प्रथम आधुनिक कविता ‘स्वप्न‘ में स्त्री चेतना

मीनाक्षी

‘‘19वीं सदी के भारतीय साहित्य और विशेष रूप से हिन्दी साहित्य में  स्वप्न के रचनात्मक उपयोग का उद्देश्य है नये युग की सम्भावनाओं की खोज करना और उसके साथ ही आत्म-सजग होकर सामाजिक रूप से जाग्रत होना। ऐसी रचनाओं में यथार्थ और स्वप्न का जो सम्बन्ध दिखाई देता है, उसमें पराधीनता के यथार्थ और स्वप्न की द्वन्द्वात्मकता व्यक्त हुई है। यथार्थ और स्वप्न की यही द्वन्द्वात्मकता महेश नारायण की कविता ‘स्वप्न‘ में मिलती है और गहरे तथा व्यापक अर्थ में पहली आधुनिक कविता बनाती है।”

प्रस्तुत पंक्तियाँ एक ऐसे रचनाकार और रचना के लिए है जो हिंदी साहित्य जगत में प्रमुख नाम नहीं है किंतु एक लंबे समय के संघर्ष के बाद इन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थान न सही, पर हिन्दी साहित्य के विचारकों को सोचने पर विवश अवश्य कर दिया है। आज करीब-करीब हिन्दी साहित्य के सभी विचारकों ने इसके महत्व को स्वीकारना आरम्भ कर दिया है। इन विचारकों में कृष्णदेव प्रसाद गौड, उमाशंकर, महाकालेश्वर, अयोध्याप्रसाद खत्री, डाॅ. मैनेजर पाण्डेय, डाॅ. देवेन्द्र कुमार चैबे, डाॅ. रश्मि चौधरी, डाॅ. सुदीप्ति आदि प्रमुख हैं। ज़ाहिर है अब वह समय दूर नहीं जब हिन्दी साहित्य के इतिहास में महेशनारायण और उनकी कविता ‘स्वप्न‘ की गिनती की जा सकेगी।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल का सूत्रपात उन्नीसवीं शती के मध्य से माना जाता है। आरंभिक अवस्था के इस दौर के नेतृत्व का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को जाता है। सम्पूर्ण भारतेंदु युगीन परम्परा को दृष्टिपात करने पर यह स्वतः ही ज्ञात हो जाता है कि महेशनारायण ही वह अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी कविता की वास्तविक शक्ति और स्वरूप को पहचानने का प्रयास किया। साधारणतः किसी भी रचना के लिए यथार्थ का गहन बोध आवश्यक होता है। इसी के द्वारा कविता अपने तत्कालीन विमर्शों से जुड़ती हुई तत्कालीन विषमताओं, रूढ़ियों, मान्यताओं का विरोध करती है। यह कविता तत्कालीन विमर्शों से तो जुड़ी ही रहती है, साथ ही आधुनिक विमर्शों को भी आत्मसात कर चलती है। पिछले कई दशकों से नक्सलवाद, दलित चेतना, स्त्री मुक्ति, मजदूर आन्दोलन, किसान आन्दोलन आदि स्वाधीनता संबंधी आकांक्षा को लेकर जो जन-आन्दोलन हो रहे हैं। ‘स्वप्न‘ में उसी प्रकार की आकांक्षा से उत्प्रेरित आन्दोलन दिखलाई पड़ता है और जो मुक्ति पाने की जद्दोजहद में आधुनिक जन-आन्दोलन से जुड़ती है। इस संदर्भ में माओत्से-तुंग की पंक्तियाँ याद आ जाती है जिसमें उन्होंने कहा है-‘‘हर वह कला श्रेष्ठ है जो जन संघर्षों में तथा क्रान्ति में जनता का साथ देती है।‘‘


‘कला‘ कला होती है फिर वह किसी भी रूप में क्यों न हो? बशर्ते वह जन-आन्दोलित करे। ‘स्वप्न‘ कविता में जन संघर्ष, जन क्रांति या जन-आन्दोलित करने की वह क्षमता मौजूद है। यह कविता जितनी तत्कालीन संदर्भों से जुड़ती है उतनी ही समकालीन संदर्भों से जुड़ने का प्रयास करती है। आज जिस प्रगति से साहित्य में स्त्री विमर्श की खोज की जा रही है उस दृष्टि से यह कविता और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह कविता वैयक्तिक चेतना को सचेत करती है, मानवीय अधिकारों के प्रति जाग्रत करती है विशेषकर स्त्री को। सुदीप्ति के शब्दों में-‘‘अगर इस बात की पड़ताल की जाए कि हिंदी कविता में आधुनिक स्त्री की उपस्थिति कब से हुई तो ‘स्वप्न‘ ही इसका उत्तर साबित होगा।‘‘

आधुनिक हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल से महेशनारायण संबंद्ध है। इस बहुआयामी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति की वाणी का प्रमुख स्वर सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक जागरण है। इन्हीं विशेषताओं के कारण महेशनारायण भारतेंदु युगीन परम्परा में अग्रणीय दिखलाई पड़़ते हैं क्योंकि इन्होंने भारतेंदु की परम्परा का न केवल संरक्षण किया बल्कि अपनी निजी प्रतिभा के योग से खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। खड़ी बोली आन्दोलन और मुक्त छंद परम्परा को सम्वर्द्धित किया तथा उसे नये आयाम प्रदान किये। उनकी यह कविता भारतेंदु-युग के कवियों के समक्ष कुछ न कुछ समानता के साथ-साथ कुछ विविधता भी लिए हुए है जो महेशनारायण को भारतेंदु युगीन कवियों से अलगाती है। महेशनारायण इस समस्या प्रधान कविता को सामाजिक और राष्ट्रीय कविता के रूप में नई दिशा देते हैं। महेशनारायण की ‘स्वप्न‘ कविता से कविता में एक नया मोड़ आया। आधुनिक कविता जिस लीक को लेकर चल रही थी उस लीक से विपरीत महेशनारायण एक नये मार्ग को, एक नए उद्देश्य के साथ प्रकट करते हैं। वे स्वयं नायिका से कहलवाते हैं-

