जेंडर और विज्ञान: एक नारीवादी परिप्रेक्ष्य

अतुल कुमार मिश्र

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा  में शोधार्थी है. सम्पर्क :  atulmishra.mediagroup@gmail.com

Representation of the world like the world itself is the work of men; they describe it from their own point of view, which they confuse with the absolute truth. : Simone de Beauvoir


Science, it would seem, is not sexless: he is a man, a father and infected too. : Virginia Woolf

ज्ञान को एक सत्ता के रूप में व्याख्यायित करते हुए (Knowledge is power) मिशेल फूको जब समाज में व्याप्त श्रेणीबद्ध ज्ञानात्मक विभाजन की बात करते हैं, तो ज्ञान की प्रभुत्वशाली सत्ता-संरचना और इससे निर्मित भेदभावपूर्ण सत्ता-संबंधों का यह सैद्धांतिक विश्लेषण अब तक शाश्वत माने जाते रहे मुख्यधारा के ज्ञान-विज्ञान को अचानक से कुछ मूलभूत सवालों के घेरे में खड़ा कर देता है। मसलन ‘किसका ज्ञान’ और ‘किसके बारे में ज्ञान’ जैसे सवाल हाशिए के नए विमर्शों द्वारा बड़े पैमाने पर सामने आते हैं और इन सवालों की रोशनी में ही हाशिए के विमर्शों का नया ज्ञानशास्त्र आकार लेता है। क्योंकि ज्ञान अगर ‘जानने’ और ‘न जानने’ वाले के बीच एक भेदभाव पूर्ण फर्क पैदा करता है तो एक ज्ञानमूलक समाज अपनी आधारभूत निर्मिति में ही ऊंच-नीच के भेद पर आधारित (hierarchical) समाज होगा और चूंकि सभ्यता की ‘तथाकथित’ विकास-यात्रा ज्ञान की ही यात्रा रही है, इसलिए ज्ञान के विकास के साथ ज्ञानात्मक समाज में अंतर्व्याप्त यह विभाजन और भी गहरा होता जाएगा, खासकर तब अगर सभी को ‘ज्ञान’ तक पहुँच के समान अवसर न मिलें या फिर कुछ खास तरह के ‘ज्ञान’ को ही वैधता दी जाए और शेष लोगों/समूहों के ज्ञान को ‘ज्ञान’ के बतौर मान्यता ही न मिले। इस प्रकार फूको के मुताबिक ‘ज्ञान’, एक ताकत के रूप में सामाजिक संरचना की श्रेणीबद्धता को निर्धारित करता है और एक सत्ता संरचना के बतौर सामाजिक विभेदों को जन्म देने या उन्हें समयानुसार नए सिरे से अनुकूलित करने का काम भी करता है। अब चूंकि विज्ञान; हर तरह के ज्ञान का चरम है, इसलिए वस्तुनिष्ठता एवं सार्वभौमिकता के अपने दावों और विशिष्टता एवं प्रायोगिकता की अपनी क्षमताओं के चलते यह विज्ञान, ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक के रूप में  हमारे सामने आता है और आधुनिकता के साथ हम इस ‘वैज्ञानिक ज्ञान’ के ‘आभामण्डल’ को हर तरफ फैलते हुए भी देख सकते हैं। इसके अंतर्गत जहां एक तरफ ‘ज्ञान-संस्थानों’ के जरिए ज्ञान-समाज (नॉलेज सोसाइटी) बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है तो वहीं ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में भी खुद को ज्यादा से ज्यादा ‘वैज्ञानिक’ साबित करने की एक होड़ सी दिखती है। इस दौरान ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक के बतौर विज्ञान की चकाचौंध से व्यापक समाज की आक्रान्तता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता हैकि धर्म को अफीम कहने वाले मार्क्स भी, मार्क्सवाद को वैज्ञानिक दर्शन (वस्तुनिष्ठ एवं एकमात्र सत्य) कहने के मोह से ख़ुद को बचा नहीं पाते। वैज्ञानिक ज्ञान का यह आभामण्डल इतना विशाल था कि इसके चलते विज्ञान के अपने (इनबिल्ड) सत्तात्मक संबंधों, जो शासन सत्ता पर किसी वर्ग के कब्जे से अधिक गहरे हैं, को नहीं देखा जा सका। दूसरी तरफ आगे चलकर दो विरोधी चरित्रों के बावजूद धर्म और विज्ञान का अद्भुत गठजोड़ अगर इतनी आसानी से सर्वस्वीकार्य हो गया तो इसके पीछे सिर्फ़ पूंजीवादी शासन सत्ता की ज़रूरत भर नहीं थी, बल्कि विज्ञान का यह आभामंडल भी था जिसकी चकाचौंध में तमाम अंतर्विरोधों का छिप जाना स्वाभाविक था।


