बलात्कार को सिर्फ परिचर्चा का विषय नहीं बनायें

कुमारी ज्योति गुप्ता 

बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के खिलाफअपराध नहीं बल्कि यह पूरी मानव सभ्यता और इंसानियत के खिलाफ अपराध है। कुछ दिनों पहले शिमला की गुड़िया के साथ जो हुआ  वह कुछ नया नहीं है।अब तो ऐसा लगता है हमारे कानों को इस तरह की खबर  सुनने की आदत सी हो गई है। मैंने सोशल मीडिया पर देखा भी और सुना भी। एक संगीनअपराध को महज बहस बनाया जा रहा है। गनीमत है कि बहस का मुद्दा बलात्कार रखा जाता है। भले ही वह अपने उद्देश्य  से भटका हो।बहस का मुद्दा बलात्कार तो है लेकिन इसमें न्याय दिलाने की बात या स्त्रियों के खिलाफ इस अमानवीयता की शिकायत कम,अपने पक्ष को कितने कलात्मक ढ़ंग से हम पेश कर रहे हैं यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है।

जब इस तरह की कोई बहस होती है सोशल मीडिया पर तो बोलने के लिए जितने भीमहानुभाव आते हैं उनका सिर्फ यही ध्यान होता है कि हम बेहतर बोलें, टी.वी पर सुन्दर दिखे और किसी बात पर श्रोताओं ने ताली बजा दी तब तो कहना ही क्या। समझो आना सार्थक हो गया भले ही सार्थक बोले या न बोले। मुद्दे की गंभीरता पर चर्चा हो या न हो । भई हमने तो बात रख दी । बहस के दौरान अगर कोई महत्त्वपूर्ण बात निकलती है तो उसे तुरंत  रोककर ‘ब्रेक’ ले लिया जाता है।ब्रेक के बाद लौटते ही महत्त्व पूर्ण बात दब जातीहैऔर बहस सिर्फ बहस रह जाती है।पूरा मीडिया व्यापार बन कर रह गया है।कहीं किसी का बलात्कार हो जाता है तो यह गंभीर मुद्दा कम होता है। खुले शब्दों में कहें तो मीडिया को अपनी कमाई के लिए मसाला मिल जाताहै। दो-चार दिन बाद चर्चा बिल्कुल बंद हो जाती है।जनता का आक्रोश भीधीरे-धीरे दब जाता है।आक्रोश  खत्म हो जाता है यह तो नहीं कहूंगी क्योंकि यही दबा हुआ आक्रोश इसी तरह की किसी और घटना पर उभर आता है। जनताअपनाआक्रोश ही व्यक्त कर सकती है क्योंकि सारे नियम कनून किसीऔर के हाथमें है।जनता में कानून का डर है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अपराधी को कानून का कोई डर नहीं क्योंकि उसका गॉडफादर उसेबचाने के लिए मौजूद है।इसलिए वह डर की सारी सीमा पार कर चुका है।

हमारे देश में जो इस तरह की घटनाए हो रही हैं इसके लिए दोषी कौनहै? क्या कानून व्यवस्था दोषी है? अगर हां तो फिर क्या नया कानून बनाने की जरूरत है।प्रश्न महत्त्वपूर्ण है क्योंकि  कानून का डर आम सीधी-साधी जनता में हैअपराधियों में नहीं है।इस तरह तो डरे हुए कोऔर डराया जा रहा है।सुरेन्द्र वर्मा नेआ मजनता की स्थिति परअपने एक वक्तव्य में कहा था-
‘‘ कोई फर्क नहीं पड़ता राजा राम है कि रावण,
जनता तो सीता है
राजा राम हुआ तो वनवास दी जाएगी
राजा रावण हुआ तो हरण की जाएगी।’’

अखबारों में रोज़ किसी न किसी जगह एक -दो बलात्कार की खबर पढ़ने को मिल जाती है। यह कोई खबर मात्र नहीं जिसे इतने हल्के में डेली रूटीन की तरह छाप दिया जाता है।यह स्त्री की संपूर्ण मनोभावना को ध्वस्त कर देने वाला संगीनअपराध है जो पीड़िता से उसके जीने काअधिकार छीन लेता है। यह वह अमानवीय अपराध है जो हैवानियत की सारी हद पार कर देता है।हमारे समाज की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि यहां हर हाल में स्त्री को ही दोषी माना जाता है।इसलिए अरविंद जैन नेअपनी पुस्तक‘औरत होने की सज़ा’में लिखा है ‘‘समाज, सत्ता, संसद और न्यायपालिका पर पुरुषों काअधिकार रहने की वजह से सारे  कानून और उनकी व्याख्याएं इस प्रकार से की गई हैं कि आदमी के बच निकलने के हजा़रों चोर दरवाजे मौजूद हैं जबकिऔरत के लिए कानूनी  चक्रव्यूह से निकल पाना एकदम असंभव’’ इसलिए पीड़िता खुद को दोषी मानकर सम्मानपूर्ण जीवन नहीं जी पाती।

इस तरह के अपराध को कैसे रोका जाए।कई संस्थाए हैं जो इस तरह के अपराध के खिलाफ आवाज उठाने का काम कर रही है, जागरूकता अभियान भी चला रही है जो कि सराहनीय है। कई संस्थाएं स्कूल, कालेज और सामाजिक स्तर पर बहस का भीआयोजन करती है मगर दुर्भाग्यवश  ये बहस इस बात पर सिमट जाती है कि पीड़िता सुनसान जगह परअकेले क्या कर रही थी, अगर जाना जरूरी था तो अपने साथ अपने भाई या पिता को साथ लेकर क्यों नहीं गई, उसने क्या पहन रखा था , उसका आचरण कैसा हैआदि-आदि. ये प्रश्न पीड़िता को दोषी साबित करने के लिए र्प्याप्त होते हैं।क्या हमारा समाज एक स्त्री को शरीर और भोग से ऊपर नहीं देखना चाहता या फिर अपनी ओछी सोंच की गुलामी से ऊपर नहीं उठना चाहता।

एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नागरिक कहीं की भी हो उसे राजनीतिक इस्तेमाल का  मुद्दा न बनाया जाए। जरूरी यह है कि  उसे उसके मौलिक अधिकारों के तहत न्याय मिलना चाहिए। घटना किसी भी शहर, प्रदेश ,नगर ,गांव की हो, जगह महत्त्वपूर्णन हीं जो हुआ , जो हो रहा है उसका रूकना जरूरी है।

डा.अम्बेडकर विश्वविद्यालय ,दिल्ली के  हिन्दी विभाग में शोधरत हैं सम्पर्क: jyotigupta1999@rediffmail.com

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ISSN 2394-093X
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