‘चन्द्रलोक’ है देश मेरा
वो एक अमीर की कन्या हूँ कुमारी;
कुमारी नहीं, कुमारी, हाँ, कुमारी ही हूँ मैं।
सांस एक लेके-’ओह क्या कहूँ मैं,
समझो तुम्हें जो बूझे पड़े,
पर मैं एक विधवा हूँ कुमारी।

एक स्त्री द्वारा इस तरह का प्रतिरोध सामाजिक रूढ़ियों और परम्पराओं के खिलाफ केवल एक प्रगतिशील विचारक ही करा सकता है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में ऐसे व्यक्ति को प्रायः उपेक्षित दृष्टि से देखा गया। यह साहित्येत्हिासकारों की कमी कहे या समय एवं परिस्थितियों का प्रभाव कि महेशनारायण की कविता ‘स्वप्न’ हिन्दी साहित्य के किसी भी इतिहास में स्थान नहीं बना पाई। महेशनारायण की कविता ‘स्वप्न’ का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ‘स्वप्न’ सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, आर्थिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक आदि सभी संदर्भों से एक महत्वपूर्ण कविता है। यह कविता समकालीन समय में प्रासंगिक तब हो जाती है जब इसमें स्त्री चेतना के बीज तत्व दिखलाई पड़ते है।



इस प्रथम आधुनिक कविता में स्त्री चेतना के बीजत्व का होना आधुनिक हिन्दी साहित्य के लिए साधारण बात नहीं है। यह कविता आधुनिकता की परिभाषिक शब्दावली पर खरी उतरती है। इस बात की पुष्टि डाॅ. मैनेजर पाण्डेय के इन शब्दों से होती है-‘‘सामान्य रूप से हिन्दी साहित्य में और विशेष रूप से हिन्दी कविता के सन्दर्भ में आधुनिकता की बात करते समय भाषा का प्रश्न सामने आता है। कविता के प्रसंग में खड़ी बोली में लिखी गयी कविता ही आधुनिक कविता मानी जाती है। भारतेन्दु युग से खड़ी बोली में हिन्दी कविता की शुरूआत होती है। लेकिन उस समय काव्य-भाषा के रूप में ब्रजभाषा ही अधिक प्रचलित थी। लम्बे समय तक इस बात पर विवाद होता रहा कि क्या ब्रजभाषा को छोड़कर खड़ी बोली में हिन्दी कविता लिखी जा सकती है। धीरे-धीरे यह विवाद समाप्त हुआ और खड़ी बोली हिन्दी गद्य के साथ कविता की भाषा के रूप में भी स्वीकृत हुई।…………हिन्दी में आधुनिक होने के लिए आचार्य शुक्ल के अनुसार अपने समय और समाज के प्रति सजगता आवश्यक है। भारतेन्दु युग की सबसे बड़ी सच्चाई यह थी कि देश उपनिवेशवाद का शिकार था, इसलिए उपनिवेशवाद की स्थिति, भारत की गुलामी और उससे स्वाधीन होने की चेतना आधुनिकता की अनिवार्य शर्त थी। उस समय जो कवि अपने समाज की सबसे बड़ी वास्तविकता अर्थात देश की पराधीनता और उसके विरोध में क्रियाशील स्वाधीनता की भावना के बारे में सजग नहीं होगा वह आधुनिक भी नहीं होगा।…………हिन्दी की पहली आधुनिक कविता वही होगी जो एक तो खड़ी बोली में लिखी हुई हो दूसरे भारत की पराधीनता की पहचान के साथ ही स्वाधीनता की चेतना की अभिव्यक्ति उसमें भी हो।‘‘

डाॅ. मैनेजर पाण्डेय आधुनिक कविता के लिए जिस आधुनिकता की खोज-बीन करते हैं उसमें भारत की पराधीनता का बोध और स्वाधीन चेतना की अभिव्यक्ति अनिवार्य पक्ष है। आधुनिक हिन्दी साहित्य और आधुनिक कविता के लिए आधुनिकता का अर्थ-पराधीनता का बोध और स्वाधीन चेतना के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। वह चाहे राष्ट्र के प्रति हो या एक स्त्री के प्रति। ‘स्वप्न‘ कविता में इन दोनों के प्रति विशेष आग्रह है। इस अर्थ में यह कविता अधिक आधुनिक और प्रासंगिक हो जाती है।