आधुनिकता की संरचना में विज्ञान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह यथार्थ की प्रकृति और वस्तुगत ज्ञान की सम्भावना पर जैसी रोशनी डालता है,वह इससे पहले सम्भव नहीं थी। यह न केवल प्रकृति का ज्ञान सम्भव बनाता है,बल्कि ज्ञान-मीमांसा (Epistemology) में भी क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है और समूचे मानव-ज्ञान के लिए एक प्रतिमान प्रस्तुत करता है और यह सब होता है,उसकी विशिष्ट प्रविधि (Methodology) के बल पर। विज्ञान ज्ञान प्राप्त करने की एक निश्चित प्रणाली निर्धारित करता है जिसमें प्रेक्षण,प्रयोग,सिद्धांत निर्माण,निगमन (Deduction) पूर्वानुमान (Prediction) और जांच का व्यवस्थित इस्तेमाल किया जाता है। वैज्ञानिक प्रणाली वस्तुगत ज्ञान का निश्चित साधन बनती है और यथार्थ की प्रकृति के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  प्राकृतिक विज्ञान से पैदा हुई यह प्रणाली कुछ संशोधनों और नये तत्वों के साथ सामाजिक विज्ञान की प्रणाली का भी आधार बनती है। यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विज्ञान इसलिए विज्ञान है, क्योंकि यह मानव समाज की प्रकृति के साथ अंतर्क्रिया में पैदा होता है। बाकी सभी क्रियाएं-प्रक्रियाएं मानव समाज की आंतरिक क्रियाएं-प्रक्रियाएं हैं, जहाँ समाज ही कर्ता (subject) है और समाज ही वस्तु (object) है। प्राकृतिक विज्ञान में प्रकृति वस्तु है और मानव समाज इस वस्तु पर कार्य करता है,जिससे ‘वस्तुगत ज्ञान’का सुनिश्चित मॉडल बनता है और प्रकृति पर नियंत्रण और उसके योजनाबद्ध इस्तेमाल की परिस्थिति पैदा होती है ,जिसका अगला चरण तकनीकी के उत्तरोत्तर विकास द्वारा प्रकृति पर नियंत्रण और उसके इस्तेमाल की क्षमता में वृद्धि के रूप में सामने आता है।

लेकिन विज्ञान के क्रमिक इतिहास ने आज यह साबित कर दिया है कि विज्ञान सामाजिक परिप्रेक्ष्यों से मुक्त नहीं है,बल्कि सामाजिक (जरूरी नहीं कि समाज के सारे हिस्से इसमें शामिल हो) आवश्यकताओं के क्रम में और तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के दायरे में ही विज्ञान का सम्पूर्ण विकास देखा जा सकता है। इसी संदर्भ में डी.डी. कोसंबी अपने एक लेख ‘विज्ञान समाज और स्वतंत्रता’ में सवालिया लहजे में कहते हैं कि,“सोचने की बात है कि क्या यह मात्र संयोग था कि उस शताब्दी ने जिसमें कि दो क्रांतियाँ हुईं,इंग्लैण्ड में बुर्जुआजी को सत्तारूढ़ किया,न्यूटन को जन्म दिया?यह कैसे है कि फ्रांसीसी क्रांति ने जिसने कि फ्रांस में सामंतवाद के कूड़े को साफ किया,फ्रांस और यूरोप के महानतम वैज्ञानिकों जैसे कि लांग्राज,लाप्लास, एंपरे,बर्थलो को देखा?वे बुर्जुआजी के साथ आगे बढे और नेपोलियन के बाद भी बने रहे। जर्मनी के विज्ञान का महान नाम गाउस लगभग उसी समय अवतरित होता है जब कि उस देश में बुर्जुआजी वास्तविक ताकत बन जाते हैं;और वह अकेला नहीं है। अगर हम इन को मात्र संयोग कह कर दरकिनार कर दें तो हम विज्ञान की उत्पत्ति को वैज्ञानिक आधार की संभावना से वंचित कर विज्ञान के इतिहास को सौभाग्यशाली संयोगों की श्रृंखला मान कर हास्यास्पद स्थिति में पहुँच जायेगें,जबकि विज्ञान स्वयं अपना इतिहास है और यह सदा संदेहास्पद संयोगों के पीछ तर्क खोजता हुआ आगे बढ़ा है”।

