महिला सशक्तिकरण के लिए: ‘एक देश, एक कानून’

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
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तीन तलाक़ पर, उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायधीशों की संविधान पीठ के ‘ऐतिहासिक फैसले’ को, आने वाली पीढियों  किस रूप में देखेंगी- क्रांतिकारी फैसला या मील का ‘पत्थर’. अभी कहना कठिन है. 1400 साल पुरानी प्रथा की वैधानिकता-संवैधानिकता पर, न्यायविद सालों बहस करते रहे हैं, करते रहेंगे. क्या सचमुच इस निर्णय से औरत की गरिमा बढ़ेगी, महिलाओं का सशक्तिकरण होगा और लैंगिक समानता की दिशा में सार्थक शुरुआत हो पाएगी? सवाल यह भी है कि महिला याचिकाकर्ताओं को क्या ‘हासिल’ हुआ. उसी पति के रहने का आदेश, जो उसे रोज़ तरह-तरह से प्रताड़ित करता रहा है. क्या ज़मीनी स्तर पर आमूल-चूल बदलाव से स्त्रियों की ज़िन्दगी खुशहाल होगी. बहुत से सवाल, संदेह और आशंकाएं हैं और तब तक रहेंगी, जब तक आधी-आबादी को सामान न्याय और सम्मान से जीने-मरने के अधिकार नहीं मिलते. बहुत आशा और विश्वास के साथ, देश की तमाम स्त्रियां न्यायपालिका कि तरफ देखती (रही) हैं.


  22 अगस्त, 2017 को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों-जस्टिस जे.एस. खेहर, जस्टिस कूरियन जोसेफ, जस्टिस यू.यू. ललित, जस्टिस आर.एफ. नरीमन और जस्टिस अब्दुल नजीर की संविधान-पीठ ने, ‘तीन तलाक’ को निरस्त करने का आदेश दिया है। यह फैसला शायरा बानो, आफरीन रहमान, गुलशन परवीन, इशरत जहां, अतिया सबरी और मुस्लित वीमेन्स क्वेस्ट फॉर इक्वेलिटी द्वारा दायर याचिकाओं के मद्दे-नजर दिया गया। इस फैसले के बाद, पूरे देश में ऐसा लग रहा है कि मुस्लिम महिलाओं की आजादी का नया युग शुरू हो गया है। अब उन पर दमन, अत्याचार या अनाचार का सिलसिला एकदम खत्म जाएगा। केंद्र सरकार इसका श्रेय ले ही रही है और अन्य विपक्षी पार्टियां फैसले का विरोध नहीं कर पा रही हैं। शायद डर है कि विरोध कहीं उनके ‘वोट बैंक’ में सेंध न लगा दे।

395 पेज के फैसले में तीन तलाक को निरस्त करने का फैसला 3-2 के बहुमत से लिखा गया। 1937 के शरियत लॉ में तीन तलाक का प्रावधान सेक्शन 2 में था, जिसे पांच जजों की बेंच ने निरस्त कर दिया। जो दो जज तीन तलाक को निरस्त करने के पक्ष में नहीं थे, उनमें जस्टिस खेहर और जस्टिस अब्दुल नजीर हैं। इन दोनों ने इस प्रावधान को असंवैधानिक नहीं माना। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि चूंकि यह महिलाओं के हितों के खिलाफ है, इसलिए इस पर सरकार और संसद को कानून बनाना चाहिए। यानी केवल दो जजों ने कानून बनाये जाने की बात कही है। इसका सीधा सा अर्थ है कि सरकार के लिए कानून बनाए जाने की को बाध्यता नहीं है। इस फैसले के तत्काल बाद केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि फैसले के क्रियान्वयन के लिए अलग से कानून बनाए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। जाहिर है सरकार कानून बनाए जाने के पक्ष में नहीं दीख रही है। वैसे भी सरकार द्वारा कानून बनाने का जो आदेश, अल्पमत निर्णय है। सरकार  कानून बनाये या न बनाए। बहुमत ने नया कानून बनाने का कोई निर्देश नहीं दिया है। केवल तीन तलाक को निरस्त किया है।