भारतीय सामाजिक इतिहास में स्त्रियों का इतिहास जितना पुराना है उतना ही स्त्रियों का शोषण भी बहुत पुराना है। सृष्टि की रचना से लेकर आज तक उसका शोषण होता आया है। समस्त धर्मशास्त्र ऋग्वेद, गीता, रामचरितमानस, मनुस्मृति आदि सभी स्त्री को कमतर ही आँकते हैं। इन ग्रंथों के अनुसार स्त्री केवल भोग्या है चाहे वह किसी भी रूप में प्राप्त हो। इन ग्रंथों ने ही स्त्री को संयमित जीवन जीने के मजबूर किया गया है। स्त्रियों पर सदियों से हो रहे अत्याचारों के कारण आज स्थिति यह हो गयी है कि उसे एक अलग जाति के रूप में देखा जाने लगा है। यद्यपि आज समाज में स्त्री जागृति को लेकर नई चेतना का विकास हुआ है, लेकिन यह जाग्रति अनायास नहीं आई। इसकी पृष्ठभूमि सदियों से बन रही थी और समय समय पर इसने समाज को अपनी दस्तक से परिचित कराया है, वह भी एक तीखे स्वर में । गार्गी, मैत्रेयी, मीरा, महादेवी आदि उसका विस्फोटक रूप का ही तो परिणाम था। करोडों में विरल होकर उन्होंने अपनी जागरणवादी चेतना से इतिहास में अपना नाम दर्ज़ कराया और समाज से अपना परिचय कराया। महेशनारायण की कविता ‘स्वप्न‘ में भी स्त्री जाग्रति को लेकर नई चेतना का संचार हुआ है। महेशनारायण की सम्पूर्ण कविता ‘स्वप्न‘ स्त्री केन्द्रित कविता है। एक स्त्री का अपने समाज के विपरीत प्रतिगामी शक्तियों को चुनौती देना यह बतलाता है ‘स्वप्न‘ कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। वह प्रतिगामी शक्तियों के विरूद्ध खड़ी ही नहीं होती बल्कि उनका भरसक सामना भी करती है।

‘स्वप्न‘ कविता में स्त्रियों की स्थिति बड़ी विचारणीय थी। माता, पत्नी और पुत्री तीनों रूपों में उसका महत्व नाममात्र का था। माता और पत्नी की अपेक्षा पुत्री की स्थिति अधिक निम्न दर्जे की थी। उसे विमाता के स्नेह से तो वंचित रहना ही पड़ा साथ ही पिता के अपशब्दों और दण्ड को भी सहन करना पड़ा। बाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक जिस परिधि में उसे ढाला गया उसी परिधि में सहर्ष ढल गयी। वह प्रत्येक अधिकारों एवं आकांक्षों से दूर आरम्भ से लेकर अंत तक किसी न किसी के अधीन रही है। पुत्री के रूप में न पिता की सम्पत्ति में कोई अधिकार था, न पति की सम्पत्ति में। केवल पति की मृत्यु के बाद ही पति की सम्पत्ति में अधिकार मिलता था। यह अधिकार किसलिए? क्योंकि उसके लिए परिवार में आश्रय पाना संभावनाओं से अति परे की बात थी। डाॅ. वीरभारत तलवार विधवाओं की स्थिति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि-‘‘हिंदी नवजागरण का गढ़ विधवाओं का भी गढ़ था। सारे हिंदुस्तान से विधवाएँ काशी में आती थीं जो दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों से लेकर मुमुक्ष भवन जैसी बड़ी इमारतों तक में बसी हुई थीं। पर इनके लेखे बनारस में कोई विद्यासागर नहीं हुआ।”  जिस समाज के साहित्यकारों , समाजसुधारकों  और राष्ट्रीय नेताओं  के मूल में स्त्रियों के उद्धार का प्रश्न हो, न कि उसके अधिकारों का। उस समाज में विधवाओं के लिए कोई विद्यासागर हो भी कैसे सकता है?


उच्चवर्गीय परिवार हो या निम्नवर्गीय परिवार, स्त्री का प्रेम विवाह और विधवा विवाह वर्जित ही नहीं निंदनीय भी था। उसके लिए शिक्षण एक दुर्लभ वस्तु के समान थी। परिवार में उसकी स्थिति ऐसी थी कि पिता अपनी पुत्री को मारपीट भी सकता था। त्याग, सहनशीलता, समर्पण, कर्तव्य परायणता यही स्त्री जीवन की मयादाएँ थीं। इन्हीं के माध्यम उसे आँका जाता था और मर्यादाएँ तोड़ने पर दण्डित भी किया जाता था। विवाह के विषय में उसके अपने किसी प्रकार के अभिमत का प्रश्न ही नहीं उठता था। पिता की इच्छानुसार उसे विवाह करना पड़ता। ये वे परिस्थितियां थी जिनसे विवश होकर ‘स्वप्न’ की नायिका एक अलग इकाई के रूप में प्रकट होती है। ‘स्वप्न’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ तत्कालीन समय और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं की सूचक है साथ ही नायिका को एक अलग इकाई के रूप में व्यक्त करती है-

‘चन्द्रलोक’ है देश मेरा
वो एक अमीर की कन्या हूँ कुमारी;
कुमारी नहीं, कुमारी, हाँ, कुमारी ही हूँ मैं।‘
सांस एक लेके-’ओह क्या कहूँ मैं,
समझो तुम्हें जो बूझे पड़े,
पर मैं एक विधवा हूँ कुमारी। माता नहीं हमें हैं। जीते मेरे पिता है। जो आँखें खुली मेरी उस भूमि में, एक दूसरी माता शीघ्र आई पर मेरे लिए प्रीत न लाई। सच है मैं प्रीत के योग नहीं, आशा इसकी है यह भूल हमारी। यां तो लड़की कभी ऐसी नहीं होती होगी। प्रीत के योग वेमाता के यह होती होंगी।