इस प्रकार यह नहीं माना जा सकता कि विज्ञान ऐसे प्रतिभाशाली लोगों की रचना है,जो कि विशुद्ध वैज्ञानिक कारणों पर उन समस्याओं के साथ सोचते रहते हैं जो उनके दिमाग के किसी कोने से उपजती हैं। यद्यपि हर युग और समाज में कुछ प्रतिभाशाली लोग होते हैं,लेकिन वे किस तरह अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करेंगें, यह उनके वातावरण परिवेश, परिस्थितियों एवं उस भाषा पर निर्भर करता है, जिसे वे विचार के लिए चुनते हैं। मस्तिष्क के लिए बिना विचार के बने रहना उतना ही असम्भव है,जितना कि शरीर के लिए बिना गति के बने रहना ,लेकिन विचार भाषा के बग़ैर सम्भव नहीं है और न ही भाषा अपनी सामाजिक बुनावट एवं सांस्कृतिक राजनीति से मुक्त है। नारीवादी सिद्धांतकार एवलेन फॉक्स केलर (Evelyn Fox Keller) पियाजे एवं अन्य मनोविश्लेषकों के आधार पर कहती हैं कि मनुष्य के रूप में एक बच्चे के बड़े होने की पूरी प्रक्रिया न केवल सामाजिक वरन् संज्ञानात्मक स्तर पर भी,सांस्कृतिक रूप से भाषा और परिवेश द्वारा निर्देशित होती है  और इस तरह सिमोन की प्रसिद्ध उक्ति “स्त्री पैदा नहीं होती,बनायी जाती है”और भी व्यापक स्तर पर मनुष्य मात्र के अपने सांस्कृतिक परिवेश के मुताबिक गढ़े जाने की इस नई बात तक पहुँचती है कि “मनुष्य पैदा नहीं होता,गढ़ा जाता है”।चूंकि किसी विशिष्ट सामाजिक परिवेश के अन्तर्गत जन्मा कोई भी ज्ञान उस परिवेश से परे नहीं हो सकता,विज्ञान भी इसका अपवाद नहीं है। चौदहवीं से उन्नीसवीं सदी के बीच यूरोपियन रेनेसां के साथ जिस आधुनिक विज्ञान की नींव पड़ी,वह कोई अचानक से पैदा हुई चीज नहीं थी बल्कि उससे पहले के वैज्ञानिक विकासों के साथ उसकी घनिष्ठ सम्बद्धता थी। आधुनिक विज्ञान की खास बात सिर्फ़ यह थी कि उसके पास अपनी एक विशिष्ट प्रविधि थी जिसके बल पर वह प्रकृति के नियमों की ‘तथाकथित’ वस्तुनिष्ठ व्याख्या कर सकने में सक्षम था। आधुनिक विज्ञान द्वारा वस्तुनिष्ठता एवं सार्वभौमिकता के दावों के पीछे छिपे सत्ता सम्बधों और वर्ग चरित्र को आधार (Base) और अधिसंरचना (Superstructure) के आधार पर व्याख्यायित करने और दुनिया के सामने लाने का काम सबसे पहले मार्क्स ने किया,लेकिन मार्क्स ने सत्ताधारी वर्ग के हथियार के रूप में विज्ञान की निरपेक्षता पर सवाल नहीं उठाया बल्कि सब कुछ प्रयोगकर्ता (वर्ग के रूप में) की नीयत पर छोड़ दिया,पर दरअसल बात इतनी आसान नहीं थी –



अपनी किताब ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में एंगेल्स बताते हैं कि दुनिया का पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरूष के बीच हुआ, लेकिन यह नहीं बताते कि उत्पादन पद्धतियों में हुए बदलावों और शोषक-शोषित के बदलते संबंधों के बावजूद स्त्री और पुरुष का यह जेंडरगत विभाजन, जहाँ पुरुष शासक और स्त्री शासित के रूप में थी, लगातार कैसे कायम बना रहा? सहमतिमूलक वर्चस्व पर आधारित पुरुष की यह सत्ता इतिहास की क्रांतियों,समाज में हुए आमूलचूल परिवर्तनों और विज्ञान में पैराडाइमों के ‘शिफ्ट’होने के बावजूद नहीं बदली बल्कि इसने लगातार परिस्थितियों के हिसाब से ख़ुद को ढाला और मजबूत किया। मार्क्सवाद की सीमा यही रही  कि स्त्री और पुरुष के बीच वर्ग विभाजन को स्वीकार करने के बावजूद यह शोषक एवं शोषित दोनों ही वर्गों के भीतर शासित स्त्री के परिप्रेक्ष्य को नजरंदाज कर देता है और शासक वर्ग के साथ हितबद्ध विज्ञान के सत्ता संबंधों को व्याख्यायित करने के बावजूद अधिक व्यापक स्तर एवं अधिक गहरे तक जड़ जमाये पितृसत्ता एवं पुरुष श्रेष्ठताबोध की धारणा के विज्ञान पर पड़े प्रभाव और इस तरह निर्मित ‘पुरुषीय विज्ञान’ (MasculineScience) की समझ को भी नहीं पकड़ पाता। ज्ञानशास्त्रीय स्तर पर यह विज्ञान को निरपेक्ष एवं अंतिम सत्य मान लेता है और प्रकृति के निश्चित नियमों की अपने परिप्रेक्ष्य से गढ़ी गई हितबद्ध व्याख्या में ‘कर्ता’ (बुर्जुआ या सर्वहारा के अतिरिक्त स्त्री या पुरुष,श्वेत या अश्वेत, उपनिवेशक या उपनिवेशित,सवर्ण या अवर्ण) की सचेतन अथवा अचेतन भूमिका पर ध्यान नहीं देता जबकि आधुनिक विज्ञान यदि बुर्जुआ के लिए एक हथियार था जिसे उसने अपने फायदे के लिए एक काल विशेष (रेनेसां) में गढ़ा था तो यह पितृसत्ता के लिए भी खु़द को वैध ठहराने का (मनगढन्त व्याख्याओं द्वारा) एक ज़रिया था जैसे कि धर्म।

