हैं .”
जिस समय हवलदार नेमपाल हुमकते हुए रैदास के बारे में बता रहा था, थानेदार एस.एस.मलिक के चेहरे पर जातिगत घृणा के भाव साफ़ देखे जा सकते थे . एक बार तो इसे  अपने इस मातहत पर शक-सा हुआ कि कहीं यह भी तो उसी जाति का नहीं है जिसका रैदास था . क्योंकि इतनी गहरी और बारीक जानकारी सिवाय उसी जाति के भला दूसरा क्यों रखेगा ?
“नेमपाल, मैंने कहीं सुना था कि पण्डित नथाराम ने एक बार कानपुर में जाकर कहा था कि जैसा सांग वे करते हैं, वैसा कोई नहीं कर सकता . इस पर वहाँ के एक नक्काड़ची ने इस चैलेन्ज को क़बूला और एक नक्काड़े के चारों तरफ़ बारह नगाड़ियाँ रख, उन पर चोब की ऐसी टंक मारी कि तब से सांग या स्वाँग को नौटंकी कहा जाने लगा .”
“ये सब सुनी-सुनाई बातें हैं जनाब, वैसी ही जैसी त्रिमोहनलाल के बारे में कही जाती हैं कि जब वे नक्काड़ा बजते थे, तो उसकी धमक से औरतों का हमल गिर जाता था . हाँ, ऐसा कहा  जाता है कि पण्डित नथाराम स्वाँग के बड़े गुणी कलाकर थे . सुर-ताल का ज्ञान इन्हें भले ही कम था, पर वीर रस तो ऐसा लगता था जैसे घोल कर पी गये हों . इनके लिखे सांगीतों की किताबों की इतनी ज़बरदस्त डिमांड थी कि हाथरस में इन्होंने अपनी श्याम प्रेस तक लगा ली थी .”
“नेमपाल, तुझे तो बड़ी जानकारी है नौटंकी की ?”
“जनाब, जानकारी क्या बस थोड़ा-सा शौक और दिलचस्पी है . वैसे इस इलाक़े में एक कहावत है कि गाते-गाते सब मीरासी हो जावे हैं…बस, ऐसा ही समझ लो !”
“चलो अच्छी बात है कि मीरासी ही तो हो रहे हो, कोई चोर-डकैत तो नहीं बन रहे हो . अच्छा ऐसा कर, सिपाही परमानन्द से कह कर जीप लगवा दे . पास के एक गाँव में तहकीकात के लिए निकलना है .“
“अभी लो जनाब !” इतना कह हवलदार नेमपाल गाड़ी लगवाने के लिए चला गया .
कुछ ही देर में जीप लग गयी .

थानेदार एस.एस.मलिक की जीप तहकीकात के लिए बस अड्डे के सामने से गुज़र ही रही थी, कि अचानक अपने कानों से टकराए एक जाने-पहचाने से सुर ने, उसे जीप की रफ़्तार कम करवाने पर मजबूर कर दिया . वही झील-नक्काड़े की खनक . वही हारमोनियम का सुर और वही तारामती का चिर-परिचित कातर विलाप . थानेदार एस.एस.मलिक ने जीप उसी दिशा में मुड़वा दी .