महेशनारायण ने अपने युग से पूर्णतः परिचय पाया और समझा कि स्त्रियों की बड़ी दयनीय स्थिति है। इसीलिए महेशनारायण स्त्री स्वाधीनता के लिए चेतनावादी मार्ग को चुनते हैं। महेशनारायण स्त्री को समाज में स्थान दिलाने के उद्देश्य से सामाजिक प्राचीन रूढ़ियों से प्रतिरोध नहीं करते अपितु एक जुझारू व्यक्तित्व होने के कारण एक स्त्री द्वारा प्रतिरोध करवाते हैं। वे स्त्री सम्बन्धी सभी समस्याओं को आत्मसात कर उनसे स्वयं जूझते हैं तथा उसके निवारण हेतु उपाय भी खोजते हैं। स्त्री सामाजिक व्यवस्थाओं के नाम पर शोषित होती रहती है। वे सामाजिक व्यवस्थाएँ कौन सी हैं जो व्यवस्थाएँ स्त्री समाज की जड़ें ही नहीं हिला रही थी बल्कि स्त्री को जड़हीन भी बना रही थीं। महेशनारायण की यह कविता ‘स्वप्न‘ उसी जड़हीनता के कारकों को ज्ञात करने का प्रयास है। स्त्री का पूर्णत‘ हाशिए पर रखने वाले प्रमुख कारक भारतीय सामाजिक व्यवस्था में निहित है जिसका महेशनारायण ने ‘स्वप्न’ कविता में खुलकर विरोध किया है.

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सबसे प्राचीन पितृसत्तात्मक व्यवस्था और वर्णव्यवस्था है। यह दोनों व्यवस्थाएँ धर्म पर आधारित पालित-पोषित है। पुरुष द्वारा पत्नी, पुत्री और बहन की रक्षा करना उसे सुरक्षित रखना उसका परम् धर्म है। स्त्री पर अपना वर्चस्व रखना मानों पुरुष समाज का जन्मसिद्ध अधिकार हो। स्त्री पर यह नियंत्रण बहुत कड़ा होता है क्योंकि परिवार की मानर्यादा उसी पर टिकी होती है। यह कविता उसके सारे तथ्यों को उजागर करती है। यह व्यवस्थाएँ प्रत्येक धर्म में विद्यमान है। आरम्भ से ही यह स्त्री के विरोध में रही है जिसके फलस्वरूप यह स्त्रियों के लिए एक बड़ा खतरा बन गयी है। इसी खतरे से अवगत होकर महेशनारायण ‘स्वप्न’ कविता को हथियार बनाकर इस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। आज समाज में स्त्री का शोषण जो खुलेआम हो रहा है महेशनारायण ने उसे ‘स्वप्न’ कविता में जगह-जगह चिहिन्त किया है-

‘एक रोज पिता ने हमको देखा
उस प्यार के साथ वन में तनहा।
भूलूंगी नहीं उस दृष्टि को हर्गिज
छाई जिससे जीवन भर अन्धियारी।
प्यारा मेरा जिस घड़ी हुआ मुझसे जुदा
समझा कि कुमारी ही हुई मैं विधवा
कहते हुए बाप ने मुझे पकड़ा
‘तू बेहया है घर को जा।‘
और दाँतों प‘ दाँत मसमसा के बोले,
‘कुछ तू भी जहेज में अबे ले.

‘स्वप्न‘ कविता भारतीय स्त्री की प्रतीकात्मक कविता है। एक ही स्त्री में भारतीय स्त्री की सभी पीड़ा ;अर्थात् नायिका को ही भारतीय स्त्रियों का प्रतीक बनाकरद्ध व्यक्त की गई है। वह अपने अधिकारों को लेकर समाज व्यवस्था से प्रतिरोध करती है। जिस पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को अधिकारहीन बना उसे प्रत्येक अधिकारों से वंचित कर दिया, ‘स्वप्न‘ कविता की नायिका उन अधिकारों के लिए लड़ती है। आज आवश्यकता स्त्री के भीतर चेतना जाग्रत करने की है ताकि वह मानवीय अधिकारों के प्रति सचेत हो सके। स्त्री को उसकी आन्तरिक शक्ति से परिचित कराने में ‘स्वप्न‘ कविता अहम् भूमिका निभाती है। ‘स्वप्न’ की नायिका का बार-बार शोषण और प्रताड़ना का शिकार होने के बावजूद विपरीत प्रतिगामी शक्तियों के विरूद्ध जाना उसके अटूट संघर्ष की कहानी व्यक्त करता है। एक उदाहारण दृष्टव्य है-
एक दिन बैठे यह ख्याल आया /ख्याल क्या आया एक जवाल आया /कि योगिन बन के विभूत रमा
और कहके मैं ‘हा‘ पितृगृहि से सिधारी /वां से निकली तो फिर गई वन /वही वन जो कि फिरता था मन-मन/      घूमने मैं लगी इधर वो उधर /कि एकाएक पड़ी नजर किस पर ? /ज्यों हि बिछुड़ी-सी थी, मिल जाके /नोच डाला पिता ने फिर आके /जोर से और घुमाके दे चक्कर / शून्य में फेंका यां गिरी आकर /‘हाय ! वह देश चन्द्रलोक मेरा  हाय ! प्यारा मेरा कहाँ है पड़ा। हाय ! जब वां से मैं निकाली गई। हाय ! तब बिजली मुझ प‘ क्यों न गिरी ?        ज्यों ही यह कलाम निकला था कि सन से /बिजली त्यों ही गिरी प‘ हम चौंक उठे, /कहानी मेरी, प्यारे पढ़नेवाले सब स्पप्न ही था, जो देखते थे।

 हालांकि पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था में अधिकार पूर्ण स्वच्छंद रहना एक स्वप्न से अधिक कुछ नहीं है। ‘स्वप्न‘ की नायिका का ऐसे स्वप्न को साकार करने का प्रयास तत्कालीन समाज के लिए चुनौती है। चुनौती है स्त्री को नियंत्रित करने साधन ‘परिवार‘ और ‘विवाह‘ के लिए क्योंकि ये व्यवस्थाएँ व्यक्ति के बाह्य रूप पर प्रतिबंध लगा सकती है किंतु आंतरिक रूप से प्रतिबंध लगाना इनकी क्षमता के विरूद्ध है। कविता में नायिका अंतर्मन से अपने प्रेमी को अपना पति मान चुकी है। सामाजिक वर्जनाओं के चलते भी वह अंतर्मन से कभी अपने प्रेमी का त्याग नहीं कर पाती बल्कि वह वहीं से स्वयं को विधवा समझने लगती है-