विज्ञान की वस्तुनिष्ठता,सार्वभौमिकता एवं निरपेक्षता की धारणाएं इसीलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये उसे अंतिम,प्रमाणिक एवं एकमेव सत्य की उसी परम स्थिति में पहुँचा देती हैं,जो धर्म के माध्यम से ईश्वर तक पहुँचती थी और जिसे प्रश्नांकित कर सकना उस समय सम्भव नहीं था। इस प्रकार जिस तरह एक लम्बे समय तक धर्म अपने नैतिक नियमों एवं मूल्यों के माध्यम से पितृसत्ता को मजबूत करता रहा था,उसी तरह विज्ञान भी अपने नियमों एवं सिद्धांतों की आड़ में पितृसत्ता को लगातार बनाये और बढ़ाये रहने की कोशिशे जारी रखता है। विज्ञान की श्रेष्ठता को लेकर एक आम धारणा यह है कि प्रबोधन की परियोजना में विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण गुण आत्मप्रश्नेयता (Reflexivity) का है।  विज्ञान और तर्कबुद्धि दोनों की प्रकृति अपने आप को हमेशा कठघरे में खड़े रखने की है। विज्ञान अपने आप को गलत सिद्ध करने के प्रयास में आगे बढता है और अधिक व्यापक और अधिक गहरे सिद्धांतों तक पहुँचता है लेकिन विज्ञान में आत्मप्रश्नेयता का यह गुण जो उसे धर्म से अलग करता है,इसलिए सम्भव है क्योंकि आधुनिकता (जो आधुनिक विज्ञान के साथ अंतर्गुम्फित है) में आत्मप्रश्नेयता का तत्व अपने सतत परिमाणात्मक रूपान्तरण के लिए जरूरी है। मार्क्स के शब्दों में कहें तो “बुर्जुआ,तकनीक और अर्थव्यवस्था में लगातार परिवर्तन किए बिना जिंदा नहीं रह सकता”।अर्थात आधुनिकता, मध्ययुग से व्यतिक्रमिक और उसके साथ अर्थ व तकनीक स्तर पर तो आलोचनात्मक रवैये पर ही आधारित विकास है,लेकिन दार्शनिक स्तर पर स्वयं की अपनी संरचनात्मक प्रक्रिया या कमियों की ओर आलोचनात्मक होने के बजाय आत्ममुग्ध ही नज़र आती है।  रविन्द्र कौत्सायन कहते हैं कि यदि प्रबोधन या आधुनिकता की अन्तर्भूत दार्शनिक बनावट में आत्मप्रश्नेयता का तत्व समाहित होता तो फिर प्रबोधन की कथित सबसे अग्रणी समाजवादी संरचनाएं क्यों आत्मप्रश्नेयता के संदर्भ में लगातार विकसित होने के बजाय या कि स्वयं को प्रश्नों के घेरे में रखने के बजाय प्रश्नाकुलता से नाता तोड़ आस्थावादी बंद संरचनाओं में तब्दील होकर अंततः ढह जातीं?दरअसल यह धर्म या विश्वास की तरह बंद छोर वाली संरचनात्मक प्रक्रिया में तब्दील होने से ही सम्बंधित मसला है,जहाँ आत्म प्रश्नेयता के सर्व अन्वेषी खुले छोर वाले चरित्र का नकार हो जाता है।