तीन तलाक का प्रावधान खत्म हो गया और नया कानून बना नहीं (या बनेगा नहीं), ऐसे में यदि कोई अपनी पत्नी को तीन तलाक दे देता है, तो उसे सजा या ज़ुर्माना किस कानून के तहत दी जा सकती है? पति पत्नी से कहेगा कि वह नहीं मानता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को, जाओ अदालत। ऐसे में मुस्लिम महिलाएं (जिनमें से अधिसंख्य अशिक्षित-गरीब और गांव कस्बों में रहने वाली हैं) अदालतों के चक्कर काटती रहेंगी। सरकार कानून बनाना भी चाहे, तो उसकी प्रक्रिया कम जटिल नहीं। कानून ड्रॉफ्ट होगा, समितियां देखेंगी, राज्यों की राय ली जाएगी, कुछ राज्य स्वीकर करेंगे, कुछ नहीं करेंगे, मामला सालों लटका ही रहेगा। सरकारा कानून बनाने का नाटक-नौटंकी कर सकती है लेकिन कोई कल्याणकारी कानून बनने-बनाने कि संभावना नज़र नहीं आती.
तीन तलाक को निरस्त करने के फैसले को, महिलाओं की ‘विजयघोष’ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि दुनिया के लगभग 22देशों ने पहले ही तीन तलाक को निरस्त कर दिया है। भारत ने महिलाओं का ‘यह आजादी’ देने में 70 बरस लगा दिये। पाकिस्तान जैसे देश में 1961 में तीन तलाक को रद्द किया जा चुका है। जिन देशों में तीन तलाक की यह असंवैधानिक परंपरा नहीं है, वहां तो महिलाएं सशक्त होनी ही चाहिए। लेकिन क्या ऐसा है? अन्य देशों को छोड़ दीजिए, सिर्फ पाकिस्तान और बांगला देश में ही महिलाओं के सामजिक-आर्थिक हालात देख लीजिए, स्थिति का अंदाजा हो जाएगा।

मान भी लें कि तीन तलाक अंसवैधानिक है, तो बहुविवाह, करेवा, बाल विवाह, वैवाहिक बलात्कार, लैंगिक असमानता, भ्रूण हत्या को आप क्या कहेंगे-मानेंगे? विवाह संस्था में हिंदू महिलाओं के साथ भी हिंसा-हत्या, दमन-अत्याचार, अनाचार-दुराचार कम नहीं. तलाकशुदाओं में 68 प्रतिशत हिन्दू, 22 प्रतिशत मुस्लमान और दस फीसदी अन्य मजहबों के हैं। मुस्लमानों में तीन तलाक के महज 0.01 प्रतिशत मामले ही पाये जाते हैं। तो क्या हमारे सरोकार सिर्फ इन 0.01फीसदी महिलाओं से जुड़े हैं, बहुमत की महिलाओं के अधिकारों की संवैधानिकता और असंवैधानिकता पर हमें कुछ नहीं कहना है? एक दबा-ढका-छिपा सच यह है कि मर्दवादी समाज óियों को कोई अधिकार नहीं देना चाहता. पंचायत (संसद-अदालत) में मर्द ही, स्त्रियों के भाग्य का फैसला करते रहे हैं। महिलाओं के विषय में इतना बड़ा फैसला करते समय, कोई महिला न्यायाधीश नहीं दिखती-मिलती? ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है।
     