‘एक रोज पिता ने हमको देखा/उस प्यार के साथ वन में तनहा। भूलूंगी नहीं उस दृष्टि को हर्गिज/छाई जिससे जीवन भर अन्धियारी।प्यारा मेरा जिस घड़ी हुआ मुझसे जुदा / समझा कि कुमारी ही हुई मैं विधवा

जब यह संस्था या व्यवस्था नायिका को आंतरिक रूप से कमजोर करने में असमर्थ होती है तब उसे बाह्य रूप से कमजोर करने का षड्यंत्र किया जाता है। और विवाह द्वारा उसकी स्वच्छंद प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाया जाता है परन्तु नायिका पर आंतरिक प्रतिबंध लगाना किसी भी संस्था या व्यवस्था के लिए संभवता से परे की बात है। हो सकता है वह सामाजिक दबाव के कारण कत्र्तव्यबद्ध हो जिसकारण अपने पति की मृत्यु के बाद स्वयं को विधवा मान लेती है किन्तु वह अपने पति को मन से स्वीकार कर नहीं कर पाती है तभी वह स्वयं को विधवा तो कहती परन्तु कुमारी विधवा। इसका परिचय वह अपनी कहानी व्यक्त करते हुए कविता के अंतिम पृष्ठों पर देती हुई कहती हैं कि-
‘हाय! शादी हुई थी/ बेहोश जब मैं थी /मैं सोलह बरस की /वह अस्सी बरस के / देख इनको मैं रोती, /देख हमको वह हँसते। क्या करो मुझे प्यार करो, माता ने बनाया है तुमको हमारी /मैं ही अमीर मर जाऊँगा जब, तब दौलत होगी हमारी तुम्हारी / मर ही गये वह विचारे, उसी दिन हो गई मैं विधवा; पर कुमारी /माता मेरी संतुष्ट हुई और घर लाई वह दौलत सारी,

एक स्त्री का अविवाहित होकर स्वयं को विधवा कहना और फिर उसी का विवाह उपरांत स्वयं को कुमारी विधवा कहना प्रतिरोधात्मक प्रवृत्ति का सूचक है। महेशनारायण स्त्री पीड़ा को भली-भाँति समझते हुए किस स्तर तक प्रत्येक स्त्री के लिए प्रतिरोधात्मक प्रवृत्ति को आवश्यक मानते हैं यह इस कविता के माध्यम से समझा जा सकता है। वे धर्म की आड़ में हो रहे स्त्री शोषण को चुपचाप नहीं देखते बल्कि ‘स्वप्न’ कविता की नायिका के माध्यम से प्रतिरोध करवाते हैं। वह यह सोचने पर विवश करते हैं. कि स्त्री जड़ता का कारण क्या है? एक तरह से यह कविता स्त्रियों में आत्म-चेतना उत्पन्न करती है। इस कविता में सामाजिक मान-मर्यादाओं, रूढ़ियों, मान्यताओं के प्रति तीव्र आक्रोश का भाव है। क्योंकि ये मान्यताएं स्त्री स्वाधीनता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। अनादि काल से स्त्री उपेक्षिता को चरितार्थ करने वाली उक्तियाँ प्रयुक्त की जाती रही है ये उक्तियाँ स्त्री शोषण और पराधीनता की गाथा गाती रहती हैं और उसकी स्वाधीनता की दुहाई देती रहती हैं। यह हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता का फल है कि आज तक स्त्री को स्वतंत्र प्राणी का अधिकार नहीं मिल पाया। राजेन्द्र यादव लिखते हैं ‘‘हमने स्त्री को हमेशा पुरूष के संदर्भ में ही देखा है, न कि स्वतंत्र प्राणी के रूप में। उसका सारा जीवन उसका अपना नहीं होता, किसी न किसी पुरूष के साथ जुड़कर ही उसका अस्तित्व बनता है। यहाँ तक कि उसका नाम भी नहीं होता। वह किसी की बहन है, तो किसी की बेटी, किसी पत्नी है, तो किसी की प्रेयसी। अब ऐसे में यदि स्वतंत्र स्त्री की अवधारणा पर बात की जाए तो वह एक बिल्कुल नई चीज है।’