इस प्रकार हम पाते हैं कि जिस तरह धर्म,पूर्व आधुनिक समाज की सत्ता संरचना से हितबद्ध था,उसी तरह विज्ञान आधुनिक सामाजिक संरचना का मूल आधार बनता है। अपने आप में धर्म का मूल एजेण्डा ईश्वर को स्थापित करना भले ही नज़र आता हो,लेकिन उसका असली और छिपा हुआ एजेण्डा आचार संहिता को स्थापित कर लोगों के आचार-व्यवहार को तय करना है ,जो कि ईश्वरीय कथनों और धार्मिक मूल्यों के नाम पर तर्कातीत,निरपेक्ष, सार्वभौमिक और परम सत्य घोषित किया जाता है। विज्ञान भी आधुनिकता के साथ नई आचार संहिता गढता है और प्रायोगिक,वस्तुनिष्ठ,सार्वभौमिक एवं वैज्ञानिक सत्य के रूप में धार्मिक मूल्यों पर वैज्ञानिक मूल्यों की विजय और उनके स्थानापन्न के बतौर सामने आता है। यह कुछ वैसा ही था, जैसा कि इब्राहिम लोदी को हराकर बाबर का दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा कर लेना,जिसका शासकों, सल्तनतों और वंशों का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों की नज़र में तो बड़ा महत्व था,लेकिन आम उत्पीड़ित जनता (प्रजा) के लिए,यह कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी। धर्म और विज्ञान दोनों ही अपनी संरचना में एक ख़ास वर्ग (बुर्जुआ), ख़ास नस्ल (श्वेत यूरोपियन) और ख़ास जेंडर (पुरुष) के द्वारा एक ख़ास समय में निर्मित हुए और दोनों का ही घोषित उद्देश्य मनुष्य मात्र का कल्याण और विकास था लेकिन इन घोषित उद्देश्यों के पीछे सत्ता संरचना में अन्तर्निहित कुछ अघोषित लक्ष्य भी थे। नारीवादी परिप्रेक्ष्य से कहें तो ‘ईश्वरीय सत्य’एवं ‘वैज्ञानिक ज्ञान’दोनों ही पुरुष के नज़रिए से पुरुष का देखा हुआ ‘यथार्थ’था और स्त्री का ‘सच’ इस पूरे परिदृश्य से बाहर था। चूंकि ज्ञान-विज्ञान की धारणाएं और उनकी विकास प्रक्रिया सामाजिक संरचनाओं से मुक्त नहीं हो सकती और प्राकृतिक दर्शन से लेकर आधुनिक विज्ञान के उद्भव तक स्त्री और पुरुष के बीच जेंडरगत विभाजन और स्त्री पर पुरुष की सत्ता लगातार बरकरार रही है, इसलिए जैसाकि केलर कहती हैं कि तथाकथित निरपेक्ष आधुनिक विज्ञान जन्म के साथ ही पुरुष के पक्ष में ‘जेंडराइज्ड विज्ञान’रहा। केलर इस जेंडराइज्ड विज्ञान को ‘मैस्कुलिन साइंस’ (पुरुषीय विज्ञान) कहती हैं, जो सामाजिक संरचना में अंतर्व्याप्त विश्वासों (systemofbeliefs) से जन्मता है और ये विश्वास उस सांस्कृतिक बनावट का हिस्सा होते हैं जो भाषा,विचार एवं परिवेश से किसी मनुष्य को गढ़ती है। सामाजिक संरचना में पुरुष की श्रेष्ठता जहाँ धर्म के अन्तर्गत ईश्वर को पुरुष साबित करती है, वहीं विज्ञान भी ‘वस्तुनिष्ठ’ होने के कारण पुरुषीय सिद्ध होता है जबकि पेंटिंग,लेखन या मानविकी के अन्य विषय स्त्रैण घोषित कर दिए जाते हैं।

अपने-अपने समय में धर्म और विज्ञान दोनो ही अंतिम सत्य के रूप में ख़ुद का जो आभामण्डल रचते हैं, उसकी आक्रान्तक चकाचौंध से बच सकना आसान नहीं होता। विशेषतया उनके शुद्ध एवं आदर्श रूपों में उनकी सत्ता संरचना एवं हितबद्धता को समझना (विशेष रूप से विज्ञान की) एक मुश्किल काम है,लेकिन सैद्धांतिक नियमों के व्यवहारिक अनुप्रयोग अपेक्षाकृत अधिक स्पष्टता के साथ हमें एक नए परिप्रेक्ष्य से नया सच दिखाते हैं। जैसे कि धर्म के मूल पाठ (टेक्स्ट) की परिस्थितियाँनूकूल विभिन्न व्याख्याओं के बजाय धार्मिक कर्मकांड,मिथक,मान्यताएं और क्रियाकलाप उसकी संरचना में निहित तत्वों को खोजने में अधिक आसान विकल्प होंगें। इसी तरह तकनीकी विकास के जेंडर विश्लेषण के आधार पर विज्ञान के जेंडराइज्ड एवं मैस्कुलिन होने की बात अधिक आसानी से कही जा सकती है। केलर के अनुसार विज्ञान के ‘जेंडराइजेशन’का आधार सिर्फ वे तरीके नहीं हैं,जिन्हें वह प्रयोग करता है बल्कि ‘यथार्थ’की वे व्याख्याएं है,जो विज्ञान देता है और जिसके साथ वैज्ञानिक की निर्मिति का घनिष्ठ अन्तर्सम्बंध होता है। विज्ञान दुनिया को समझने के क्रम में उसे दो भागों में बांटता है- पहला Known (Mind) यानि ज्ञाता और दूसरा Knower (Nature) यानि जानने योग्य। स्वयं को ज्ञाता (कर्ता) की स्थिति में रखते हुए वह प्रकृति को ‘जाने जा सकने वाले’एक ‘ऑब्जेक्ट’ की तरह देखता है। प्रकृति एक स्त्री है,जिसके रहस्यों (नियमों) को जानना विज्ञान (पुरुष) का अधिकार है ताकि उस पर नियंत्रण कायम किया जा सके। प्रकृति और विज्ञान के बीच का सम्बंध स्त्री-पुरुष के पारम्परिक संबंधों की तरह ही है जहाँ प्रकृति (स्त्री) नियंत्रित एवं विज्ञान (पुरुष) नियंत्रक की भूमिका में है और यह पितृसत्ता की मजबूती के साथ लगातार और भी दृढ़ हुआ है जैसे कि अपनी प्रारम्भिक अवस्था से आज के आधुनिक विज्ञान तक पूरा विकास प्रकृति के साथ सामंजस्य से शुरू होकर उस पर अधिकाधिक नियंत्रण हासिल करने की महत्वाकांक्षा तक पहुँचा हैं। उन देशज समुदायों में जहाँ पितृसत्ता की जड़ें बहुत मजबूत नहीं है विज्ञान आज भी प्रकृति पर नियंत्रण की बजाय,प्रकृति के साथ समन्वयवादी संबंधों पर आधारित दिखता है।