1955 में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब हिंदू कानून के तहत महिलाओं के अधिकारों को लेकर प्रयास किया, तो उन्हें भी भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। आज नारी स्वतंत्रा की वकालत करने वाले, उस समय विरोध में खड़े थे। लेकिन राजनीतिक दृढ़ता के कारण ही कुछ कानून पास हो सके । उस समय तमाम हिंदुवादी नेताओं ने घोर विरोध किया था। वे नहीं चाहते थे कि हिंदू कानून के अंतर्गत महिलाओं को मर्दों के सामान अधिकार मिलें। हिंदू कानून के तहत महिलाओं को जो भी अधिकार मिले हैं, वे तब कि राजनीतिक इच्छा और मजबूती के कारण ही मिल पायें हैं। क्या उस तरह की मजबूती वर्तमान सरकार में दिखाई पड़ रही है।

सरला मुद्गल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ही समान नागरिक संहिता बनाने के लिए कहा था। उसे बनाने की कोई नहीं कर रहा। भाजपा ने तो अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी, समान नागरिक संहिता बनाने का वादा किया था। एक देश, एक कानून की वकालत करने वाली सरकार, महिला सामान अधिकारों के लिए एक कानून क्यों नहीं बनाती या बना सकती। समान नागरिक संहिता में तलाक, विवाह, मेंटनेंस,संपत्ति आदि के अधिकार, सभी महिलाओं-हिंदू मुस्लिम,सिख, ईसाई, जैन के लिए समान होने चाहिए। तब समान न्याय-क़ानून होंगे भी और दिखाई भी पड़ेंगे। समान नागरिक संहिता के साथ-साथ, यदि महिला आरक्षण बिल भी पास कर-करवा दें, तो सचमुच महिलाओं के सशक्तिकरण की प्रक्रिया शुरू होगी। लेकिन ऐसा कब हो पायेगा, कौम कह सकता है।

 आप-हम सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक को निरस्त किये जाने पर खुश होते रहेंगे लेकिन अगर उनके पति ने सोच लिया कि पत्नी को छोड़ना है या तंग करना है, तो समाज-अदालत के पास क्या विकल्प है। आज भी अदालतों में रोजना ऐसे मामले आते हैं (अधिकांश हिंदू लड़कियों के) जिनमें पति पत्नियों को उत्पीडित-प्रताडि़त करते रहते हैं और आजादी से घूमते रहते हैं। हम कहते हैं ‘दहेज़ मामलों में गिरफ्तारी मत करो’. किसी से छिपा नहीं है कि किसी भी अदालती मामले को निपटाने में सालों का समय-पैसा लगता है। अलग रहने के लिए ही नहीं, साथ रहने के लिए भी।



एक दिलचस्प मामला है देखें कि 1955 में सरोज रानी ने, हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 9 के तहत पति के साथ दोबारा रहने के लिए याचिका दाखिल की। इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 1983-84 में सुनाया। यानी साथ रहने के लिए भी फैसला देने में अदालत को 28-29 साल का समय लग गया। ऐसे में तलाक से पीडि़त महिलाओं की अदालतों में क्या स्थिति होगी या हो सकती है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। तीन तलाक को निरस्त करके मुस्लिम महिलाओं को, कोर्ट-कचहरी के उन्ही  गलियारों में धकेल रहे हैं, जहां जाने के रास्ते तो कठिन हैं ही, वहां से बाहर निकलने के रास्ते कमोबेश बंद या अंतहीन ही हैं।

तीन तलाक को निरस्त करने का फैसला कुछ और सवाल मन में पैदा करता है। आखिर हम किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं। एक तरफ हम महिलाओं को सहजीवन, सिंगल वुमन, बिना विवाह पैदा किये बच्चा पैदा करने का अधिकार, सेक्स का अधिकार दे रहे हैं और दूसरी तरफ समाज के एक बहुत ही छोटे तबके को तलाक से रोकने के आदेश पर पर्व मान रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि जब देश आजाद हुआ, तो सिंगल वुमन की संख्या महज चार  फीसदी थी, जो आज बढ़ कर 21 फीसदी हो गई हैं।
    