स्वतंत्र स्त्री की अवधारणा नई हो सकती है लेकिन स्त्री स्वाधीनता संघर्ष का इतिहास बहुत पुराना है। भारतीय समाज में स्त्री गुलामी का इतिहास जितना पुराना है, उस गुलामी से मुक्ति के लिए स्त्री के संघर्ष का इतिहास भी उतना ही पुराना है, इस इतिहास की एक झलक ‘‘विमेन राइटिंग इण्डिया’ (1991)नामक पुस्तक में मिलती है जिसमें ईसा पूर्व 600 से वर्तमान काल तक के स्त्री-लेखन के नमूनों का संकलन है और साथ में लगभग ढाई हजार वर्षों के इतिहास में फैले लेखन के विभिन्न रूपों में व्यक्त पराधीनता का बोध और स्वाधीनता की कामना का विवेचन भी है।’’  स्त्री स्वाधीनता क्या है? यह प्रश्न प्रत्येक साहित्यकार के लिए विचारणीय बना हुआ है। सभी ने इसे अपने-अपने अर्थो में ग्रहण किया है। किसी ने इसे आर्थिक स्वावलम्बन से जोड़ा, किसी ने शरीर मुक्ति से, कोई स्त्री स्वाधीनता को शोषण विहीन समाज से जोड़ता है, कोई मानवीय अधिकार और कोई परम्पराओं से मुक्ति। किन्तु ये धरणाएँ तब तक निरर्थक हैं जब तक कोई स्त्री स्वयं अपने निर्णय लेने में सक्षम नहीं हो जाती। राजेन्द्र यादव ‘स्त्रीकाल’ में लिखते हैं ‘‘स्वतंत्र स्त्री वही है जो अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करें, अपनी शक्ति का अर्जन करें।’’
भक्तिकाल में मीरा अपने निर्णय लेने में पूर्णतः सक्षम थी। वह अपने निर्णयों द्वारा सम्पूर्ण सामंतवादी व्यवस्था को अपना विरोधी बना लेती है और छायावाद में महादेवी का सम्पूर्ण जीवन स्त्री स्वाधीनता के लिए संघर्षरत था। चन्द्रा सहाय के शब्दों में-‘‘भारतीय समाज में स्त्री की स्वाधीनता के लिए जो चिंता और बैचेनी आज है वह महादेवी वर्मा के लेखों में 30 के दशक में व्यक्त हुई थी।’’  लेकिन हिंदी साहित्यकार भक्तिकाल और छायावाद की कड़ी को क्यों भूल जाते हैं जिसमें स्वाधीनता आन्दोलन और नवजागरण के मूल में स्त्री स्वाधीनता की चिंता भी बखूबी दिखाई पड़ती है। हिंदी साहित्य में मीरा की स्वाधीनता अथवा मुक्ति का प्रयास प्रथम चरण और भारतेन्दु युग में ‘स्वप्न’ कविता में नायिका द्वारा मुक्ति की आंकाक्षा को द्वितीय चरण माना जा सकता है क्योंकि महादेवी ने एक स्त्री की जिन समस्याओं का विवेचन किया है लगभग वैसी ही समस्याएँ ‘स्वप्न’ कविता में स्त्री जीवन को विचलित करती है। यह कविता काल की दृष्टि से 1881 की कविता है। इस काल में स्त्रियों को लेकर बहुत कुरीतियाँ व्याप्त थीं जिन्हें लेकर भारतीय समाज सुधारकों ने स्त्री सुधारों के लिए विभिन्न आन्दोलन चलाए हुए थे.


‘स्वप्न’ की नायिका भी ‘स्त्री स्वाधीनता की लड़ाई के लिए सामाजिक प्राचीन रूढ़ियों, कुरीतियों से अपना संघर्ष आरंभ करती है जैसे-अनमेल विवाह, सती प्रथा, प्रेम विवाह, विधवा समस्या, आर्थिक स्वावलम्बन आदि। यद्यपि सभी प्रथाएँ स्त्री जाति के लिए एक अभिशाप थी लेकिन सती प्रथा समाज की बड़ी ही क्रूर और निर्मम प्रथा थी, जिसमें किसी स्त्री के पति की मृत्यु पर उसे ;स्त्री कोद्ध जिन्दा अग्नि में भस्म कर दिया जाता था। ऐसे समय में राजा राममोहन राय आगे आए और सती प्रथा का पुरजोर विरोध किया जिसके फलस्वरूप 1829 में सती प्रथा को समाप्त करने का कानून पास किया गया। किन्तु कानून पास होना और कानून लागू होना दोनों अलग-अलग बातें है। देश में कानून पास होने के बावजूद भी सती प्रथा जैसी क्रूर  कुरीति छिट-पुट घटनाओं के रूप में मिलती रही है।  कहना न होगा कि उस स्थिति में ‘स्वप्न’ की नायिका अपने अधिकारों को पहचानते हुए सती नहीं होती। वह स्त्री अधिकारों और स्वाधीनता की भली-भाँति समझ रखती है। स्त्रियों को विधवा होने पर जो संयमित जीवन व्यतीत करना पड़ता है उससे उसका कोई सरोकार नहीं है। वह समस्त नियमों को तोड़ते हुए प्राचीन रूढ़ियों, परम्पराओं अथवा कुरीतियों का बहिष्कार कर; स्त्रियों में नवीन चेतना का संचार अथवा स्त्री मुक्ति की ओर अग्रसर हेतु प्रेरक शक्ति बनती है।

प्रेम व्यक्ति की निजी अनुभूति है। सामाजिक प्रतिबंधनों के कारण यह अनुभूति भारतेन्दु युग में विकसित नहीं हो पाई। साहित्य में इस अनुभूति का आरम्भ छायावाद से माना गया। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग में यह अनुभूति नगण्य है। नामवर सिंह इसका कारण देते हुए कहते हैं ‘‘द्विवेदी-युग में सुधारवादी नैतिकता का इतना आतंक था कि प्रेम की कविता लिखते हुए कवि-जन संकोच करते थे, क्योंकि उन्हें रीतिकालीन कहे जाने का डर था।’’  लेकिन महेशनारायण ने समस्त खतरों पर ध्यान न देते हुए उन सभी तथ्यों को उजागर किया जिनसे अक्सर भारतेन्दु और द्विवेदी युगीन कवियों ने बचना श्रेयस्कर समझा। यद्यपि श्रीधर पाठक और प्रसाद ने इस प्रेम अनुभूति का आभास अपनी रचनाओं के माध्यम से कराया लेकिन श्रीधर पाठक को स्वच्छंदतावाद का प्रवर्तक या छायावाद को स्त्री और पुरूष के वैयक्तिक प्रेम का उदय मानना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि श्रीधर पाठक की ‘एकांतवासी योगी’ और प्रसाद की ‘प्रेम पथिक’ जैसी रचनाओं से भी पहले महेशनारायण ने नवीन काव्य स्वरूप का पुनर्विधान सामंजस्य के रूप में और प्राकृतिक आधार पर किया और वैयक्तिक प्रेम को भी स्थान दिया। एक ऐसे समय एवं समाज में जहाँ प्रेम के नाम को हीन दृष्टि से देखा जाता था, स्त्री और पुरूष के आपसी प्रेम की बात तो दूर की बात थी।