फ्रायड,पियाजे एवं अन्य मनोविश्लेषकों के कामों के आधार पर जहाँ केलर वस्तुनिष्ठता एवं जेंडर के विकास का संज्ञानात्मक स्तर पर विश्लेषण करते हुए विज्ञान को पुरुषीय (मैस्कुलिन) साबित करती हैं,वहीं सैन्ड्रा हार्डिंग ऑब्जेक्टिविटी (वस्तुनिष्ठता) के विरूद्ध सब्जेक्टिविटी (विषयनिष्ठता) को “स्ट्रांग ऑब्जेक्टिविटी”के बतौर पेश करती है और ‘मेथडोलॉजी’के बल पर खुद को श्रेष्ठ साबित करते विज्ञान के ‘मेथड्स’पर ही सवाल उठाते हुए फेमिनिस्ट स्टैंडप्वांइट की अवधारणा देती हैं, लेकिन न तो फेमिनिस्ट आंदोलन कोई एक दिन की बात थी और न ही विज्ञान के जेंडर विश्लेषण के अन्तर्गत सैन्ड्रा हार्डिंग और केलर द्वारा वैज्ञानिक ज्ञान की वस्तुनिष्ठता एवं निरपेक्षता को चुनौती कोई आकस्मिक घटना थी। यह सब एक क्रमिक विकास प्रक्रिया के अन्तर्गत ही था। यह अनायास नहीं था कि ‘मैरी वोल्ट्सनक्राफ्ट’और ‘जे. एस. मिल’ जब स्त्रियों की मुक्ति और उनकी स्थितियों में सुधार की आवाज उठा रहे थे,उस समय औद्योगिक क्रांति और पूंजीवाद को अपने विकास के लिए स्त्री को घर की चारदीवारी से बाहर निकालना आवश्यक था। इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि प्रकृति,समाज,विज्ञान औरसामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाएं एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से अंतर्संबंधित हैं और एक-दूसरे के विकास को प्रभावित करती और उससे प्रभावित होती हुई आगे बढ़ती हैं और यह प्रक्रिया सिर्फ चेतन स्तर पर ही नहीं, बल्कि अचेतन/अवचेतन स्तर पर भी चलती है। कई जटिल एवं संश्लिष्ट चरणों में सम्पन्न यह प्रक्रिया कई बार अनेक अन्तर्विरोधों को जन्म देती है,जिसके अप्रत्याशित परिणाम सामने आते हैं। उदाहरण के लिए धर्म और आधुनिकता की बात की जा सकती है। यद्यपि धर्म और आधुनिकता का सम्बंध विरोधी नज़र आता है क्योंकि आधुनिक मूल्य, धार्मिक एवं रूढ़िवादी बंधनों को तोड़कर ही पैदा होते हैं,लेकिन आधुनिकतावादी राज्य से औपचारिक सम्बंध विच्छेद के बावजूद यह “निजी मामले”की आचार-संहितापरक ‘छूत’की तरह परिवार से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना तक गहन रूप से मौजूद रहता है और इस तरह शीघ्र ही आधुनिकता के साथ नया अधिसंरचनात्मक सम्बंध स्थापित कर लेता है। महत्वपूर्ण यह है कि आधुनिकता एवं धर्म के गठजोड़ की यह प्रक्रिया सिर्फ़ कोई राजनैतिक प्रक्रिया नहीं है,बल्कि यह सांस्कृतिक वर्चस्व की जटिल संरचनात्मक प्रक्रिया है,जो कि रोजमर्रा के क्रियाकलापों, मूल्यों आदि के साथ-साथ मानसिक बनावट से भी सम्बंधित है।  इस प्रक्रिया में कई रोचक अन्तर्विर्रोध भी सामने आते हैं,जिसके अन्तर्गत आधुनिक भौतिकी के महान नाम आइजेक न्यूटन जितना समय विज्ञान और गणित के सिद्धांतों पर लगाते हैं,उससे कई गुना ज्यादा बाइबिल की व्याख्या और अंधविश्वास से प्रेरित अलकीमियाई (alchemist) प्रयोगों पर खर्च करते हैं। अल्बर्ट आइंसटीन ईश्वर की दुहाई देने से बाज नहीं आते और कई भारतीय वैज्ञानिक व्रत एवं उपवास रखते हुए प्रयोगशालाओं में काम करते हैं।  इसका कारण वह संस्कृति-परम्परा है,जिसका व्यक्ति की बनावट में महत्वपूर्ण योगदान होता है किसी निश्चित संस्कृति से निर्मिति व्यक्ति उस संस्कृति का वाहक भी होता है और इस प्रकार उस संस्कृति का पुनरूत्पादन होता रहता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सब कुछ यथास्थित बना रहता है। वर्चस्व के भीतर से ही वर्चस्व के विरूद्ध प्रतिरोधी स्वर भी सामने आते है जिनका उद्देश्य नये सांस्कृतिक मूल्यों की रचना करना होता है। इन नये सांस्कृतिकमूल्यों की स्थापना की कोशिशें अन्य सामाजिक-आर्थिक अन्तर्प्रभावों के साथ मिलकर नया ज्ञान-विज्ञान रचती हैं। उदाहरण स्वरूप धर्म और विज्ञान दोनों के ही सांस्कृतिक वर्चस्व का जरिया होने के बावजूद पूर्व आधुनिक धार्मिक मूल्यों से आधुनिक वैज्ञानिक चेतना का विकास इसी रूप में हुआ है। बुर्जुआ आधुनिकता की आवश्यकता के रूप में ही सही,आधुनिक विज्ञान का आत्मप्रश्नेयता का गुण,उसे धर्म के आगे का कदम तो साबित करता ही है। नारीवाद और सबाल्टर्न के अन्य विमर्श यदि विज्ञान की सांस्कृतिक वर्चस्वता को चुनौती दे सके तो इसके पीछे विज्ञान की आत्मप्रश्नेयता का वह गुण ही था,जिसने पहले तो स्त्री-पुरुष के बीच की धर्म द्वारा गढी असमानता का वैज्ञानिक आधारों पर खंडन किया,जिसके फलस्वरूप नारीवादी आंदोलन का शुरूआती आधार खड़ा हुआ और आगे चलकर वस्तुनिष्ठता,निरपेक्षता एवं सार्वभौमिकता के अपने ही दावों का खंडन किया (सापेक्षता सिद्धांत) जिसने नारीवादी ज्ञानशास्त्र का आधार तैयार किया। इसी क्रम में वह अपनी प्रविधि पर सवाल उठाते हुए किसी ‘निश्चित’एवं ‘निर्धारित’एकमेव सत्य से ‘अनिश्चित’एवं ‘अनिर्धारित’‘बहुल सत्यों’तक पहुँचा,  (क्वांटम भौतिकी की नील्स बोर द्वारा की गई अर्थ-व्याख्या) ,जिससे ज्ञान-विज्ञान शक्ति संबंधों (ज्ञान ही शक्ति है) को समझते एवं सामने लाते उत्तर आधुनिक विमर्शों से लेकर सबाल्टर्न तक का वैज्ञानिक आधार तैयार होता है। चूंकि सामाजिक एवं वैज्ञानिक विकासों के मध्य एक घनिष्ठ अन्तर्सम्बंध होता है,इसलिए वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता एवं निरपेक्षता का खंडन करता सापेक्षता सिद्धांत नारीवादी ज्ञानशास्त्र में फेमिनिस्ट स्टैंडप्वांइट का आधार देता है, जो आगे चलकर नारीवाद के भीतर ही अलग-अलग धाराओं के रूप में विकेन्द्रित स्टैंडप्वांइट्स अख्तियार करता है।