 विश्व इतिहास और सामजिक अनुभव साक्षी है, गवाह है कि एक समय पूरे यूरोप में तलाक के पक्ष में स्त्री आंदोलन हुए और वहां की संसद-सरकार-अदालतों ने तलाक को कानून बना कर आसान बनाया। यूरोप में महिलाएं इसलिए सशक्त हुईं कि वे पढ़ी लिखीं थीं, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थीं, विवाह को सात जन्मों का बंधन नहीं मानती-समझती थीं, अपने फैसले खुद लेती थीं। इसलिए धार्मिक आस्थाओं का यह अभियान भी खत्म होना चाहिए . महिलाओं को भी खुले मन से यह सोचना होगा कि क्या सचमुच (तीन) तलाक रुकने से उनका जीवन जन्नत बन जाएगा? क्या उनके जीवन की एकमात्र त्रासदी यही है कि उनके पति उन्हें एक साथ तीन तलाक दे रहे हैं?  तीन तलाक को निरस्त किये जाने के परिणाम, शीघ्र ही समाज में दिखाई देने लगेंगे और यह भी साफ हो जाएगा कि इस फैसले से कितनी महिलाओं का उद्धार, कल्याण या सशक्तिकरण हो सकेगा. स्त्री-पुरुष को विवाह बंधन में बांध कर रखना, पितृसत्ता के हितों को पोषित करती विवाह संस्था को ही बनाए-बचाए रखना है…होता है. यह रास्ता स्त्री मुक्ति या सशक्तिकरण का रास्ता तो नहीं लगता.



(सुधांशु गुप्त की अरविन्द जैन से बातचीत)


महिलाओं की मुक्ति का मार्ग तलाक से ही होकर जाता है-अरविंद जैन

पांच मुस्लिम महिलाएं-शायरा बानो, फराह फेज, आफरीन रहमान, इशरत जहां और गुलशन परवीन तीन तलाक को खत्म करने के लिए याचिका दायर करती हैं। उत्तर प्रदेश चुनावों में पहली मुस्लिम समाज में तीन तलाक को खत्म करने की बात की जाती है। भाजपा लगातार यह वादा करती है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए तीन तलाक को खत्म किया जाएगा।…और 18 माह की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है। तो क्या यह फैसला राजनीति से प्रेरित नहीं लगता? 


यह कहना तो उचित नहीं होगा, लेकिन कहा जा सकता है कि अदालती फैसलों पर समाजिक और राजनीतिक स्थितियों का असर तो होता ही है। संभव है इसी के आलोक में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भी हुआ। जिस तरह से  फैसले के बाद प्रचार प्रसार किया जा रहा है, उससे इसी बात की आशंका दिखाई पड़ती है।लेकिन हमें न्यायपालिका की निष्पक्षता के संदर्भ में ही इस फैसले को देखना चाहिए।

• तीन तलाक को अंसवैधानिक घोषित करने के बाद जिस तरह मुस्लिम महिलाएं एक दूसरे को मिठाई खिलाती दिखीं और जिस तरह राजनेताओं ने कहा कि ये महिला सशक्तिरण का नया युग है। इसे आप किस रूप में देखते हैं।

जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के परिणामों से परिचित नहीं हैं। इसमें दो तीन बातें हैं। अगर पति अब भी पत्नी को तीन तलाक दे देता है, तो पत्नी क्या करेगी? नया कानून अभी बना नहीं है, बिना किसी कानून के तो सजा या जुर्माना हो नहीं सकता। कानून बनेगा या नहीं बनेगा, इस पर तमाम शंकाएं हैं। क्या पत्नी इस फैसले के आधार पर, पुलिस, कोर्ट-कचहरी के दरवाजे खटखटाती रहेगी। गांवों कस्बों और देहात में रहने वाली, कितनी महिलाएं जानती होंगी कि तीन तलाक के इस फैसले के खिलाफ कौन सी कोर्ट जाना है.

• और तीन तलाक के निरस्तीकरण के बाद महिला सशक्तिकरण? 