‘स्वप्न’ कविता की प्रेमपद्धति के विषय में महाकालेश्वर कहते हैं ‘‘स्वप्न’ रोमाण्टिक या स्वच्छन्दतावादी पद्धति की प्रेम कथा है। केवल कथानक के विचार से भी यह हिन्दी में अपने ढंग की रचना है। इस पद्धति का विकास आगे चलकर श्रीधर पाठक की ‘एकांतवासी योगी’ और प्रसाद की ‘प्रेम पथिक’- जैसी रचनाओं में हुआ है। आचार्य शुक्ल जिसे छायावाद के पूर्व का स्वाभाविक स्वच्छन्दतावाद कहते हैं।’’  महेशनारायण की कविता ‘स्वप्न’ की नायिका समाज की प्राचीन रूढ़ियों, मान्यताओं, परम्पराओं को न मानते हुए प्रेम मार्ग को अख्तियार करती है। पे्रम मार्ग का चुनाव नायिका की आकांक्षाओं को नये सोपान प्रदान करने का सा्रेत है। वह उन्मुक्त रूप से प्रेमी के साथ वनों में विहार करती हुई वह कहती भी है-
उस दिन से हुई गले का उसका मैं हार,
और खूब ही मैं उसको करती थी प्यार।
मिलती थी मैं रोज उससे जा एक वन में
फिरती थी मैं साथ उसके उस कानन में।
थे बीतते दिन इसी तरह से
वह प्यार के दिन अहा। इसी तरह से।
दुनिया से हमें नहीं था कुछ सरोकार,
हम उसके, हमारा था वह संसार।
बेलों के वह झूड़ों में देखाके छिपना
मुख-चुम्बन बाद फिर वन से निकलना
नयनों की चमक को देखकर उसकी जीती मैं थी।
आगोश में उसके जाके फिर भी जीती मैं थी।
वह था हमसे खुश
हम थे उससे प्रसन्न
दिल थे मेरे खुश
मन थे मेरे प्रसन्न।’‘

छायावाद में प्रकृति को विशेष महत्व दिया है। वास्तविक अर्थों में प्रकृति ही वह तत्व है जो मनुष्य को उन्मुक्त स्वच्छंदता का आभास कराती है। नामवर सिंह कवि की प्रकृति विशेष रूचि का कारण मानते हुए लिखते हैं ‘‘पुरानी समाज-व्यवस्था के घुटते हुए वातावरण की अपेक्षा आधुनिक युवक को प्रकृति के बीच खुला वातावरण मिला; प्रकृति के राज्य में उसे पशु, पक्षियों, नदी, नालों, हवा-बादल सब में उन्मुक्त और निरंकुश स्वच्छंदता के दर्शन हुए। इसी स्वाधीनता की टोह में आधुनिक कवि प्रकृति के क्षेत्र में आया। पुरानी समाज-व्यवस्था में उसकी वैयक्तिकता खो गई थी।’’

 ‘स्वप्न‘ कविता में स्त्री का बार-बार वन में भटकना अपनी सामाजिक व्यवस्था के प्रति उदासीनता को दर्शाता है। वह उन्हें तोड़कर ऐसे वातावरण में जाने के लिए उत्सुक रहती है, जहाँ उस पर किसी प्रकार का बंधन न हो। वह पूर्ण रूप से स्वाधीन हो। यह अनुभव सिर्फ नायिका को वन में जाकर ही होता है। नामवर सिंह भी कहते हैं ‘‘आधुनिक व्यक्ति का प्रकृति की ओर दौड़ना व्यक्तिगत स्वच्छंदता की आकांक्षा के लिए तो था ही, व्यक्तिगत स्वाधीनता का परिणाम भी था। यदि यह नूतन प्रकृति-परिचय इस स्वाधीनता का परिणाम था, तो छायावाद युग से पूर्व द्विवेदी युग और द्विवेदी युग से पूर्व भारतेन्दु युग तथा उससे भी पूर्व के पाँच-छः सौ वर्षों के सम्पूर्ण मध्ययुग में ऐसा-प्रकृति प्रेम संभव क्यों नहीं हो सका? प्रकृति तो पहले से ही मौजूद थी और वह लगभग इसी रूप में, बल्कि आधुनिक रूप से अधिक वन्य रूप में।’’  महेशनारायण ने इस वैयक्तिक स्वतंत्रता को बखूबी पहचाना, वह भी एक स्त्री स्वाधीनता के परिप्रेक्ष्य में। इसलिए ‘स्वप्न’ की नायिका व्यक्तिगत स्वछंदता के लिए अवसर तलाशती है और उन अवसरों का समय-समय पर लाभ भी उठाती है। नायिका जब युवक से प्रेम करती है तो वन में ही विहार करती हैं लेकिन पिता को यह ज्ञात होने पर जबरन उसका विवाह एक वृद्ध पुरूष से कर दिया जाता है और वह शादी के कुछेक दिनों बाद विधवा हो जाती है। वह एक बार फिर समाज की वर्जनाओं से उद्वेलित हो वनों में ही आसरा पाती है क्योंकि वन समाज की समस्त वर्जनाओं से मुक्त हैं।
छायावाद में वैयक्तिकता की पहचान प्रकृति के बीच होती है लेकिन भारतेन्दु युगीन कविता में यह अनुभूति भले न हो पाती हो पर भारतेन्दु युग में रहकर महेशनारायण ने इस अनुभूति को पहचाना। ‘स्वप्न‘ कविता में स्त्री द्वारा वैयक्तिकता की पहचान उनका प्रयोग उनकी नवीन दृष्टि और प्रयोगधर्मिता की परिचायक है। एक स्त्री का बार-बार वन में जाना, स्त्री की अव्यक्त भावनाओं को व्यक्त करना नहीं तो क्या है? स्त्री स्वाधीनता की प्रबल आकांक्षा नहीं तो क्या है? नामवर सिंह ने जिस छायावाद में प्रकृति प्रेम को द्विवेदी-युगीन आर्यसमाजी नैतिकता की प्रतिक्रिया का पहला सोपान और नारी-प्रेम की पृष्ठभूमि बताया है, वही भारतेंदु युगीन कविता ‘स्वप्न‘ में प्रकृति प्रेम समस्त नैतिकता की प्रतिक्रिया का प्रतिफलन है। इस कविता में स्त्री-प्रेम की अलग अवधारणा है। यह प्रेम भोग-विलास से कहीं ऊपर उठकर स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों को नवीन अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास करता है। यह प्रेम किसी प्रकार से स्त्री आधिपत्य पर आश्रित न होकर आधिपत्य लैस स्त्री अधिकारों का पक्षपाती है। अंततः महेशनारायण की प्रथम आधुनिक कविता ‘स्वप्न‘ एक महत्वपूर्ण कविता है। इसे नकारा जाना इसकी महत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाना है।