विज्ञान और सबाल्टर्न के बीच वस्तुगतता और विषयगतता की पूरी बहस का मूल आधार विज्ञान की उस आत्मप्रश्नेयता से ही जन्मता है,जो सापेक्षता सिद्धांत के अन्तर्गत अपनी ही ‘वस्तुगतता’को नकारता है। यद्यपि विज्ञान की इस आत्मप्रश्नेयता का यदि व्यापक सामाजिक प्रभाव नहीं दिखता तो इसका कारण आधुनिक विज्ञानवाद की वे विश्लेषणात्मक और विखंडित सीमाएं हैं,जिसके कारण कथित सामाजिक विज्ञान प्राकृतिक सरोकारों से बेगाने नज़र आते हैं  और जिसके पीछे आर्थिक,राजनीतिक सांस्कृतिक सत्ता संरचनाओं की एक जटिल प्रक्रिया काम करती है। विज्ञान की आत्मप्रश्नेयता विज्ञान तक ही सिमट कर रह जाती है और उसके दार्शनिक सामाजिक पहलुओं को नज़र अंदाज कर दिया जाता है। लेकिन सापेक्षता सिद्धांत इस मामले में अपवाद साबित होता है,क्योंकि सापेक्षता की धारणा के व्यापक सामाजिक निहितार्थ तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में स्पष्टतया दृष्टिगोचर होते हैं। चूंकि यह दौर उपनिवेशवादी मुक्ति आंदोलनों एवं समाजवादी क्रांति के सर्वहारा संघर्षों का थाऔर मार्क्स इसके पहले विज्ञान की वर्ग सापेक्षता को सिद्ध कर चुके हैं,ऐसे में सापेक्षता सिद्धांत दरअसल मार्क्स की वर्ग-सापेक्ष सैद्धांतिक अवधारणा की वैज्ञानिक पुष्टि की तरह ही सामने आता है और 20 वीं सदी की क्रांतिकारी परिस्थितियों में नये ज्ञानशास्त्र के निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण सैद्धांतिक आधार देता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्राकृतिक विज्ञान और समाज एवं सामाजिक परिस्थितियों के बीच अंतर्संबंधों को लगातार नज़रअंदाज़ किया गया है और चीजों को उनकी सम्पूर्णता में देखने के बजाय बंद दायरों में ही देखने की कोशिशें हुई हैं। स्वाभाविक है कि इसके पीछे भी सत्ता संबंधों की अपनी संरचना है,जिसके अन्तर्गत पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष का सच ही सार्वभौमिक बना दिया जाता है। आज जब हम ‘फेमिनिस्ट साइंस’की बात कर रहे हैं तो इसका तात्पर्य पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना से गुंथे इस विज्ञान के बरक्स एक ऐसे वैकल्पिक विज्ञान का ख़ाक़ा ख़ींचना है,जो विभिन्न सत्ता संरचनाओं के तहत निर्मित भेदभावपूर्ण ज्ञानात्मक संबंधों से मुक्त हो। मानव समाज और प्रकृति की अंतर्क्रिया के संदर्भ में आधुनिक विज्ञान कितने खरे उतरे हैं,इस बात की आलोचनात्मक पड़ताल आज महत्वपूर्ण है। साथ ही मानवीय या सांस्कृतिक-सामाजिक सरोकारों से विज्ञान की निर्लिप्तता के चलते सामाजिकता और वैज्ञानिकता के बीच भौतिक-सांस्कृतिक अंतर्संबंधों की पड़ताल आज वर्तमान विज्ञान की मूल समस्या और उसका मुख्य कार्यभार है। फेमिनिस्ट साइंस इसी दिशा में एक प्रयास है।