जीप रेडियो-टेप रिकॉर्डर की मरम्मत करने वाली एक दूकान के पास जाकर रुक गयी . थानेदार ने जीप में बैठे-बैठे देख लिया कि दूकान के बाहर बज रहे लाउड स्पीकर के पास अच्छी-ख़ासी भीड़ बड़ी तल्लीनता और मनोयोग के साथ हरिश्चन्द्र-तारामती के संवादों को सुनने में डूबी हुई है . वह जीप से उतरा और लगभग दबे पाँव भीड़ की तरफ़ बढ़ गया .  भीड़ ने जैसे ही अपने पास आयी ख़ाकी वर्दी को देखा, वह तितर-बितर होने लगी . अपने पहुँचने से हुए इस व्यवधान को देख थानेदार एस.एस.मलिक को अच्छा नहीं लगा . इसलिए उसने मुस्कराते हुए कहा,”भागो मत ! आराम से सुन लो !” यह कह कर वह दूकान में घुस गया .
अपनी दूकान पर एकाएक थानेदार को आया देख, दूकानदार घबराते हुए अकबका कर खड़ा हो गया . हड़बड़ाहट में वह टेप बन्द करना भी भूल गया .
“ज…जनाब…क्क्या हुआ ? इस गरीब से कोई खता हो गयी ?” दूकानदार के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं .
“यह तो वही खेल है न, जो रात को हुआ था ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने अनुमान की पुष्टि करते हुए पूछा .
“जी…जी जनाब वही है .”
“तुमने इसे स्टेज से रिकॉर्ड भी कर लिया ?”
“जनाब इस्टेज से नहीं…इसे तो मैंने बाहर बल्ली पे टंगे लोड स्पीकर के नीचे से रिकोड किया है .”
“बल्ली पर टंगे लाउड  स्पीकर के नीचे से रिकॉर्ड  किया है…मैं कुछ समझा नहीं ?”
“जी जनाब, वो क्या है कि लोड स्पीकर के नीचे टेप रिकोड रख देते हैं और रिकोड कर लेते हैं . क्या करें जनाब, इससे दो पैसा कमा लेते हैं . जनाब, रागिनी की जहाँ भी कोई नौटंकी होती है, तो हम ऐसे ही किसी लोड स्पीकर के पास अपना टेप रिकोड रखके रिकोड कर लेते हैं और फिर उसकी कापी कर-करके बेच लेते हैं .”
“एक तमाशे की ऐसी कितनी कैसेट बेच लेते हो ?” थानेदार एस.एस.मलिक को दूकानदार की बातों में अब मज़ा आने लगा .
“क्या बताऊँ जनाब…बस, खरचा–पानी-सा निकल जाता है .”
“मैं खर्चे-पानी की बात नहीं, बिकने की बात कर रहा हूँ ?“
थानेदार के तेवर देख दूकानदार खीसे निपोरते हुए बोला,”यही कोई ढाई सौ-तीन सौ .”
“एक नौटंकी की ?”
“जी जनाब, कभी–कभी तो पाँच सौ तक भी बिक जाती हैं . आजकल तो लोग इनके वैसे भी दीवाने हैं . दुकान के बाहर के बाहर आप जो भीड़ देख रहे हो न, इनमें से पन्द्रह-बीस तो इस कैसेट के ओडर भी दे चुके हैं जनाब .”
“फिर तो तेरी दुकान पर और भी कैसेट होंगी ?”
“हाँ हैं न जनाब . अभी दिखलाता हूँ !” इतना कह दूकानदार ने अपने सामने थानेदार की पीठ के पीछे पतली सेल्फ़ में करीने से रखी कैसेट्स में से, कुछ पुरानी कैसेट्स निकाली और थानेदार के  सामने रख दीं .
थानेदार ने उनमें से एक कैसेट उठायी और उसे ध्यान से पढ़ने लगा –
नौटंकी इन्दलहरण (भाग-3)
(रागिनी एंड पार्टी)
कलाकार : श्रीमती रागिनी कुमारी,
नेमसिंह सिसोदिया, ताराचन्द ‘प्रेमी’, लता .
हास्य कलाकर –चौधरी धर्मपाल सिंह .
इस कैसेट के सबसे नीचे लिखा हुआ है-सैनी कैसिट कम्पनी, बस स्टैंड के सामने, कोसी कलाँ, मथुरा . इसके बाद उसने दूसरी अमरसिंह राठौर  की कैसेट देखी, तो उस पर-सपना कैसिट, हनुमान मंदिर के पास, कोसी कलाँ, मथुरा, उत्तर प्रदेश  छपा हुआ देखा .
“मगर इन पर तो कोसी कलाँ का पता छपा हुआ है ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने जिज्ञासावश पूछा .
”वो क्या है जनाब कि इनकी आड़ में हम कुछ अपनी कैसट भी निकाल लेते है .” दूकानदार ने दोलड़ होते हुए बताया .
“वैसे इनकी ये तीन-तीन कैसेट कैसे हैं ?” थानेदार ने नीचे रखी दो कैसेट उठाई और उन्हें उलट-पुलट कर देखते हुए पूछा
“जनाब पूरी नौटंकी एक कैसट में तो आनी मुश्किल होती है . इसलिए इसके तीन पार्ट बना दिए हैं .”
“वैसे आज जो अमरसिंह राठौर होगा उसे भी रिकॉर्ड करोगे ?”
“अमरसिंह राठौर ! जनाब, इसकी तो लोग बाट देख रहे हैं . बल्कि इसकी तो मेरे पास अभी से बुकिंग होनी शुरू हो चुकी है .”
“पर उसकी ये कैसेट हैं तो सही ?” नीचे रखी सपना कैसेट की एक कैसेट की ओर देखते हुए पूछा थानेदार ने .
“कभी-कभी गाहक नये शो के कैसट की माँग करते हैं . इसलिए रिकोड करनी पड़ती है .”
थानेदार एस.एस.मलिक को जब लगा कि अब चलना चाहिए और वह जाने लगा, तब  दूकानदार ने बड़े अदब के साथ आग्रह किया,”जनाब, ये कैसट मेरी तरफ से भेंट समझ कर रख लो . कला के ऐसे पारखी के चरण इस दुकान पर कभी-कभी ही पड़ते हैं . आपके थाने में एक दरोगा जी हैं न नेमपाल, वो तो हमारी दुकान से कई दफे कैसट ले जा चुके हैं.”



थानेदार एस.एस.मलिक दूकानदार के इस आग्रह को टाल नहीं पाया . भेंट में मिलीं कैसेट्स को ले वे जीप में आकर बैठ गये . जीप एक बार फिर अपनी मंज़िल की ओर तेज़ी-से दौड़ने लगी . जीप जैसे-जैसे बस अड्डे को पीछे छोड़ आगे बढ़ने लगी, वैसे-वैसे वातावरण में गूँजते झील-नक्काड़े व हारमोनियम के सुर-ताल में बिंधे संवाद मंद पड़ते गये.

पूरे रास्ते थानेदार एस.एस.मलिक कार्तिक की कच्ची ठण्ड में, टीन की खड़ी चादरों से घिरे रंगमंच के सामने दम साधे नरमुंडों की शान्त और डबडबाई आँखों के संग तारामती के विलाप में डूबा रहा . जीप पूरी गति से दोनों तरफ़ तन कर खड़ी सरकंडों की दीवार के बीच बने संकरे, और  उबड़-खाबड़ रेतीले रास्ते को रौंदती हुई अपनी तहकीकात के लिए दौड़ी जा रही है.
क्रमश:

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