अगर तीन तलाक को निरस्त करने से ही “महिला सशक्तिकरण” होता, तो यकीन मानिये मिस्र, ट्यूनिशिया, ईरान, इराक, तुर्की, साइप्रस, अल्जीरिया, मलेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश में महिलाएं कब की सशक्त हो चुकी होतीं। इन सभी देशों में, तीन तलाक को वर्षों पहले निरस्त किया जा चुका है। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। सो महिलाओं के सशक्तिकरण का, तीन तलाक या तलाक़ से कोई लेना देना नहीं है।

आप यह कहना चाहते हैं कि सरकार महिला सशक्तिकरण को लेकर केवल सियासत कर रही है, वह इसके प्रति गंभीर नहीं है?


मुझे नहीं पता…मैं नहीं जानता-समझता कि सरकार गंभीर है या नहीं। हाँ! अगर सरकार सचमुच गंभीर है, तो उसे  महिला सशक्तिकरण की दिशा में ईमानदारी से काम करना चाहिए। सरकार को सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के लिए ही नहीं, आधी आबादी के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। न्यायोचित कानून बनाए, नहीं तो स्थितियां और भी ज्यादा भायवह हो जाएंगी। पति तलाक देते रहेंगे और पत्नियां अदालतों के चक्कर काटती रहेंगी। बिना कानून के ना कोई सजा होगी, ना कोई डर। आशंका है कि कहीं ये फैसला भी “शाहबानो केस” की तरह, महिलाओं के ही खिलाफ ना खड़ा हो जाए और बुर्के की आड़ में सियासत और तेज हो जाए।

तो इसका रास्ता क्या होना चाहिए?


देखिये, हर धर्म-जाति की स्त्रियों को समान न्याय के लिए समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) बनाना चाहिए। सत्ताधारी दल ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसका वादा किया था। जीएसटी की घोषणा करते समय सरकार ने एक देश, एक कानून का नारा दिया….वकालत की थी। महिलाओं को भी सामजिक-आर्थिक-राजनीतिक इंसाफ, सामान न्याय, संवैधानिक बराबरी देने के लिए, एक ही कानून होना चाहिए…क्यों नहीं होना चाहिए। अगर सरकार सचमुच महिला सशक्तिकरण की पक्षधर है, तो महिला आरक्षण बिल पास करे-करवाए, सामान नागरिक संहिता लाए….पता चल जाएगा।

यानी तीन तलाक को निरस्त किया जाना महिलाओं के लिए (मुस्लिम ही सही) मुक्ति का कोई मार्ग नहीं खोलेगा?

जिस तरह आज विवाह संस्था का जर्जर ढांचा अप्रासंगिक होता जा रहा है. आप सहजीवन का कानून बना सकते हैं, लेकिन बाल विवाह को अवैध और वैवाहिक बलात्कार को असंवैधानिक नहीं कहेंगे-मानेगे..क्यों? बहुओं को दहेज के लिए मिट्टी का तेल, पेट्रोल और व्हिस्की डालकर मार दिया जाता है…क्या यह सब क्या है..वैधानिक-संवैधानिक होगी  सामाजिक? सवाल सिर्फ तीन तलाक ही क्यों? हिंदु और अन्य कानूनों में भी समुचित संशोधन हों…अंसवैधानिक बातों को भी निरस्त किया जाए। मेरा स्पष्ट मानना है कि (तीन) तलाक को निरस्त किया जाना ही, महिलाओं मुक्ति का मार्ग नहीं है, बल्कि सच कहूं तो वास्तव में दमित-उत्पीड़ित-शोषित स्त्री के लिए मुक्ति का मार्ग तो तलाक के बाद…आत्मनिर्भर होना है। लाखों मुकदमें अदालतों में तलाक के लिए लंबित पड़े हैं, अगर इन लोगों को तलाक मिल जाए..न्याय मिल जाए..थोड़ा जल्द और आसानी से मिल जाए तो, ये सब अपना जीवन अपनी शर्तों और निर्णयों के साथ या अपने तरीके से जी सकेंगी/सकेंगे। निश्चित रूप से असली मुक्ति यहां से आरम्भ होगी।

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