संदर्भ सूची 


1. .Keller,Evelyn Fox.(1985). Reflections on Gender and Science. New Haven and London: Yale          University Press. P-3.
 2.Harding,Sandra.(1986). Science Question in Feminism. Ithaca and London: Cornell University      Press. P-135.
 3.सिन्हा, रवि. (2001, अक्तूबर-दिसंबर). आधुनिकता और आधुनिकताएं. संधान. (लाल बहादुर वर्मा,          सुभाष गाताड़े सं.) अंक-3. पृ.15.
 4. वही, पृ.16. 
 5. कोसंबी, डी.डी. (2004, फरवरी). विज्ञान, समाज और स्वतंत्रता. (पंकज बिष्ट, अनु). समयान्तर. पृ.18 
  6.  वही,
  7.   Keller,Evelyn Fox.(1985). Reflections on Gender and Science. New Haven and London: Yale             University Press. P-92.
  8.  चूंकि कोई भी सिद्धांत या दर्शन अपने देश-काल की सीमाओं से परे नहीं हो सकता, अतः मार्क्सवाद        भी  उसका अपवाद नहीं हैं। मार्क्सवाद की सीमा दरअसल उस स्थान-काल की सीमा है, जब यह              पैदा हो रहा है। स्त्री या अन्य उत्पीड़ित समुदायों के दृष्टिकोण से दुनिया तब तक नहीं देखी जा                 सकती थी जब तक संरचनावाद और उसके अगले चरण के रूप में उत्तर संरचनावाद का अविर्भाव            ना होता।
   9.   सिन्हा, रवि. (2001, अक्तूबर-दिसंबर). आधुनिकता और आधुनिकताएं. संधान. (लाल बहादुर वर्मा,          सुभाष गाताड़े सं.) अंक-3. पृ.9 
   10. कौत्सायन, रविंद्र.(2001, अक्तूबर-दिसंबर). आधुनिकता: प्रबोधन की अपरिपक्वता. संधान. (लाल          बहादुर वर्मा एवं सुभाष गाताड़े सं.) अंक-3. पृ.182.
   11.  वही.
   12.  वही, पृ.183. 
   13. Keller,Evelyn Fox.(1985). Reflections on Gender and Science. New Haven and London:                 Yale University Press. P-79.
  14. वही,
  15.   सिन्हा, रवि. (2001, अक्तूबर-दिसंबर). आधुनिकता और आधुनिकताएं. संधान. (लाल बहादुर                       वर्मा, सुभाष गाताड़े सं.) अंक-3. पृ.10 
  16.  हॉब्सबॉम, एरिक (2009). अतिरेकों का युग. मेरठ: संवाद प्रकाशन. पृ.373
  17. बोर ने ‘संपूरकता सिद्धांत’ के अन्तर्गत बताया कि प्रकृति की समग्रता की व्याख्या एकमात्र विवरण                 से  अभिव्यक्त करने का कोई मार्ग नहीं है क्योंकि मनुष्य अलग-अलग भाषाओं में बोलता है। एक ही                प्रत्यक्षतः सम्पूर्ण प्रादर्श संभव नहीं है। यथार्थ को पकड़ने का एकमात्र तरीका यह है कि विवरण                        भिन्न-भिन्न तरीकों से दिया जाए और उन्हें एक-दूसरे के पूरक के रूप में एक स्थान पर रख कर देखा                जाए।
 18. कौत्सायन, रविंद्र.(2001, अक्तूबर-दिसंबर). आधुनिकता: प्रबोधन की अपरिपक्वता. संधान. (लाल                बहादुर वर्मा एवं सुभाष गाताड़े सं.) अंक-3. पृ.84.

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