    संदर्भ सूची
1.डाॅ. मैनेजर पांडेय, आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, प्र. संस्करण 2006, पृ. सं. 230
    2.माओत्से-तुंग, कला, साहित्य और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, संस्करण 1994, पृ.द्ध
    3.सम्पादकः नामवर सिंह ,समकालीन भारतीय साहित्य, नवम्बर-दिसंबर 2007, पृ. 24
    4.महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 21
   5. डाॅ. मैनेजर पांडेय, आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, प्र. संस्करण 2006, पृ. सं. 227-230
   6.वीरभारत तलवार, रस्साकशीः 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत, सारांश प्रकाशन, दिल्ली,        संस्करण 2012, पृ. 187
   7.  वीरभारत तलवार, रस्साकशीः 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत, सारांश प्रकाशन, दिल्ली,          संस्करण 2012, पृ. 197
   8.‘‘हिन्दी नवजागरण के लेखकों के सामने स्त्रियों की समस्याएँ नहीं थीं। उनके लिए खुद स्त्री ही एक                    समस्या थी जिस पर हर हाल  में काबू पाना था।‘‘
  9. वीर भारत, राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य; कुछ प्रसंगः कुछ प्रवृत्तियाँ, हिमाचल पुस्तक भण्डार,                दिल्ली, प्र सं. 1993, पृ. 125
  10.‘‘19वीं सदी के पुरुष सुधारकों का स्त्री-आन्दोलन कभी भी कस्बों या छोटे शहरों तक नहीं फैला, वह सिर्फ          कुछ बड़े शहरों तक सीमित रहा।‘‘
  11.वीर भारत, राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य; कुछ प्रसंगः कुछ प्रवृत्तियाँ, हिमाचल पुस्तक भण्डार,                 दिल्ली, प्र सं. 1993, पृ. 135
  12.‘‘गांधी तथा अन्य राष्ट्रीय नेता बाल विवाह के दुबारा पक्ष में तो थे, पर युवती विधवा विवाह के विरोधी             थे।‘‘
    13.महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 21-22
   14. महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 25
   15. महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 27-28
   16.महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 25
   17. महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 26-27
  18.राजेन्द्र यादव, ‘बाजार स्त्री की छवि गढ़ता है‘, स्त्रीकाल, संपादक संजीव-चंदन, अंक-7,अप्रैल, 2010, पृ.                117
  19. राजेन्द्र यादवः संपादक, हंस, अक्ट. 1994, पृ. 36
  20. राजेन्द्र यादव, बाजार स्त्री की छवि गढ़ता है, स्त्रीकाल संपादक संजीव-चंदन, अंक-7,अप्रैल, 2010, पृ.                117
  21. संपादकः राजेन्द्र यादव, हंस, अक्ट‐ 1994, पृ. 36
  22.  राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास 1800-1900, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ. 338
         सितम्बर, 1987 में राजस्थान के एक गाँव में हुई सती की एक घटना से इस आंदोलन की शुरूआत हुई।             इस आंदोलन के दौरान बड़ी गर्मागर्म बहस हुई। इस बहस में न केवल हिंदू स्त्रियों के प्रति होनेवाले अच्छे-         बुरे बर्ताव के मुद्दे उठाए गए बल्कि धार्मिक पहचान, सामुदायिक स्वायत्तता तथा भारत के बहुआयामी,             विविध समाज में कानून एवं राज्य की भूमिका के प्रश्न भी उठे।
   23.नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2007, पृ. 52  
  24.महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ.द्ध
  25. महेशनारायण, स्वप्नः संपादक प्रो. महाकालेश्वर, अरण्यानी रांची, वर्ष 1984, पृ. 23
  26.नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2007, पृ. 36  
  27.नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2007, पृ. 37 

शोधार्थी,भारतीय भाषा केंद्र,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय


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